इन दिनों डीपफेक टेक्नॉलॉजी सुखिर्यों में है। दरअसल यह कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस यानी एआई) के इस्तेमाल की एक और देन है। आजकल इंटरनेट पर डीप फेक तकनीक से बने वीडियो में वृद्धि हुई है क्योंकि अब इसने सेलेब्रिटीज़ को चपेट में ले लिया है। कुछ का कहना है कि जिस तरह से उन्हें डीपफेक तकनीक से तैयार वीडियो-ऑडियो में पेश किया गया है, उन्होंने वैसा एक बार भी नहीं किया है।
डीपफेक तकनीक डिजिटल हेरफेर का कमाल है, जिसका इस्तेमाल व्यक्तियों के बारे में भ्रामक जानकारियां फैलाने के लिए किया गया है। जानकारों का विचार है कि भविष्य में होने वाले चुनावों में डीपफेक प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से मनगढ़ंत वीडियो की बाढ़ आ सकती है; विपक्ष के खिलाफ भ्रामक कंटेट तैयार कर प्रसारित किया जा सकता है।
डीपफेक प्रौद्योगिकी क्या है? मशीन लर्निंग, डीप लर्निंग और न्यूरल नेटवर्क कुछ मुख्य तकनीकें हैं जिनका उपयोग डीपफेक बनाने में किया जाता है। इनकी सहायता से किसी व्यक्ति का किसी भी तरह का वीडियो अथवा फोटो बनाया जा सकता है। दरअसल इसका इस्तेमाल विश्वसनीय दिखने वाली भ्रामक वीडियो, तस्वीरें और श्रव्य सामग्री बनाने में किया जाता है।
एआई आधारित डीपफेक तकनीक संपादन का एक ऐसा साॅफ्टवेयर है, जिसमें मशीन लर्निंग एल्गोरिद्म का उपयोग किया जाता है। अर्थात डीपफेक एक सिंथेटिक माध्यम है, जिसका इस्तेमाल वीडियो, ऑडियो और तस्वीरें बनाने में किया जाता हैै। हाल के वर्षों में एआई के उपयोग का विस्तार हुआ है और डीपफेक तकनीक के दुरूपयोग का चेहरा भी सामने आया है।
डीपफेक तकनीक में दो प्रकार के एल्गोरिद्म – जनरेटर और डिस्क्रिमिनेटर – भूमिका निभाते हैं। इसे बनाने के लिए सोर्स, वीडियो डीपफेक, ऑडियो डीपफेक और लिप सिंक आदि का उपयोग किया जाता है। वर्तमान दौर में ऐसी तकनीकें उपलब्ध हैं, जिनसे सटीक डीपफेक बनाना आसान हो गया है। इनमें जनरेटिव एडवरसेरियल नेटवर्क (जीएएन), कन्वोल्यूशन न्यूरल नेटवर्क (सीएनएन) और ऑटो एन्कोडर्स शामिल हैं। ऑडियो डीपफेक बनाने के लिए नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग (एनएलपी) का उपयोग किया जाता है।
दरअसल डीपफेक तकनीक का अतीत अधिक पुराना नहीं है। तस्वीरों में फेरबदल करना उन्नीसवीं सदी में शुरू हुआ था। आगे चलकर इसका इस्तेमाल चलचित्रों में होने लगा। विकास का सिलसिला बीसवीं सदी में जारी रहा और डिजिटल वीडियो आने के साथ ही विकास की रफ्तार और तेज़ हो गई। डीपफेक टेक्नॉलॉजी नब्बे के दशक तक अनुसंधानकर्ताओं तक सीमित थी, लेकिन बाद में शौकिया लोग इस तकनीक का इस्तेमाल ऑनलाइन संचार में करने लगे।
वस्तुत: डीपफेक शब्द ‘डीप लर्निंग’ और ‘फेक’ से मिलकर बना है। इस नाम का उपयोग एक रेडिट उपयोगकर्ता ने किया था। रेडिट सामाजिक खबरें जुटाने वाली अमेरिकी वेबसाइट और प्लेटफॉर्म है।
सन 2017 में पहली बार सार्वजनिक डोमेन में इसका इस्तेमाल किया गया। डीपफेक हेरफेर की अति उन्नत प्रौद्योगिकी है, जिसमें किसी का वीडियो किसी में मिलाकर और किसी का चेहरा किसी में लगाकर नकली वीडियो अथवा फोटो बना दिया जाता है।
अलबत्ता, डीपफेक का सकारात्मक चेहरा भी है, जो चर्चा का विषय नहीं बना है। इसके इस्तेमाल से विदेशी भाषाओं की फिल्मों को डबिंग के ज़रिए बेहतर बनाया जा सकता है। जो गायक या गायिकाएं अब हमारे बीच नहीं हैं, उनकी आवाज़ को जिलाया जा सकता है। यह तकनीक युद्धग्रस्त इलाकों में लोगों में सहानुभूति पैदा करने में सहायक सिद्ध हुई है। इस प्रौद्योगिकी से स्क्लेरोसिस बीमारी की चपेट में आ चुके लोगों की आवाज़ को वापस लाने में सफलता मिली है।
इस तकनीक से शैक्षणिक वीडियो बनाए जा सकते हैं। विद्यार्थियों को इतिहास की घटनाओं से परिचित कराया जा सकता है। डीपफेक तकनीक से मृत व्यक्ति का चेहरा बनाने में सफलता मिली है। अक्टूबर 2020 में किम कार्देशियन ने अपने दिवंगत पिता का चेहरा इसी तकनीक से बनाया था। हेल्थकेयर, फैशन, ई-कामर्स आदि में भी इस प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया है। इस तकनीक से कलाकृतियों का सृजन भी किया जा सकता है। ऐसे सदुपयोगों की सूची लंबी होती जा रही है।
हाल के वर्षों में डीपफेक प्रौद्योगिकी के दुरूपयोग का खुलासा हुआ है। इनमें ब्लैकमेल, पोर्नोग्राफी, वित्तीय धोखाधड़ी, फर्ज़ी खबरें आदि शामिल हैं। इस तकनीक का इस्तेमाल बराक ओबामा, डोनाल्ड ट्रंप, व्लादीमीर पुतिन, रश्मिका मंदाना जैसी सेलेब्रिटीज़ को बदनाम करने हेतु और राजनेताओं पर व्यंग्य और पैरोडी बनाने में भी हुआ है। इस तकनीक का इस्तेमाल विपक्षी उम्मीदवार के खिलाफ माहौल बनाने और भ्रामक जानकारियां प्रसारित करने में किया जा सकता है।
आखिर कैसे बनता है डीपफेक? यह विशेष मशीन लर्निंग – डीप लर्निंग का उपयोग करके बनाया जाता है। कंप्यूटर को दो वीडियो अथवा फोटो दिए जाते हैं, जिन्हें देखकर वह स्वयं ही दोनों वीडियो अथवा फोटो को एक ही जैसा बनाता है। इस प्रकार के फोटो और वीडियो में गुप्त परतें होती हैं, जिन्हें विशेष साॅफ्टवेयर के ज़रिए ही देखा जा सकता है।
अब एक सवाल यह है कि डीपफेक वीडियो अथवा तस्वीर को कैसे पहचानें? डीपफेक वीडियो इतने सटीक होते हैं कि इन्हें पहली नज़र में पहचाना नहीं जा सकता। इसके लिए डीपफेक तकनीक से तैयार वीडियो का बेहद बारीकी से अवलोकन करना होता है। इसमें चेहरे और आंखों से झलकती अभिव्यक्ति सम्मिलित है। लिप सिंकिंग के ज़रिए भी इस प्रकार के वीडियो पहचाने जाते हैं। ऐसे वीडियो को अतिरिक्त ब्राइटनेस द्वारा भी पहचाना जा सकता है।
सोशल मीडिया कंपनियों, संगठनों और सरकारी एजेंसियों ने डीपफेक का पता लगाने की तकनीक का विकास किया है। इसी प्रकार अमेरिका की डिफेंस एडवांस रिसर्च एजेंसी (डीएआरपीए) ने भी इसके लिए प्रौद्योगिकी विकसित की है। सोशल मीडिया से जुड़ी कुछ कंपनियों ने डीपफेक का पता लगाने के लिए ब्लाॅकचेन प्रौद्योगिकी का उपयोग किया है। एडोब, माइक्रोसाॅफ्ट सहित कुछ कंपनियों ने डीपफेक प्रोटेक्शन साॅफ्टवेयर उपलब्ध कराया है। वैसे तो डीपफेक का उपयोग वैधानिक है, लेकिन नियमों को तोड़ने पर अवैधानिक हो जाता है।
डीपफेक तकनीक का सबसे चुनौतीपूर्ण पहलू यह है कि इसके गलत इस्तेमाल को प्रभावी तरीके से कैसे रोका जाए? युरोप, अमेरिका, चीन आदि ने डीपफेक तकनीक से उत्पन्न चुनौतियों से निपटने के लिए कारगर कदम उठाए हैं। हाल की घटनाओं के बाद भारत भी कानून बनाने की दिशा में सक्रिय हो गया है। लेकिन मात्र कानून बनाना पर्याप्त नहीं होगा। वर्तमान दौर में डिजिटल डोमेन में प्रौद्योगिकी साक्षरता और जागरूकता दोनों ही ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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