भारत में हाथियों की आबादी करीब 25-30 हज़ार बची है। नतीजतन, इन्हें ‘लुप्तप्राय’ श्रेणि में रखा गया है। अनुमान है कि पहले हाथी जितने बड़े क्षेत्र में फैले हुए थे, उसकी तुलना में आज ये उसके मात्र 3.5 प्रतिशत क्षेत्र में सिमट गए हैं – अब ये हिमालय की तलहटी, पूर्वोत्तर भारत, मध्य भारत के कुछ जंगलों और पश्चिमी एवं पूर्वी घाट के पहाड़ी जंगलों तक ही सीमित हैं।
विशेष चिंता का विषय उनके प्राकृतवास का छोटे-छोटे क्षेत्रों में बंट जाना है: हाथियों को भोजन एवं आश्रय देने वाले वन मनुष्यों द्वारा विकसित भू-क्षेत्रों (रेलमार्ग, सड़कमार्ग, गांव-शहर वगैरह बनने) की वजह से खंडित होकर छोटे-छोटे वन क्षेत्र रह गए हैं। इस विखंडन से हाथियों के प्रजनन विकल्प भी सीमित हो सकते हैं। इससे आनुवंशिक अड़चनें पैदा होती हैं और आगे जाकर झुंड की फिटनेस में कमी आती है।
हाथियों का अपने आवास क्षेत्र में लगातार आवागमन उन्हें सड़कों और रेलवे लाइनों के संपर्क में लाता है। दरअसल, एक हथिनी के आवास क्षेत्र का दायरा लगभग 500 वर्ग किलोमीटर होता है, और टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे अपने आवास में इतनी दूरी तय करते हुए उसकी सड़क या रेलवे लाइन से गुज़रने की संभावना (और इसके चलते दुर्घटना की संभावना) बहुत बढ़ जाती है।
सौभाग्य से, सभी हाथी-मार्गों (जिन रास्तों से वे आवागमन करते हैं) पर इस तरह के खतरे नहीं हैं। बांदीपुर, मुदुमलाई और वायनाड के हाथी गर्मियों में मौसमी प्रवास पर जाते हैं। वे पानी और हरी घास के लिए काबिनी बांध के बैकवाटर की ओर जाते हैं। अध्ययनों से पता चला है कि तमिलनाडु और केरल के बीच हाथियों के 18 प्रवास-मार्ग मौजूद हैं।
इस समस्या का एक समाधान वन्यजीव गलियारे हैं – ये गलियारे मनुष्यों के साथ कम से कम संपर्क के साथ जानवरों को प्रवास करने का रास्ता देते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण उत्तराखंड का मोतीचूर-चिल्ला गलियारा है, जो कॉर्बेट और राजाजी राष्ट्रीय उद्यानों के बीच हाथियों के आने-जाने (और इस तरह जीन के प्रवाह) को सुगम बनाता है। हालांकि, मनुष्यों के साथ संघर्ष का खतरा तो हमेशा बना रहता है – हाथी कभी-कभी फसलों को खा जाते हैं, या सड़कों और रेल पटरियों पर आ जाते हैं।
ट्रेन की रफ्तार
कनाडा में हुई एक पहल ने पशु-ट्रेन टकराव को कम करने का प्रयास किया है – इस प्रयास में ट्रेन के आने की चेतावनी देने के लिए पटरियों के किनारे विभिन्न स्थानों पर जल-बुझ लाइट्स और घंटियां लगाई गई थीं। ये लाइट्स और घंटियां ट्रेन के आने के 30 सेकंड पहले चालू हो जाती थीं – इन संकेतों का उद्देश्य जानवरों में इन चेतावनियों और ट्रेन आने के बीच सम्बंध बैठाना था।
चेतावनी प्रणाली युक्त और चेतावनी प्रणाली रहित सीधी और घुमावदार दोनों तरह की पटरियों पर कैमरों ने ट्रेन आने के प्रति जानवरों की प्रतिक्रियाओं को रिकॉर्ड किया। देखा गया कि बड़े जानवर, जैसे हिरण परिवार के एल्क और धूसर भालू चेतावनी प्रणाली विहीन ट्रैक पर ट्रेन आने से लगभग 10 सेकंड पहले पटरियों से दूर चले जाते हैं, जबकि चेतावनी प्रणाली युक्त ट्रैक पर ट्रेन आने से लगभग 17 सेकंड पहले। (यह अध्ययन ट्रांसपोर्टेशन रिसर्च जर्नल में प्रकाशित हुआ है।)
घुमावदार ट्रैक पर आती ट्रेन के प्रति प्रतिक्रिया कम दिखी, संभवत: कम दृश्यता के कारण। ऐसी जगहों पर, जानवर ट्रेन की आहट का आवाज़ से पता लगाते हैं। अलबत्ता, ट्रेन आ रही है या नहीं इसकी टोह आवाज़ से मिलना ट्रेन की तेज़ रफ्तार जैसे कारकों से काफी प्रभावित होती है।
कृत्रिम बुद्धि (एआई) की मदद
हाथियों के आवास वाले जंगलों से गुज़रते समय इंजन चालक को कब ट्रेन की रफ्तार कम करनी चाहिए? भारतीय रेलवे के पास ऑप्टिकल फाइबर केबल का एक विशाल नेटवर्क है। ये केबल दूरसंचार और डैटा के आवागमन को संभव बनाते हैं, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से ट्रेन नियंत्रण के लिए संकेत भेजते हैं। हाल ही में शुरू की गई गजराज नामक प्रणाली में, इन ऑप्टिकल फाइबल केबल की लाइनों पर जियोफोनिक सेंसर लगाए गए हैं, जो हाथियों के भारी और ज़मीन को थरथरा देने वाले कदमों के कंपन को पकड़ सकते हैं।
एआई-आधारित प्रणाली इन सेंसर से प्राप्त डैटा का विश्लेषण करती है और प्रासंगिक जानकारियां निकालती है – जैसे आवागमन की आवृत्ति और कंपन की अवधि। यदि हाथी-जनित विशिष्ट कंपन का पता चलता है, तो उस क्षेत्र के इंजन ड्राइवरों को तुरंत अलर्ट भेजा जाता है, और ट्रेन की रफ्तार कम कर दी जाती है। ऐसी प्रणालियां फिलहाल उत्तर पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार क्षेत्र में लगाई गई हैं, जहां पूर्व में कई दुर्घटनाएं हुई हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sanctuarynaturefoundation.org/uploads/Article/1586787578209_railway-minister-urged-1920×599.jpg