वर्ष 2023 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रिकॉर्ड किया गया है। यह वैश्विक तापमान में तेज़ी से हो रही वृद्धि का संकेत है। कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवॉयरनमेंट में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि इस तेज़ी से बढ़ती गर्मी का एक प्रमुख कारक पृथ्वी का साफ होता आसमान है। इसके चलते सूर्य की अधिक रोशनी वातावरण में प्रवेश करके तापमान में वृद्धि करती है।
नासा का क्लाउड्स एंड दी अर्थ्स रेडिएंट एनर्जी सिस्टम (CERES) वर्ष 2001 से पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन की निगरानी कर रहा है। CERES ने पृथ्वी द्वारा अवशोषित सौर ऊर्जा की मात्रा में काफी वृद्धि देखी है। इसकी व्याख्या मात्र ग्रीनहाउस गैसों के आधार पर नहीं की जा सकती। एक कारण यह हो सकता है कि वायुमंडल कम परावर्तक हो गया है। शायद वर्ष 2001 और 2019 के बीच बिजली संयंत्रों से प्रदूषण में कमी और स्वच्छ ईंधन के उपयोग से हवा ज़्यादा पारदर्शी हो गई है। अध्ययन का अनुमान है कि इससे वार्मिंग में 40 प्रतिशत की अतिरिक्त वृद्धि हुई है।
जलवायु वैज्ञानिक काफी समय से जानते हैं कि घटते प्रदूषण के कारण धरती के तापमान में वृद्धि हो सकती है। वजह यह मानी जाती है कि प्रदूषण के कण न केवल प्रकाश को अंतरिक्ष में परावर्तित कर देते हैं, बल्कि उनके कारण बादलों में ज़्यादा जल कण बनते हैं जिससे बादल अधिक चमकीले और टिकाऊ होते हैं। गौरतलब है कि दो साल पूर्व एरोसोल में वैश्विक स्तर पर भारी गिरावट देखी गई थी। लेकिन वर्तमान अध्ययन में प्रयुक्त जलवायु मॉडल्स ने प्रदूषण में इस कमी को वार्मिंग के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है।
अलबत्ता, साफ आसमान परावर्तन में गिरावट का एकमात्र कारण नहीं हो सकता। CERES के मॉडल्स प्रकाश के अतिरिक्त अवशोषण में से 40 प्रतिशत की व्याख्या नहीं कर पाए हैं। इसके अलावा, CERES डैटा ने दोनों गोलार्धों में परावर्तन में गिरावट दर्शायी है जबकि प्रदूषण में कमी उत्तरी गोलार्ध में अधिक हुई है। इसके अलावा, बर्फ के पिघलने से उसके नीचे की गहरे रंग की ज़मीन उजागर हो जाती है, अधिक तापमान के कारण समुद्र के ऊपर के बादल छितर जाते हैं और अपेक्षाकृत गहरे रंग का पानी उजागर हो जाता है। ऐसे कई कारक पृथ्वी की परावर्तनशीलता घटाने में योगदान दे सकते हैं। इस सब बातों के मद्देनज़र, हो सकता है कि ये मॉडल्स प्रदूषण में कमी के असर को बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं।
ग्लोबल वार्मिंग एक नाज़ुक ऊर्जा संतुलन पर टिका है। सूरज लगातार पृथ्वी पर ऊर्जा की बौछार करता है। इसमें से काफी सारी ऊर्जा को परावर्तित कर दिया जाता है और कुछ परावर्तित ऊर्जा को वायुमंडल रोक लेता है। यदि वायुमंडल थोड़ी भी अधिक गर्मी को रोके या सूर्य के प्रकाश को थोड़ा कम परावर्तित करे, तो तापमान बढ़ सकता है। कई दशकों से आपतित ऊर्जा और परावर्तित ऊर्जा का यह संतुलन गड़बड़ाया हुआ है।
नॉर्वे के सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लायमेट रिसर्च के मॉडलर ओइविन होडनेब्रोग की टीम ने चार जलवायु मॉडलों की तुलना करके ऊर्जा के बढ़ते अवशोषण के कारणों की पहचान करने की कोशिश की है।
इस अध्ययन के अनुसार एरोसोल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहेंगे। चीन और भारत जैसे देशों में सख्त प्रदूषण नियंत्रण के चलते एयरोसोल में कमी क्षेत्रीय मौसम के पैटर्न को प्रभावित करेगी।
अध्ययन में यह भी बताया गया है कि जलवायु पर वायु प्रदूषण में कमी का प्रभाव प्रकट होने में कई दशक लग सकते हैं। थोड़ा-सा एरोसोल भी बादल को चमकीला और परावर्तक बनाने के लिए काफी होता है। यानी प्रदूषित क्षेत्रों में, बादलों की परावर्तनशीलता तब तक कम नहीं होगी जब तक कि आसमान काफी हद तक साफ न हो जाए।
एक चिंता डैटा की निरंतरता को लेकर भी है। पुराने एक्वा और टेरा उपग्रहों के उपकरण अपने जीवन के अंत के करीब हैं। ऐसा लगता है कि अगली पीढ़ी के उपग्रह, लाइबेरा, के 2028 में लॉन्च होने तक केवल एक उपकरण ही सक्रिय रहेगा। यह संभावित अंतराल जलवायु अनुसंधान के लिए एक गंभीर समस्या बन सकता है।
देखने में तो साफ आकाश सकारात्मक पर्यावरणीय परिवर्तन लगता है लेकिन वास्तव में यह ग्लोबल वार्मिंग में तेज़ी से योगदान दे रहा है। बढ़ते जलवायु संकट से निपटने के लिए पृथ्वी की ऊर्जा प्रणाली के जटिल संतुलन को समझना और संबोधित करना महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z4bw6zr/full/_20240405_nid_earth_increased_solar_heating-1712779491877.jpg