खोपड़ी मिली, तो पक्षी के गुण पता चले

र्ष 1893 में दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की कैलाबोना झील से जीवाश्म विज्ञानियों को लगभग साबुत एक अश्मीभूत कंकाल मिला था। कंकाल का धड़ वाला हिस्सा तो पूरी तरह सलामत था, लेकिन इसकी खोपड़ी भुरभुरी, दबी-कुचली और विकृत स्थिति में थी।

वैज्ञानिकों ने कंकाल की बनावट देखकर इतना तो अनुमान लगा लिया था कि यह मुर्गे, एमू या शुतुरमुर्ग जैसे किसी बड़े पक्षी का कंकाल है, जो उड़ नहीं सकता था। नाम दिया था गेन्योर्निस न्यूटोनी (Genyornis newtoni)। लेकिन इसके बारे में और अनुमान लगाना अच्छी हालात की खोपड़ी के बिना मुश्किल था, क्योंकि सभी बड़े पक्षी गर्दन से नीचे लगभग एक जैसे दिखते हैं – बड़े शरीर पर छोटे पंख, चौड़ी दुम, वज़नी पैर। खोपड़ी से यह पता लगाना आसान हो जाता है कि कंकाल किस कुल का सदस्य है।

इसलिए ऑस्ट्रेलिया की फ्लिंडर्स युनिवर्सिटी की वैकासिक जीवविज्ञानी फीब मैकइनर्नी को एक सही-सलामत अश्मीभूत खोपड़ी की तलाश थी। अंतत: उन्हें ऐसी खोपड़ी मिल गई। हिस्टॉरिकल बायोलॉजी जर्नल में उन्होंने गेन्योर्निस की खोपड़ी का वर्णन और तस्वीर प्रकाशित की है और इसे ‘गीगा गूज़’ नाम दिया है। पता चला है कि गीगा गूज़ वर्तमान में जीवित या विलुप्त किसी पक्षी की तरह नहीं है बल्कि जल पक्षियों से सम्बंधित है, जिसमें बत्तख से लेकर हंस जैसे पक्षी आते हैं।

गीगा गूज़ की चोंच की पकड़ की चौड़ाई, दमदार काटने की क्षमता और मांसपेशियों के जुड़ाव से पता चलता है कि इसका पकड़ सम्बंधी (मोटर) नियंत्रण काफी अच्छा था, इससे लगता है कि गेन्योर्निस पानी के किनारे लगे पौधों से पत्तियों और फलों को तोड़कर खाता होगा। खोपड़ी में ऐसी संरचनाएं दिखीं जो पानी को कान में घुसने से रोकती थीं, इससे पता चलता है कि यह पक्षी जलीय आवासों के लिए अनुकूलित था, और इसका प्राकृतवास मीठे पानी में था।

इस पक्षी की सम्पूर्ण तस्वीर और विशेषताएं प्राचीन ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों द्वारा बनाए गए विशालकाय शैलचित्रों और कहानियों के पात्रों से मेल खाती हैं। इससे लगता है कि प्राचीन ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों के समय यह जीव ऑस्ट्रेलिया में रहता होगा और उन्होंने इसे देखा होगा। और तो और, एक आदिवासी भाषा में इस पक्षी के लिए शब्द भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है ‘विशाल एमू’। बड़े पैमाने पर अंडों के जले हुए छिलकों के अवशेषों के आधार पर कुछ शोधकर्ताओं का अनुमान है कि मनुष्य गेन्योर्निस के अंडे पकाकर खाते होंगे, लेकिन इन छिलकों की पहचान अभी जांच का मुद्दा है।

बहरहाल गीगा गूज़ के चेहरे का तो अंदाज़ा मिल गया लेकिन यह सवाल अनसुलझा ही है कि गीगा गूज़ समेत अन्य जीव-जंतु विलुप्त क्यों हो गए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.australian.museum/media/dd/images/Some_image.width-1200.f187d6f.jpg
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