क्रेफिश (झिंगा मछली) के नाम में मछली है लेकिन ये जंतु मछली नहीं होते बल्कि केंकड़े, लॉबस्टर वगैरह जैसे क्रस्टेशियन वर्ग के जंतु हैं। क्रेफिश की लगभग 700 प्रजातियां ज्ञात हैं। ये भूमिगत बिलों में रहते हैं और सिर्फ रात के अंधेरे में ही ज़मीन पर आते हैं। लेकिन इनके रंग चटख होते हैं – गहरे नीले, नारंगी, बैंगनी-जामुनी और लाल। जैव विकास की दृष्टि से यह एक पहेली रही है। अंधेरे में जब इन रंगों को कोई देख नहीं सकता तो इनका विकास ही क्यों हुआ?
हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित शोध पत्र में वेस्ट लिबर्टी युनिवर्सिटी के पारिस्थितिकीविद ज़ेकरी ग्राहम और उनके सहयोगियों ने इस संदर्भ में एक परिकल्पना सुझाई है। उनकी परिकल्पना है कि इन भूमिगत क्रेफिशों की रंग-बिरंगी छटाएं किसी खास मकसद से विकसित नहीं हुई हैं, बल्कि ये महज संयोग का परिणाम हैं।
वैकासिक जीव वैज्ञानिक आम तौर पर मानते हैं कि चटख रंगों वाले जंतुओं का विकास किसी कारण से होता है। जैसे पक्षी अपने रंगों से अपनी फिटनेस का प्रदर्शन करते हैं, जबकि कुछ ज़हरीले मेंढक शिकारियों को दूर रखने के लिए चमकीले रंगों और पैटर्न का सहारा लेते हैं।
ग्राहम की टीम यही समझने को उत्सुक थी कि क्या यह बात क्रेफिश पर लागू होती है। कुछ क्रेफिश तो अधिकांश समय नदियों के खुले पानी में मटरगश्ती करते बिताते हैं जबकि कुछ हैं जो कीचड़ में बिल बनाकर रहते हैं और रात में बाहर निकलते हैं। तो क्या उनकी आवास की पसंद ने उनके रंगों को संजोया होगा?
शोधकर्ताओं ने दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, युरोप और उत्तरी अमेरिका की 400 क्रेफिश प्रजातियों के मौजूदा आंकड़े देखे और इन्हें रंग व प्राकृतवास के आधार पर वर्गीकृत किया। फिर उन्होंने यह देखा कि वर्तमान प्रजातियां और उनके पूर्वज किसी तरह परस्पर सम्बंधित हैं – यानी उनका एक वंशवृक्ष तैयार किया।
पता चला कि नीले, नारंगी, जामुनी और लाल चटख रंगत वाले क्रेफिश तो भूमिगत बिलों के वासी हैं जबकि पानी में रहने वाले क्रेफिश प्राय: भूरे, कत्थई और अन्य फीके रंगों के थे। तो बिल में रहने वाले क्रेफिश में ऐसे रंग क्यों विकसित हुए होंगे जबकि उन्हें अंधेरे में बसर करना है – रंगों के दम पर वे न तो साथियों को आकर्षित कर सकते हैं और शिकारियों से तो वे अपने बिलों में महफूज़ ही हैं।
क्या यह संभव है कि इनके पूर्वजों में बेतरतीब ढंग से यह रंगीनियत पैदा हो गई थी और फिर इसे बदलने का कोई कारण न रहा हो। एक तथ्य यह है कि भूमिगत क्रेफिश अपने बिलों में ही अपने सम्बंधियों के साथ प्रजनन करते हैं। इसका मतलब यह होगा उनमें कोई लक्षण कई पीढ़ियों तक बरकरार रहेगा।
शोध के दौरान एक रोचक तथ्य यह सामने आया कि पिछले 26 करोड़ वर्षों में क्रेफिश के चटख रंगों का विकास 50 मर्तबा स्वतंत्र रूप से हुआ है। इसका मतलब है कि कई फीके रंग वाले क्रेफिश में किसी समय नीला या नारंगी या लाल होने की क्षमता पैदा हो गई होगी। ग्राहम का कहना है कि हर मौजूदा लक्षण अनुकूलनकारी हो, यह ज़रूरी नहीं है। कई लक्षण उपस्थित रहते हैं जबकि उनका कोई ज़ाहिर उपयोग नहीं होता। यह भी संभव है कि कई लक्षण सिर्फ इसलिए बन जाते है और बने रहते हैं कि उनकी वजह से जंतु को कोई नुकसान भी नहीं होता। जब कोई दीदावर नहीं है तो क्या फर्क पड़ता है आप कैसी पोशाक पहने हैं। कहने का मतलब कि भूमिगत क्रेफिशों में रंगों पर कोई चयनात्मक दबाव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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