टीकमगढ़ ज़िले (मध्य प्रदेश) के नदिया गांव में रहने वाली भारती अहरवार को जब पता चला कि एक संस्था, सृजन, क्षेत्र की कुछ महिलाओं को बकरियों को रोग-मुक्त रखने व उनके इलाज के लिए प्रशिक्षण दे रही है तो उसने ‘सृजन’ और ‘दी गोट ट्रस्ट’ नामक संस्था द्वारा सह-आयोजित प्रशिक्षण पहले क्षेत्रीय स्तर पर व फिर लखनऊ स्तर पर लिया।
इस प्रशिक्षण से भारती को एक नया आत्म-विश्वास मिला। अब उसे ‘पशु-सखी’ या बकरियों की पैरा डाक्टर के रूप में नई पहचान मिली, मान्यता मिली, दवा व वैक्सीन मिले। लेकिन जब वह अपनी पशु-सखी की युनिफार्म में इलाज के लिए निकलती तो कुछ लोग मज़ाक उड़ाते, फब्तियां कसते। पर इसकी परवाह न करते हुए भारती ने अपना कार्य पूरी निष्ठा से जारी रखा व अधिक दक्षता प्राप्त करती रही। उसने बकरी स्वास्थ्य के लिए विशेष शिविरों का आयोजन भी किया।
धीरे-धीरे गांव के लोग उसके कार्य का महत्व समझने लगे। बकरी में बीमारी होने पर संक्रमण तेज़ी से फैलता है। पी.पी.आर. और एफ.एम.डी. बीमारियों से बचाव व डीवर्मिंग ज़रूरी है। यदि इस सबके लिए गांव में ही ‘पशु-सखी’ की सेवाएं मिल जाएं तो इधर-उधर भटकना नहीं पडे़गा। गांववासियों की नज़रों में स्वीकृति व सम्मान बढ़ने के साथ भारती का कार्य भी बढ़ा व आय भी।
टीकमगढ़ ज़िले की माया घोष एक वरिष्ठ पशु-सखी हैं जिनकी गिनती इस कार्यक्षेत्र में सबसे पहले आने वाली महिलाओं में होती है। माया घोष ने अपने स्थानीय व लखनऊ के प्रशिक्षण के बाद अपने गांव बिजरावन में बकरी पालन का सर्वेक्षण किया। इससे स्पष्ट हुआ कि थोड़े से प्रवासी मज़दूरों जैसे अपवाद को छोड़ दिया जाए तो अन्यथा लगभग सभी घरों में औसतन 5 से 10 बकरियां हैं। कांटी गांव की ‘पशु-सखी’ हीरा देवी ने बताया कि प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद जब उन्होंने कार्य आरंभ किया तो आसपास के कुछ लोगों ने उनकी योग्यता पर संदेह प्रकट किया। इस स्थिति में उन्होंने एक बीमार बकरी को खरीद लिया और उसे अपने इलाज से पूरी तरह ठीक कर दिया। इसके बाद लोग उनके पास बकरियों के इलाज के लिए पहुंचने लगे और यह सिलसिला अभी तक चल रहा है।
सृजन के सहयोग से किसानों का एक उत्पादक संगठन बना है जिसके द्वारा बकरियों के लिए स्वस्थ आहार बनाया जाता है जिसमें अनेक पौष्टिक तत्त्व मिले होते हैं। वैसे बकरी खुले में चर कर अपना पेट भरती है, पर कुछ अतिरिक्त पौष्टिक आहार मिलने से उनका स्वास्थ्य और सुधर जाता है। इस पौष्टिक आहार की बिक्री भी पशु-सखी द्वारा की जाती है। दवाएं उपलब्ध करवाने में भी किसान उत्पादक संगठन की सहायता मिलती है।
लगभग 10 पशु सखियों के प्रशिक्षण से शुरू हुए इस प्रयास से आज इस जिले में 76 प्रशिक्षित पशु-सखियां हैं जो अपना जीविकोपार्जन बढ़ाने का कार्य बहुत आत्मविश्वास से कर रही हैं और गांव-समुदाय के लिए बहुत सहायक भी सिद्ध हो रही हैं। यहां के अधिकांश गांवों में लगभग तीन-चौथाई परिवारों के पास बकरियां हैं, पर अचानक फैली बीमारियों में अनेक बकरियों के समय-समय पर मर जाने से लोग परेशान थे। अब पशु-सखियों के कारण यह समस्या कम हुई है व स्वस्थ बकरी विकास की संभावना बढ़ी है।
इसी तरह का कार्य कुछ अन्य क्षेत्रों में भी हो रहा है। एक उत्साहवर्धक स्थिति यह बनी है कि कुछ सरकारी अधिकारियों ने इस सफलता को नज़दीकी स्तर पर देखने के बाद इसे अपने-अपने स्तर पर भी आगे बढ़ाने के लिए कहा है। उन्होंने माना है कि यह एक उल्लेखनीय सफलता है जिसे आगे बढ़ना चाहिए।
इसके अलावा, व्यापारियों द्वारा बकरी पालकों को पहले कम कीमत देकर ठगा जाता था पर अब इस मामले में भी सुधार हो रहा है ताकि बकरी पालक को उचित मूल्य मिले। सरकार की, विशेषकर दलितों व आदिवासियों के लिए, बकरियों को बहुत कम कीमत पर उपलब्ध वाली योजनाएं हैं व उनसे भी समुचित सहायता प्राप्त की जा सकती है।
जहां बकरियों को मुख्य रूप से बिक्री के लिए पाला जाता है, वहां इनसे, अपेक्षाकृत कम मात्रा में ही सही, विशिष्ट पौष्टिक गुणों वाला दूध भी प्राप्त हो जाता है तथा बकरियों से खाद भी उच्च गुणवत्ता की प्राप्त होती है। अपेक्षाकृत निर्धन परिवारों के लिए पशु पालन की सबसे सहज आजीविका बकरी पालन के रूप में ही है व पशु-सखियों ने स्वस्थ बकरीपालन विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यह एक अनुकरणीय मॉडल है जो अन्य स्थानों पर भी बकरी पालन को बेहतर बना सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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