एआई संचालित प्रयोगशाला की बड़ी उपलब्धि

क हालिया उपलब्धि में कृत्रिम बुद्धि (एआई) द्वारा प्रबंधित स्वचालित प्रयोगशालाओं की एक टीम ने ऐसे पदार्थ की खोज करने में सफलता प्राप्त की है जो अत्यंत कार्य-कुशलता से लेज़र उत्पन्न करता है। साइंस जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस विशिष्ट उपलब्धि से लगता है कि एआई संचालित प्रयोगशालाएं अनुसंधान के कुछ क्षेत्रों में मानव वैज्ञानिकों को पछाड़ सकती हैं, खासकर वे ऐसी खोज कर सकती हैं जो मनुष्यों की नज़रों से चूक गई हों।

दरअसल, नए अणु और सामग्री बनाने के पारंपरिक तरीके अक्सर धीमे और श्रम-साध्य होते हैं। शोधकर्ताओं को कई विधियों से और अभिक्रिया की कई स्थितियों में प्रयोग करना पड़ता है, प्रत्येक चरण में नए यौगिकों के साथ वही परीक्षण दोहराना पड़ता है और बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए उनकी क्षमता का मूल्यांकन करना होता है।

पिछले दशक से इनमें से कई तरह की अभिक्रियाओं को दोहराने का काम रोबोट्स ने संभाल लिया है। मसलन 2015 में, इलिनॉय युनिवर्सिटी के रसायनज्ञ मार्टिन बर्क द्वारा छोटे अणुओं के संश्लेषण के लिए एक स्वचालित प्रणाली शुरू की गई थी। इस प्रणाली में एआई को शामिल करने से फीडबैक लूप तैयार किया जा सका जिससे नई विशेषता वाले यौगिकों का डैटा भविष्य के संश्लेषण प्रयासों का मार्गदर्शन कर सकता है।

इस आधार पर, बर्क और टोरंटो विश्वविद्यालय के रसायनज्ञ एलन असपुरु-गुज़िक ने समन्वित रूप से काम करने वाली स्व-चालित प्रयोगशालाओं के नेटवर्क की कल्पना की। उन्होंने कई प्रयोगशालाओं – दक्षिण कोरिया के इंस्टीट्यूट फॉर बेसिक साइंस, ग्लासगो विश्वविद्यालय, ब्रिटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी (यूबीसी) और जापान की क्यूशू युनिवर्सिटी की प्रयोगशाला – को जोड़ा। प्रत्येक प्रयोगशाला की संश्लेषण की प्रक्रिया में अपनी विशेषज्ञता थी। लक्ष्य था अत्यधिक शुद्ध लेज़र प्रकाश उत्सर्जित करने में सक्षम कार्बनिक यौगिकों की खोज करना। इससे उन्नत किस्म के डिस्प्ले और दूरसंचार तंत्र स्थापित करने में मदद मिलेगी।

सबसे पहले ग्लासगो और यूबीसी प्रयोगशालाओं ने थोड़ी मात्रा में आधारभूत सामग्री का निर्माण किया। फिर इन्हें बर्क और असपुरु-गुज़िक की टीमों को भेजा गया, जहां रोबोट ने इन पदार्थों से विभिन्न संयोजन (मिश्रण) बनाए। इन संभावित उत्सर्जकों को टोरंटो प्रयोगशाला भेजा गया, जहां अन्य रोबोट ने उनके प्रकाश उत्सर्जक गुणों का मूल्यांकन किया। सबसे अच्छे प्रदर्शन करने वाले उत्सर्जकों को यूबीसी भेजा गया, जहां यह पता किया गया कि बड़े पैमाने पर उपयोग के लिए इन पदार्थों का संश्लेषण और शोधन कैसे किया जाएगा, और फिर इन्हें व्यावहारिक लेज़रों में परिवर्तित करने और उसके परीक्षण के लिए क्यूशू विश्वविद्यालय भेजा गया।

इस पूरी प्रक्रिया को क्लाउड-आधारित एआई प्लेटफॉर्म द्वारा संचालित किया गया था, जिसे मुख्य रूप से टोरंटो और दक्षिण कोरिया की टीमों द्वारा विकसित किया गया है। इस प्लेटफॉर्म ने प्रत्येक प्रयोग से सीखा और अगली पुनरावृत्तियों में फीडबैक को शामिल किया, जिससे एक कुशल और फुर्तीली शोध प्रक्रिया विकसित हुई।

इस सहयोगी प्रयास से 621 नए यौगिक तैयार हुए, जिनमें 21 ऐसे थे जो अत्याधुनिक लेज़र उत्सर्जकों से मेल खाते थे और एक तो ऐसा था जो किसी भी अन्य ज्ञात कार्बनिक पदार्थ की तुलना में अधिक कुशलता से नीले रंग की लेज़र रोशनी उत्सर्जित करता था।

गौरतलब है कि हाल ही में मिली सफलता एआई-संचालित प्रयोगशाला अनुसंधान में एकमात्र सफलता नहीं है। पिछले साल, मिलाद अबुलहसानी की प्रयोगशाला ने रिकॉर्ड-सेटिंग फोटोल्यूमिनेसेंस के साथ नैनोकणों का निर्माण किया  था।

एआई के क्षेत्र में भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए बर्क को उम्मीद है कि स्वचालन और एआई में प्रगति वैश्विक स्तर पर अधिक प्रयोगशालाओं को सहयोग करने में सक्षम बनाएगी। इस तरह की साझेदारी वैज्ञानिकों को ढर्रा कार्यों से मुक्त करेगी, ताकि वे अनुसंधान के अधिक जटिल और रचनात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कीटो आहार अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है

हाल ही में साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक अध्ययन ने तेज़ी से वज़न घटाने और चयापचय लाभों के लिए जाने-माने कीटोजेनिक आहार के छिपे हुए जोखिम को उजागर किया है। शोधकर्ताओं ने उच्च वसा और अत्यधिक कम कार्बोहाइड्रेट पर आधारित इस आहार से चूहों के अंगों में सेनेसेंट (वृद्ध) कोशिकाओं का संचय होते देखा है। सेनेसेंट कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं जो विभाजन करना बंद कर देती हैं लेकिन मरती भी नहीं। आम तौर पर हमारा प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें साफ कर देता है लेकिन उम्र बढ़ने के साथ प्रतिरक्षा तंत्र अपना काम भलीभांति नहीं कर पाता और जमा होने वाली सेनेसेंट कोशिकाएं ऊतक के कार्य को बाधित कर सकती हैं और विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं को भी जन्म दे सकती हैं।

वास्तव में, कीटोजेनिक आहार शरीर को कार्बोहाइड्रेट की बजाय वसा का उपयोग करने के लिए मजबूर करता है, जिससे कीटोन नामक अणु उत्पन्न होते हैं। आम तौर पर कीटो आहार लेने वाले लोग अपनी कैलोरी का 70 से 80 प्रतिशत वसा से और केवल 5 से 10 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट से प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत, एक औसत अमेरिकी के आहार में लगभग 36 प्रतिशत वसा और 46 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है।

वैसे तो यह आहार मूल रूप से 1920 के दशक में बच्चों में मिर्गी के इलाज के लिए विकसित किया गया था लेकिन यह वज़न तथा रक्त शर्करा के स्तर को कम करने और एथलेटिक प्रदर्शन को बढ़ाने की चाह रखने वालों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ है।

दरअसल, सैन एंटोनियो स्थित टेक्सास हेल्थ साइंस सेंटर के विकिरण कैंसर विशेषज्ञ डेविड गियस के नेतृत्व में शोधकर्ता यह जांच कर रहे थे कि कीटो आहार के कारण p53 प्रोटीन पर किस तरह के असर होते हैं। p53 प्रोटीन कैंसर से लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही यह कोशिकीय सेनेसेंस का नियमन भी करता है।

प्रयोगों के दौरान उन्होंने देखा कि उच्च वसा (जो कुल में से लगभग 90 प्रतिशत कैलोरी देता है) वाले कीटोजेनिक आहार से चूहों के दिल, गुर्दे, यकृत और मस्तिष्क में p53 और सेनेसेंट कोशिकाओं के अन्य संकेतकों का स्तर बढ़ा था। इसके विपरीत, आहार में वसा से केवल 17 प्रतिशत कैलोरी प्राप्त करने वाले चूहों के नियंत्रण समूह में ऐसी कोई वृद्धि नहीं देखी गई।

यह काफी दिलचस्प बात है कि जब चूहों को फिर से सामान्य आहार दिया गया तो सेनेसेंट कोशिकाएं लगभग गायब हो गई थीं। उच्च वसा वाला भोजन और नियमित भोजन निश्चित अंतराल पर बारी-बारी करने से भी ऐसी कोशिकाओं का निर्माण रुक गया। इससे स्पष्ट होता है कि कीटोजेनिक आहार से नियमित अंतराल पर ब्रेक लेने से इसके संभावित नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सकता है।

बहरहाल, अन्य विशेषज्ञ इस बात से सहमत नहीं हैं कि कीटोजेनिक आहार मनुष्यों के लिए भी हानिकारक है। उनका कहना है कि इन निष्कर्षों को पूरी तरह से समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है। सेनेसेंट कोशिकाओं के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव हो सकते हैं – वे घाव भरने में मदद करती हैं लेकिन अगर वे लंबे समय तक बनी रहती हैं तो सूजन पैदा कर सकती हैं और ऊतकों को क्षति भी पहुंचा सकती हैं। लिहाज़ा, आहार की सुरक्षा सम्बंधी निष्कर्ष निकालने से पहले मनुष्यों में इन कोशिकाओं के हानिकारक प्रभाव को प्रदर्शित करना ज़रूरी है।

वैसे, अध्ययन यह भी कहता है कि सभी कीटोजेनिक आहार एक जैसे नहीं होते। वसा और प्रोटीन स्रोतों में भिन्नता से इनके परिणाम अलग-अलग भी हो सकते हैं। ऐसे में यह कहना उचित नहीं है कि चूहों में देखे गए प्रभाव सभी कीटोजेनिक आहारों पर एक समान रूप से लागू होंगे।

बहरहाल, कीटोजेनिक आहार विभिन्न स्वास्थ्य लाभ तो प्रदान करता है लेकिन इस अध्ययन की मानें तो संतुलन और समय-समय पर इस आहार से ब्रेक लेकर सामान्य भोजन अपनाना समझदारी होगी। फिर भी इस संदर्भ में अधिक शोध आवश्यक है ताकि सुरक्षित और प्रभावी कीटोजेनिक आहार के लिए दिशानिर्देश तैयार किए जा सकें। तब तक, कीटोजेनिक आहार लेने वाले लोग प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए नियमित ब्रेक लेने पर विचार कर सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन हवाई यात्रा को मुश्किल बना रहा है

पिछले दिनों सिंगापुर एयरलाइंस की उड़ान के वायु विक्षोभ (टर्बुलेंस) की गिरफ्त में आने और 1800 मीटर तक गिरते चले जाने की घटना काफी चर्चा में रही। इसने हवाई यात्रियों में चिंता (और दहशत) भर दी। साथ ही, इसमें जलवायु परिवर्तन की भूमिका की संभावना होने की बात भी सामने आई है।

गौरतलब है कि हवाई जहाज़ों का विक्षोभ का सामना करना एक आम घटना है, जिसके कई कारण हो सकते हैं। हवाई अड्डों के नज़दीक तेज़ हवाएं टेकऑफ और लैंडिंग के दौरान विमानों को थरथरा सकती हैं। ऊंचाई पर, तूफानी बादलों के बीच या उनके नज़दीक से गुज़रते समय विमानों को विक्षोभ का सामना करना पड़ सकता है। इन स्थानों पर तेज़ी से ऊपर और नीचे जाती हवाएं अस्थिरता पैदा करती हैं। इसके अतिरिक्त, पर्वत शृंखलाओं के ऊपर से गुज़रने वाले विमानों को पहाड़ों से उठने वाली हवाएं ऊपर धकेल सकती हैं। इसके अलावा पूरी धरती के इर्द-गिर्द मंडराने वाली शक्तिशाली पवन धाराओं (जेट स्ट्रीम) के सिरों पर हवाई जहाज़ विक्षोभ में फंस सकते हैं।

हो सकता है कि सिंगापुर एयरलाइंस की उड़ान ने तूफान से सम्बंधित विक्षोभ का सामना किया हो या क्लियर-एयर विक्षोभ का सामना किया हो। क्लियर-एयर विक्षोभ बादलों के बाहर होता है और इसका पता लगाना भी कठिन होता है। रीडिंग युनिवर्सिटी के वायुमंडलीय शोधकर्ता पॉल विलियम्स का कहना है कि इस घटना के कारण का पता लगाने के लिए और अधिक जांच की आवश्यकता है।

वैसे पिछले कुछ समय से इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण विक्षोभ की घटनाएं अधिक होने के साथ गंभीर भी हो रही हैं। विलियम्स और उनके सहयोगियों के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन में 1979 और 2020 के बीच उत्तरी अटलांटिक पर क्लियर-एयर विक्षोभ में 55 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। वैश्विक स्तर पर भी इसी तरह की वृद्धि देखी गई है। इस वृद्धि का कारण जलवायु परिवर्तन के कारण जेट स्ट्रीम्स का प्रबल होना बताया जा रहा है।

भविष्य के अनुमान और भी चिंताजनक हैं। जलवायु मॉडलों के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जैसे-जैसे जलवायु गर्म होगी, गंभीर विक्षोभ की घटनाएं अधिक आम हो जाएंगी। साथ ही, गंभीर विक्षोभ की आवृत्ति भी दुगुनी हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप उड़ानों के दौरान असुविधा की स्थिति लगातार और लंबे समय तक हो सकती है। अलबत्ता, इसका मतलब यह नहीं है कि हवाई यात्राएं अधिक असुरक्षित हो जाएंगी।

वर्तमान में पायलट मौसम विशेषज्ञों से विक्षोभ अनुमान पता करते हैं और इस आधार पर सुरक्षित उड़ान मार्ग तय करते हैं। हवाई जहाज़ में उपस्थित रडार प्रणाली पानी की बूंदों का पता लगाकर तूफानी बादलों से बचने में मदद करती है, लेकिन ये प्रणालियां क्लियर-एयर में होने वाले विक्षोभ के संदर्भ में नाकाम रहती हैं।

लाइट डिटेक्शन एंड रेंजिग (LiDAR) नामक एक तकनीक कुछ हद तक इसका समाधान प्रदान कर सकती है जो रेडियो तरंगों की बजाय प्रकाश तरंगों का उपयोग करती है। LiDAR काफी दूर से साफ हवा में होने वाले विक्षोभ को भांप सकती है, जिससे पायलट हवाई जहाज़ को इन अदृश्य खतरों से बचाकर निकाल सकते हैं। हालांकि, इसकी उच्च लागत और उपकरणों का अधिक वज़न इसके व्यापक उपयोग में एक बाधा है।

बहरहाल, तब तक वायुयान चालक यात्रियों से आग्रह करते हैं कि सुरक्षा के लिए हमेशा सीटबेल्ट बांधे रखें। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु पर कार्रवाई के लिए रोल-प्ले

जैसे-जैसे जलवायु संकट गहराता जा रहा है, इस पर कार्रवाई के लिए प्रभावी तरीके खोजना उतना ही अर्जेंट होता जा रहा है। इस सम्बंध में एक आशाजनक साधन रोल-प्लेइंग गेम (आरपीजी) हो सकता है। ये गेम खिलाड़ियों को एक आभासी वातावरण में जटिल स्थितियों से निपटने का काम देता है जिससे उन्हें वास्तविक दुनिया पर खतरा पैदा किए बिना अपने उपायों के दीर्घकालिक प्रभावों को समझने में मदद मिलती है। इस सम्बंध में नेचर में सैम इलिंगवर्थ ने कुछ सुझाव प्रस्तुत किए हैं।

यथार्थ विश्व में निर्णय

यह बहुत ही दिलचस्प खेल है जिसमें आपको एक निर्णायक व्यक्ति की भूमिका में रखा जाता है। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि आप एक तटीय शहर के मेयर हैं, और आपको यह तय करना है कि भविष्य में बाढ़ से बचने के लिए समुद्र की दीवार कितनी ऊंची बनाई जाए। इस निर्णय में आपको बाढ़ के जोखिम और दीवार के निर्माण की लागत के बीच संतुलन बनाना है। और वह भी यह जाने बिना कि समुद्र का स्तर कितनी तेज़ी से बढ़ेगा। ऐसे जटिल निर्णय लेने वाले परिदृश्यों को इस तरह रोल-प्ले के माध्यम से प्रभावी ढंग से समझा जा सकता है।

खेल-खेल में सीखना

‘टेराफॉर्मिंग मार्स’ (यानी मंगल का पृथ्वीकरण) जैसे खेल खिलाड़ियों को नैतिक दुविधाओं से परिचित कराते हैं। मसलन  संसाधन खर्च की प्राथमिकता अंतरिक्ष औपनिवेशीकरण हो या पृथ्वी पर समस्याओं को हल करना। इसके हर सत्र में इस बात पर तीखी बहस होती है कि मंगल जैसे किसी ग्रह पर हरित स्थानों का निर्माण करना और रहने योग्य शहर बनाना बेहतर होगा या यहां पृथ्वी की समस्याओं को दुरुस्त करना।

इसी तरह, इलिंगवर्थ ने गेम शोधकर्ता पॉल वेक और जलवायु चैरिटी पॉसिबल के साथ मिलकर ताश का एक खेल बनाया था – कार्बन सिटी ज़ीरो। इसमें प्रत्येक खिलाड़ी पहला शून्य कार्बन शहर बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते थे। लेकिन इससे मिले फीड बैक से उन्हें समझ में आया कि प्रतिस्पर्धा वाला पहलू गलत संदेश देता है तो उन्होंने इसी खेल का नया संस्करण बनाया – ‘कार्बन सिटी ज़ीरो: वर्ल्ड एडिशन’। इसमें खिलाड़ी शून्य-कार्बन शहरों का निर्माण करने के लिए सहयोग करते हैं। यह खेल जलवायु संकट से निपटने में टीमवर्क की भूमिका को उजागर करता है।

मैजिक सर्किल की शक्ति

‘मैजिक सर्कल’ आधारित गेम्स में नियम लागू होते हैं। उदाहरण के लिए, ‘डे-ब्रेक’ नामक खेल में खिलाड़ी विश्व नेताओं की भूमिका निभाते हैं जो जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए मिलकर काम करते हैं। गेम में नियम लागू होते हैं जिनमें पर्यावरणीय लक्ष्य भी निर्धारित होते हैं और दंड का प्रावधान भी होता है। जैसे यदि उत्सर्जन कम नहीं किया जाता है तो दंड यह होता है कि वैश्विक तापमान बढ़ने लगता है और समुदायों पर संकट मंडराने लगता है।

लेकिन देखा गया है कि ऐसे खेल जिनमें एक तयशुदा प्रक्रिया हो और परिदृश्य भी सीमित हों, उनमें रचनात्मक समाधानों की गुंजाइश कम होती है। इस संदर्भ में, टेबल टॉप रोल प्ले खेल कहीं ज़्यादा लचीलापन और निजी अनुभव प्रदान करते हैं। खिलाड़ी गेम डिज़ाइनर के मार्गदर्शन में अपने पात्र और कहानी गढ़ते हैं। ‘डंजियन एंड ड्रैगन्स’ जैसे गेम खिलाड़ियों को अपने-अपने पात्र की पृष्ठभूमि कथा तैयार करने का मौका देते हैं, जो खेल के दौरान विकसित होती रहती है।

अध्ययनों से पता चलता है कि नियमित आरपीजी खिलाड़ी गैर-खिलाड़ियों की तुलना में अधिक समानुभूति प्रदर्शित करते हैं और अधिक समाज-हितैषी व्यवहार दर्शाते हैं। अधिक समानुभूति वाले लोग पर्यावरण-हितैषी निर्णयों पर अधिक ध्यान देते हैं, जैसे टिकाऊ उत्पादों का अधिक इस्तेमाल।

हालांकि, इस बात के स्पष्ट प्रमाण तो नहीं हैं कि आरपीजी का प्रत्यक्ष सम्बंध विशिष्ट पर्यावरणीय कार्रवाइयों से होता हैं लेकिन ऐसा लगता है कि समानुभूति को बढ़ावा देकर वे जलवायु कार्रवाई को प्रोत्साहित कर सकते हैं।

उपरोक्त संभावनाओं की प्रेरणा से ‘रूटेड इन क्राइसिस’ टेबलटॉप आरपीजी उभरा है जिसे शोधकर्ताओं, शिक्षकों और गेम डिज़ाइनरों की एक वैश्विक टीम ने विकसित किया है। इस गेम में जलवायु सम्बंधी प्रामाणिक जानकारी को कथा में गूंथा जाता है। जैसे, एक खेल में खिलाड़ियों को एक जादुई शहर में रखकर भयानक बाढ़ के बाद आपदा राहत पर बातचीत के लिए छोड़ दिया जाता है। या वे किसी आसन्न आपदा के साये में अंतरिक्ष में किसी स्थान की खोज करने जैसी विचित्र परिस्थिति का सामना करते हैं।

इस तरह के खेलों को अपनाने में कई दिक्कतें भी आती है। वैज्ञानिकों द्वारा समर्थित होने पर भी इन्हें अक्सर बचकाना माना जाता है। आलोचकों को यह भी चिंता है कि ऐसे खेल जटिल वैज्ञानिक डैटा और नीति सम्बंधी चर्चाओं का अतिसरलीकरण सकते हैं। इन चिंताओं को दूर करने के लिए, ‘रूटेड इन क्राइसिस’ में ऐसे परिदृश्य शामिल किए गए हैं जो वास्तविक दुनिया की जलवायु चुनौतियों को दर्शाते हैं। इसमें बढ़ते समुद्र स्तर पर शहर की प्रतिक्रिया का प्रबंधन करने, हितधारी समूहों का मुकाबला करने और सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पानी के लिए बातचीत करने जैसे विषय शामिल किए गए हैं।

जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों को संबोधित करने में खेलों की शक्ति कुछ लोगों के व्यक्तिगत अनुभवों से प्रमाणित हुई है। खेल अलग-अलग व्यक्तित्वों को अपनाने और विभिन्न स्थितियों में समानुभूति और समस्या-समाधान का अभ्यास करने के अवसर प्रदान करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों से नए खतरे – भारत डोगरा

कुछ वर्षों से कई देशों में जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छर यह कहकर रिलीज़ किए गए हैं कि इससे मच्छरों द्वारा फैलाई गई डेंगू जैसी बीमारियां की रोकथाम होती हैं। पर कई वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों ने इन प्रयासों की यह कहकर आलोचना की है कि प्राकृतिक जीवन-चक्र से किए जा रहे इस खिलवाड़ से ऐसी बीमारियां और विकट भी हो सकती हैं।
इस वर्ष के आरंभ में ब्राज़ील के संदर्भ में आलोचकों का पक्ष अधिक मज़बूत हो गया है। जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों को सबसे अधिक ब्राज़ील में ही छोड़ा गया था, और अब वर्ष 2024 के आरंभ में यहां डेंगू की बीमारी में बहुत तेज़ी से वृद्धि हुई। यहां तक कि कुछ स्थानों पर आपात स्थिति बन गई।
यहां यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि अनेक देशों में ऐसे परीक्षण पहले ही इनसे जुड़े तमाम खतरों के कारण काफी विवादास्पद रहे हैं। ये परीक्षण डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया जैसी मच्छर-वाहित बीमारियों के नियंत्रण के नाम पर किए जाते हैं, परंतु इस बारे में बार-बार चिंता प्रकट की गई है कि वास्तव में जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों को छोड़ने पर व इससे जुड़े प्रयोगों से कई बीमारियों की संभावनाएं बढ़ सकती हैं। ज़ीका के प्रकोप के संदर्भ में कुछ विशेषज्ञों ने यह चिंता व्यक्त की थी कि जिस तरह सेे जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों पर प्रयोग किए गए हैं, ऐसी गंभीर स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न करने में उन प्रयोगों की भूमिका हो सकती है।
भारत में सबसे पहले जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों के प्रयोग 1970 के दशक में जेनेटिक कंट्रोल ऑफ मास्कीटोस (मच्छरों के आनुवंशिक नियंत्रण) परियोजना में किए गए थे। उस समय मीडिया में व संसद में इसकी बहुत आलोचना हुई थी। आलोचना इससे जुड़े स्वास्थ्य सम्बंधी खतरों के कारण और उससे भी अधिक इस कारण हुई थी कि इससे विदेशी ताकतों को भारत पर जैविक हमलों के हथियार की तैयारी करने में सहायता मिल सकती है। इस आलोचना को भारतीय संसद की पब्लिक अकाउंट्स समिति की 167 वीं रिपोर्ट से भी बल मिला।
इस पृष्ठभूमि में यह उम्मीद थी कि भविष्य में इस तरह के प्रयोगों की अनुमति नहीं दी जाएगी पर कुछ समय पहले यह सिलसिला फिर आरंभ हो गया है।
इस बीच विश्व के कई देशों में किए गए ऐसे प्रयोगों की भरपूर आलोचना पहले ही हो चुकी है। ऐसे अनेक प्रयोग ब्रिटेन की ऑक्सीटेक कंपनी द्वारा किए गए हैं जिसकी इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका रही है। विभिन्न देशों में इस बारे में चिंता व्यक्त की गई है कि ऐसे प्रयोगों में पारदर्शिता नहीं बरती गई है व सही जानकारी को छुपाया गया है। जीन वाॅच, फ्रेण्ड्स ऑफ दी अर्थ जैसी विभिन्न संस्थाओं ने इस तरह की आलोचना कई बार की है। जीन वाॅच की निदेशक डॉ. हेलेन वैलेस ने इस सम्बंध में अपने अनुसंधान में बताया है कि जिन बीमारियों की रोकथाम की संभावना इस तकनीक द्वारा बताई जा रही है, वास्तव में इस तकनीक के उपयोग से इन बीमारियों की वृद्धि की संभावना है और बीमारी व स्वास्थ्य सम्बंधी समस्या पहले से अधिक गंभीर रूप में प्रकट हो सकती है।
भारत में वेक्टर कंट्रोल रिसर्च सेंटर के पूर्व निदेशक पी. के. राजगोपालन ने कुछ समय पहले इस विषय पर अपना विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया था कि इस तकनीक के संदर्भ में विश्व स्तर पर स्थिति क्या है। उनका स्पष्ट निष्कर्ष है कि इस तकनीक के द्वारा बीमारी नियंत्रण के जो दावे किए जा रहे हैं वे असरदार नहीं हैं तथा दूसरी ओर इस तकनीक के खतरे बहुत हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि मलेरिया की जांच से जुड़े जो ब्लड-सैंपल विदेश भेजे जा रहे हैं, वह भी उचित नहीं है।
इस सम्बंध में उपलब्ध विश्व स्तरीय जानकारी को देखते हुए भारत में जेनेटिक रूप से संवर्धित जीवों के प्रयोगों पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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कितना सेहतमंद है बोतलबंद पानी – सुदर्शन सोलंकी

पानी की गुणवत्ता का हमारे स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव पड़ता है। यदि पेय जल प्रदूषित हो तो यह ज़हर के समान हो जाता है। वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि ज़्यादातर जल स्रोत प्रदूषित हो गए हैं। समूचा विश्व जल संकट का सामना कर रहा है। ऐसे में सभी लोगों को शुद्ध व स्वच्छ पेयजल मिल पाना अपने आप में एक चुनौती हो गई है।
कुछ सालों पहले से बोतलबंद पानी दुनिया भर के बाज़ारों में बिकना शुरू हुआ। जिसे कंपनियों ने यह कहकर बेचना शुरू किया था कि यह स्वच्छ, शुद्ध और खनिज युक्त है। जिसे वास्तविकता मान कर लोग इसे धड़ल्ले से खरीदने लगे हैं। पर क्या वास्तव में बोतलबंद पानी खनिज युक्त होता है? और क्या यह हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है?
पहले तो यह स्पष्ट करते चलें कि बाज़ार में बिकने वाला हर बोतलबंद पानी मिनरल वॉटर नहीं होता है। मिनरल वॉटर वह पानी होता है जो ऐसे प्राकृतिक स्रोतों से भरा जाता है जहां के पानी में कई लाभदायक खनिज तत्व पाए जातेे हैं। यह स्वास्थ्यवर्धक लवणों, खनिजों से भरपूर और ऑक्सीजन युक्त होता है। जो स्वाद में अच्छा और स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है।
बाज़ार में उपलब्ध अधिकतर बोतलबंद पानी पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर होता है। पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर नल से आने वाला सामान्य पानी होता है जिसे फिल्टर से छान कर, रिवर्स ऑस्मोसिस, ओज़ोन ट्रीटमेंट आदि से साफ करके पैक कर दिया जाता है।
इसी प्रकार, लोगों में आरओ सिस्टम को लेकर भ्रांति है कि इससे नितांत शुद्ध व स्वच्छ जल मिलता है। किंतु वास्तव में आरओ सिस्टम से गुज़रा हुआ पानी भी सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है। कारण, क्योंकि आरओ सिस्टम में लगे फिल्टर कुछ दिनों बाद ही पानी को साधारण तरीके से फिल्टर करने लगते है।
बोतलबंद पानी को लेकर अमेरिका में हुई रिसर्च से पता चला है कि बोतलबंद पानी में प्लास्टिक के खतरनाक कण मिल रहे हैं। अमेरिकी संस्था नेचुरल रिसोर्सेज़ डिफेंस काउंसिल के अनुसार बोतल बनाने में एन्टिमनी का उपयोग किया जाता है। इस वजह से बोतलबंद पानी को अधिक समय तक रखने पर उसमें एन्टिमनी की मात्रा घुलती जाती है। इस रसायन युक्त पानी को पीने से कई तरह की बीमारियां होने लगती हैं।
स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क के वैज्ञानिकों ने दुनिया भर में बोतलबंद पानी पर शोध कर बताया है कि भारत सहित दुनिया भर में मिलने वाले बोतलबंद पानी में 93 फीसदी तक प्लास्टिक के महीन कण देखे गए हैं।
इसके अतिरिक्त जिन प्लास्टिक की बोतलों में मिनरल या फिल्टर वॉटर बिकता है वे पॉलीएथिलीन टेरीथेलेट (PET) की बनी होती हैं। जब तापमान अधिक होता है या गर्म पानी बोतल में भरा जाता है तो बोतल में डायऑक्सिन का रिसाव होता है, और यह पानी में घुलकर हमारे शरीर में पहुंच जाता है। इसके कारण महिलाओं में स्तन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
बोतलबंद पानी पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहा है। पैसिफिक इंस्टीटयूट के अनुसार अमेरिकी लोग जितना मिनरल वॉटर पीते हैं, उसे बनाने में 2 करोड़ बैरल पेट्रो उत्पाद खर्च किए जाते हैं। एक टन बोतलों के निर्माण में तीन टन कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन होता है। मिनरल वॉटर को बनाने के लिए दुगना पानी खर्च करना पड़ता है। अर्थात एक लीटर मिनरल वॉटर बनाने पर दो लीटर साफ पानी खर्च करना पड़ता है।
इसके अलावा बोतल का पानी तो हम पी जाते हैं, लेकिन बोतल कहीं भी फेंक देते हैं जो पर्यावरण को क्षति पहुंचाती है। इसके अतिरिक्त दुनिया भर में जहां भी इन कंपनियों ने अपने बॉटलिंग प्लांट लगाए हैं, वहां भूजल स्तर बहुत तेज़ी से नीचे चला गया और इसका खामियाजा उस इलाके में रहने वाले लोगों को उठाना पड़ता है।
स्पष्ट है कि शुद्ध और स्वच्छ जल के नाम पर बिकने वाला बोतलबंद पानी लोगों और पर्यावरण दोनों को नुकसान पहुंचा रहा है। साथ ही प्लास्टिक की बोतल के निर्माण के दौरान होने वाली अतिरिक्त जल की बर्बादी से भूजल स्तर में कमी हो रही हैै। पेयजल का कोई सुरक्षित विकल्प खोजना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आम फलों का राजा क्यों है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

देश में आम का मौसम जारी है, और इसी के साथ यह बहस भी कि आम की कौन सी किस्म सबसे बढ़िया है। हम तेलंगाना के लोगों का कहना है कि ‘बंगनपल्ली’ और ‘बेनिशां’ आम का कोई सानी नहीं है; आम की कोई भी अन्य किस्म इनके आसपास भी नहीं ठहरती। मेरी पत्नी और उनका परिवार गुजरात से है; उनका कहना है कि सबसे अच्छे आम रत्नागिरी या हापुस (Alphonso) हैं। और उत्तर प्रदेश के रहवासी मेरे दोस्त दसहरी आम के गुण गाते नहीं थकते।
आम के बगीचे लगाने, पैदावार और आम के शौकीन लोगों के हिसाब से भारत पहले नंबर पर है और फिर चीन, थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपींस, पाकिस्तान और मेक्सिको का नंबर आता है। हालांकि, दुनिया भर में पैदा होने वाले कुल आमों में से 54.2 प्रतिशत के योगदान साथ भारत आम उत्पादन में सबसे अव्वल है। हम न सिर्फ सबसे ज़्यादा आम खाते हैं, बल्कि निर्यात भी करते हैं। पिछले साल हमने 28,000 मीट्रिक टन आम निर्यात किए थे और इससे करीब 4 अरब रुपए कमाए थे।
डॉ. के. टी. अचया अपनी पुस्तक ए हिस्टोरिकल डिक्शनरी ऑफ इंडियन फूड में बताते हैं कि आम मूलत: भारत का देशज है, जिसे उत्तरपूर्वी पहाड़ों और म्यांमार में उगाया जाता था, और पड़ोसी देशों में निर्यात किया जाता था। आजकल, आम के बगीचे उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में लगाए जाते हैं; प्रत्येक राज्य के फलों का अपना विशेष स्वाद होता है।
पिछली गणना के अनुसार, भारत में आम की 1000 से अधिक किस्में हैं। इतनी विविध किस्मों का श्रेय जाता है आम के पौधों की आसान ग्राफ्टिंग को। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तीन केन्द्र आम अनुसंधान में अग्रणी हैं। इसके अलावा, नई दिल्ली स्थित नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन प्लांट बायोटेक्नॉलॉजी आम के पौधे के बुनियादी जीव विज्ञान को समझने के लिए उसके जीनोम का विश्लेषण कर रहा है। इस संस्थान के डॉ. नागेंद्र सिंह और उनके साथियों द्वारा इंडियन जर्नल ऑफ दी हिस्ट्री ऑफ साइंस में प्रकाशित शोध पत्र में इस पहलू पर चर्चा की गई है। हाल ही में, आर. सी. जेना और पी. के. चांद ने भारतीय आम के डीएनए में विविधता का विस्तारपूर्वक विश्लेषण किया है, जो बताता है कि हर क्षेत्र के आम की आनुवंशिकी में विविधता होती है, नतीजतन अलग-अलग जगहों के आम का आकार, रंग और स्वाद अलग होता है (साइंटिफिक रिपोर्ट, 2021)।
आम को फलों का राजा क्यों कहा जाता है? पूरे देश में, आम के अलावा कई अन्य मौसमी फल भी मिलते हैं और खाए जाते हैं। इनमें से कुछ मौसमी फल हैं अंगूर, अमरूद, कटहल, पपीता, संतरा। फिर, केले जैसे कुछ फल साल भर मिलते हैं। फिर भी, आम को फलों का राजा कहा जाता है। इसका कारण यह है कि आम न केवल स्वादिष्ट होता है, बल्कि यह सबसे स्वास्थ्यप्रद भी है; अन्य फलों के मुकाबले एक आम से अधिक विटामिन A, B, C, E और K, तथा अन्य धात्विक यौगिक (मैग्नीशियम, कॉपर, पोटेशियम), और एंटीऑक्सीडेंट मिलते हैं। हालांकि इनमें से कुछ स्वास्थ्य लाभ कई अन्य फलों से भी मिलते हैं, लेकिन आम सबमें अव्वल है क्योंकि इसमें अन्य की तुलना में विटामिन, खनिज और फाइबर सबसे अधिक होते हैं। इसलिए इसकी बादशाहत है।
अमेरिका के क्लीवलैंड क्लीनिक की वेबसाइट पर एक दिलचस्प लेख है, जिसका शीर्षक है: मैंगोलिशियस: आम के प्रमुख छह स्वास्थ्य लाभ (Mangolicious: the top six health benefits of mango)। ये लाभ हैं :
यह आपका पेट दुरुस्त करता है; इसका उच्च फाइबर परिमाण कब्ज़ और पेट फूलने से निपटने में मदद करता है;
आम भूख को नियंत्रित करने में मदद करता है, जो आपको अपने स्वास्थ्यकर खाने के लक्ष्यों पर टिके रहने में मदद कर सकता है;
आम में मौजूद विटामिन और एंटीऑक्सीडेंट बालों और त्वचा को स्वस्थ रखते हैं;
इसमें मौजूद घुलनशील फाइबर कोलेस्ट्रॉल को कम करने में मदद करते हैं;
आम खाने से रक्तचाप नियंत्रित रहता है; और
आम में मौजूद एक एंटीऑक्सीडेंट – मैंगिफेरिन – कुछ प्रकार के कैंसर को रोकने में मदद करता है। और तो और, हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक शोध दल ने भी यह पता लगाया है कि मैंगिफेरिन अल्सर को कम करता है।
स्वाद, किस्में, उपलब्धता और स्वास्थ्य लाभ – इन सभी के मद्देनज़र चलिए हम सभी अपने-अपने पसंदीदा बादशाह आम का लुत्फ उठाएं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मल के ज़रिए बीज फैलाने वाला सबसे छोटा जीव

मात्र 1.1 सें.मी. लंबा, खुरदुरा-सा दिखने वाला वुडलाउज़ (Porcellio scaber) एक अकशेरुकी प्राणी है, जो सड़ती-गलती वनस्पतियों पर अपना जीवन यापन करता है। यह एक प्रकार की दीमक है। पीपल, प्लांट्स, प्लेनेट पत्रिका में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि वुडलाउज़ एक कुशल माली की तरह काम करता है; साथ ही यह मल के ज़रिए बीज फैलाने वाला अब तक का ज्ञात सबसे छोटा जीव है।
बीजों को दूर-दूर तक फैलाने में बड़े जानवरों और पक्षियों की भूमिका तो काफी समय से पता है और सराही जाती है, लेकिन इसमें वुडलाउज़ और इस जैसे कई अन्य छोटे जीवों या कीटों की भूमिका को इतनी तवज्जो नहीं मिली है।
इसलिए कोबे युनिवर्सिटी के केंजी सुएत्सुगु और उनके दल ने कीटों की भूमिका पर थोड़ा प्रकाश डालने के उद्देश्य यह अध्ययन किया। उन्होंने एक पौधे सिल्वर ड्रैगन (Monotropastrum humile) और अकशेरुकी जीवों के आपसी सम्बंध या लेन-देन को समझने का प्रयास किया। गौरतलब है कि सिल्वर ड्रैगन के बीज धूल के कणों जैसे महीन होते हैं।
अध्ययन में उन्होंने पौधों के करीब कुछ स्वचालित डिजिटल कैमरे लगाकर इनके फलों को खाते कीटों व अन्य अकशेरुकी जीवों की 9000 से अधिक तस्वीरें प्राप्त कीं।
अब, यह पता करने की ज़रूरत थी कि कीटों के पाचन तंत्र से गुज़रने के बाद क्या फलों के बीज साबुत बचे रहते हैं? इसके लिए शोधकर्ताओं ने तीन अकशेरुकी जीवों – ऊंट-झींगुर, रफ वुडलाउज़ और कनखजूरे – को सिल्वर ड्रैगन के फल खिलाए और सूक्ष्मदर्शी से इनके मल का विश्लेषण किया।
अंत में उन्होंने यह पता किया कि मल से त्यागे गए बीज अंकुरित होने में सक्षम हैं या नहीं। ऊंट-झींगुर अंकुरण-क्षम बीजों को फैलाने में कुशल थे। इसके अलावा यह भी पता चला कि वुडलाउज़ और कनखजूरों द्वारा त्यागे गए बीजों में से करीब 30 प्रतिशत में अंकुरण की क्षमता बरकरार थी।
शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस शोध से इसी तरह के बीज फैलाने वाले अन्य जीवों को पहचानने में और उनके महत्व के चलते उनका संरक्षण करने में मदद मिलेगी। क्योंकि किसी पौधे के जितने विविध बीज वाहक होंगे उतना उनके लिए बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)

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नील नदी कभी पिरामिडों के पास से गुज़रती थी

मिस्र के पिरामिड प्राचीन दुनिया के सात अजूबों में शुमार हैं, और पुरातत्वविदों के लिए पड़ताल का विषय रहे हैं। गौरतलब है कि ये पिरामिड गीज़ा से लेकर लिश्त तक के रेगिस्तानी इलाके में फैले हुए हैं। यहां से नील नदी कई किलोमीटर दूर बहती है। पुरातत्वविदों को इस सवाल ने हमेशा से परेशान किया है कि यदि प्राचीन समय में भी नील नदी इतनी दूर बह रही थी तो पिरामिडों को बनाने के लिए इतने भारी-भरकम पत्थरों को ढोना कितना मुश्किल रहा होगा। कैसे ढोया गया होगा इस सामग्री को? जबकि कुछ दस्तावेज़ कहते हैं कि पिरामिड को बनाने के लिए सामग्री नावों से लाई जाती थी, लेकिन यदि नदी इतनी दूर है तो ढुलाई कैसे होती होगी?
अलबत्ता, वैज्ञानिकों को काफी समय से यह भी संदेह था कि हो न हो, उस समय नील नदी इन स्थानों के नज़दीक से गुज़रती होगी, जिसने पत्थरों की ढुलाई में मदद की होगी। उनके इस संदेह का आधार था नील नदी के रास्ता बदलने की प्रवृत्ति; देखा गया है कि टेक्टोनिक प्लेटों में हुई बड़ी हलचल के कारण पिछली कुछ सदियों में नील नदी पूर्व की ओर कई किलोमीटर खिसक गई है। साथ ही, अध्ययनों में गीज़ा और लिश्त के बीच के स्थलों पर अतीत में कभी यहां बंदरगाह की उपस्थिति और ऐसे अन्य सुराग मिले थे जो कभी यहां नदी होने के संकेत देते थे। लेकिन इन अध्ययनों में नदी के सटीक मार्ग पता नहीं लगाया जा सका था।
ताज़ा अध्ययन में नॉर्थ कैरोलिना युनिवर्सिटी के भू-आकृति विज्ञानी एमान गोनीम की टीम को इन स्थलों पर एक सूखे हुए नदी मार्ग सरीखी रचना दिखी, जो लगभग 60 किलोमीटर लंबी थी, खेतों के बीच से गुज़र रही थी और करीब उतनी ही गहरी और चौड़ी थी जितनी आधुनिक नील नदी है।
अब बारी थी यह जांचने की कि क्या यह मार्ग किसी प्राचीन नदी का हिस्सा था? मार्ग से लिए गए तलछट के नमूनों की जांच में उन्हें अमूमन नदी के पेंदे में मिलने वाली बजरी और रेत की एक तह मिली। इस जानकारी को शोधकर्ताओं ने उपग्रह से ली गई तस्वीरों के साथ मिलाया और उनका विश्लेषण किया, जिससे वे नदी के बहने का रास्ता चित्रित कर पाए। पता लगा कि नील नदी की यह शाखा लगभग 2686 ईसा पूर्व से लेकर 1649 ईसा पूर्व के बीच बने 30 से अधिक पिरामिडों के पास से होकर बहती थी। शोधकर्ताओं ने इस नदी को अरबी नाम ‘अहरामत‘ दिया है, जिसका अर्थ है पिरामिड।
ऐसा लगता है कि सहारा रेगिस्तान से उड़कर आने वाली रेत और नील नदी के रास्ता बदलने के कारण अहरामत शाखा सूख गई और नौका परिवहन के लायक नहीं रह गई। फिलहाल कुछ जगहों पर कुछ झीलें और नाले ही बचे हैं।
कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित ये नतीजे उन दस्तावेज़ों के कथन से मेल खाते हैं जो बताते हैं कि पिरामिड निर्माण के लिए सामग्री नाव से लाई जाती थी। अर्थात मिस्रवासी हमारी सोच से कहीं अधिक व्यावहारिक थे। (स्रोत फीचर्स)

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शुक्र ग्रह से पानी शायद तेज़ी से गायब हुआ होगा

हमारे पड़ोसी ग्रह शुक्र की सतह का आजकल का तापमान सीसे को भी पिघला सकता है लेकिन अध्ययन बताते हैं कि किसी समय यहां समुद्र लहराते रहे होंगे और वातावरण जीवन के अनुकूल रहा होगा। तो सारा पानी गया कहां? यह एक मुश्किल सवाल रहा है।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित हालिया अध्ययन ने पानी के ह्रास की एक ऐसी क्रियाविधि को उजागर किया है जो शुक्र के वायुमंडल में अत्यधिक ऊंचाई पर काम करती है और दुगनी रफ्तार से पानी के ह्रास के लिए ज़िम्मेदार हो सकती है। इसका यह भी मतलब है कि शुक्र ज़्यादा हाल तक जलीय व जीवनक्षम रहा होगा।
दूरबीनों व अंतरिक्ष यानों से प्राप्त आंकड़े शुक्र के वायुमंडल में जलवाष्प की उपस्थिति दर्शा चुके थे। 1970 के दशक में पायोनीयर वीनस ऑर्बाइटर से शुक्र पर अतीत में समुद्र की उपस्थिति के संकेत मिले थे; वहां के वायुमंडल में हाइड्रोजन के भारी समस्थानिक (ड्यूटीरियम)की उपस्थिति। आगे चलकर किए गए मॉडलिंग से अनुमान लगाया गया था कि किसी समय शुक्र पर इतना पानी थी कि उसकी पूरी सतह पर 3 किलोमीटर गहरी पानी की परत रही होगी।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अरबों वर्ष पूर्व शुक्र ग्रह पर महासागर रहे होंगे, लेकिन ज्वालामुखी गतिविधि और ज़ोरदार ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण संभवत: अधिकांश पानी वाष्पित हो गया होगा। लेकिन शेष बचेे थोड़े से पानी (अंतिम लगभग 100 मीटर की परत) के खत्म होने की व्याख्या नहीं कर सके हैं।
इस नए अध्ययन में एक नई प्रक्रिया – HCO+ क्रियाविधि – पर चर्चा की गई है जो शुक्र के ऊपरी वायुमंडल में चलती है। इसमें सूर्य का प्रकाश न सिर्फ पानी के अणुओं को बल्कि कार्बन डाईऑक्साइड को भी तोड़ देता है। कार्बन डाईऑक्साइड के टूटने से कार्बन मोनोऑक्साइड बनती है। जलवाष्प और कार्बन मोनोऑक्साइड की परस्पर क्रिया के परिणामस्वरूप HCO+ नामक एक अस्थिर आयन का निर्माण होता है। यह आयन तत्काल विघटित हो जाता है। चूंकि हाइड्रोजन अत्यंत हल्की होती है, वह वायुमंडल से पलायन कर जाती है। यह प्रक्रिया शुक्र के वायुमंडल से रहे-सहे पानी को खत्म करने के अवसर प्रदान करती है।
इस नए पहचानी गई प्रक्रिया को पहले से ज्ञात प्रक्रियाओं के साथ जोड़कर शोधकर्ताओं का सुझाव है कि शुक्र का पूरा पानी उड़ने में केवल 60 करोड़ वर्ष लगे होंगे। यह अवधि पूर्व अनुमान से आधी है। इसका तात्पर्य यह है कि शुक्र पर, आज की दुर्गम दुनिया बनने से पहले, संभवत: 2 से 3 अरब साल पहले तक महासागर रहे होंगे।
शुक्र के विकास को समझना न केवल हमारे सौर मंडल के रहस्यों को जानने बल्कि सुदूर चट्टानी ग्रहों का अध्ययन करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। शुक्र और पृथ्वी के बीच समानताएं इस बात की जांच के महत्व पर प्रकाश डालती हैं कि समान संघटन वाले ग्रह किस तरह अलग-अलग तरीके से विकसित हो सकते हैं। शुक्र के इतिहास से प्राप्त जानकारी ब्रह्मांड में अन्यत्र जीवन योग्य वातावरण की पहचान करने के लिए मूल्यवान सबक प्रदान कर सकती है। एक अनुमान है कि शुक्र के समान मंगल से पानी के ह्रास में भी इस प्रक्रिया की भूमिका रही हो सकती है।
हालांकि, निकट भविष्य में कोई मिशन प्रत्यक्ष रूप से शुक्र पर HCO+ प्रक्रिया की खोजबीन नहीं कर पाएंगे, लेकिन शुक्र की वायुमंडलीय गतिशीलता को समझना जारी है। जल्दी ही कोई उपकरण ऊपरी वायुमंडल में हाइड्रोजन के ह्रास की जांच के लिए सामने आ जाएगा।
तब भविष्य के मिशन शुक्र पर पानी की उपस्थिति और ग्रह विज्ञान के व्यापक क्षेत्र पर इसके प्रभाव पर अधिक जानकारी एकत्रित कर पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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