खून का विकल्प

डॉ. सुशील जोशी

चोट लगने पर यदि बहुत खून बह जाए तो व्यक्ति के शरीर को ज़रूरी ऑक्सीजन (oxygen) व पोषण मिलने में दिक्कत आती है। और खून (blood) मिलना हर जगह आसान नहीं होता। ऐसे में कई बार खतरे की स्थिति बन जाती है। एक समय था जब बहुत अधिक रक्तस्राव तो जैसे मौत का ऐलान ही होता था। रक्ताधान (blood transfusion) किया जाता था लेकिन यह धुर में लट्ठ जैसा होता था। रक्त समूहों (blood groups) के बारे में कोई भनक तक नहीं थी। यदि गलत समूह का खून चढ़ जाए तो जानलेवा हो सकता था। आज भी खून बह जाने की वजह से दुनिया भर में हर साल करीब 20 लाख लोग जान से हाथ धो बैठते हैं। दान दिए गए खून की शेल्फ लाइफ (shelf life) मात्र 42 दिन होती है और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध भी नहीं होता। इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए खून के विकल्पों (blood substitutes) की खोज कम से कम दो सदियों से चल रही है। और एक उपयुक्त विकल्प की ज़रूरत आज भी बरकरार है। पिछले वर्ष बाल्टीमोर की एक प्रयोगशाला में एक सफेद खरगोश ने आशा की किरण दिखाई है। 

इस खरगोश के शरीर से कुछ खून निकाल दिया गया था और फिर एक कैथेटर (catheter) के माध्यम से एक रक्त-विकल्प उसकी कैरोटिड धमनी में पहुंचाया जा रहा था। इस कृत्रिम रक्त-विकल्प का नाम है एरिथ्रोमर (ErythroMer)। इसका विकास मैरीलैंड विश्वविद्यालय स्कूल ऑफ मेडिसिन (University of Maryland School of Medicine) के चिकित्सक-शोधकर्ता एलन डॉक्टर द्वारा किया गया है। एरिथ्रोमर को ‘पुनर्चक्रित’ मानव हीमोग्लोबीन (recycled human hemoglobin) से बनाया गया है। हीमोग्लोबीन लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में पाया जाने वाला वह प्रोटीन होता है जो ऑक्सीजन को फेफड़ों से लेकर पूरे शरीर में पहुंचाता है। इस ‘पुनर्चक्रित’ हीमोग्लोबिन को एक झिल्ली के आवरण में लपेटकर एक कोशिका का रूप दिया गया है। प्रयोग में लग रहा था कि रक्ताधान (सही मायनों में एरिथ्रोमराधान) काम कर रहा है। खरगोश की हृदय गति, रक्तचाप (blood pressure) वगैरह ठीक-ठाक ही लग रहे थे। 

एरिथ्रोमर व उससे पहले विकसित किए गए ऐसे पदार्थों को हीमोग्लोबिनाइज़्ड ऑक्सीजन वाहक (Hemoglobinized Oxygen Carrier – HBOC) कहते हैं। इन्हें कृत्रिम खून (artificial blood) भी कह सकते हैं। ऐसे विकल्प खास तौर से ऐसे मामलों में उपयोगी होंगे जहां ताज़ा खून मिलना मुश्किल होता है – जैसे युद्धक्षेत्र में या देहातों में। 

एरिथ्रोमर तत्काल देकर अस्पताल (hospital) पहुंचने तक मरीज़ को ऑक्सीजन मिलती रह सकती है। यह फ्रीज़ करके सुखाया गया पावडर होता है जिसे वर्षों तक इस्तेमाल किया जा सकता है। मरीज़ को देते समय इसे सैलाइन (saline) में घोलकर तैयार किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसके उपयोग में रक्त समूह (blood group) जैसी कोई अड़चन नहीं होगी क्योंकि इसकी झिल्ली पर कोई सतही प्रोटीन नहीं होते जो रक्त समूह का निर्धारण करते हैं। 

वैसे तो ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) लाल रक्त कोशिकाओं का विकल्प (alternative) विकसित करने के प्रयास दशकों से चल रहे हैं। इस संदर्भ में लग रहा है कि एरिथ्रोमर शायद प्राकृतिक लाल रक्त कोशिकाओं की तुलना में ज़्यादा टिकाऊ और लचीला होगा। हालांकि, एरिथ्रोमर अभी जंतु-परीक्षण (animal trials) के चरण में ही है लेकिन यह एकमात्र ऐसा प्रयास है जिसमें हीमोग्लोबिन को एक झिल्ली में कैद करके वास्तविक खून का रूप देने की कोशिश की गई है। दूसरी ओर, जापान में एक प्रतिस्पर्धी उत्पाद (competitive product) का परीक्षण मनुष्यों (human trials) में किया जा चुका है और वह सुरक्षित ही लग रहा है। 

मात्र 2 दशक पहले पूर्ववर्ती HBOC संस्करणों को एक तरफ रख दिया गया था क्योंकि परीक्षण में शामिल व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी। इसके बाद किए गए अन्य प्रयासों के परिणाम भी बहुत बेहतर नहीं रहे थे। आज तक के सबसे उन्नत HBOC वे रहे हैं जिन्हें दक्षिण अफ्रीका और रूस में मंज़ूरी मिली थी लेकिन उनमें भी साइड इफेक्ट (side effects) के मुद्दे थे। 

खून की अनुकृति (blood replica) बनाने में मुश्किलात के कई कारण हैं। अव्वल तो खून स्वतंत्र अणुओं (molecules) और कोशिकाओं का एक जटिल मिश्रण (complex mixture) होता है। खून में आधा हिस्सा तो प्लाज़्मा (plasma) होता है, जो पानी, प्रोटीन्स (proteins) और लवणों से बना एक हल्का पीला तरल (fluid) होता है। शेष रक्त कोशिकाओं से बना होता है। इनमें मुख्यत: प्लेटलेट्स (platelets), सफेद रक्त कोशिकाएं (white blood cells) और लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) होती हैं। प्लेटलेट्स किसी घाव या खरोंच के स्थान पर खून का थक्का बनाने में भूमिका निभाते हैं और सफेद रक्त कोशिकाएं संक्रमणों (infections) के विरुद्ध लड़ने में कारगर होती हैं। 

लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में हीमोग्लोबिन होता है जो ऑक्सीजन का परिवहन करता है। शरीर में सर्वाधिक संख्या लाल रक्त कोशिकाएं की ही होती है। आम तौर पर ये बीच में पिचकी हुई डिस्क (disc-shaped) के आकार की होती हैं। अस्थि मज्जा (bone marrow) में इनका निरंतर उत्पादन होता है – लगभग 20 लाख कोशिका प्रति सेकंड। किसी भी समय खून में करीब 30 खरब लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) रक्त वाहिनियों (blood vessels) में दौड़ती रहती हैं। इन रक्त वाहिनियों की कुल लंबाई 20,000 कि.मी. (kilometers) तक हो सकती है। 

वास्तविक चुनौती यह है कि लाल रक्त कोशिकाओं की ऑक्सीजन परिवहन क्षमता (oxygen transport capacity) की नकल तैयार की जाए। लाल रक्त कोशिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन (hemoglobin) नामक प्रोटीन (protein) का अणु यह काम करता है। एक-एक रक्त कोशिका में हीमोग्लोबिन के 26 करोड़ अणु (molecules) पाए जाते हैं। इसके प्रत्येक अणु में हीम के घटकों के केंद्र में एक लौह परमाणु (iron atom) होता है। यही हीम संकुल ऑक्सीजन (oxygen) को पकड़ता है। 

शुरुआत में रक्त विकल्पों के निर्माण में कोशिश यह की गई थी कि हीमोग्लोबिन के स्थान पर एक अन्य ऑक्सीजन वाहक परफ्लोरोकार्बन (Perfluorocarbon) अणु को रखा जाए। इसका उपयोग रेफ्रिजरेंट्स (refrigerants) और अग्नि-शामकों में बहुतायत में किया जाता था। 1989 में ऐसे एक विकल्प को तो यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन (U.S. Food and Drug Administration – FDA) ने शल्य क्रियाओं (surgery) के दौरान उपयोग की मंज़ूरी भी दे दी थी। लेकिन कतिपय कारणों से इसे वापिस ले लिया गया। 

तो बच गए HBOC। लाल रक्त कोशिका (red blood cell) के अंदर हीमोग्लोबिन प्रोटीन्स (proteins) चार-चार के समूहों में जुड़े रहते हैं। शुरुआती HBOC में कोशिश यह थी कि इस चौकड़ी संरचना (tetramer structure) की नकल की जाए और झिल्ली को छोड़ दिया जाए। 

लेकिन हीमोग्लोबिन (hemoglobin) अजीब अणु होता है – ऊतकों और रक्त वाहिनियों (blood vessels) के लिए विषैला (toxic) होता है। एक कारण तो यह है कि हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन (oxygen) लेकर चलता है जो गलत जगह पहुंच जाए तो घातक हो सकती है। लिहाज़ा हीमोग्लोबिन को रक्त प्रवाह (bloodstream) में छुट्टा नहीं छोड़ा जा सकता। पिछली सदी में जिन मरीज़ों को आवरणरहित हीमोग्लोबिन (unencapsulated hemoglobin) से बने रक्त-विकल्प (blood substitute) दिए गए थे, उनमें उच्च रक्तचाप (high blood pressure), उच्च चयापचय दर (high metabolism rate) और तेज़ नब्ज़ (rapid pulse) जैसे असर देखे गए हैं। कुछ मामलों में हार्ट अटैक (heart attack) और गुर्दा नाकामी (kidney failure) जैसे दुष्प्रभाव (side effects) भी प्रकट हुए। माना जाता है कि ऐसा रक्त वाहिनियों के सिकुड़ने (vasoconstriction) की वजह से हुआ था जो स्वतंत्र हीमोग्लोबिन (free hemoglobin) ने पैदा किया था। 

आवरण रहित HBOC का सबसे सफल उदाहरण हीमोप्योर (Hemopure) रहा है। 1990 के दशक में इसे गाय से प्राप्त लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) की मदद से तैयार किया गया था। पहले इन कोशिकाओं में से हीमोग्लोबिन (hemoglobin) निकाला जाता था और उसे रोगजनकों (pathogens) से मुक्त किया जाता था। फिर चार-चार हीमोग्लोबिन की चौकड़ियां बनाई जाती थीं। इसका अधिकांश उपयोग ऑपरेशन उपरांत एनीमिया (anemia) के उपचार हेतु किया गया था। 

लेकिन 2008 में जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (Journal of the American Medical Association – JAMA) में प्रकाशित एक मेटा-विश्लेषण का निष्कर्ष था कि ये सारे HBOC निहित रूप से हृदय (heart) के लिए विषैले (toxic) थे और इनसे उपचारित मरीज़ों की मृत्यु दर (mortality rate) सामान्य रक्ताधान (blood transfusion) प्राप्त करने वाले मरीज़ों से 30 प्रतिशत ज़्यादा थी। इस विश्लेषण के प्रकाशन के बाद सारे परीक्षण (trials) बंद कर दिए गए। 

हालांकि नया रक्त विकल्प एरिथ्रोमर जंतु-परीक्षण के दौर में ही है लेकिन डॉक्टर को यकीन है कि यह शुद्ध हीमोग्लोबिन उत्पादों के विषैलेपन की समस्या से निपट पाएगा और प्रकृति की बेहतर अनुकृति (better replica) साबित होगा क्योंकि इसमें हीमोग्लोबिन को ठीक उस तरह आवरण में बंद किया गया है जैसा लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में होता है। 

वैसे डॉक्टर रक्त का विकल्प (blood substitute) बनाने के लिए काम कर भी नहीं रहे थे। वे तो हीमोग्लोबिन (hemoglobin) और नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) नामक गैस के परस्पर सम्बंध (interaction) का अध्ययन कर रहे थे। नाइट्रिक ऑक्साइड वह गैस है जो रक्त वाहिनियों (blood vessels) का अस्तर खून में छोड़ता रहता है। नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) की उपस्थिति में रक्त वाहिनियां फैल (dilate) जाती हैं और इसकी अनुपस्थिति में सिकुड़ (constrict) जाती हैं। और महत्वपूर्ण बात यह है कि लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) इस गैस के स्तर (levels) को नियंत्रित करती हैं क्योंकि ऑक्सीजन (oxygen) के समान नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) भी हीमोग्लोबिन (hemoglobin) से जुड़ सकती हैं। लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) और आसपास के ऊतकों (tissues) के बीच ऑक्सीजन (oxygen) के लेन-देन के आधार पर कोशिकाएं नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) को ग्रहण कर सकती हैं या बाहर कर सकती हैं। 

अब यदि कोई व्यक्ति ज़ोरदार कसरत कर रहा हो, तो पहले तो उसकी मांसपेशियों में ऑक्सीजन की खपत बढ़ती है। वहां ऊतकों की बढ़ी हुई सक्रियता का निर्वाह करने के लिए रक्त प्रवाह बढ़ता है और सक्रियता कम हो जाने पर रक्त प्रवाह सामान्य हो जाता है। जब लाल रक्त कोशिकाएं सक्रिय मांसपेशियों को ऑक्सीजन की आपूर्ति करती हैं, तब वे नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) भी छोड़ती हैं। यह छोड़ी गई नाइट्रिक ऑक्साइड उस क्षेत्र की रक्त वाहिनियों को फैला देती है जिससे उस क्षेत्र में रक्त प्रवाह (blood flow) बढ़ जाता है। कसरत पूरी हो जाने पर लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) भारी मात्रा में ऑक्सीजन (oxygen) मुक्त करना बंद कर देती हैं। इसके चलते नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) वापिस कोशिकाओं में पहुंचकर हीमोग्लोबिन (hemoglobin) से जुड़ने लगती है और रक्त वाहिनियां सिकुड़ जाती हैं। 

मुक्त हीमोग्लोबिन (free hemoglobin) से बने रक्त-विकल्प विषैले (toxic) हो सकते हैं। इसलिए कुछ वैज्ञानिक इस ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) को एक झिल्ली (membrane) में कैद कर रहे हैं, किसी लघु कोशिका (microcell) के समान। एरिथ्रोमर की झिल्ली को इस तरह बनाया गया है कि वह रक्त वाहिनियों (blood vessels) में सुगमता से बह सके और हीमोग्लोबिन (hemoglobin) नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) को न जकड़ सके। नाइट्रिक ऑक्साइड ही तो वाहिनियों को खुला रखती है। 

लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) के समान ही एरिथ्रोमर भी हीमोग्लोबिन (hemoglobin) और ऑक्सीजन के बीच स्नेह के नियमन (affinity regulation) हेतु 2,3-DPG (2,3-Diphosphoglycerate) नामक एक अणु का उपयोग करता है। फेफड़ों (lungs) में 2,3-DPG का अणु एक संश्लेषित अम्लीयता संवेदी अणु (synthesized acidity sensor molecule) KC1003 से जुड़ जाता है। यह अणु एरिथ्रोमर की झिल्ली (membrane) में होता है। इनके बीच बने बंधन (bond) का परिणाम होता है कि हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन को पकड़ने में सक्षम हो जाता है। जब यह ऊतकों में पहुंचता है तो वहां पर्यावरण ज़्यादा अम्लीय (acidic) होता है। इस स्थिति में 2,3-DPG मुक्त (released) हो जाता है और हीमोग्लोबिन से जुड़ जाता है जिसकी वजह से ऑक्सीजन (oxygen) मुक्त होने लगती है। 

सच तो यह है कि कोई भी कृत्रिम उत्पाद (artificial product) रक्त (blood) का स्थान नहीं ले सकता। ये थोड़े समय के लिए मरीज़ की मदद कर सकते हैं; अंतत: तो व्यक्ति की अस्थि मज्जा (bone marrow) को अपना काम शुरू करना होगा। बहरहाल, आज हम इतना तो जानते हैं कि इन उत्पादों के साइड प्रभावों (side effects) को संभाल सकें।(स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://anest.ufl.edu/files/2018/05/hemopure-bloodbag.jpg

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