हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन ने पिछले 1,26,000 वर्षों में मानव गतिविधियों के कारण पक्षियों की विलुप्ति के चौंकाने वाले आंकड़े उजागर किए हैं। पूर्व में किए गए अनुमानों से आगे जाकर इस शोध ने लगभग 1500 पक्षी प्रजातियों के विलुप्त होने के पीछे मनुष्यों को दोषी पाया है। यह आंकड़ा पूर्व अनुमानित संख्या से दुगना है जो पक्षियों की जैव विविधता पर मानव गतिविधियों के गहरे प्रभाव का संकेत देता है।
सदियों से ज़मीनें साफ करके, शिकार और बाहरी प्रजातियों को नए इलाकों में पहुंचाने जैसे मानवीय कारकों की वजह से पक्षियों की विलुप्ति होती रही है। यह प्रभाव विशेष रूप से द्वीपों जैसे अलग-थलग पारिस्थितिक तंत्रों में विनाशकारी रहा है और पक्षियों की 90 प्रतिशत ज्ञात विलुप्तियां ऐसे ही स्थानों पर होने की संभावना है। स्थिति को समझने में सबसे बड़ी चुनौती पक्षियों का हल्का वज़न और खोखली हड्डियां हैं जिनके कारण उनके अवशेषों का जीवाश्म के रूप में भलीभांति संरक्षण नहीं होता है। इसलिए पक्षी विलुप्ति के अधिकांश विश्लेषण लिखित रिकॉर्ड के आधार पर किए गए हैं जो पिछले 500 वर्षों से ही उपलब्ध हैं।
इस दिक्कत से निपटने के लिए, यूके सेंटर फॉर इकॉलॉजी एंड हाइड्रोलॉजी के रॉब कुक और उनकी टीम ने 1488 द्वीपों में दस्तावेज़ीकृत विलुप्तियों, जीवाश्म रिकॉर्ड और अनुमानित अनदेखी विलुप्तियों के अनुमानों को जोड़कर कुल विलुप्तियों का एक व्यापक मॉडल तैयार किया। अनदेखी विलुप्तियों का अनुमान लगाने के लिए उन्होंने द्वीप के आकार, जलवायु और अलग-थलग होने की स्थिति जैसे कारकों के आधार पर प्रजातियों की समृद्धता का आकलन किया। उनका निष्कर्ष है कि मानवीय गतिविधियों के कारण प्लायस्टोसीन युग के अंतिम दौर के बाद से वैश्विक स्तर पर लगभग 12 प्रतिशत पक्षी प्रजातियां विलुप्त हुई हैं। अध्ययनकर्ताओं का मत है कि इनमें से आधे से अधिक पक्षियों को तो इंसानों ने देखा भी नहीं होगा और न ही उनके जीवाश्म बच पाए होंगे।
इस विलुप्ति में विशेष रूप से प्रशांत क्षेत्र के हवाई द्वीप, मार्केसस द्वीप और न्यूज़ीलैंड को सबसे अधिक खामियाज़ा भुगतना पड़ा जहां विलुप्त पक्षियों का लगभग दो-तिहाई हिस्सा केंद्रित था। अध्ययन से पता चलता है कि महाविलुप्ति की शुरुआत लगभग 700 वर्ष पूर्व हुई जब इन द्वीपों पर मनुष्यों का आगमन हुआ। इसके नतीजे में विलुप्त होने की दर में 80 गुना वृद्धि हुई।
शोध के ये परिणाम नीति निर्माताओं और संरक्षणवादियों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। कार्लस्टेड विश्वविद्यालय के फोल्मर बोकमा के अनुसार इन नुकसानों को समझकर अधिक प्रभावी जैव विविधता लक्ष्य निर्धारित किए जा सकते हैं। एडिलेड विश्वविद्यालय के जेमी वुड का कहना है कि इस अध्ययन ने दर्शाया है कि पक्षियों की विलुप्ति के अनुमान कम लगाए गए थे और वास्तविक स्थिति शायद इस अध्ययन के आकलन से भी ज़्यादा भयावह है। (स्रोत फीचर्स)
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