वर्ष 2014 में उमा आहूजा और उनके साथियों ने एशियन एग्री-हिस्ट्री पत्रिका में प्रकाशित एक शोधपत्र में बताया था कि नारियल के पेड़ों को मलेशिया (Malesia) जैव-भौगोलिक क्षेत्र मूल का माना जाता है। जैव-भौगोलिक क्षेत्र यानी वह क्षेत्र जिसमें वितरित जंतुओं और पादपों के गुणों में समानता होती है। मलेशिया जैव-भौगोलिक क्षेत्र में दक्षिण पूर्व एशिया (विशेष रूप से भारत), इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यू गिनी और प्रशांत महासागर में स्थित कई द्वीप समूह आते हैं। इस पेपर में पुरातात्विक साक्ष्यों, पुरालेखों एवं ऐतिहासिक अभिलेखों, और इसके उपयोग एवं इससे जुड़ी लोककथाओं के माध्यम से नारियल के इतिहास पर बात की गई है।
पुरातात्विक खुदाई के अलावा भारत में नारियल का उल्लेख शिलालेखों तथा धार्मिक, कृषि और आयुर्वेदिक महत्व के ग्रंथों में मिला है। इसके उपयोगों की बहुलता ने इसे जीवन-वृक्ष, समृद्धि-वृक्ष और कल्पवृक्ष (एक वृक्ष जो जीवन की सभी ज़रूरतें पूरी करता है) जैसे विशेषणों से नवाज़ा है। लेखक बताते हैं कि इसके खाद्य महत्व के अलावा इसके स्वास्थ्य, औषधीय और सौंदर्य लाभ भी हैं।
भारत में, नारियल मुख्य रूप से दक्षिणी राज्यों – केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में उगाया जाता है। 90% से अधिक नारियल का उत्पादन इन्हीं राज्यों में होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन पेड़ों को गर्म और रेतीली मिट्टी की आवश्यकता होती है – ऐसी मिट्टी जिसमें जल निकासी बढ़िया हो और पोषक तत्व भरपूर हों। साथ ही, इन्हें गर्म और आर्द्र जलवायु, और प्रचुर वर्षा की भी ज़रूरत होती है।
उत्तर भारत की जलवायु मुख्यत: समशीतोष्ण है, जिसमें – जाड़े में अच्छी ठंड और गर्मियों में भीषण गर्म पड़ती है। इस क्षेत्र में अलग-अलग मौसम होते हैं और वर्षा भी असमान होती है, जो नारियल के पेड़ों की वृद्धि के लिए अनुकूल नहीं है। हालांकि, पूर्वोत्तर के कुछ राज्य भी उपयुक्त तापमान और वर्षा के चलते नारियल उगाते हैं, लेकिन वहां की मिट्टी चिकनी है जो नारियल के पेड़ों के उगने के लिए आदर्श नहीं है।
नारियल की भूमिका
भगवान को प्रसाद में चढ़ाई जाने वाली कई वस्तुओं में नारियल का एक विशेष और उच्च स्थान है। इसका उपयोग धार्मिक और सामाजिक समारोहों में किया जाता है, वहां भी जहां इसकी खेती नहीं होती। नारियल के पेड़ का रत्ती भर हिस्सा भी बेकार नहीं जाता, सभी हिस्सों को किसी न किसी उपयोग में लिया जाता है। अपनी अनगिनत उपयोगिताओं और खाद्य, चारा एवं पेय के रूप में प्रत्यक्ष उपयोग के ज़रिए नारियल ने विभिन्न समुदायों के लोगों के बीच सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और भाषाई तौर पर जगह बना ली है।
दक्षिण भारत में नारियल दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रत्येक मंदिर को नारियल के पेड़ों से सजाया जाता है, इसके (श्री)फल भगवान को चढ़ाए जाते हैं और भक्तों को प्रसाद के रूप में थोड़ा सा खोपरा और नारियल पानी दिया जाता है।
तरावट और स्वास्थ्य के मामले में नारियल पानी का कोई सानी नहीं है; यह तो अमृत ही है! और, मिठाई ‘कोलिक्कतई’ (या ‘मोदक’) का भी कोई सानी नहीं है, जो नारियल की ‘गरी’ से बनाई जाती है! (यह भगवान गणेश की पसंदीदा मिठाई है)। इसके अलावा, तमिलनाडु में पले-बढ़े होने के कारण मुझे (मेरी इच्छा के विपरीत) मेरी दादी हर महीने अरंडी के तेल या नारियल के तेल से स्नान करने के लिए मजबूर किया करती थीं!
स्वास्थ्य लाभ
नारियल के कई फायदे हैं। वेबसाइट Healthline.com इसकी ‘गरी’ में पाए जाने वाले कई पोषक तत्वों को सूचीबद्ध करती है: भरपूर वसा, भरपूर फाइबर, और विटामिन ए, डी, ई और के, जो अधिक खाने को नियंत्रित करते हैं और पेट को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं।
इसके तेल की बात करें तो कुछ समूहों का सुझाव है कि नारियल का तेल शरीर की धमनियों और नसों में रक्त प्रवाह को लाभ पहुंचाता है, इस प्रकार यह हमारे हृदय की सेहत के लिए फायदेमंद होता है। कुछ समूह यह भी सुझाव देते हैं कि इससे अल्ज़ाइमर रोग थोड़ा टल सकता है, हालांकि इस सम्बंध में अधिक प्रमाण की आवश्यकता है।
एक वरिष्ठ नागरिक होने के नाते मैं नारियल तेल का उपयोग करता हूं, इस उम्मीद में कि यह मुझे ऐसी स्थितियों से बचाएगा। मैं अक्सर अपने सुबह के नाश्ते में टोस्ट पर मक्खन की जगह नारियल का तेल ही लगाता हूं। मेरी दादी देखतीं, तो प्रसन्न होतीं! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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