संगीत का जन्म और विकास

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

त 21 जून को सालाना विश्व संगीत दिवस मनाया गया। यह मौका है इस बात को समझने का कि प्राचीन समय से अब तक संगीत और ताल कैसे विकसित हुए। क्योटो विश्वविद्यालय के प्रायमेट रिसर्च इंस्टीट्यूट के युको हटोरी और मसाकी टोमोनागा का अध्ययन बताता है कि जब चिम्पैंजियों के समूह को एक धुन सुनाई जाती थी तो वे लयबद्ध ढंग थिरकने लगते थे! हालांकि, उनके स्वर यंत्र (वोकल कॉर्ड) गायन के लिए विकसित नहीं हुए हैं; वे केवल गुर्रा सकते हैं। लेकिन उक्त अध्ययन दर्शाता है कि हम मनुष्यों को वानरों से मात्र हमारे कई जीन्स और रक्त समूह विरासत में नहीं मिले हैं, बल्कि हमारी लय-ताल की समझ भी मिली है!

तो फिर, हम मनुष्यों ने गाना और वाद्ययंत्र बजाना कब शुरू किया? शोधकर्ताओं ने यह बताया है कि मनुष्यों ने बोलना पुरा-पाषाण युग (जो 25 लाख साल पहले से 10,000 ईसा पूर्व तक माना जाता है) के दौरान शुरू किया, और उसके थोड़े समय बाद ‘गाना’ शुरू किया। मनुष्यों में गाने और बजाने की क्षमता के प्रमाण लगभग 40,000 साल पहले से मिलते हैं; वैज्ञानिकों को लगभग 40,000 साल पुरानी एक बांसुरी मिली है जो जानवर की हड्डी से बनाई गई थी। इसमें ‘सुर’ बजाने के लिए पांच छेद हैं। निम्नलिखित साइट्स पर जाकर इसका पूरा लुत्फ उठाएं:

https://www.science.org/content/article/ancient-flutes-suggest-rich-life-stone-age-europe

https://www.classicfm.com/discover-music/instruments/flute/worlds-oldest-instrument-neanderthal-flute

राग और ताल

संगीत का वास्तविक लिपिबद्ध रूप युरोप और मध्य पूर्व में संभवत: 9वीं शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान सूक्त (Hymns) गायन और वादन के लिए हुआ था। इस संगीत लिपि में संकेतों (‘do, re, ma, fa, po, la, ti’) के बीच रिक्त स्थान होते थे। ऐसा माना जाता है कि भारत में वैदिक काल (1500-600 ईसा पूर्व) में सुरों (‘सा, रे, गा, मा, प, ध, नी’) का चिह्नाकंन हुआ था। डॉ. जमीला सिद्दीकी लिखती हैं कि हमारे पास ‘सा, रे, गा, मा, प, ध, नी’ सुर थे। आप इन्हें एम. एस. सुब्बलक्ष्मी को राग जगनमोहिनी में ‘सोबिलु सप्तस्वर’ गाते हुए और संत त्यागराज द्वारा रचित ‘रूपक ताल’ में सुन सकते हैं। तब से लेकर अब तक हमने ज्यामितीय और शास्त्रीय तरीके से सुरों को व्यवस्थित करके संगीत में काफी प्रगति कर ली है और अपने संगीत के रस को आगे बढ़ाया है।

लेकिन ज़रूरी नहीं है कि आप सिर्फ शास्त्रीय संगीत के कदरदान या श्रोता रहें और सिर्फ एम. एस. सुब्बलक्ष्मी, बिस्मिल्लाह खान, बाख, बीथोवेन या मोज़ार्ट को ही सुनें। आप जैज़, कव्वाली, सुगम और फिल्मी संगीत को भी सुनने का आनंद ले सकते हैं, जैसा कि कई लोग करते हैं। वे भी सप्तक या कुछ सुरों और ताल-संगत के साथ निबद्ध किए गए होते हैं। समूचे देश, यहां तक कि समूची दुनिया में लोग लोकसंगीत को चाव से सुनते हैं। हाल ही में साइंटिफिक अमेरिकन में एलिसन पार्शल की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। इसमें बताया गया है कि दुनिया के अलग-अलग इलाकों में  लोकगीत लगभग एक समान हैं और इनके लहजे और तान के कारण लोग इन्हें सुनने का आनंद लेते हैं।

संगीत के लाभ

जब आप संगीत सुनते हैं, तो आपका स्वास्थ्य सुधरता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि संगीत प्रार्थना/भजन है, गायन है या वादन, शास्त्रीय है या पारंपरिक, लोकप्रिय है या फिल्मी गीत है। जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी की वेबसाइट कहती है कि अगर आप अपने दिमाग को जवां रखना चाहते हैं, तो गाएं-बजाएं या संगीत सुनें। गाना या बजाना सीखने से एकाग्रता, याददाश्त, मूड और जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है। यह बात स्कूल और कॉलेज जाने वालों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। कहते हैं, संगीत सीखना या सुनना बुज़ुर्गों को वृद्धावस्था से जुड़ी समस्याओं से बचने में भी मदद करता है।

भारत में कई संगीत अकादमियां हैं, जो समय-समय पर संगीत उत्सव आयोजित करती हैं। यहां हम स्थापित संगीतकारों और युवा कलाकारों को कर्नाटक, हिंदुस्तानी और पश्चिमी शैलियों में गाते-बजाते सुन सकते हैं। तो इन उत्सवों में जाएं और संगीत का आनंद उठाएं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शॉपिंग वेबसाइट्स पर पंखों और एसी का बाज़ार सर्वेक्षण

आदित्य चुनेकर, अभिराम सहस्रबुद्धे

भारत में भीषण गर्मी पड़ी है। लोग गर्मी से राहत पाने के लिए अपने घरों, दुकानों और दफ्तरों के लिए पंखे, एयर कंडीशनर (एसी) और कूलर खरीदते हैं। ये उपकरण बिजली की मांग को बढ़ा देते हैं। भारतीय घरों की कुल वार्षिक बिजली खपत में कूलिंग (शीतलन) उपकरणों का योगदान लगभग 50 प्रतिशत है। आजकल काफी खरीदी ई-शॉपिंग के ज़रिए हो रही है।

कम ऊर्जा कुशल कूलिंग उपकरणों की तुलना में ऊर्जा कुशल कूलिंग उपकरणों की बिजली खपत आधी से भी कम हो सकती है। इससे बिजली के बिल में भारी कमी आ सकती है और साथ ही अत्यधिक भार झेल रही बिजली व्यवस्था को भी राहत मिल सकती है।

ऐसा अनुमान है कि कंज़्यूमर ड्यूरेबल (टिकाऊ उपभोग) वस्तुओं के बाज़ार में लगभग 60 प्रतिशत बिक्री पर ‘डिजिटल प्रभाव’ होता है। इसमें सीधे ऑनलाइन बिक्री के साथ-साथ वह बिक्री भी शामिल है जिसमें खरीदार वस्तु तो दुकान से खरीदते हैं लेकिन खरीदने से पहले इंटरनेट पर छानबीन कर लेते हैं।

इस संदर्भ में, हमने भारत के दो प्रमुख ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर 224 एसी सूचियों और 153 सीलिंग-पंखा सूचियों में दी गई जानकारी एवं विवरण का सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण नमूनों में शामिल एसी 1.5 टन और स्प्लिट प्रकार के थे और पंखे 1200 मिमी स्वीप साइज़ (पंखुड़ी की लंबाई) वाले थे; दोनों सर्वाधिक खरीदे जाने वाले प्रकार हैं। हम यह देखना चाहते थे कि क्या इन वेबसाइटों से खरीदारों को ऊर्जा दक्षता पर स्पष्ट और प्रासंगिक जानकारी मिलती है। हमने ऊर्जा दक्षता वाले मॉडलों की कीमतों में फर्क की भी जांच की। यह सर्वेक्षण अप्रैल 2024 में किया गया था।

ऊर्जा दक्षता के लिए केंद्र सरकार की नोडल एजेंसी ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (BEE) का पंखे और एसी सहित कई उपकरणों के लिए एक अनिवार्य मानक एवं लेबलिंग (Standards and Labeling – S&L) कार्यक्रम है। हमारे सर्वेक्षण में कूलर को शामिल नहीं किया गया क्योंकि वर्तमान में मानक एवं लेबलिंग कार्यक्रम में ये शामिल नहीं हैं। मानक एवं लेबलिंग कार्यक्रम के तहत, सभी उपकरणों को 1-स्टार से 5-स्टार तक की रेटिंग दी जाती है, जिसमें 5-स्टार रेटिंग वाला उपकरण सबसे अधिक ऊर्जा कुशल होता है। अनिवार्य कार्यक्रम के तहत, उपकरणों को स्टार लेबल के बिना बाज़ार में बेचने की अनुमति नहीं है। ब्यूरो की लेबलिंग का एक विशिष्ट प्रारूप है, और उत्पाद और उनके पैकेजिंग पर लेबलिंग को लगाने के लिए स्पष्ट निर्देश हैं ताकि लेबलिंग संभावित उपभोक्ताओं को प्रमुखता से दिखाई दे। अलबत्ता, ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर इन्हें दर्शाने के कोई विशेष नियम-शर्तें नहीं हैं, जिसके कारण उपभोक्ताओं को यहां बिखरी-बिखरी और अधूरी जानकारी मिलती है।

लेबल का प्रदर्शन

हमने पाया कि एसी उत्पादों की सूची में सभी उत्पादों के नाम वाली लाइन में स्टार-रेटिंग की जानकारी है। उत्पाद की अन्य तस्वीरों के साथ-साथ वास्तविक लेबल की तस्वीरें भी हैं, हालांकि लेबल की तस्वीर सबसे अंत में ही दी जाती है।

ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध मॉडलों को छांटने के लिए फिल्टर में स्टार रेटिंग का भी फिल्टर है। अलबत्ता विशेष निर्देशों के अभाव में, स्टार रेटिंग के लेबल का स्थान सदैव एक-सा नहीं होता है और उत्पाद सूची में अथवा विवरण में हमेशा प्रमुखता से दिखाई नहीं देता है।

वैसे, एक अधिक गंभीर मुद्दा रेटिंग लेबल की वैधता की तारीख से सम्बंधित है। ब्यूरो समय-समय पर मानकों को संशोधित करता रहता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि स्टार-रेटिंग्स ऊर्जा दक्षता प्रौद्योगिकी में प्रगति का समुचित रूप से प्रतिनिधित्व कर रही है। संशोधन के बाद, मॉडल की रेटिंग आम तौर पर 1 या 2 स्टार कम हो जाती है। इसलिए, संशोधन के बाद 5-स्टार मॉडल 3-स्टार या 4-स्टार रेटिंग वाला बन सकता है, और नया 5-स्टार मॉडल और अधिक ऊर्जा कुशल होगा। ब्यूरो आम तौर पर पुराने स्टार लेबल वाले किसी भी अनबिके उत्पाद को बेचने के लिए 6 महीने का समय देता है। एसी के मानकों को अंतिम बार जुलाई 2022 में संशोधित किया गया था।

सर्वेक्षण में हमने पाया कि सभी एसी उत्पाद सूची में से लगभग 36 प्रतिशत ऐसी स्टार रेटिंग दर्शा रही थीं जो पुरानी थी और केवल जुलाई 2022 तक ही वैध थी। इनमें से अधिकांश मॉडलों की जो रेटिंग दर्शाई जा रही थी वह संशोधित मानक के बाद लागू होने वाली रेटिंग से 1 स्टार अधिक दर्शाई गई थी। यह ब्यूरो के अनिवार्य लेबलिंग कार्यक्रम का उल्लंघन है और उपभोक्ताओं को कम कुशल मॉडल खरीदने की ओर ले जा सकता है।

पंखों के मामले में, अधिकांश सूचियों में उत्पाद के नाम वाली लाइन में स्टार रेटिंग लिखी है। यह हमारे पिछले सर्वेक्षण की तुलना में एक स्वागत योग्य बदलाव है; पिछले सर्वेक्षण में किसी भी सूची (विवरण) में स्टार रेटिंग की जानकारी शामिल नहीं थी। हालांकि इनकी स्टार रेटिंग मात्र 1 है। यानी अन्य स्टार-रेटिंग की तुलना में ये सबसे कम ऊर्जा कुशल हैं, फिर भी कुछ सूची में ‘ऊर्जा कुशल 1-स्टार रेटिंग’ जैसे दावे किए गए हैं। लगभग किसी भी उत्पाद सूची (या विवरण) में वास्तविक स्टार लेबल की तस्वीर नहीं थी। यह ब्यूरो के नियमों का उल्लंघन है, जिसके अनुसार उत्पाद को ऑनलाइन बेचे जाने पर भी स्टार रेटिंग लेबल प्रदर्शित करना आवश्यक है।

इसके अलावा, हमें कुछ ऐसे विवरण भी मिले जिनमें पंखे ‘गैर-BEE’ श्रेणी के तहत लेबल किए गए थे, जिसकी कानूनी रूप से अनुमति नहीं है क्योंकि इनकी ऊर्जा दक्षता 1-स्टार से भी कम हो सकती है। दोनों में से किसी भी प्लेटफॉर्म पर स्टार रेटिंग के आधार पर उत्पादों को छांटने के लिए फिल्टर नहीं हैं।

उपभोक्ता को इन ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स पर उपकरणों की ऊर्जा दक्षता के बारे में स्पष्ट और सही जानकारी मिलना ज़रूरी है ताकि वे जानकारी के आधार पर निर्णय ले सकें। ब्यूरो सभी ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स के लिए एक निर्देश जारी कर सकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अनिवार्य श्रेणी के तहत आने वाले सभी उपकरण ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर सही लेबल प्रदर्शित करें। यह भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) द्वारा हाल ही में सभी ई-कॉमर्स खाद्य व्यापार संचालकों को जारी की गई सलाह के समान हो सकता है, जिसमें कहा गया था कि कुछ मामलों में एनर्जी ड्रिंक/स्वास्थ्यकर पेय का टैग हटा दिया जाए क्योंकि यह उपभोक्ताओं को गुमराह कर रहा था। ब्यूरो यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश भी जारी कर सकता है कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर स्टार-रेटिंग लेबल हमेशा और प्रमुखता से दर्शाए जाएं।

उपलब्धता और कीमत

ब्यूरो अपनी वेबसाइट पर सभी स्वीकृत मॉडलों की एक सूची प्रकाशित करता है। उपभोक्ता इस डैटा का उपयोग उत्पाद पैकेजिंग पर लगे लेबल की प्रामाणिकता को सत्यापित करने के लिए कर सकते हैं। इस डैटा के अनुसार 1.5 टन के स्प्लिट एसी के 1258 विभिन्न मॉडल हैं, और 1200 मिमी स्वीप साइज़ सीलिंग पंखों के 2668 मॉडल हैं।

पंजीकृत एसी मॉडल में से लगभग 50 प्रतिशत 3-स्टार रेटिंग के हैं जबकि 21 प्रतिशत 5-स्टार रेटिंग के हैं। पंखों के मामले में, लगभग 60 प्रतिशत मॉडल 1-स्टार रेटिंग के हैं जबकि 28 प्रतिशत 5-स्टार रेटिंग के हैं। हमारे बाज़ार सर्वेक्षण के लिए हमने केवल उन्हीं मॉडलों को चुना है जो ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स पर स्टॉक में उपलब्ध थे और जिनकी उपभोक्ता रेटिंग 100 से अधिक थी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि हमने लोकप्रिय मॉडलों को शामिल किया है।

224 एसी मॉडलों की कीमतों के हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि एक औसत 5-स्टार एसी मॉडल की कीमत एक औसत 3-स्टार एसी से लगभग 7000 रुपए अधिक है, लेकिन 4-स्टार और 5-स्टार रेटिंग के मॉडलों की औसत कीमतों के बीच अंतर मात्र 500 रुपए का है। वैसे, समान स्टार रेटिंग के भीतर भी मॉडलों की कीमत में काफी अंतर दिखता है। उत्पाद सूची में ज़्यादातर वास्तविक कीमत और छूट वाली कीमत दिखाई जाती है। हमने छूट वाली कीमत को शामिल किया है क्योंकि खरीदार इसी कीमत पर खरीदारी करते हैं। कुछ स्टोर्स पर इन कीमतों को जांचने पर पता चला कि ये कीमतें खुदरा दुकानों की कीमतों के बराबर हैं। हमने 1-स्टार और 2-स्टार रेटिंग वाले मॉडलों का विश्लेषण नहीं किया है क्योंकि इस श्रेणी में बहुत कम मॉडल हैं।

एसी की ऊर्जा दक्षता को भारतीय मौसमी ऊर्जा दक्षता अनुपात (Indian Seasonal Energy Efficiency Ratio – ISEER) के सापेक्ष मापा जाता है। ISEER जितना अधिक होगा, दक्षता उतनी ही बेहतर होगी। हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि हालांकि एसी की कीमत को प्रभावित करने में ISEER महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन इसके चलते कीमत में 9.5 प्रतिशत ही अंतर आता है। इसका मतलब है कि कीमत में अंतर के लिए कई अन्य कारक ज़िम्मेदार हैं, जैसे ब्रांड और अतिरिक्त फीचर्स। कुछ 5-स्टार मॉडल ऐसे हैं जिनकी कीमत औसत 3-स्टार एसी की कीमत के बराबर है। यह एक ऐसे चलन को दर्शाता है जिसमें कंपनियां 5-स्टार एसी की ब्रांडिग प्रीमियम मॉडल के रूप में करती हैं और फिर अतिरिक्त फीचर्स देती हैं जिससे इनकी कीमत बढ़ जाती है। एक साधारण बिना ताम-झाम वाला 5-स्टार एसी उपभोक्ताओं के लिए अधिक फायदेमंद हो सकता है। हालांकि इस पर आगे और जांच-पड़ताल की ज़रूरत है। इसी के साथ, उपकरण के ISEER अंक को उपभोक्ता देख सकते हैं और किसी स्टार रेटिंग में उच्च ऊर्जा दक्षता का फायदा उठाने के लिए उच्च ISEER अंक वाले मॉडल चुन सकते हैं।

153 पंखा मॉडल की कीमतों के हमारे विश्लेषण में भी इसी तरह के रुझान दिखाई देते हैं। एक औसत 5-स्टार मॉडल की कीमत 1-स्टार मॉडल से औसतन 1370 रुपए अधिक है। हालांकि, स्टार-रेटिंग के भीतर कीमत में काफी फर्क दिखता है। हमने 2-स्टार, 3-स्टार और 4-स्टार वाले मॉडलों को शामिल नहीं किया क्योंकि इन श्रेणी में बहुत कम मॉडल हैं।

पंखे की ऊर्जा दक्षता को सेवा मूल्य (Service Value – SV) के रूप में मापा जाता है। SV जितना अधिक होगा, पंखे की ऊर्जा दक्षता उतनी ही बेहतर होगी। हमारा विश्लेषण दर्शाता है कि हालांकि कीमत में बढ़ोतरी के लिए SV एक महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन इसके चलते कुल कीमत में 12 प्रतिशत का ही अंतर पड़ता है। एसी की ही तरह, इसमें भी ब्रांड और अतिरिक्त फीचर्स सहित अन्य कारक पंखे की कीमत में वृद्धि कर सकते हैं। ऐसे कई 5-स्टार पंखे हैं जिनकी कीमत 1-स्टार पंखे की औसत कीमत के बराबर है। एसी की तरह ही, पंखों के मामले में भी ऐसा लगता है कि कंपनियां 5-स्टार मॉडल का ब्रांडिंग प्रीमियम मॉडल के रूप में कर रही हैं।

निष्कर्ष के तौर पर, हमारा बाज़ार सर्वेक्षण दर्शाता है कि ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर पंखे और एसी की ऊर्जा दक्षता सम्बंधी जानकारी को स्पष्ट, सुसंगत, प्रधानता से और नियामक अपेक्षा के अनुसार दिखाने के लिए सुधार करने की आवश्यकता है। वर्तमान में ऐसे पोर्टल पर प्रदर्शित जानकारी को सही करने की आवश्यकता है क्योंकि अधिकांश उपभोक्ता उपकरणों के बारे में छानबीन करने और खरीदी के लिए इंटरनेट का उपयोग करते हैं। ब्यूरो ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स को एक सलाह जारी कर सकता है जिसमें उन्हें S&L कार्यक्रम के तहत प्रदर्शन आवश्यकताओं का अनुपालन करना पड़े।

हालांकि पंखे और एसी दोनों के 5-स्टार मॉडल्स की औसत कीमत 3-स्टार मॉडल से अधिक है, फिर भी हमने एक निश्चित स्टार रेटिंग के भीतर कीमत में काफी भिन्नता पाई है। ऐसा लगता है कि कंपनियां 5-स्टार मॉडल का प्रीमियम मॉडल के रूप में ब्रांडिंग कर रही हैं, इसके लिए वे इसमें अन्य फीचर्स जोड़ रही हैं और इनकी कीमत बढ़ा रही हैं। लेकिन वास्तव में एक बुनियादी ऊर्जा कुशल मॉडल उपभोक्ताओं के लिए अधिक फायदेमंद और महत्वपूर्ण हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पिता के खानपान का बेटों के स्वास्थ्य पर असर

ह बात तो सभी कहते हैं कि जैसा आपका खानपान होगा, वैसा आपका स्वास्थ्य होगा। लेकिन हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि पुत्र-जन्म से पूर्व पिता का खानपान पुत्रों की चयापचय क्षमता को प्रभावित कर सकता है।

अध्ययनों से यह तो पता था कि माताएं अपनी संतानों में चयापचय सम्बंधी लक्षण हस्तांतरित कर सकती हैं। फिर, 2016 में युनिवर्सिटी ऑफ ऊटा स्कूल ऑफ मेडिसिन में प्रजनन-जीवविज्ञानी क्याई चेन और उनकी टीम ने उच्च वसायुक्त आहार करने वाले नर चूहों की संतानों में चयापचय विकार की समस्या देखी थी। साथ ही पाया था कि माता-पिता के आहार का प्रभाव संतान के जीनोम में नहीं बल्कि उनके ‘एपिजीनोम’ में परिवर्तन के कारण होता है। एपिजीनोम जीन अभिव्यक्ति, विकास, ऊतक विभेदन को विनियमित करने में और जम्पिंग जीन को शांत करने में भूमिका निभाते हैं। जीनोम के विपरीत एपिजीनोम में पर्यावरणीय परिस्थितियों के चलते परिवर्तन हो सकते हैं।

हालिया अध्ययन में हेल्महोल्ट्ज़ सेंटर, म्यूनिख के शोधकर्ता राफेल टेपरिनो ने नर चूहों को दो हफ्ते तक उच्च वसा वाला आहार खिलाया। पाया गया कि इस आहार के कारण शुक्राणु के माइटोकॉन्ड्रिया में ट्रांसफर आरएनए (tRNA) में परिवर्तन हुए थे। माइटोकॉण्ड्रिय़ा कोशिका को ऊर्जा देते हैं। आहार परिवर्तन का असर माइटोकॉन्ड्रिया के tRNA पर देखा गया जो डीएनए से प्रोटीन में बनने की प्रक्रिया के दौरान बनते हैं।

खासकर, उच्च वसायुक्त भोजन करने वाले चूहों के शुक्राणुओं में tRNA के अंश सामान्य चूहों की अपेक्षा छोटे थे। ऐसे RNA कुछ माइटोकॉन्ड्रियल जीन की गतिविधि को बढ़ा या घटा सकते हैं।

ये परिणाम ठीक ही लगते हैं क्योंकि ऐसा देखा गया है कि उच्च वसा वाला आहार माइटोकॉन्ड्रिया में तनाव पैदा करता है, नतीजतन माइटोकॉन्ड्रिया अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए अधिक RNA बनाते हैं। माइटोकॉन्ड्रिया की यह प्रतिक्रिया एक सौदे की तरह होती है। माइटोकॉन्ड्रियल गतिविधि में वृद्धि शुक्राणु को अंडाणु तक पहुंचने के लिए पर्याप्त ऊर्जा देती है, लेकिन साथ में अतिरिक्त माइटोकॉन्ड्रियल RNA भी शुक्राणु से भ्रूण में चले जाते हैं, जिससे भ्रूण को मिलने वाली जानकारी बदल जाती है और उसके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है।

अगले चरण में शोधकर्ताओं ने उन चूहों के स्वास्थ्य को देखा जिनके पिता अधिक वसायुक्त भोजन खाते थे। पाया गया कि चूहा संतानों में से लगभग 30 प्रतिशत में चयापचय विकार थे। 3431 मानव संतानों के आंकड़ों के विश्लेषण में पता चला कि उन मानव संतानों में चयापचयी विकार अधिक थे जिनके पिता का वज़न अधिक था।

प्रयोगों से यह भी पता चला कि उच्च वसायुक्त आहार करने वाले चूहों की संतानों में अपने पिता से बहुत अधिक माइटोकॉन्ड्रियल tRNA आ गए थे।

हालांकि इस अध्ययन की एक तकनीकी सीमा है: अनुक्रमण विधि केवल सम्पूर्ण RNA का पता लगा पाती है। इस वजह से, अध्ययन में यह पता नहीं चल सका कि RNA के अंश पिता से भ्रूण में स्थानांतरित हुए थे या नहीं। शोधकर्ता यह मानकर चल रहे हैं कि RNA के अंश भी स्थानांतरित हुए होंगे।

मज़ेदार बात यह है कि चयापचय सम्बंधी समस्याएं पिता से केवल पुत्रों को मिली हैं, पुत्रियों को नहीं। इससे लगता है कि X और Y शुक्राणु में अलग-अलग जानकारी होती है। बहरहाल, X और Y शुक्राणु में ऐसी भिन्नता क्यों होती है, आगे के अध्ययनों के लिए यह एक अच्छा प्रश्न है। (स्रोत फीचर्स)

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खोपड़ी मिली, तो पक्षी के गुण पता चले

र्ष 1893 में दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की कैलाबोना झील से जीवाश्म विज्ञानियों को लगभग साबुत एक अश्मीभूत कंकाल मिला था। कंकाल का धड़ वाला हिस्सा तो पूरी तरह सलामत था, लेकिन इसकी खोपड़ी भुरभुरी, दबी-कुचली और विकृत स्थिति में थी।

वैज्ञानिकों ने कंकाल की बनावट देखकर इतना तो अनुमान लगा लिया था कि यह मुर्गे, एमू या शुतुरमुर्ग जैसे किसी बड़े पक्षी का कंकाल है, जो उड़ नहीं सकता था। नाम दिया था गेन्योर्निस न्यूटोनी (Genyornis newtoni)। लेकिन इसके बारे में और अनुमान लगाना अच्छी हालात की खोपड़ी के बिना मुश्किल था, क्योंकि सभी बड़े पक्षी गर्दन से नीचे लगभग एक जैसे दिखते हैं – बड़े शरीर पर छोटे पंख, चौड़ी दुम, वज़नी पैर। खोपड़ी से यह पता लगाना आसान हो जाता है कि कंकाल किस कुल का सदस्य है।

इसलिए ऑस्ट्रेलिया की फ्लिंडर्स युनिवर्सिटी की वैकासिक जीवविज्ञानी फीब मैकइनर्नी को एक सही-सलामत अश्मीभूत खोपड़ी की तलाश थी। अंतत: उन्हें ऐसी खोपड़ी मिल गई। हिस्टॉरिकल बायोलॉजी जर्नल में उन्होंने गेन्योर्निस की खोपड़ी का वर्णन और तस्वीर प्रकाशित की है और इसे ‘गीगा गूज़’ नाम दिया है। पता चला है कि गीगा गूज़ वर्तमान में जीवित या विलुप्त किसी पक्षी की तरह नहीं है बल्कि जल पक्षियों से सम्बंधित है, जिसमें बत्तख से लेकर हंस जैसे पक्षी आते हैं।

गीगा गूज़ की चोंच की पकड़ की चौड़ाई, दमदार काटने की क्षमता और मांसपेशियों के जुड़ाव से पता चलता है कि इसका पकड़ सम्बंधी (मोटर) नियंत्रण काफी अच्छा था, इससे लगता है कि गेन्योर्निस पानी के किनारे लगे पौधों से पत्तियों और फलों को तोड़कर खाता होगा। खोपड़ी में ऐसी संरचनाएं दिखीं जो पानी को कान में घुसने से रोकती थीं, इससे पता चलता है कि यह पक्षी जलीय आवासों के लिए अनुकूलित था, और इसका प्राकृतवास मीठे पानी में था।

इस पक्षी की सम्पूर्ण तस्वीर और विशेषताएं प्राचीन ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों द्वारा बनाए गए विशालकाय शैलचित्रों और कहानियों के पात्रों से मेल खाती हैं। इससे लगता है कि प्राचीन ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों के समय यह जीव ऑस्ट्रेलिया में रहता होगा और उन्होंने इसे देखा होगा। और तो और, एक आदिवासी भाषा में इस पक्षी के लिए शब्द भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है ‘विशाल एमू’। बड़े पैमाने पर अंडों के जले हुए छिलकों के अवशेषों के आधार पर कुछ शोधकर्ताओं का अनुमान है कि मनुष्य गेन्योर्निस के अंडे पकाकर खाते होंगे, लेकिन इन छिलकों की पहचान अभी जांच का मुद्दा है।

बहरहाल गीगा गूज़ के चेहरे का तो अंदाज़ा मिल गया लेकिन यह सवाल अनसुलझा ही है कि गीगा गूज़ समेत अन्य जीव-जंतु विलुप्त क्यों हो गए। (स्रोत फीचर्स)

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कौवे मनुष्यों के समान गिनती करते हैं

वैसे तो पहले भी कुछ अध्ययनों में देखा जा चुका है कि कौवों में संख्या ताड़ने की क्षमता होती है। जैसे यदि उनके सामने कई डिब्बे रखकर मात्र 6 डिब्बों में खाने की चीज़ें रखी जाएं तो वे मात्र 6 डिब्बों को पलटाने के बाद रुक जाते हैं। या यदि कौवे किसी बगीचे में हैं और कुछ मनुष्य वहां घुसें तो वे छिप जाते हैं। और तब तक छिपे रहते हैं जब तक कि सारे मनुष्य निकल न जाएं। ऐसा देखा गया था कि वे यह ‘गिनती’ 16 तक कर पाते हैं। इसी प्रकार से एक प्रयोग में यह भी देखा गया था कि यदि किसी स्क्रीन पर कुछ बिंदु अंकित हों तो वे ताड़ सकते हैं कि दो समूहों में बिंदुओं की संख्या बराबर है या नहीं।

और अब जर्मनी के टुबिंजेन विश्वविद्यालय के जंतु वैज्ञानिक एंड्रियास नीडर और उनके साथियों ने इसमें एक नया आयाम जोड़ा है। साइन्स पत्रिका में प्रकाशित अपने शोधपत्र में इस टीम ने बताया है कि कौवों की यह क्षमता मनुष्यों में संख्या कौशल के विकास को समझने में सहायक हो सकती है।

जर्मनी के शोधकर्ताओं ने तीन कैरियन कौवों (Corvus corone) के साथ काम किया। इन कौवों को आदेशानुसार कांव करने का प्रशिक्षण दिया जा चुका था। इसके बाद अगले कुछ महीनों तक इन्हें यह सिखाया गया कि स्क्रीन पर 1, 2, 3 या 4 के दृश्य संकेत दिखने पर उन्हें उतनी ही संख्या में कांव करना है। उन्हें ऐसे श्रव्य संकेतों से भी परिचित कराया गया जो एक-एक अंक से जुड़े थे।

प्रयोग के दौरान ये कौवे स्क्रीन के सामने खड़े होते थे और उन्हें दृश्य या श्रव्य संकेत दिया जाता था। उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वे उस संकेत से मेल खाती संख्या में कांव करेंगे और यह काम पूरा करने के बाद वे ‘एंटर कुंजी’ पर चोंच मारेंगे। यदि वे सही करते तो उन्हें पुरस्कार स्वरूप लजीज़ व्यंजन दिया जाता।

कौवे अधिकांश बारी सही रहे। कम से कम उनके प्रदर्शन को मात्र संयोग का परिणाम तो नहीं कहा जा सकता।

प्रयोग करते-करते शोधकर्ताओं को यह भी समझ आया कि वे कौवे की पहली कांव को सुनकर यह अंदाज़ लगा सकते हैं कि वह कुल कितनी बार कांव करेगा। इसका मतलब यह हुआ कि कौवा पहले से ही कांव की संख्या की योजना बना लेता है अर्थात यह प्रक्रिया सचमुच संज्ञानात्मक नियंत्रण में है। अलबत्ता, ऐसा नहीं था कि कौवे हर बार सटीक होते थे। कभी-कभार वे कम या ज़्यादा बार कांव भी कर देते थे। लेकिन यह भी पूर्वानुमान किया जा सकता था।

लिहाज़ा, यह तो नहीं कहा जा सकता कि ये तीन कौवे वास्तव में गिन रहे थे जिसके लिए संख्याओं की सांकेतिक समझ ज़रूरी है लेकिन हो सकता है कि उनका प्रदर्शन इस समझ के विकास का अग्रदूत हो। आगे और शोध ही इस सवाल पर रोशनी डाल सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धंसती भूमि: कारण और परिणाम (2)

हिमांशु ठक्कर

कारण और समाधान

भूमि धंसाव का आकलन करने के लिए सबसे पहला कदम यह सिद्ध करना है कि कोई क्षेत्र वास्तव में धंस रहा है। भूमि धंसाव मैदानी इलाकों में स्पष्ट नहीं दिखता, खास कर तब जब धंसाव नुमाया न हो और इमारतों या ढांचों में कोई क्षति (दरारें, झुकाव) न दिखे। आम तौर पर धंसाव का जो असर दिखाई देता है, उसे धंसाव का परिणाम मानने के बजाय जलवायु परिवर्तन-जनित समुद्र स्तर में वृद्धि के परिणाम के रूप में देखा जाता है। कुल धंसाव को समझने के लिए भूसतह के उठाव के माप को स्थानीय स्तर के वास्तविक मापों के साथ जोड़कर देखना चाहिए।

भूमि धंसाव दर का पता लगाने के लिए मापन की सटीक तकनीकों की आवश्यकता होती है। इसमें उपयोग की जाने वाली कुछ विधियां हैं: ऑप्टिकल लेवलिंग; ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम (GPS) सर्वेक्षण; लेज़र इमेजिंग डिटेक्शन एंड रेंजिंग (LIDAR); इंटरफेरोमेट्रिक सिंथेटिक अपर्चर रडार (InSAR) सैटेलाइट इमेजरी। ये सभी तकनीकें भूमि सतह के उन्नयन में परिवर्तन को नापती हैं, लेकिन धंसाव के कारण के बारे में कोई जानकारी नहीं देती हैं।

किसी भी शहर में धंसाव के कारक और उनके परिमाण का आकलन करने के लिए विस्तृत शोध की आवश्यकता होती है। अगला कदम, मॉडलिंग और पूर्वानुमान उपकरणों का उपयोग करके धंसाव के विभिन्न कारकों का विभिन्न परिदृश्यों में भावी भूमि धंसाव का अनुमान और उसके कारण होने वाले संभावित नुकसान का अनुमान लगाना होता है।

भूमि धंसाव के कारण प्राकृतिक और मानवजनित दोनों हो सकते हैं। शहरी क्षेत्रों के कुल भूमि धंसाव में सबसे अधिक योगदान मानव प्रेरित भूमि धंसाव का है। भूमि धंसाव की घटना तब होती है जब आम तौर पर उपसतही जल, पत्थर/चट्टानें, तेल, गैस या कोयला जैसे अन्य संसाधनों के निष्कर्षण के कारण भूमि समुद्र तल के सापेक्ष नीचे धंस जाती है। भूमिगत टेक्टोनिक्स प्लेट भी भूमि धंसाव का कारण बन सकती हैं। और भूमि धंसाव का सबसे बड़ा कारण संभवत: भूजल का अत्यधिक निष्कर्षण है। हालांकि तटीय इलाकों में, बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियरों और बर्फीले टीलों के पिघलने एवं समुद्र जल के प्रसार के चलते बढ़ते जलस्तर के सापेक्ष ज़मीन का धंसना धंसाव का प्रमुख कारक है।

ताज़ा शोध कई प्राकृतिक और मानवीय कारकों को धंसाव के साथ जोड़ता है, जैसे शहर के चट्टानी पेंदे की गहराई, भूजल की कमी, इमारतों का वज़न, परिवहन प्रणालियों का उपयोग और भूमिगत खनन। कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि अत्यधिक भूजल निष्कर्षण दुनिया भर के शहरों में भीषण भूमि धंसाव का एक प्रमुख कारण है। मकाऊ और हांगकांग जैसे शहरों में, जहां भूजल का उपयोग नहीं किया जाता है, भूमि सुधार के बाद धंसाव मुख्य रूप से मिट्टी के दबकर ठोस होते जाने के कारण होता है।

वर्तमान में, वैश्विक समुद्र स्तर में निरपेक्ष वृद्धि औसतन 3 मि.मी. प्रति वर्ष के करीब है। जलवायु परिवर्तन परिदृश्यों पर अंतर-सरकारी पैनल के आधार पर अनुमान है कि वर्ष 2100 तक वैश्विक समुद्र स्तर में औसत निरपेक्ष वृद्धि 3-10 मि.मी. प्रति वर्ष होगी। वर्तमान में बड़े तटीय शहरों की धंसाव दर 6 मि.मी. -10 सें.मी. प्रति वर्ष है। इससे लगता है कि समुद्र स्तर में वृद्धि तटीय धंसाव के कई कारणों में से सिर्फ एक कारण है। अध्ययन का निष्कर्ष है, “कई तटीय और डेल्टा शहरों में भूमि धंसाव अब सिर्फ समुद्र स्तर में वृद्धि से दस गुना अधिक है।”

बड़े बांधों की भूमिका

डेल्टा शहरों या क्षेत्रों में होने वाले धंसाव में बड़े बांधों की भी भूमिका है। यह जानी-मानी बात है कि डेल्टा क्षेत्रों में होने वाले धंसाव का एक प्रमुख कारण है डेल्टा तक पहुंचने वाली गाद में भारी कमी आना। अध्ययनों का अनुमान है कि पिछली शताब्दी में विभिन्न नदियों के साथ डेल्टा तक पहुंचने वाली गाद में कमी आई है (देखें तालिका)।

नदीडेल्टा तक पहुंचने वाली गाद में आई कमी
कृष्णा94 प्रतिशत
नर्मदा95 प्रतिशत
सिंधु80 प्रतिशत
कावेरी80 प्रतिशत
साबरमती96 प्रतिशत
महानदी74 प्रतिशत
गोदावरी74 प्रतिशत
ब्राम्हणी50 प्रतिशत

गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा का ही उदाहरण लें। गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा दुनिया के सबसे बड़े डेल्टा में से एक है। इनके जलभराव क्षेत्र में हवा और बारिश के कारण हिमालयी पर्वतों का कटाव/घिसाव होता है। फलस्वरूप ये विशाल नदियां हर साल बंगाल की खाड़ी में एक अरब टन से अधिक गाद पहुंचाती थीं। कुछ स्थानों पर आखिरी हिमयुग के समय से जमा तलछट एक कि.मी. से अधिक मोटी है। सभी डेल्टाओं में यह भुरभुरी सामग्री आसानी से संपीड़ित हो जाती है, नतीजतन भूमि धीरे-धीरे धंसती जाती है और सापेक्ष समुद्र स्तर बढ़ता जाता है।

ज्वार और तूफान भी डेल्टा का क्षय करते हैं। पहले, नदियों के साथ हर साल बहकर वाली गाद डेल्टा की क्षतिपूर्ति करती रहती थी। लेकिन नदियों पर बने बड़े बांधों ने पानी का बहाव मोड़ दिया और गाद के बहकर आने को रोक दिया है। इसलिए तटीय भूमि अब पुनर्निर्मित नहीं हो रही है। 2009 के एक अध्ययन में पाया गया था कि 21वीं सदी के पहले दशक में दुनिया के 85 प्रतिशत सबसे बड़े डेल्टाओं ने भयंकर बाढ़ का सामना किया। नदी और समुद्र से भूमि की रक्षा करने वाले तटबंध भी डेल्टा को गाद की ताज़ा आपूर्ति से वंचित कर सकते हैं।

1762 में 8.8 तीव्रता से आए भूकंप के कारण बांग्लादेश के दक्षिण-पूर्वी शहर चटगांव के आसपास की भूमि कई मीटर तक धंस गई थी; सुंदरबन में ऐसा लगता है कि यह कम से कम 20 सें.मी. नीचे चला गया है। भूकंप विज्ञानियों का अनुमान है कि इस टेक्टोनिक रूप से अस्थिर क्षेत्र में एक और बड़ा भूकंप कभी भी आ सकता है, और जब यह आएगा तो यह ढाका और चटगांव जैसे खराब तरीके से निर्मित, खचाखच भरे शहरों को तबाह कर देगा। यह डेल्टा के कुछ-कुछ हिस्सों को एक झटके में इतना नीचे धंसा सकता है, जितना कि दशकों में धीमे-धीमे समुद्र-स्तर वृद्धि और गाद दबने के कारण हुआ था।

दोहरी मार

जैसे-जैसे शहर नीचे धंस रहे हैं, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण वैश्विक समुद्र स्तर भी बढ़ रहा है। इस दोहरी मार के कारण 2120 तक चीन की 22-26 प्रतिशत तटीय भूमि समुद्र तल से नीचे होगी। जलवायु परिवर्तन अन्य तरीकों से भी भूस्खलन बढ़ा सकता है; जैसे इस बात का असर पड़ेगा कि बारिश कहां और कब होगी, या नहीं होगी। सूखे के कारण भूजल का उपयोग बढ़ सकता है, जिससे भूस्खलन अधिक और तेज़ हो सकता है।

परिणाम

भूमि के असमान धंसाव से बाढ़ की संभावना (बाढ़ की आवृत्ति, जलप्लावन की गहराई और बाढ़ की अवधि) बढ़ जाती है। बाढ़ के कारण बड़े पैमाने पर मानवीय, सामाजिक और आर्थिक नुकसान होते हैं। धंसाव के कारण समुद्री जल भूमि पर अंदर भी आ सकता है, जिससे भूजल दूषित हो सकता है।

इसके अलावा, भूमि में असमान परिवर्तन के कारण भवन आदि निर्माणों की क्षति और इन्फ्रास्ट्रक्चर के रखरखाव की उच्च लागत के रूप में काफी आर्थिक नुकसान होता है। इसके कारण सड़क और परिवहन नेटवर्क, हाइड्रोलिक निर्माण, नदी तटबंध, नहर आदि के गेट, बाढ़ अवरोधक, पंपिंग स्टेशन, सीवेज सिस्टम, इमारत और नींव प्रभावित होती हैं। कुल मिलाकर जल प्रबंधन बाधित होता है। जिन शहरों में इस तरह के निर्माण/संरचना क्षतिग्रस्त हुए हैं उनमें शामिल हैं न्यू ऑरलियन्स (यूएसए), वेनिस (इटली) और एम्स्टर्डम (नेदरलैंड)। उत्तरी नेदरलैंड में, गैस के अत्यधिक दोहन के कारण भी भूकंपीय गतिविधियों में वृद्धि आई है।

दुनिया भर में इसके चलते सालाना अरबों डॉलर का नुकसान हो जाता है। और ऐसे प्रमाण हैं कि धंसाव और उससे होने वाली क्षति दोनों ही बढ़ेंगी। धंसाव का मतलब यह भी है कि तूफानी लहरों, तूफानों व टाइफून और वर्षा में होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव बढ़ेगा।

धंसाव से जुड़े आर्थिक खामियाज़े का अनुमान लगाना जटिल है। फिर भी मोटे तौर पर कुछ अनुमान लगाए गए हैं। उदाहरण के लिए, चीन में धंसाव के कारण प्रति वर्ष होने वाला कुल आर्थिक नुकसान औसतन लगभग 1.5 अरब डॉलर है, जिसमें से 80-90 प्रतिशत अप्रत्यक्ष क्षति के कारण है। शंघाई में, 2001-2010 के दौरान, कुल नुकसान लगभग 2 अरब डॉलर था। नेदरलैंड में, यह गणना की गई है कि अब तक (धंसाव के कारण) नींव को नुकसान 5.4 अरब डॉलर से अधिक रहा है, और 2050 तक यह नुकसान 43 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है।

समाधान

ऐसे कई शहरों के उदाहरण हैं जहां धंसाव को थामने के कारगर उपाय अपनाने के बाद धंसाव कम हुआ है या रुक गया है। टोकियो में भूजल दोहन को सीमित करने वाले कानून पारित होने के बाद धंसाव की दर कम हुई है – 1960 के दशक में वहां धंसाव की दर प्रति वर्ष 240 मि.मी. थी जो कानून पारित होने के बाद 2000 के दशक की शुरुआत में लगभग 10 मि.मी. प्रति वर्ष रह गई। बैंकॉक-थाईलैंड में, भूजल दोहन पर नियंत्रण और प्रतिबंध ने गंभीर भूमि धंसाव को काफी कम कर दिया है।

शंघाई 1921 से 1965 के बीच 2.6 मीटर तक धंस गया था। वहां कई पर्यावरणीय नियम-कायदे लागू करके धंसाव की वार्षिक दर को लगभग 5 मि.मी. तक कम कर दिया गया। यहां सक्रिय भूजल रिचार्ज तकनीकों के ज़रिए भूजल स्तर को बहाल किया गया था। शंघाई का मामला दर्शाता है कि सक्रिय और पर्याप्त भूजल रिचार्ज करके गंभीर धंसाव की स्थिति बनाए बिना टिकाऊ भूजल उपयोग संभव है, बशर्ते भूजल के औसत वार्षिक दोहन और औसत वार्षिक रिचार्ज के बीच संतुलन हो। ये प्रयास धंसाव की समस्या से ग्रस्त चीन के अन्य शहरों को एक रास्ता दिखाते हैं।

यदि उपाय देर से लागू किए जाएं तो अतिरिक्त धंसाव हो सकता है। धंसाव या इसके प्रभावों को कम करने के लिए अपनाए गए उपायों के लिए, इन प्रयासों की प्रभावशीलता की सतत निगरानी ज़रूरी है।

शहरों के धंसाव को थामने के लिए दो संभावित नीतिगत रणनीतियां हैं: शमन और अनुकूलन। किसी भी नीति में दोनों को शामिल करना ज़रूरी है। मानव-जनित धंसाव के लिए शमन कारगर है। विशिष्ट शमन उपायों में भूजल निष्कर्षण पर प्रतिबंध और जल भंडारों को रिचार्ज करना शामिल है। इसी तरह जब धंसाव गैस या अन्य संसाधनों के दोहन के कारण हो रहा हो तो इनके दोहन पर प्रतिबंध कारगर हो सकता है। हल्की सामग्री से भवन आदि का निर्माण करने से नरम मिट्टी पर भार कम पड़ता है, जिससे दबना और धंसना कम होता है। गाद या नदियों के ऊपर बने बांधों को हटाने से गाद से वंचित डेल्टा शहरों को मदद मिल सकती है।

शमन के उपाय पर्याप्त न हों, तो साथ-साथ अनुकूलन रणनीतियों पर भी विचार किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धंसती भूमि: कारण और परिणाम (1) – हिमांशु ठक्कर

व्यापकता

पिछले महीने जब यह खबर आई कि तटीय और भीतरी शहरों सहित चीन के आधे से अधिक प्रमुख शहर ज़मीन में धंसते चले जा रहे हैं, तो कई लोगों को यह दुनिया के किसी सुदूर कोने में होने वाली कोई मामूली-सी घटना लगी। लेकिन यह घटना न केवल व्यापक और चिंताजनक है, बल्कि भारत समेत दुनिया के कई हिस्सों के लिए प्रासंगिक भी है। यहां तक कि हमारे यहां कुछ जगहों पर स्थिति बदतर भी हो सकती है। लेकिन पहले यह समझ लेते हैं कि यह खबर किस बारे में थी।

नेचर एंड साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि चीन के तटीय और भीतरी शहरों समेत लगभग आधे प्रमुख शहर भूमि धंसाव का सामना कर रहे हैं। यह आकलन चीन के 20 लाख से अधिक आबादी वाले 82 शहरों के अध्ययन पर आधारित है। ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2120 तक चीन के तटीय शहरों के 10 प्रतिशत निवासी, यानी इन शहरों के 5.5 से 12.8 करोड़ लोग समुद्र तल से नीचे रह रहे होंगे, और बाढ़ों तथा अन्य अपूरणीय क्षति का सामना कर रहे होंगे। चीन के प्रमुख शहरों का 16 प्रतिशत क्षेत्र प्रति वर्ष 10 मि.मी. की तीव्र दर से धंसता जा रहा है। वहीं, लगभग 45 प्रतिशत क्षेत्र प्रति वर्ष 3 मि.मी. से अधिक की मध्यम दर से धंस रहा है। प्रभावित शहरों में राजधानी बीजिंग भी शामिल है।

शोधकर्ताओं ने उपग्रहों के रडार पल्स का उपयोग उपग्रह और ज़मीन के बीच की दूरी में परिवर्तन को मापने के लिए किया ताकि यह पता किया जा सके कि 2015 से 2022 के बीच इनके बीच की दूरी कैसे बदली। इस सूची में अधिकतर गैर-तटीय शहर शामिल हैं, जैसे कुनमिंग, नैन्निंग और गुइयांग। ये शहर अत्यधिक घनी आबादी वाले या औद्योगिक शहर नहीं हैं, फिर भी ये उल्लेखनीय धंसाव का सामना कर रहे हैं।

अन्य देश भी

ज़मीन के धंसाव की समस्या सिर्फ चीन तक सीमित नहीं है। जकार्ता इतनी तेज़ी से धंस रहा है कि इंडोनेशिया एक नए शहर को राजधानी बनाने पर विचार कर रहा है। जकार्ता के कुछ हिस्से एक दशक में एक मीटर से अधिक धंस गए हैं। फरवरी 2024 में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में पाया गया था कि दुनिया भर की लगभग 63 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि पर निरंतर धंसाव का खतरा है। इंडोनेशिया सबसे अधिक प्रभावित देशों में से एक है। वर्तमान में दुनिया के 44 मुख्य तटीय शहर इस समस्या से जूझ रहे हैं, और इनमें से 30 शहर एशिया में स्थित हैं।

मनीला, हो-ची-मिन्ह सिटी, न्यू ऑरलियन्स और बैंकॉक भी यही जोखिम झेल रहे हैं। ईरान की राजधानी तेहरान के कुछ हिस्से हर साल 25 सें.मी. तक धंस रहे हैं, जहां करीब 1.3 करोड़ लोग रहते हैं। नेदरलैंड इस तथ्य के लिए प्रसिद्ध है कि यहां की लगभग 25 प्रतिशत भूमि समुद्र सतह से नीचे चली गई है। अनुमान है कि वर्ष 2040 तक दुनिया की लगभग 20 प्रतिशत आबादी धंसावग्रस्त भूमि पर रह रही होगी।

ढाका एक ऐसे शहर का उदाहरण है जिसने बाढ़ आने की आवृत्ति बढ़ने के बाद यह पता लगाना शुरू किया कि यह शहर धंस रहा है। वर्तमान में, तेज़ी से फैल रहे इस शहर में भूमि धंसाव और इसके प्रभावों पर आंकड़े नदारद हैं। बड़े पैमाने पर भूजल दोहन के कारण भूजल स्तर हर वर्ष 2-3 मीटर तक गिर रहा है। वर्तमान में 87 प्रतिशत पानी की आपूर्ति भूजल से होती है, और यह कहा जा रहा है कि भूजल की बजाय सतही जल से आपूर्ति लेना आवश्यक हो गया है। लेकिन ऐसा करना मुश्किल है क्योंकि सतह पर मौजूद अधिकतर पानी प्रदूषित है।

उपग्रह डैटा के विश्लेषण से पता चला है कि 2010 के बाद से मेक्सिको की खाड़ी में समुद्र जल स्तर में वृद्धि वैश्विक औसत दर से दुगनी हुई है। पृथ्वी पर कुछ अन्य स्थानों पर भी ऐसी ही वृद्धि दर देखी गई है, जैसे कि युनाइटेड किंगडम के नज़दीकी नॉर्थ सी में।

पिछली एक सदी का ज्वार उठने का डैटा और हाल ही का ऊंचाई मापने का (अल्टीमेट्री) डैटा, दोनों इस बात का खुलासा करते हैं कि 2010-22 के दौरान यू.एस. पूर्वी तट और मेक्सिको की खाड़ी के तट पर समुद्र स्तर में तेज़ी से वृद्धि हुई है। इस प्रकार, 2010 के बाद से, समुद्र के स्तर में वृद्धि या सापेक्ष भूमि धंसाव बहुत ही असामान्य और अभूतपूर्व है। समुद्र सतह में हो रही तेज़ी से वृद्धि दर तो समय के साथ कम हो जाएगी, किंतु हाल के वर्षों में जल स्तर में जो वृद्धि हो चुकी है वह तो बनी रहेगी।

टेक्सास के गैल्वेस्टन में समुद्र का जलस्तर असाधारण दर से बढ़ा है — 14 वर्षों में 8 इंच। विशेषज्ञों का कहना है कि यह तेज़ी से धंसती ज़मीन के कारण और बढ़ गया है। यहां 2015 के बाद से कम से कम 141 बार उच्च ज्वार के कारण बाढ़ आई है, और वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इनकी आवृत्ति और बढ़ेगी।

संयुक्त राज्य अमेरिका में, 45 राज्यों में 44,000 वर्ग कि.मी. से अधिक भूमि सीधे तौर पर धंसाव से प्रभावित हुई है; इसमें से 80 प्रतिशत से अधिक मामले तो भूजल दोहन से जुड़े हैं। शोध से पता चला है कि धंसती ज़मीन और समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण न्यूयॉर्क, बोस्टन, सैन फ्रांसिस्को और मायामी सहित 32 अमेरिकी तटीय शहरों के पांच लाख से अधिक लोग बाढ़ों का सामना करेंगे।

भारत में भूमि धंसाव

भारत में, भूमि धंसाव की व्यापक तस्वीर पेश करने और धंसाव के कारणों को बताने के लिए हमारे पास व्यवस्थित निगरानी या जानकारी की कमी है। हालांकि, यह देखते हुए कि भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है और यहां भूजल उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है, और यह देखते हुए कि पिछले 4 दशकों से भूजल अब तक भारत की जीवन रेखा रहा है, भारत में धंसाव के संभावित आयाम चिंताजनक हैं। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बांध निर्माता भी रहा है और संभवत: वर्तमान का सबसे बड़ा बांध निर्माता है। देश भर में धंसाव की निगरानी और मापन तुरंत शुरू करना ज़रूरी है। हमें डेल्टा क्षेत्रों में धंसाव पर बांधों के प्रभाव का भी आकलन करना चाहिए।

जैसा कि ऊपर बताया गया है नदियों के ऊपर बने बांधों में फंसी गाद की मात्रा और इस कारण डेल्टा क्षेत्रों तक नहीं पहुंच रही गाद को देखते हुए डेल्टा क्षेत्रों की स्थिति हमारे लिए चिंता का विषय होनी चाहिए।

भारत में हाल के दिनों में धंसाव की सबसे प्रसिद्ध घटना उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ में हुई थी। यहां धंसाव में अन्य कारकों के अलावा निर्माणाधीन पनबिजली परियोजना की भूमिका होने का संदेह है, लेकिन यह मुद्दा अनसुलझा है।

भूमि धंसाव की कई घटनाएं हुई हैं। सबसे हालिया घटनाएं मई 2024 में रामबन और डोडा ज़िलों में और अब संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र के जम्मू और कश्मीर के उधमपुर में हुई हैं। इन घटनाओं के लिए सड़कों और रेलवे सुरंगों के लिए पहाड़ियों को काटने और विस्फोट करने, पनबिजली परियोजनाओं के प्रसार सहित कई कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।

अप्रैल 2024 में राजस्थान में भूमि धंसने की दो बड़ी घटनाएं हुई थीं, जिन्होंने भूगर्भशास्त्रियों और आम लोगों दोनों को चिंता में डाल दिया। दोनों ही घटनाएं रेगिस्तानी ज़िलों में हुईं, जिससे इन दोनों घटनाओं के बीच सम्बंध होने की आशंका बढ़ गई। 16 अप्रैल, 2024 को बीकानेर ज़िले की लूणकरणसर तहसील के सहजरासर गांव में डेढ़ बीघा जमीन धंस गई। उस समय यात्रियों से भरी एक ट्रेन वहां से गुज़र रही थी, लेकिन धंसती ज़मीन की चपेट में आने से बाल-बाल बच गई। धंसाव से करीब 70 फीट गहरा गड्ढा बन गया था। ग्रामीणों के अनुसार अब यह गड्ढा करीब 80-90 फीट गहरा हो गया है।

दूसरी घटना 6 मई 2024 को बाड़मेर ज़िले के नागाणा गांव में हुई। यहां ज़मीन में करीब डेढ़ किलोमीटर लंबी दो दरारें पड़ गई थीं। थार रेगिस्तान में हुई इन दो घटनाओं पर भूगर्भीय टीम ने अन्य कारणों के साथ भूजल दोहन को ज़िम्मेदार ठहराते हुए अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट प्रशासन को सौंप दी है। उपग्रह तस्वीरों, जल दोहन के आंकड़ों और अन्य तकनीकी सूचनाओं के आधार पर एक विस्तृत रिपोर्ट आने वाली है।

इससे स्पष्ट है कि हमें काफी अध्ययन करने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

लेख के दूसरे अंक में इस परिघटना के कारणों व समाधान की चर्चा करेंगे।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियार

चक्रेश जैन

जानलेवा सैन्य हथियारों की स्वायत्तता इन दिनों गहन विचार मंथन और चर्चाओं के दौर से गुज़र रही है। कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों के सृजन को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभियान शुरू हुआ है। जुलाई 2023 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा कृत्रिम बुद्धि निर्देशित हथियारों के विभिन्न पहलुओं पर व्यापक मंथन किया गया था। विचार मंथन का दौर अभी थमा नहीं है। इसी साल के उत्तरार्द्ध में संयुक्त राष्ट्र महासभा में कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों पर विभिन्न कोणों से नज़र डालने के लिए बैठक होगी। लेकिन इस बैठक के पहले अप्रैल में ऑस्ट्रिया में एक सम्मेलन आयोजित हो चुका है।

कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों की तुलना रासायनिक, जैविक और परमाणु हथियारों से की जाए तो ये हथियार खतरनाक होने के पैमाने पर एक कदम आगे निकल गए हैं। हाल के वर्षों में दुनिया की बड़ी सैन्य ताकतों ने जानलेवा स्वायत्त हथियारों को मज़बूत करने पर विशेष ज़ोर दिया है। यही मुद्दा विचार मंथन का विषय है। रक्षा वैज्ञानिक, विधिवेत्ता, रोबोट विज्ञान के अध्येता, सैन्य योजनाकार और नैतिकतावादी जानलेवा स्वायत्त हथियारों के विभिन्न मुद्दों पर बहस में जुट गए हैं।

जानलेवा स्वायत्त हथियारों पर प्रतिबंध के संदर्भ में नैतिक कारण भी अहम हैं। यह सवाल सहज रूप से किया जा सकता है कि युद्ध के मैदान में किसी भी अनैतिक गतिविधि के लिए एक मशीन को कैसे ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है? इस सवाल का कोई तर्क आधारित उत्तर किसी के पास नहीं है और यही कारण है कि इन हथियारों पर प्रतिबंध की मांग उठी है। नैतिक कारणों पर गंभीरता से गौर करें तो एक और बात जोड़ना लाज़मी है। क्या किसी मशीन द्वारा जीवन और मृत्यु का फैसला करना नैतिक रूप से स्वीकार्य है?

कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों का इस्तेमाल पिछले कई दशकों से हो रहा है। इनमें हीट सीकिंग मिसाइलें और प्रेशर ट्रिगर बारूदी सुरंगें भी सम्मिलित हैं। हाल के वर्षों में चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, रूस और इस्राइल जैसे देशों ने युद्ध के मैदान में इन हथियारों की तैनाती को प्राथमिकता दी है। भारत ने स्वायत्त हथियारों पर अनुसंधान का समर्थन किया है।

सेना में कृत्रिम बुद्धि का इस्तेमाल जिन कुछ कार्यों के लिए किया जा सकता है, उनमें रसद और आपूर्ति प्रबंधन, डैटा विश्लेषण, खु़फिया जानकारियां जुटाने, सायबर ऑपरेशन और हथियारों की स्वायत्त प्रणाली सम्मिलित है। इनमें सबसे ज़्यादा विवादित हथियारों की स्वायत्त प्रणाली है।

क्या हैं स्वायत्त हथियार

इसके तहत वे हथियार आते हैं, जो अपने आप कार्य करने में सक्षम हैं; इन्हें मनुष्य की ज़रूरत नहीं पड़ती।

इंटरनेशनल कमेटी ऑफ दी रेड क्रॉस की परिभाषा के अनुसार स्वायत्त हथियार ऐसे हथियार हैं, जो मानवीय हस्तक्षेप के बिना लक्ष्य का चुनाव और इस्तेमाल करते हैं। वास्तव में स्वायत्त हथियार सेंसर और सॉफ्टवेयर से संचालित होते हैं। इनका इस्तेमाल उन इलाकों में किया जाता है, जहां बहुत कम आबादी होती है। दरअसल जानलेवा स्वायत्त हथियार अपने लक्ष्य की पहचान के लिए एल्गोरिदम का इस्तेमाल करते हैं।

हथियारों की यह प्रणाली ‘प्रक्षेपास्त्र प्रतिरक्षा प्रणाली’ से लेकर एक लघु ड्रोन के रूप में हो सकती है। इन हथियारों का लड़ाई के दौरान इस्तेमाल करने के कारण एक नया शब्द ईजाद किया गया है, जिसे ‘लीथल ऑटोनामस वेपन’ कहा जा रहा है। इन हथियारों का इस्तेमाल ज़मीन से लेकर अंतरिक्ष तक में किया जा सकता है, पानी पर अथवा पानी के नीचे भी किया जा सकता है। विशेषज्ञों का विचार है कि जानलेवा स्वायत्त हथियारों के सृजन में प्रौद्योगिकी की अहम भूमिका है। वस्तुत: प्रौद्योगिकी हथियारों को रफ्तार, बचाव और अन्य प्रकार की विशेषताओं से युक्त और कारगर बनाने में भूमिका निभाती है।

प्रौद्योगिकी के प्रसंग में कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी, बर्कले के कंप्यूटर अध्येता और कृत्रिम बुद्धि से सृजित हथियारों के विरोधी स्टुअर्ट रसेल का सोचना है कि किसी सिस्टम के लिए इंसान का पता लगाकर उसे मारने की प्रौद्योगिकी क्षमता का विकास सेल्फ ड्राइविंग कार विकसित करने से कहीं अधिक आसान है।

वास्तव में पूछा जाए तो ये हथियार अब विज्ञान कथाओं के काल्पनिक भवन से बाहर निकल कर वास्तविक रूप में लड़ाई के मैदान में नज़र आ रहे हैं। इनका धीरे-धीरे विस्तार हो रहा है।

जहां एक ओर कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों की ज़ोरदार वकालत की गई है, वहीं दूसरी ओर इन्हें भारी विरोध और तीखी आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा है। आलोचकों के अनुसार ये हथियार बहुत महंगे हैं। इनका रचनात्मकता से ज़रा भी सरोकार नहीं है। भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं है। जवाबदेही का सवाल ही नहीं उठता। एक अध्ययन में बताया गया है कि इन हथियारों के इस्तेमाल से बेरोज़गारी बढ़ेगी।

दूसरी ओर, ऐसे हथियारों की ज़ोरदार वकालत कर रहे लोगों का कहना है कि ये अत्यधिक उन्नत कार्यों को सम्पादित करने में पूरी तरह सक्षम हैं। युद्ध के दौरान मनुष्य से होने वाली त्रुटियों में कमी आएगी। ये त्वरित फैसला करने में सक्षम हैं। कुल मिलाकर, ये हथियार सटीक साबित हुए हैं और हर पल उपलब्ध हैं। इस प्रकार के हथियारों ने नए आविष्कारों और नवाचारों को भी जन्म देने में भूमिका निभाई है। पारम्परिक हथियारों की तुलना में इनसे कम नुकसान पहुंचता है, नागरिक कम हताहत होते हैं।

हाल के वर्षों में छिड़े युद्धों में कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों का इस्तेमाल किया गया है। इसका एक उदाहरण रूस और यूक्रेन के बीच लड़ाई है, जिसमें एआई ड्रोन का इस्तेमाल भी किया गया है। अमेरिका के रक्षा विभाग ने अपने ‘रेप्लिकेटर’ कार्यक्रम के तहत लघु हथियारयुक्त स्वायत्त वाहनों का बेड़ा तैयार किया है। इसके अलावा, प्रायोगिक पनडुब्बियां और जहाज़ बनाए हैं, जो स्वयं को चलाने के लिए कृत्रिम बुद्धि छवि का उपयोग कर सकते हैं। स्वायत्त हथियार एक मॉडल विमान के आकार का हो सकता है। इनका मूल्य लगभग पचास हज़ार डॉलर आंका गया है।

स्वायत्त हथियार प्रणालियों का समर्थन दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला, सैन्य स्तर पर फायदे और दूसरा, नैतिक औचित्य। अमेरिकी सेना के एक अधिकारी का मानना है कि युद्ध क्षेत्रों से मनुष्यों को हटाकर रोबोट का इस्तेमाल करने के नैतिक फायदे हो सकते हैं।

जुलाई 2015 में कृत्रिम बुद्धि पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रतिभागी राष्ट्रों ने मानवीय नियंत्रण से परे स्वायत्त हथियारों पर रोक लगाने का आव्हान करते हुए एक खुला पत्र जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि कृत्रिम बुद्धि में मानवता को फायदा पहुंचाने की क्षमताएं हैं, लेकिन अगर कृत्रिम बुद्धि निर्देशित हथियारों की स्पर्धा शुरू हो जाती है तो एआई की प्रतिष्ठा धूमिल पड़ सकती है। इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में टेस्ला कंपनी के संस्थापक एलन मस्क भी शामिल हैं। दरअसल स्वायत्त हथियार प्रणालियों के कुछ विरोध न केवल उत्पादन और तैनाती बल्कि इन पर रिसर्च, विकास और परीक्षण पर भी पाबंदी लगाना चाहते हैं।

रक्षा विज्ञान के दस्तावेज़ों में स्वायत्तता को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया गया है। रेड क्रॉस की अंतर्राष्ट्रीय समिति के अनुसार स्वायत्त हथियार ऐसे हथियार हैं, जो स्वतंत्र रूप से लक्ष्यों का चुनाव और आक्रमण करने में सक्षम हैं। हारवर्ड लॉ स्कूल की मानव अधिकार अधिवक्ता बोनी डॉचेर्टी ने स्वायत्तता को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है: ह्युमैन-इन-दी-लूप (निर्णय शृंखला में मानव शामिल); ह्युमैन-ऑन-दी-लूप (निर्णय शृंखला पर मानव) और तीसरा ह्युमैन-आउट-ऑफ-दी-लूप (मानव निर्णय शृंखला के बाहर) हैं। ‘निर्णय शृंखला में मानव शामिल’ श्रेणी में हथियारों की कार्रवाई इंसान द्वारा की जाती है, लेकिन लोगों को कहां और कैसे सम्मिलित किया जाना चाहिए, यह विचार मंथन का मुद्दा है। ‘निर्णय शृंखला पर मानव’ में एक मनुष्य किसी कार्रवाई को रद्द कर सकता है। ‘मानव निर्णय शृंखला के बाहर’ श्रेणी में कोई मानवीय हस्तक्षेप नहीं है। अनुसंधानकर्ताओं और सैन्य विज्ञान के जानकारों ने सैद्धांतिक तौर पर पहले प्रकार पर सहमति ज़ाहिर की है।

कृत्रिम बुद्धि से निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों के मामले में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि युद्ध के मैदान में इनके बेहतर प्रदर्शन का पता लगाना बेहद कठिन कार्य है क्योंकि किसी भी देश की सेना इस प्रकार की सूचनाओं का सार्वजनिक तौर पर खुलासा नहीं करती। सैन्य अधिकारी केवल इतना ही बताते हैं कि इस प्रकार के डैटा अथवा सूचनाओं का उपयोग स्वायत्त और गैर-स्वायत्त प्रणालियों के बेंचमार्क अध्ययन में किया जाता है।

परमाणु हथियारों के मामले में ‘साइट निरीक्षण’ और ‘न्यूक्लियर मटेरियल’ के ऑडिट के लिए एक अच्छी तरह से स्थापित निगरानी व्यवस्था है, लेकिन कृत्रिम बुद्धि जनित हथियारों के मामले में तथ्यों को छिपाना या बदलना बेहद आसान है।

सितंबर में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावित सम्मेलन में ऐसे कुछ गंभीर मुद्दों पर विचार और निर्णय करने के लिए एक कार्य समूह गठित किए जाने के अच्छे आसार हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दूर बैठे-बैठे आंखों की देखभाल – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पूर्वी रेलपथ पूर्वोत्तर भारत, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा को दक्षिणी राज्यों से जोड़ने वाली जीवन रेखा है। इस रेलमार्ग पर सफर करते हुए कई सुंदर नज़ारे दिखाई देते हैं; ट्रेन 900 वर्ग कि.मी. में फैली चिलिका झील के किनारे से होकर भी गुज़रती है।

इस रेलमार्ग से दक्षिण भारत की ओर यात्रा करते समय आप एक और दिलचस्प बात गौर करेंगे – कई यात्री दक्षिण भारतीय शहरों में स्थित नेत्र अस्पतालों में जा रहे होते हैं। दुनिया के कुल नेत्रहीन लोगों में से लगभग एक-चौथाई भारत में रहते हैं। इस रूट की ट्रेनों में गंभीर समस्याओं वाले मरीज़ और उनके साथ चिंतित रिश्तेदार दिखना एक आम दृश्य हैं; ये चेन्नई और हैदराबाद जैसे शहरों के प्रतिष्ठित और कम-खर्चीले या मुफ्त इलाज वाले नेत्र अस्पतालों की तलाश में जा रहे होते हैं।

पर्यावरणीय लागत

लेकिन ग्रामीण क्षेत्र से इन नेत्र विशेषज्ञों के पास आने-जाने का खर्चा और असुविधा इसमें एक बड़ी बाधा हो सकती है। एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट की बीएमसी ऑप्थेल्मोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन बताता है कि किसी ग्रामीण व्यक्ति को प्राथमिक उपचार पाने के लिए (कम से कम) 80 कि.मी. की यात्रा करनी पड़ती है। उन्नत चिकित्सा उपकरण और विशेषज्ञता वाले तृतीयक देखभाल केंद्र तक आने के लिए तो यह यात्रा और भी लंबी हो सकती है। एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट में आने वाले लगभग आधे मरीज़ ट्रेन से औसतन 1666 कि.मी. की यात्रा करके पहुंचते हैं। यही स्थिति चेन्नई के शंकर नेत्रालय और मदुरै के अरविंद आई हॉस्पिटल की भी है।

इसमें शामिल खर्चे के इतर यह पूरी यात्रा कार्बन पदचिन्ह छोड़ने में भी योगदान देती है। भारत के कुल कार्बन पदचिन्ह में लगभग 5 प्रतिशत योगदान स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का है, यानी यह हिस्सा इस क्षेत्र द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा है। जैसे-जैसे हमारा अधिकाधिक ज़ोर हरित (ऊर्जा अपनाने) होने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने पर जा रहा है, सुदूर चिकित्सा अपनी जगह बनाती जा रही है। सुदूर चिकित्सा में चिकित्सक दूर बैठे-बैठे रोगियों का निदान, उपचार और निगरानी करते हैं।

सुदूर नेत्र चिकित्सा

सुदूर नेत्र चिकित्सा के उपयोग के चलते नेत्र चिकित्सा एक बड़ी आबादी तक और कम सेवा-सुविधा वाले क्षेत्रों तक पहुंचने लगी है। सुदूर नेत्र चिकित्सा का एक गुप्त लाभ यह है कि नेत्र रोगों का शीघ्र पता लगाने, निदान करने और इन बीमारियों की प्रगति पर नज़र रखने में इमेजिंग प्रणालियां अहम हैं। इनमें से अधिकांश प्रणालियों में विशेष उपकरणों द्वारा आंख की आंतरिक सतह की तस्वीरें ली जाती हैं। फिर दूर बैठे नेत्र विशेषज्ञ छवियों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करके निदान करते हैं।

मसलन, आंख के पीछे स्थित रेटिना की तस्वीरें फंडस फोटोग्राफी की मदद से ली जाती है, जो ग्लूकोमा और डायबिटिक रेटिनोपैथी जैसी स्थितियों का पता लगाने में सहायता करती है। इसी तरह, ऑप्टिकल कोहरेंस टोमोग्राफी से प्राप्त तस्वीरें रेटिना की परतों का ब्यौरा देती हैं और रेटिना डिटेचमेंट जैसी स्थितियों की निगरानी में खास उपयोगी होती हैं।

अधुनातन विकास की मदद से इस तरह के उपकरणों के आकार छोटे हो रहे हैं। कुछ मामलों में, ये उपकरण मोबाइल फोन के कैमरों से जुड़ जाते हैं। इससे इन उपकरणों का ग्रामीण लोगों के नज़दीकी प्राथमिक केंद्रों में उपयोग करना आसान हो जाएगा। अन्य तकनीकों (जैसे 5G सेवाओं) में प्रगति और उनकी उपलब्धता मरीज़ों और उनके दूरस्थ विशेषज्ञों के बीच संचार-संवाद को बेहतर कर सकती हैं।

सुदूर चिकित्सा ने चिकित्सा देखभाल के कई अन्य क्षेत्रों में भी प्रभाव छोड़ा है। पहनने योग्य उपकरण, जिनमें सबसे अधिक स्मार्टवॉच पहने हुए लोग दिखते हैं, के डैटा को निरंतर देखभालकर्ताओं/चिकित्सकों को भेजने के लिए सेट किया जा सकता है। जैसे स्मार्टवॉच से प्राप्त हृदय गति और रक्तचाप सम्बंधी डैटा को उन हृदय चिकित्सकों को भेजने के लिए सेट किया जा सकता है, जो इन गड़बड़ियों की निगरानी करते हैं।

तो, अगली बार आपको संदेह हो कि परिवार के किसी सदस्य को कंजक्टीवाइटिस है तो आप सुदूर परामर्श लेकर इसकी पुष्टि कर सकते हैं या अपनी शंका दूर कर सकते हैं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुछ देशों में गायब हुए ग्लेशियर

क हालिया घटना में स्लोवेनिया और वेनेज़ुएला अपने सभी हिमनद (ग्लेशियर)) को खोने वाले पहले देश बन गए हैं। मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन के कारण हुई यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना एक बड़े वैश्विक संकट की ओर संकेत देती है जिसकी चपेट में कई अन्य देश भी आ सकते हैं।

कुछ रिपोर्टों के अनुसार वेनेज़ुएला अपने सभी हिमनदों को गंवाने वाला पहला देश हो सकता है। कुछ शोध अध्ययनों से तो पता चलता है कि शायद स्लोवेनिया तीस साल पहले इस त्रासदी से गुज़र चुका था।

हिमनद बर्फ की नदियां होती हैं। वास्तव में हिमनद की परिभाषा में यह शामिल है कि उसके बर्फ में गति होती हो और दरारें उपस्थिति हों, और दोनों ही स्लोवेनिया के ग्लेशियर के अवशेषों में दशकों से नदारद हैं।

गौरतलब है कि हिमनदों का पिघलना जलवायु परिवर्तन के सबसे नुमाया प्रभावों में से एक है। आइसलैंड जैसे आर्कटिक देशों में भी ग्लेशियर गायब हुए हैं। स्लोवेनिया और वेनेज़ुएला में हिमनदों गायब होना महत्वपूर्ण है क्योंकि 18वीं सदी के बाद से यह पहला मामला है जब किसी देश ने अपने हिमनदों को पूरी तरह से खो दिया हो। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल के अनुसार, इस सदी के अंत तक दुनिया के 18-36 प्रतिशत हिमनद गायब होने की संभावना है जिसका मुख्य कारण ग्लोबल वार्मिंग है।

जलवायु विज्ञानी मैक्सिमिलियानो हेरेरा के अनुसार देश का आखिरी हिमनद ला कोरोना का क्षेत्रफल दिसंबर तक सिर्फ 0.02 वर्ग कि.मी. रह गया था। इस क्षति का वेनेज़ुएला पर गंभीर प्रभाव पड़ा है, क्योंकि हिमनद पर्यावरण और जल आपूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसे एक राष्ट्रीय त्रासदी और ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभावों और जलवायु सम्बंधित चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है।

इसी तरह, स्लोवेनिया के हिमनद, खास तौर पर स्कुटा और ट्रिग्लव, दशकों से घट रहे हैं। दोनों ही 20वीं सदी के अंत में 0.1 वर्ग कि.मी. से छोटे रह गए थे। उनके छोटे आकार और कम ऊंचाई ने उन्हें जलवायु के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील बना दिया, जिसके कारण वे अंतत: गायब हो गए।

इन देशों में हिमनदों के खत्म होने के असर कहीं ज़्यादा हैं। इनकी पिघलती बर्फ समुद्र के स्तर को बढ़ाती है, जिससे दुनिया भर के तटीय क्षेत्र प्रभावित होते हैं। हिमनदों का इस तरह से खात्मा अन्य लैटिन अमेरिकी देशों के लिए भी एक चेतावनी है। हिमनदों को जल स्रोतों के तौर पर उपयोग करने वाले कोलंबिया, इक्वाडोर, पेरू और बोलीविया जैसे देशों को हिमनदों के सिकुड़ने से गंभीर सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का सामना करना पड़ सकता है। मेक्सिको का अंतिम हिमनद, ग्रान नॉर्टे भी विलुप्त होने की कगार पर है; अनुमान है कि 2026 से 2033 के बीच यह अपना हिमनद दर्जा खो देगा तथा 2045 तक पूरी तरह लुप्त हो जाएगा।

हिमनदों का इस तरह गायब होते जाना जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध सामूहिक कार्रवाई का आव्हान है और तत्काल वैश्विक प्रयासों की ज़रूरत को रेखांकित करता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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