यह तो हम जानते हैं कि हर जीव की त्वचा का खास रंग होता है जो उसे कई तरह से मदद करता है। जैसे छिपने, शरीर का तापमान नियंत्रित रखने वगैरह में। वर्तमान जीवों की तरह प्राचीन काल के जीव-जंतु भी तरह-तरह के रंगों के हुआ करते थे – इंद्रधनुषी पंखों वाले डायनासौर से लेकर भक्क काले रंग के स्किवड तक। लेकिन प्रचीन समय के जीवों की त्वचा का रंग भांपना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि जीवों की त्वचा, फर और पंखों को रंगने वाले रंजक वगैरह अश्मीभूत होने के दौरान अक्सर नष्ट हो जाते हैं। विशेषज्ञों ने काले और भूरे जैसे गहरे रंगों की बनावट और रंजकों का पता लगाने के तरीके तो ढूंढ लिए हैं लेकिन पीले, लाल, नारंगी जैसे हल्के रंगों को पहचान पाना अब भी एक चुनौती है। ये रंग फिओमेलेनिन के कारण दिखते हैं, जो कि आसानी से पकड़ न आने वाला रंजक है।
हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने एक ऐसे तरीके का वर्णन किया है जो जीवाश्मों की त्वचा में फिओमेलेनिन से बनने वाले अदरक के रंग सरीखे इन रंगों को पहचानने में मदद कर सकता है।
देखा जाए तो इन रंगों को पहचानने का यह पहला प्रयास नहीं है। पूर्व में हुए अध्ययनों ने भी जीवाश्मों में फिओमेलेनिन से बनने वाले रंग पहचानने की कोशिश की थी लेकिन उनके परिणाम काफी हद तक अनिर्णायक ही रहे थे। उदाहरण के लिए, वैज्ञानिकों ने बोरीलोपेल्टा डायनासौर के जीवाश्म में लाल रंग की पहचान की थी। लेकिन वे यह भेद नहीं कर पाए थे कि यह जो फिओमेलेनिन उन्हें मिला है वह त्वचा के मूल रंजक का है या डायनासौर की मृत्यु के बाद हुए संदूषण का है।
इस फर्क को पहचानने के लिए युनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क की जीवाश्म विज्ञानी टिफैनी स्लेटर और साथियों ने एक परीक्षण तैयार किया, जो त्वचा, पंखों वगैरह के अदरक सदृश रंगों के मूल रंजक से छूटी छाप और संदूषण के कारण मिले रंजक से छूटी छाप में फर्क कर पाया। उन्होंने जीवों के अश्मीभूत होने के दौरान जैविक यौगिकों के टूटने की प्रक्रिया की नकल करने के लिए विभिन्न आधुनिक पक्षियों के पंखों को ओवन में तपाया। फिर तपाए हुए पंखों का सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन किया और विभिन्न प्रकार के मेलेनिन की पहचान के लिए रासायनिक परीक्षण किए। उन्होंने पाया कि जैविक रंजक जीवाश्मों में एक विशिष्ट एवं पहचानने योग्य छाप छोड़ते हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने विभिन्न जीवाश्मों पर रंजकों की रासायनिक छाप पहचानने का प्रयास किया, और उन्हें करीब 1 करोड़ वर्ष पुराने एक मेंढक, कन्फ्यूशियसॉर्निस नामक पक्षी और सायनोर्निथोसॉरस डायनासौर में ये रंजक मिले।
उम्मीद है कि अब जीवाश्म की त्वचा के रंगों का अधिक सटीक निर्धारण किया जा सकेगा। मसलन, देखा जा सकेगा कि उड़ने वाले टेरोसौर में कौन से चटख रंग होते थे। आगे के अध्ययन शायद यह भी बता सकेंगे कि फिओमेलेनिन सबसे पहले कैसे और क्यों विकसित हुआ? क्योंकि फिओमेलेनिन के कारण कैंसर होने की संभावना हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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