कुछ वर्षों से कई देशों में जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छर यह कहकर रिलीज़ किए गए हैं कि इससे मच्छरों द्वारा फैलाई गई डेंगू जैसी बीमारियां की रोकथाम होती हैं। पर कई वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों ने इन प्रयासों की यह कहकर आलोचना की है कि प्राकृतिक जीवन-चक्र से किए जा रहे इस खिलवाड़ से ऐसी बीमारियां और विकट भी हो सकती हैं।
इस वर्ष के आरंभ में ब्राज़ील के संदर्भ में आलोचकों का पक्ष अधिक मज़बूत हो गया है। जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों को सबसे अधिक ब्राज़ील में ही छोड़ा गया था, और अब वर्ष 2024 के आरंभ में यहां डेंगू की बीमारी में बहुत तेज़ी से वृद्धि हुई। यहां तक कि कुछ स्थानों पर आपात स्थिति बन गई।
यहां यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि अनेक देशों में ऐसे परीक्षण पहले ही इनसे जुड़े तमाम खतरों के कारण काफी विवादास्पद रहे हैं। ये परीक्षण डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया जैसी मच्छर-वाहित बीमारियों के नियंत्रण के नाम पर किए जाते हैं, परंतु इस बारे में बार-बार चिंता प्रकट की गई है कि वास्तव में जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों को छोड़ने पर व इससे जुड़े प्रयोगों से कई बीमारियों की संभावनाएं बढ़ सकती हैं। ज़ीका के प्रकोप के संदर्भ में कुछ विशेषज्ञों ने यह चिंता व्यक्त की थी कि जिस तरह सेे जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों पर प्रयोग किए गए हैं, ऐसी गंभीर स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न करने में उन प्रयोगों की भूमिका हो सकती है।
भारत में सबसे पहले जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों के प्रयोग 1970 के दशक में जेनेटिक कंट्रोल ऑफ मास्कीटोस (मच्छरों के आनुवंशिक नियंत्रण) परियोजना में किए गए थे। उस समय मीडिया में व संसद में इसकी बहुत आलोचना हुई थी। आलोचना इससे जुड़े स्वास्थ्य सम्बंधी खतरों के कारण और उससे भी अधिक इस कारण हुई थी कि इससे विदेशी ताकतों को भारत पर जैविक हमलों के हथियार की तैयारी करने में सहायता मिल सकती है। इस आलोचना को भारतीय संसद की पब्लिक अकाउंट्स समिति की 167 वीं रिपोर्ट से भी बल मिला।
इस पृष्ठभूमि में यह उम्मीद थी कि भविष्य में इस तरह के प्रयोगों की अनुमति नहीं दी जाएगी पर कुछ समय पहले यह सिलसिला फिर आरंभ हो गया है।
इस बीच विश्व के कई देशों में किए गए ऐसे प्रयोगों की भरपूर आलोचना पहले ही हो चुकी है। ऐसे अनेक प्रयोग ब्रिटेन की ऑक्सीटेक कंपनी द्वारा किए गए हैं जिसकी इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका रही है। विभिन्न देशों में इस बारे में चिंता व्यक्त की गई है कि ऐसे प्रयोगों में पारदर्शिता नहीं बरती गई है व सही जानकारी को छुपाया गया है। जीन वाॅच, फ्रेण्ड्स ऑफ दी अर्थ जैसी विभिन्न संस्थाओं ने इस तरह की आलोचना कई बार की है। जीन वाॅच की निदेशक डॉ. हेलेन वैलेस ने इस सम्बंध में अपने अनुसंधान में बताया है कि जिन बीमारियों की रोकथाम की संभावना इस तकनीक द्वारा बताई जा रही है, वास्तव में इस तकनीक के उपयोग से इन बीमारियों की वृद्धि की संभावना है और बीमारी व स्वास्थ्य सम्बंधी समस्या पहले से अधिक गंभीर रूप में प्रकट हो सकती है।
भारत में वेक्टर कंट्रोल रिसर्च सेंटर के पूर्व निदेशक पी. के. राजगोपालन ने कुछ समय पहले इस विषय पर अपना विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया था कि इस तकनीक के संदर्भ में विश्व स्तर पर स्थिति क्या है। उनका स्पष्ट निष्कर्ष है कि इस तकनीक के द्वारा बीमारी नियंत्रण के जो दावे किए जा रहे हैं वे असरदार नहीं हैं तथा दूसरी ओर इस तकनीक के खतरे बहुत हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि मलेरिया की जांच से जुड़े जो ब्लड-सैंपल विदेश भेजे जा रहे हैं, वह भी उचित नहीं है।
इस सम्बंध में उपलब्ध विश्व स्तरीय जानकारी को देखते हुए भारत में जेनेटिक रूप से संवर्धित जीवों के प्रयोगों पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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