दुबई में चल रहे जलवायु सम्मेलन (कॉप-28) के संदर्भ में महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हम पेरिस समझौते (2015) के लक्ष्य की दिशा में कारगर प्रगति कर रहे हैं। पेरिस समझौते में पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि को औद्योगिक-पूर्व तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने का लक्ष्य रखा गया था। यह सम्मेलन इस प्रगति का मूल्यांकन करने का औपचारिक अवसर है।
वैसे तो विभिन्न सरकारें निवेश में वृद्धि एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत अपनाने के साथ जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास कर रही हैं, लेकिन ये प्रयास काफी धीमी गति से हो रहे हैं। अब तक की प्रगति पर एक नज़र डालते हैं और देखते हैं कि पेरिस समझौते के सपने को जीवित रखने के लिए क्या करना होगा।
बढ़तेतापमानकीहकीकत
स्थिति काफी गंभीर है। पिछले एक दशक में ग्लोबल वार्मिंग की गति तेज़ हुई है। वर्ष 2022 में औसत तापमान औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.3 डिग्री अधिक रहा था और एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2023 में औसत तापमान औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.4 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहेगा। यह स्थिति एक दशक से भी कम समय में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने का संकेत देती है। इसके अलावा उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में चल रहे एल-नीनो प्रभाव वगैरह कम समय में तापमान पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं।
जलवायु मॉडलों का अनुमान है कि 2100 तक तापमान में औद्योगिक-पूर्व स्तर से 2.4-2.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी। इससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर तत्काल अंकुश लगाने की आवश्यकता स्पष्ट है।
देरीकेपरिणाम
काफी लंबे समय से विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दों पर जल्द से जल्द कार्रवाई करने पर ज़ोर देते रहे हैं। तीन दशक पहले, 1992 में वैश्विक नेताओं ने तेज़ी से बदल रही जलवायु को नियंत्रित करने के लिए प्रतिबद्धता जताई थी। लेकिन हालिया रुझानों से पता चलता है कि उत्सर्जन की मौजूदा दर पांच वर्षों के भीतर वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ा देगी।
तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रहने की 50 प्रतिशत संभावना बनाए रखने के लिए 2034 तक उत्सर्जन में सालाना 8 प्रतिशत की कमी करनी होगी, जो कि कठिन लगती है। तुलना के लिए, 2020 में महामारी के दौरान उत्सर्जन में मात्र 7 प्रतिशत की कमी देखी गई थी जब कामकाज लगभग ठप था।
कार्बनहटानेकामामला
उत्सर्जन को लेकर इस तरह की ढिलाई को देखते हुए 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार करने से बचने के लिए विशेषज्ञ वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने की वकालत करते हैं। इसे ऋणात्मक उत्सर्जन भी कहा जा रहा है। इसके लिए प्राकृतिक तरीके (जैसे जंगल लगाना या समुद्रों में ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड को सोखना) तथा औद्योगिक तरीके भी शामिल हैं। लेकिन जलवायु मॉडल वातावरण से कार्बन हटाने के तरीकों की मापनीयता और प्रभाविता को लेकर अनिश्चित हैं। और तो और, ऐसे किसी भी उपाय के साइड इफेक्ट भी होंगे।
इसके अलावा, इन समाधानों को लागू करने के लिए पर्याप्त निवेश और गहन शोध की आवश्यकता होगी, जिसकी संभावित लागत खरबों डॉलर तक हो सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार यदि इस तकनीक का उपयोग किया जाता है तो वैश्विक तापमान को महज़ 0.1 डिग्री सेल्सियस कम करने में 22 ट्रिलियन डॉलर खर्च होंगे। यह लागत पिछले साल विश्व भर की सरकारों और व्यवसायों द्वारा किए गए वार्षिक जलवायु व्यय से लगभग 16 गुना अधिक है। बेहतर तो यही होगा कि उत्सर्जन पर लगाम कसी जाए। फिर भी कई विशेषज्ञों का मत है कि कार्बन हटाने का उपाय अपनाना होगा।
उत्सर्जनपरअंकुश
महामारी के दौरान जीवाश्म ईंधन से होने वाले वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में कमी के बाद अब यह बढ़कर 37.2 अरब टन प्रति वर्ष के नए शिखर पर पहुंच गया है। दूसरी ओर, तमाम चुनौतियों के बावजूद नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन भी तेज़ी से बढ़ रहा है और दुनिया भर में पर्याप्त निवेश भी आकर्षित कर रहा है। इससे शायद जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम हो।
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार आने वाले वर्षों में वार्षिक जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन चरम पहुंच जाएगा जिसके बाद 2030 तक घटकर 35 अरब टन वार्षिक रह जाएगा। 2015 के स्तर से सालाना 7.5 अरब टन सालाना की यह कमी एक बड़े परिवर्तन की द्योतक है।
स्वच्छबिजली
वैश्विक तापमान को कम रखने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए बिजली ग्रिड में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके लिए पारेषण व वितरण लाइनों का समन्वय बिजली उत्पादन की नई परियोजनाओं के साथ करना होगा। इस तरह से स्वच्छ ऊर्जा से संचालित एक संशोधित ग्रिड उत्सर्जन को आधा कर सकती है।
अलबत्ता, इसमें कई चुनौतियां हैं। इसके लिए नवीकरणीय और कम उत्सर्जन वाले ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता 2050 तक लगभग 77 ट्रिलियन टेरावाट घंटे सालाना तक बढ़ाते हुए 2040 तक कोयला, गैस और तेल को लगभग पूरी तरह से समाप्त करना होगा। बड़ी चुनौती भारी उद्योग, विमानन, परिवहन, कृषि और खाद्य प्रणालियों जैसे क्षेत्र हैं। इसके अलावा, मीथेन जैसी अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से निपटना भी महत्वपूर्ण होगा।
ज़िम्मेदारियांऔरवित्तीयनिवेश
ऐतिहासिक रूप से औद्योगिक राष्ट्र ही अधिकांश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के ज़िम्मेदार रहे हैं। अब चीन और भारत जैसे विकासशील देशों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। वैसे, चीन स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में गहन प्रयास कर रहा है, फिर भी ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका को छोड़ दें, तो अन्य कम आय वाले देशों में काम काफी धीमी गति से चल रहा है।
गौरतलब है कि हाल के वर्षों में वैश्विक जलवायु निवेश में काफी वृद्धि हुई है, लेकिन भविष्य की वित्तीय प्रतिबद्धता स्वच्छ ऊर्जा को अपनाने में तेज़ी और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए आवश्यक है।
निवेशमेंवृद्धि
पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक जलवायु निवेश में वृद्धि हुई है। वर्ष 2021 में 1.1 ट्रिलियन डॉलर का निवेश वर्ष 2022 में 1.4 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया। जलवायु सम्बंधी खर्च को 2035 तक लगभग 11 ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ाने की आवश्यकता है।
सालाना 1 ट्रिलियन डॉलर की प्रत्यक्ष जीवाश्म ईंधन सब्सिडी सहित विभिन्न स्रोतों से धन का नए ढंग से आवंटन एक अच्छा विकल्प है। लेकिन कमज़ोर समुदायों पर होने वाले प्रतिकूल प्रभावों के कारण इन सब्सिडीज़ को खत्म करना एक बड़ी चुनौती है। इस महत्वपूर्ण परिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिए विशेषज्ञ ठोस तथा तत्काल प्रयास और राजनीतिक दृढ़ संकल्प पर ज़ोर देते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nature.com/immersive/d41586-023-03601-6/assets/LzkUVOpXjF/data-1066×600.jpg
जल शक्ति मंत्रालय की संसदीय समिति ने मार्च 2023 की 20वीं रिपोर्ट में जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग से भारत में बांधों और सम्बंधित परियोजनाओं के व्यावहारिक जीवनकाल और प्रदर्शन का आकलन करने की व्यवस्था को लेकर सवाल किया था। वास्तव में इस सवाल का बांधों को हटाने के विचार पर सीधा असर पड़ता। लेकिन विभाग ने जवाब दिया था कि “बांधों के व्यावहारिक जीवनकाल और प्रदर्शन का आकलन करने के लिए कोई तंत्र नहीं है। और, बांध मालिकों की ओर से किसी भी बांध को हटाने के लिए कोई जानकारी/सिफारिश प्रस्तुत नहीं की गई है।”
इस समिति ने यह भी बताया था कि केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) द्वारा संकलित बड़े बांधों के राष्ट्रीय रजिस्टर के 2019 संस्करण के अनुसार भारत में 100 साल से अधिक पुराने 234 बांध हैं; कुछ तो 300 साल से अधिक पुराने हैं।
भारत में 100 साल से पुराने हटाए जा चुके बांधों की संख्या पर विभाग ने बताया था कि सीडब्ल्यूसी में उपलब्ध जानकारी के अनुसार, भारत में ऐसा कोई बांध हटाया नहीं गया है।
गौरतलब है कि बांधों को बनाए रखने के लिए भारी खर्च की आवश्यकता होती है, लेकिन भारत के संदर्भ में रखरखाव को लेकर स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ऐसी स्थिति में बांध और भी अधिक असुरक्षित और हटाए जाने के लिए योग्य बन जाते हैं। लिहाज़ा, हमें बांधों को हटाने के लिए एक नीति और कार्यक्रम की तत्काल आवश्यकता है।
इस मामले में संसदीय समिति की सिफारिश है कि “भविष्य को ध्यान में रखते हुए, समिति विभाग को बांधों के जीवन और संचालन का आकलन करने के लिए एक कामकाजी तंत्र विकसित करने के उपयुक्त उपाय करने की सिफारिश करती है और राज्यों से उन बांधों को हटाने का आग्रह करती है जो अपना जीवनकाल पूरा कर चुके हैं और किसी भी विकट स्थिति में जीवन और बुनियादी अधोसंरचना के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकते हैं। समिति इस रिपोर्ट की प्रस्तुति से तीन महीने के भीतर विभाग द्वारा इस सम्बंध में उठाए गए कदमों की जानकारी चाहती है।” यदि इस मामले में सम्बंधित मंत्रालय या विभाग द्वारा कोई कार्रवाई की गई है तो उसकी जानकारी, कम से कम, सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है।
2021 में बांधों का वैश्विक अध्ययन करने वाले राष्ट्र संघ विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ताओं के अनुसार भारत को अपने पुराने बांधों का लागत-लाभ विश्लेषण करना चाहिए और उनकी परिचालन तथा पारिस्थितिक सुरक्षा के साथ-साथ निचले इलाकों (डाउनस्ट्रीम) में रहने वाले लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए समय पर सुरक्षा समीक्षा भी करनी चाहिए। इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि भले ही बांधों को हटाने का काम हाल ही में शुरू हुआ है लेकिन यूएसए और युरोप में यह काफी गति पकड़ रहा है।
रिपोर्ट में कहा गया है: “जीर्ण व हटाए जा चुके बड़े बांधों के कुछ अध्ययनों से उस जटिल व लंबी प्रक्रिया का अंदाज़ा मिलता है जो बांधों को सुरक्षित रूप से हटाने के लिए ज़रूरी होती है। यहां तक कि एक छोटे बांध को हटाने के लिए भी कई वर्षों (अक्सर दशकों) तक विशेषज्ञों और सार्वजनिक भागीदारी के साथ लंबी नियामक समीक्षा की आवश्यकता होती है। बांधों की उम्र बढ़ने के साथ प्रोटोकॉल का एक ऐसा ढांचा विकसित करना ज़रूरी हो जाता है जो बांध हटाने की प्रक्रिया का मार्गदर्शन कर सके और उसको गति दे सके।”
भारत में हटाने योग्य बांध
केरल की पेरियार नदी पर निर्मित मुलापेरियार बांध अब 130 साल से अधिक पुराना हो चुका है। केरल सरकार तो इस बांध को हटाने की वकालत कर रही है जबकि तमिलनाडु सरकार इससे असहमत है जबकि वह बांध का संचालन करती है और इससे होने वाले लाभ को तो प्राप्त करती है लेकिन आपदा की स्थिति में हो सकने वाले जोखिम में साझेदार नहीं है। केरल सरकार द्वारा 2006 और 2011 के बीच की गई हाइड्रोलॉजिकल समीक्षा का निष्कर्ष था कि मुलापेरियार बांध अधिकतम संभावित बाढ़ के लिहाज़ से असुरक्षित है। वर्ष 2015 में नए मुलापेरियार बांध के चरण I हेतु पर्यावरणीय मंज़ूरी के लिए केरल सरकार द्वारा पर्यावरण और वन मंत्रालय को भेजे गए प्रस्ताव में नए बांध के निर्माण के बाद पुराने बांध को तोड़ने का एक अनुच्छेद भी शामिल था। लेकिन अंतरराज्यीय पहलुओं को देखते हुए प्रस्ताव को मंज़ूरी नहीं मिली।
इसी तरह, बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने सार्वजनिक रूप से बार-बार पश्चिम बंगाल में गंगा नदी पर बने फरक्का बांध को हटाने की वकालत की है। उनके अनुसार गाद-भराव, जल निकासी में अवरोध, नदियों की वहन क्षमता में कमी और बिहार में बाढ़ की संवेदनशीलता में वृद्धि के कारण इस बांध को हटाना आवश्यक है। त्रिपुरा में किए गए अनेक शोध अध्ययन और पर्यावरण समूह त्रिपुरा स्थित डंबुर (या गुमटी) बांध को भी हटाए जाने के पक्ष में हैं। वास्तव में, त्रिपुरा में डंबुर बांध पर स्थापित क्षमता (15 मेगावाट) की तुलना में बिजली उत्पादन इतना कम है कि उत्तर-पूर्व पर विश्व बैंक के रणनीति पत्र (28 जून, 2006) में भी बांध को हटाने की सिफारिश की गई थी।
मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी पर महेश्वर बांध भी एक अच्छा उम्मीदवार है जो कोई लाभ नहीं दे रहा है, बल्कि इसके कई प्रतिकूल प्रभाव और जोखिम हैं।
अलबत्ता, भारत में पुराने, असुरक्षित और आर्थिक रूप से घाटे में चल रहे बांधों को हटाने की कोई नीति या कार्यक्रम नहीं है। पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा गठित पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल (प्रोफेसर माधव गाडगिल की अध्यक्षता में) की रिपोर्ट में की गई महत्वपूर्ण सिफारिशों में से एक बांधों को हटाने की भी है। इस रिपोर्ट के बाद मंत्रालय द्वारा इस सम्बंध में कोई कदम नहीं उठाया गया है।
वैसे, प्रकृति ने स्वयं कुछ बांधों को हटाने का काम शुरू कर दिया है। उदाहरण के लिए, अक्टूबर 2023 की शुरुआत में, सिक्किम में तीस्ता नदी पर हिमनद झील के फटने से 1200 मेगावाट का 60 मीटर ऊंचा तीस्ता-3 बांध बह गया। फरवरी 2021 में एक बाढ़ ने उत्तराखंड के चमोली जिले में तपोवन विष्णुगाड बांध और ऋषिगंगा पनबिजली परियोजना बांध को नष्ट कर दिया था। इसी तरह जून 2013 की बाढ़ में उत्तराखंड में बड़ी संख्या में बांधों को नुकसान और तबाही का सामना करना पड़ा था। हरियाणा में यमुना नदी पर बने ताजेवाला बैराज, उसके एवज में बनाए गए हथनीकुंड बैराज के चालू होने के बाद बाढ़ में बह गया था। अक्टूबर 2023 में, महाराष्ट्र-तेलंगाना सीमा पर गोदावरी नदी पर निर्मित मेडीगड्डा बैराज के छह खंभे डूब जाने से बांध को काफी नुकसान हुआ था। केंद्र द्वारा भेजी गई बांध सुरक्षा टीम ने बैराज के पूर्ण पुनर्वास की अनुशंसा भी की है। यदि हम असुरक्षित, अवांछित बांधों को हटाते नहीं हैं तो हमें ऐसी घटनाओं में वृद्धि का सामना करना पड़ सकता है जिससे समाज और अर्थव्यवस्था को बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
बदलती जलवायु और बांध से बढ़ता जोखिम
जलवायु परिवर्तन के कारण तीव्र वर्षा पैटर्न बांधों को और अधिक जोखिम भरा बना सकते हैं। ऐसे में इन्हें हटाना सबसे उचित विकल्प है। तीव्र वर्षा पैटर्न से अधिकतम वर्षा और बाढ़ की संभावना में वृद्धि हो सकती है। लेकिन बांधों और उनकी स्पिलवे क्षमता को इतनी अधिक बाढ़ के लिए डिज़ाइन नहीं किया गया है। इसके लिए बांधों की स्पिलवे क्षमता को बढ़ाने के लिए उपचारात्मक उपायों की आवश्यकता होती है जो काफी महंगा होता है, जैसा कि ओडिशा में महानदी पर हीराकुड बांध पर किया जा रहा है। वास्तव में हीराकुड बांध स्वतंत्र भारत के बाद बने सबसे पुराने मिट्टी के बांधों में से एक है जिसकी सुरक्षा का तत्काल मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। यही स्थिति दामोदर नदी के बांधों की भी है।
वास्तव में, सभी बड़े बांधों के लिए परिवर्तित डिज़ाइन की आवश्यकता है जिसमें बाढ़ का आकलन, बदले हुए वर्षा पैटर्न, बांधों की कम भंडारण क्षमता, लाइव स्टोरेज क्षमता में गाद संचय और डाउनस्ट्रीम में नदियों की कम वहन क्षमता को ध्यान में रखना आवश्यक है। इसके साथ ही बांध की सुरक्षा का आकलन करने के लिए इसकी तुलना स्पिलवे क्षमता से की जानी चाहिए। इसके बाद स्पिलवे क्षमता बढ़ाने की व्यवहार्यता और वास्तविकता के बारे में निर्णय लेने की आवश्यकता है। इसके बावजूद जहां यह संभव नहीं है वहां बांधों हटाने के लिए आकलन किया जाना चाहिए।
गौरतलब है कि बांध कोई प्राकृतिक समाधान नहीं हैं। जलवायु वैज्ञानिक हमें प्रकृति आधारित विकास और समाधान खोजने का सुझाव देते हैं। भारत समेत पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन, अन्याय, नदी, प्रकृति और जैव विविधता के नुकसान तथा बढ़ती आपदाओं जैसे कई परस्पर सम्बंधित संकटों का सामना कर रहा है। नदियां इन चुनौतियों से होकर बहती हैं, और इनकी बहाली एक शक्तिशाली प्रकृति आधारित समाधान हो सकता है। पारंपरिक आवश्यकताओं, आजीविका और सामान्य जीवन के लिए मुक्त बहने वाली नदियों की भी आवश्यकता है।
लिहाज़ा, भारत में पुराने, असुरक्षित और अवांछित बांधों के बढ़ते जखीरे से हमारे सामने आने वाले बढ़ते जोखिमों को देखते हुए तत्काल बांधों को हटाने के लिए एक नीति, योजना और कार्यक्रम की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन इस ज़रूरत को और भी अर्जेंट बना रहा है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.hindustantimes.com/img/2022/08/25/550×309/c523fe26-2452-11ed-bd16-fd5d5a2dd74b_1661417709190.jpg
सभी बड़े बांधों की उम्र सीमित होती है। क्या आपने कभी सोचा है कि एक बार बांध का उपयोगी जीवन समाप्त होने पर उसका क्या होता है? इसे हटाना होता है जिसे डीकमीशनिंग कहते हैं। डीकमीशनिंग का मतलब बांध और उससे जुड़ी संरचनाओं को पूरी तरह हटाने से है।
दुनिया के तीसरे सबसे बड़े बांध निर्माता के रूप में भारत के लिए यह एक बहुत ही प्रासंगिक सवाल है। यह मुद्दा इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि अब बड़े बांध न तो आवश्यक है और न ही व्यावहारिक। इसके अलावा अब बहती नदियों के महत्व को तेज़ी से सराहा जा रहा है।
यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि किसी बांध को बिना उचित रखरखाव के नदी पर बने रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इससे बांध के नीचे की ओर रहने वाले समुदाय और अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बना रहता है।
नदियों को बहाल करने के लाभ
यहां यह समझना आवश्यक है कि बांधों से सिंचाई, पनबिजली, घरेलू और औद्योगिक जल आपूर्ति, जल भंडारण और बाढ़ प्रबंधन जैसे लाभ प्रदान करने का दावा तो किया जाता है लेकिन विश्व बांध आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अधिकांशत: ये लाभ वादों से कम होते हैं। और बांध की उम्र बढ़ने के साथ, इसके जलाशय में गाद भर जाने के कारण ये लाभ और भी कम हो जाते हैं। इसके अलावा, ये लाभ भारी लागत और व्यापक प्रतिकूल प्रभावों के साथ आते हैं।
इसलिए जब भी किसी बांध को हटाकर नदी का प्रवाह बहाल किया जाता है, तो यह बांध निर्माण से उत्पन्न कुछ प्रतिकूल प्रभावों उलट देता है। पुन: प्रवाहमान नदी के कुछ लाभों में मछलियों के आवागमन तथा नदी पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली के साथ बांध के ऊपर व नीचे नदियों में पानी, गाद, रेत और पोषक तत्वों के प्रवाह की बहाली भी शामिल है। ऐसी नदियों के किनारे के समुदायों के लिए जल आपूर्ति और मछुआरों की आजीविका की भी बहाली होती है। इसका असर सांस्कृतिक कार्यों के लिए उपलब्ध पानी पर भी होता है। इस तरह से डीकमीशनिंग बांध के ऊपर व नीचे के इलाकों में और अधिक सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
बांध हटाने का मतलब नदी के निचले हिस्से में आपदाओं और बाढ़ के जोखिम में कमी और जलमग्न भूमि का पुन: उपलब्ध होना भी है। मुक्त प्रवाह वाली नदियां जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक लचीली होती हैं और जलवायु परिवर्तन से अनुकूलन में मदद करती हैं। बहाल की गई नदियों से पानी की गुणवत्ता में भी सुधार होता है।
लिहाज़ा, समाज और अर्थव्यवस्था के लिए, बांध के जीवन में एक ऐसा समय अवश्य आता है जब इसकी लागत, इससे प्राप्त होने वाले लाभ से कहीं अधिक हो जाती है; तब बांध को हटाना बेहतर होता है। इस बात का पता तभी चल सकता है जब समय-समय पर किसी बांध की लागत और लाभ के स्वतंत्र मूल्यांकन की प्रक्रिया की जाए। एक असुरक्षित बांध को बंद करना समाज और अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर होता है। फिलहाल भारत के पास बांधों को हटाने से सम्बंधित मुद्दों को लेकर कोई नीति या कार्यक्रम नहीं है।
योजना की ज़रूरत
बांध को हटाने की योजना बनाते समय यह ध्यान रखना आवश्यक होता है कि इसकी कुछ लागत तो आएगी ही। साथ ही नदी के पारिस्थितिकी तंत्र के प्रभावित होने की संभावना भी रहेगी। उदाहरण के लिए, बांध के पीछे जमी गाद के अचानक बहने से जलीय प्रजातियों के भोजन और अंडे देने के क्षेत्र नष्ट हो सकते हैं। इसके अलावा, नदी में डूबी जड़ें और तने तलछट के नीचे दबकर घर्षण से क्षतिग्रस्त हो सकते हैं। यदि जलाशय के जलग्रहण क्षेत्र में प्रदूषण स्रोत उपस्थित हैं तो नदी के प्रवाह के साथ दूषित तलछट स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर सकती है। ऐसे में बांध को हटाने के विकल्पों और रणनीतियों की योजना नदी की प्रकृति, उसके भूविज्ञान, पारिस्थितिकी, जलवायु और अन्य सम्बंधित पहलुओं के अध्ययन के आधार पर बनाई जानी चाहिए।
बांध क्यों हटाए जाएं?
किसी बांध को हटाने का निर्णय कई कारणों से लिया जा सकता है। जैसे-जैसे अधिक से अधिक बांधों को हटाया जा रहा है और इसके लाभ स्पष्ट हो रहे हैं, उम्मीद है कि विश्व स्तर पर बांधों को हटाने की गति में तेज़ी आएगी। कुछ कारणों की बात यहां की जा रही है।
असुरक्षित बांध: जब बांध आवश्यक स्पिलवे (अतिरिक्त पानी के निकलने का रास्ता) क्षमता से कम होने, गाद जमा होने, पुराने होने, क्षतिग्रस्त होने या नदी के बहाव को वहन न कर पाने के कारण असुरक्षित हो जाते हैं, तब बाढ़ या कोई अन्य आपदा आने से पहले इन्हें हटा देना समझदारी होगी। जलवायु परिवर्तन की स्थिति में वर्षा की तीव्रता, हिमनद-जनित झील के फटने, भूस्खलन या हिमस्खलन जैसी घटनाओं में वृद्धि बांधों को भी असुरक्षित बनाते हैं।
आर्थिक रूप से अव्यावहारिक बांध: घटे हुए लाभ, बढ़ी हुई लागत या इन दोनों के कारण बांध का रखरखाव करना बहुत महंगा हो सकता है। लागत में वृद्धि मुख्य रूप से पर्यावरणीय प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए नियामक शर्तों में वृद्धि, बांध से ऊपर व नीचे मछलियों के प्रवास, स्पिलवे क्षमता बढ़ाने के लिए नए निर्माण की आवश्यकता वगैरह के कारण हो सकती है। ऐसे मामलों में बांध को हटाने की लागत के बावजूद उसे हटा देना ही सस्ता होगा।
– ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना: उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में बांधों के जलाशय मीथेन और कार्बन डाईऑक्साइड के जाने-माने स्रोत हैं। (कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में मीथेन लगभग 24 गुना अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है)। ये दोनों प्रमुख ग्रीनहाउस गैसें हैं। बांध को हटाकर हम ऐसे उत्सर्जन को भी रोक सकते हैं। इसके अलावा, बांधों को हटाने के बाद जलमग्न क्षेत्र के कुछ हिस्सों के पुन:वनीकरण और नदी को बाढ़ क्षेत्र और आर्द्रभूमि से जोड़कर नए कार्बन सोख्ता भी बनाए जा सकते हैं। इस प्रकार बांध हटाना जलवायु परिवर्तन को थामने और अनुकूलन रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हो सकता है।
बांध निर्माण के 100 वर्षों से भी अधिक अनुभव से पता चला है कि बांधों का जीवनकाल सीमित होता है। खराब डिज़ाइन जीवनकाल को कम कर सकती है, उनमें गाद जमा हो सकती है और उनका प्रदर्शन अपेक्षा से कम हो सकता है। इसके अलावा यह आसपास की आबादी के लिए जोखिम तो पैदा करता ही है, इससे नदियां और मछली पालन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
विश्व स्तर पर बांधों को हटाने की मुहिम
यूएसए बांध हटाने की परियोजनाओं में सबसे आगे है। वहां इस प्रक्रिया की शुरुआत कई संघीय कानूनों के साथ हुई। उदाहरण के लिए, 1968 के वाइल्ड एंड सीनिक रिवर एक्ट और 1969 के नेशनल एनवायरनमेंटल पॉलिसी एक्ट ने बांध निर्माताओं को नदियों के पारिस्थितिक लाभों को ध्यान में रखने के लिए मजबूर किया। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर 3 दशकों तक बांधों को हटाने की प्रक्रिया में काफी तेज़ी आई है। कोविड-19 महामारी के दौरान कमी आने से पहले तक प्रति वर्ष 100 से अधिक बांध हटाए गए। अमेरिकन रिवर्स के अनुसार, अमेरिका में अब तक 2025 बांध हटाए जा चुके हैं।
यूएसए में अधिकांश बांधों को फेडरल एनर्जी रेगुलेटरी कमीशन (एफईआरसी) या उसके राज्य समकक्ष द्वारा लायसेंस दिया जाता है। आम तौर पर इसकी अवधि 30 से 50 वर्षों की होती है। इस अवधि के अंत में बांध का पुनर्मूल्यांकन करने के बाद उन्हें सेवानिवृत्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सुरक्षा चिंताओं (भूकंपीय क्षति आदि) की स्थिति में बांधों का लायसेंस रद्द करने की आपातकालीन प्रक्रियाएं भी हैं। पुन: लायसेंसिंग प्रक्रिया में पर्यावरणीय आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से नई परिचालन शर्तों को अनिवार्य किया जाता है। इनमें न्यूनतम प्रवाह में वृद्धि, अतिरिक्त या बेहतर मछली सीढ़ी, आवधिक उच्च प्रवाह और तटवर्ती भूमि के लिए सुरक्षा उपाय शामिल हैं।
अमेरिकन रिवर्स के एक दस्तावेज़ के अनुसार “वर्ष 1999 में अमेरिका स्थित एडवर्ड्स बांध को हटाना एक निर्णायक मोड़ रहा जब पहली बार एफईआरसी ने किसी बांध को हटाने का आदेश दिया। इस बांध की लागत इसके लाभों से कहीं अधिक पाई गई थी। एडवर्ड्स बांध के हटने से एक समय की कल्पनातीत अवधारणा जीर्ण-शीर्ण ढांचे और नदियों को बहाल करने की समस्या से निपटने का एक कारगर उपाय साबित हुआ। इसके नतीजे में अब बांध सुरक्षा कार्यालय, मत्स्य पालन प्रबंधक, बांध मालिक और विभिन्न समुदाय बांधों के लाभों और प्रभावों पर दोबारा विचार कर रहे हैं। कई स्थानों पर बांधों को हटाने को सबसे अच्छा विकल्प माना जा रहा है जिससे पर्यावरण, समुदाय और अर्थव्यवस्था को महत्वपूर्ण लाभ मिल सकते हैं।”
अमेरिकन रिवर्स के अनुसार दो प्रांत – पेनसिल्वेनिया (कुल 364 बांध हटाए गए) और विस्कॉन्सिन (कुल 152 बांध हटाए गए) बांधों को हटाने में अग्रणी रहे हैं। उनकी इस सफलता का मुख्य कारण राज्य मत्स्य पालन और बांध सुरक्षा कार्यक्रमों के बीच नज़दीकी सहयोग है। इसके अलावा, वरमॉन्ट प्रांत ने 13 प्रतिशत राज्य नियंत्रित बांध हटाए हैं जो हटाए गए कुल राज्य नियंत्रित बांधों के अनुपात के लिहाज़ से सर्वाधिक है।
यूएसए में बांध हटाने की वकालत और इस कार्य का नेतृत्व करने वाले समूह अमेरिकन रिवर्स ने 2050 तक 30,000 बांधों को हटाने का लक्ष्य रखा है। गौरतलब है कि अमेरिकी संसद ने सबसे पहले 1972 के राष्ट्रीय बांध निरीक्षण अधिनियम के तहत बांधों की सूची बनाने के लिए आर्मी कोर ऑफ इंजीनियर्स को अधिकृत किया था। भारत में, बड़े बांधों की विश्वसनीय सूची बनाने के लिए ऐसा कोई कानून नहीं है।
यूएसए के राष्ट्रपति बाइडेन ने 2022 में इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट एंड जॉब्स एक्ट पर हस्ताक्षर किए जिसमें बांधों को हटाने तथा उनके पुनर्निर्माण और पुनर्वास के लिए 2.4 अरब डॉलर की राशि आवंटित की गई है। यह ध्यान देने वाली बात है कि बांध हटाने के लिए निवेश को अधोसंरचना सम्बंधी विधेयक में शामिल किया गया था। इन घोषणाओं से यह स्पष्ट होता है कि मुक्त बहने वाली नदियां अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक सुरक्षा और जीवन की गुणवत्ता के लिए महत्वपूर्ण हैं।
पर्यावरण समूहों के गठबंधन डैम रिमूवल युरोप के अनुसार, युरोप में भी बांध हटाने का काम ज़ोर पकड़ रहा है – 2022 में लगभग 325 बांध, पुलिया और अन्य नदी-अवरोधक संरचनाएं हटाई गई हैं। जुलाई 2023 में, युरोपीय संसद ने एक प्रकृति बहाली कानून के मसौदे को मंज़ूरी दी है जिसके तहत 2030 तक कम से कम 20,000 किलोमीटर नदियों को मुक्त प्रवाहित बनाने का लक्ष्य है। वर्ल्ड फिश माइग्रेशन फाउंडेशन के निदेशक हरमन वानिंगन के अनुसार यदि ऐसा कानून बन जाता है तो सभी युरोपीय देशों को इस बारे में विचार करना होगा।
1998 में, लॉयर सैल्मन मछली की सुरक्षा के लिए फ्रांस में ऊपरी लॉयर क्षेत्र की दो छोटी सहायक नदियों के बांधों को हटाया गया। इसी तरह गाद जमा होने के कारण जलाशय की क्षमता 50 प्रतिशत कम हो जाने के कारण 1996 में फ्रांस स्थित कर्नान्सक्विलेक में लेगुएर नदी पर निर्मित एक बांध को भी हटाया गया।
थाईलैंड में ग्रेट मेकांग नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी मुन नदी पर 1994 में निर्मित पाक मुन बांध से नीचे की ओर मत्स्याखेट और चावल की खेती करने वाले समुदायों के सामाजिक और पारिस्थितिक जीवन में उथल-पुथल के चलते बांध हटाने का अभियान शुरू किया गया था। 2001 में अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते थाई सरकार ने मत्स्य पालन तथा समुदायों पर इसके प्रभाव के अध्ययन के लिए एक साल तक बांध के द्वार खुले रखने की अनुमति दी थी।
दुनिया के सबसे बड़े कोप्को बांध को हटाने का काम नवंबर 2023 में कोप्को-2 बांध को हटाने के साथ शुरू किया गया है। 49 मीटर ऊंचे, 60 साल पुराने आयरन गेट बांध, और क्लैमथ बांध के दूसरे हिस्से को बंद करने का काम 2024 में फिर से शुरू किया जाएगा। 420 कि.मी. लंबी क्लैमथ नदी ओरेगॉन की पहाड़ियों से शुरू होकर पश्चिमी अमेरिका स्थित कैलिफोर्निया से होते हुए प्रशांत महासागर तक जाती है। इस नदी पर छ: बांध हैं, उनमें से 36 मीटर ऊंचा पहला बांध 1918 में बनाया गया था। इन छ: बांधों में से चार को हटाए जाने की उम्मीद है। 2024 के अंत में, मत्स्य प्रवास के लिए इसकी सहायक नदियों सहित लगभग 600 कि.मी. नदी को मुक्त कर दिया जाएगा।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक लेख के अनुसार 2000 के दशक की शुरुआत में क्लैमथ नदी पर बांधों को हटाने की प्रक्रिया ऐसे समय में शुरू हुई थी जब कई बांध संघीय लाइसेंस की समाप्ति तिथि के करीब पहुंच रहे थे। इस दौरान जनजातियों, पर्यावरणविदों और मछुआरों के दबाव में एफईआरसी ने आदेश दिया था कि लायसेंस नवीनीकरण से पहले, बांधों में इस तरह का जीर्णोद्धार कार्य किया जाए ताकि मछलियां (सैल्मन) बांध के जलाशय में पहुंच सकें। सैकड़ों हज़ारों डॉलर की निर्माण लागत को देखते हुए बांध निर्माता कंपनी – पैसिफीकॉर्प – 2010 में बांधों को हटाने पर सहमत हुई। इससे दुनिया की सबसे बड़ी बांध हटाने की परियोजना बनाई गई जिसकी लागत 45 से 50 करोड़ डॉलर थी। इस परियोजना का वित्तपोषण कैलिफोर्निया राज्य और पैसिफीकॉर्प द्वारा किया गया।
चार लोअर क्लैमथ बांधों को सुरक्षित और कुशल तरीके से हटाने वाली संस्था क्लैमथ रिवर रिन्यूएबल कॉर्पोरेशन द्वारा 2 नवंबर 2023 को एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से घोषणा की गई कि कोप्को-2 बांध हटाने का काम पूरा हो गया है।
इन सभी प्रयासों से स्पष्ट होता है कि बांधों को हटाने में भी भारी लागत आ सकती है। ज़ाहिर है, जब भी कोई बांध प्रस्तावित किया जाता है तो इसको हटाने की लागत को भी बांध की लागत में शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा कभी होता नहीं है। वैकल्पिक रूप से, हमें एक लायसेंसिंग नियमन प्रणाली की आवश्यकता है जो पुन: लायसेंसिंग के दौरान परियोजना निर्माता को इस लागत को वहन करने को बाध्य करे। दुर्भाग्य से भारत में इनमें से कोई भी कानून नहीं है। भारत में बांध परियोजनाओं को पर्यावरण सम्बंधी मंज़ूरी हमेशा के लिए दे दी जाती है जिसकी समय-समय पर कोई समीक्षा नहीं होती। न ही इमसें पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों का मूल्यांकन या इसकी मंज़ूरी में लागत, लाभ, प्रभाव या बांधों को हटाने की प्रक्रिया का कोई उल्लेख होता है। यहां बांधों को एक स्थायी निर्माण के रूप में देखने की धारणा है।
क्लैमथ बांध के जीर्णोद्धार समूह ने 90 स्थानीय प्रजातियों का एक बीज बैंक भी बनाया है जिन्हें बोया जाएगा। टीम लीडर के पास बांधों को हटाने के बाद पारिस्थितिक बहाली का काफी अनुभव है।
बांध हटाने के बाद
बांध हटाने के बाद योजनाबद्ध तरीके से मछुआरों और स्थानीय समुदायों की भागीदारी से जलग्रहण क्षेत्र और नदी के पारिस्थितिक तंत्र बहाली की जाती है। साइंस में प्रकाशित उपरोक्त लेख के अनुसार क्लैमथ बांध के हटने और आगे चलकर दुनिया भर के हज़ारों बांधों को हटाने के लक्ष्य के साथ भविष्य में अधिक तथा और बड़े प्रयासों की संभावना है। इस तरह की पारिस्थितिक बहाली के लिए सबसे पहले एक योजना की आवश्यकता होती है जो बांध हटाने की प्रक्रिया शुरू होने से बहुत पहले शुरू हो जाती है। ऐसी योजना बनाने और आगे चलकर क्रियान्वित करने में विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को शामिल किया जाता है। इसमें न केवल चयनित देसी पौधों के साथ जलाशय-पूर्व क्षेत्र को आबाद किया जाता है बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि इसमें घुसपैठी पौधे न हों और पहले से उपस्थित पौधों को भी न हटाया जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.springernature.com/full/springer-static/image/art%3A10.1038%2Fs41598-020-76158-3/MediaObjects/41598_2020_76158_Fig1_HTML.png?as=webp https://en.wikipedia.org/wiki/Dam_removal#/media/File:Dam_removal.jpg
मेरे जैसे वरिष्ठ नागरिकों को 1956 में आई फिल्म भाई-भाई का यह गाना याद होगा – ‘मेरा नाम अब्दुल रहमान, पिस्तावाला मैं हूं पठान…’, और हमें लगता था कि पिस्ता बाहर से आयातित मेवा है। लेकिन डॉ. के. टी. अचया अपनी पुस्तक इंडियन फूड में बताते हैं कि बादाम, पिस्ता, काजू, अखरोट, खुबानी और अनार जैसे मेवों के बारे में आयुर्वेदिक चिकित्सा के जनक ऋषि चरक (100 ईसा पूर्व) के समय से जानकारी थी और उन्होंने स्वास्थ्य और पोषण में इनका महत्व बताया था।
इसाबेला मेटियस मार्टिंस और साथियों ने अपने हालिया पेपर में बादाम को मेवों की रानी बताया है। बादाम को स्वास्थवर्धक खाद्य पदार्थों का प्रतीक माना जाता है क्योंकि यह प्रोटीन, मोनोअनसैचुरेटेड फैटी एसिड, फाइबर, विटामिन ई, रिबोफ्लेविन और आवश्यक खनिजों के साथ-साथ फायटोस्टेरॉल और पॉलीफिनॉल का एक समृद्ध स्रोत है। बढ़ते चिकित्सीय प्रमाणों से पता चलता है कि बादाम का सेवन कई स्वास्थ्य लाभों से जुड़ा है। अन्य स्वास्थ्यवर्धक मेवे हैं – काजू, किशमिश, अखरोट, खजूर, खुबानी और पिस्ता। जैसा कि चरक बताते हैं मेवों के अलावा केले, अंगूर, अमरूद, संतरे, आम जैसे फल भी स्वास्थ्यवर्धक हैं।
कार्यात्मक आहार
ऐसे स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थों को कार्यात्मक (फंक्शनल) खाद्य पदार्थ भी कहा जाता है, क्योंकि वे अपने पोषण मूल्य से परे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं। फलों के अलावा कुछ अन्य उदाहरण हैं जई और मोटे अनाज; जैसे बाजरा, रागी, ज्वार और सोया प्रोटीन। हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान (NIN) समय-समय पर भारतीय खाद्य पदार्थों के पोषण मूल्यों पर रिपोर्ट जारी करता है और बताता है कि एक स्वस्थ वयस्क को स्वस्थ बने रहने के लिए क्या-क्या खाना चाहिए। खास कर बच्चों को मेवे, फल और पोषक तत्व युक्त खाद्यान्न अधिक मात्रा में खाने की सलाह दी जाती है।
कार्यात्मक खाद्य पदार्थों को मोटे तौर पर ऐसे खाद्य पदार्थों के रूप में परिभाषित किया जाता है जो सामान्य पोषण से अधिक पोषक तत्व प्रदान करते हैं; ये उपभोक्ता को अतिरिक्त शारीरिक लाभ प्रदान करते हैं। राष्ट्रीय पोषण संस्थान के अलावा हेल्थलाइन (Healthline) नामक वेबसाइट भी कई ऐसे कार्यात्मक खाद्य पदार्थों का सुझाव देती है जिन्हें दैनिक आहार में शामिल होना चाहिए। कार्यात्मक खाद्य पदार्थों में ऐसे तत्व होते हैं जो उनके पोषण मूल्य से परे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं। इनमें से कुछ में पूरक पोषण या अतिरिक्त पोषण होता है जो स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है।
यह सब देखते हुए स्वास्थ्यवर्धक दैनिक आहार के लिए क्या खाना चाहिए? सबसे अच्छा तो यह होगा कि हम अपने दैनिक आहार में सिर्फ चावल या गेहूं ही न खाएं, बल्कि मुख्य भोजन में मोटे अनाजों को भी शामिल करें। और जब हम सब्ज़ियों को पकाएं या उनका सालन बनाएं तो हल्दी, दालचीनी, अदरक और लहसुन का उपयोग करें। मक्खन और घी खाएं, लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं। दही में कई एंटीऑक्सीडेंट्स होते हैं। और दिन में (बहुत ज़्यादा नहीं) चंद प्याली चाय-कॉफी पीना भी उपयोगी है क्योंकि उनमें भी एंटीऑक्सीडेंट होते हैं। खास कर बच्चों को दिन में कई कप दूध पीना चाहिए, जबकि वयस्क तीन कप तक दूध पी सकते हैं। इसके अलावा, हमें जब-तब या कम से कम सप्ताह में एक बार मेवे और फल भी खाने चाहिए। और, यदि आप मांसाहारी हैं तो अंडे, मछली, चिकन और मटन खा सकते हैं क्योंकि ये खनिज और वसा के समृद्ध स्रोत हैं।
तो, अच्छा और स्वास्थ्यवर्धक भोजन खाइए! (स्रोत फीचर्स)
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देश अपनी आज़ादी के 76वें साल का जश्न मना रहा है। इस मौके पर यह जायज़ा लेना उचित होगा कि पर्यावरण आंदोलनों ने देश की नीतियों और विकास को आकार देने में क्या भूमिका निभाई है।
पर्यावरण आंदोलन की तीन अलग-अलग राहें हैं जिन पर हम इतिहास में इनके पदचिन्ह देख सकते हैं।
पहली, जिसमें पर्यावरण आंदोलन ने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए विकास रणनीति को परिभाषित करने में भूमिका निभाई है। दूसरी, जिसमें पर्यावरणीय अभियानों ने विकास परियोजनाओं का विरोध किया है और इस संघर्ष से कार्रवाई के लिए सर्वसम्मति उभरी है। तीसरी, पर्यावरणीय आंदोलन ने प्रदूषण और मानव स्वास्थ्य के मामलों में नीतियों में बदलाव करने की ओर ज़ोर लगाया है।
आंदोलन की ‘प्रकृति’ जटिल है। पिछले 75 सालों में ये आंदोलन दो धाराओं में बंटकर काम करते रहे हैं – विकास के रूप में पर्यावरणवाद और संरक्षण के रूप में पर्यावरणवाद।
आंदोलन में यह विभाजन इसके जन्म के समय, 1970 के दशक में, भी नज़र आ रहा था। 1973 में, ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ नामक एक कार्यक्रम शुरू किया गया था जो संरक्षण की पश्चिमी अवधारणा के अनुरूप प्रमुख प्रजातियों के संरक्षण हेतु अभयारण्यों हेतु भूमि चिन्हित करने के लिए था।
लगभग उसी समय, हिमालय के ऊंचे इलाकों में महिलाओं ने चिपको आंदोलन शुरू किया था, जिसमें उन्होंने पेड़ काटने (पेड़ों पर आरी-कुल्हाड़ी चलाने) का विरोध किया था। उनका आंदोलन संरक्षण के बारे में नहीं था; उन्हें जीवित रहने के लिए पेड़ों की आवश्यकता थी और इसलिए वे उन्हें काटने और उन्हें उगाने का अधिकार चाहते थे।
यह भेद हमारी नीतियों में भी झलकता है जो प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और उनके संरक्षण के बीच डोलती रहती हैं। और इन सब में, समुदायों के अधिकार उपेक्षित रहे हैं।
प्रोजेक्ट टाइगर वर्ष 2004 में तब पतन के गर्त में पहुंच गया था जब राजस्थान के सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के सभी बाघ शिकारियों की बलि चढ़ गए थे। तब, टाइगर टास्क फोर्स ने सुधार के लिए अजेंडा तय किया, जिसमें अभयारण्य की सुरक्षा को मज़बूत करना और टाइगर कोर ज़ोन वाले इलाकों से गांवों को अन्यत्र बसाना शामिल था। तब से जंगल में बाघों की संख्या स्थिर हो गई है। अलबत्ता, यह सवाल बना हुआ है कि क्या स्थानीय समुदायों को इस संरक्षण प्रयास से कोई लाभ हो रहा है?
इसी प्रकार, चिपको आंदोलन ने देश को वन संरक्षण और वनीकरण के लिए प्रेरित किया। 1980 के दशक में वन संरक्षण कानून लागू किया गया था, जिसमें यह व्यवस्था थी कि केंद्र सरकार की अनुमति के बिना वन भूमि का उपयोग अन्य कार्यों के लिए नहीं किया जा सकता है।
इस कानून ने कुछ हद तक वन भूमि उपयोग परिवर्तन की प्रवृत्ति को रोकने का काम किया है, लेकिन साथ ही इसने उन समुदायों को वनों से दूर कर दिया है जो इनकी रक्षा करते थे। आज सवाल यह है कि जंगल कैसे उगाएं, कैसे उन्हें काटें और दोबारा फिर उन्हें उगाएं ताकि भारत काष्ठ-आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ सके और इस तरह बढ़ सके कि स्थानीय लोगों को इससे फायदा हो।
1980 के दशक में, नर्मदा नदी पर बांध बनाने की परियोजना ‘विनाशकारी’ विकास का चरमबिंदु था। यह परियोजना 1983 में साइलेंट वैली पनबिजली परियोजना को रोकने के निर्णय के बाद आई थी। साइलेंट वैली परियोजना केरल के उपोष्णकटिबंधीय जंगलों की समृद्ध जैव विविधता को बचाने के लिए रोकी गई थी।
नर्मदा परियोजना के मामले में भी मुद्दे वही थे – जंगलों की क्षति और विस्थापित गांवों का पुनर्वास। इस आंदोलन को बहुत सम्मान और निंदा दोनों मिलीं। लेकिन इस आंदोलन ने इस मुद्दे को बहुत अच्छे से उठाया कि नीति में और फिर सबसे महत्वपूर्ण रूप से क्रियांवयन में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।
1980 के दशक की इन हाई-प्रोफाइल परियोजनाओं के कारण 1990 के दशक में पर्यावरणीय प्रभावों का मूल्यांकन करने और मंज़ूरी देने के ताम-झाम की स्थापना हुई। लेकिन संतुलन बनाने का उपरोक्त कार्य अभी भी अधबीच में है।
यह 1980 के दशक के उत्तरार्ध में सूखा पड़ा था जिसने हमारे सहयोगी और पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल को जल प्रबंधन की मान्यताओं को फिर से देखने-समझने के लिए प्रेरित किया।
डाइंग विज़डम नामक पुस्तक में विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में पारंपरिक जल प्रबंधन की तकनीकी प्रवीणता का दस्तावेज़ीकरण किया गया है। इसने विकेन्द्रीकृत और समुदाय-आधारित जल संरक्षण के विचार को उभारा, जिसके बाद आजीविका में सुधार करने और जहां बारिश होती है वहीं उस पानी को भंडारित करने के लिए जल निकायों के पुनर्जनन की दिशा में नीतिगत बदलाव हुए।
दिसंबर 1984 में आई औद्योगिक आपदा भोपाल गैस कांड – जिसमें यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से गैस लीक हुई थी और मौके पर ही हज़ारों लोग मारे गए थे – के कारण औद्योगिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए बने कानूनों में सुधार हुआ, और कुछ हद तक कंपनियों की तैयारियों में सुधार हुआ। लेकिन हमने उन लोगों को अब तक न्याय नहीं दिया है जो इसके चलते अब भी स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं और उनके पास आजीविका का अभाव है।
1990 के दशक में दिल्ली में स्वच्छ हवा के अधिकार के लिए लड़ाई शुरू हुई। इस लड़ाई से बेहतर ईंधन के विकल्प मिले और प्रौद्योगिकी की गुणवत्ता में सुधार हुआ है – दिल्ली ने स्वच्छ संपीड़ित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) को अपनाया।
लेकिन जैसे-जैसे सड़कों पर वाहन और प्रदूषण बढ़ाने वाले ईंधन का दहन (उपयोग) बढ़ा, वैसे-वैसे वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि हुई। अच्छी खबर यह है कि आज, प्रदूषण और स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों के खिलाफ व्यापक अफसोस (या चिंता) है। बुरी खबर यह है कि हम परिवहन प्रणाली को बेहतर करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं – यानी उद्योग, बिजली या खाना पकाने में उपयोग होने वाले प्रदूषणकारी ईंधन के उपयोग को थामने के कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं।
ऐसी और भी अन्य घटनाएं हैं जिन्हें पर्यावरण इतिहास डायरी में अवश्य दर्ज़ किया जाना चाहिए। हालांकि, भारत के पर्यावरण आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण लाभ वह आवाज़ है जो इसने देश के नागरिकों को दी है। यही आंदोलन की आत्मा है। दरअसल, पर्यावरणवाद का सरोकार तकनीकी सुधारों से नहीं है बल्कि लोकतंत्र को मज़बूत करने से है।(स्रोत फीचर्स)
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इन दिनों डीपफेक टेक्नॉलॉजी सुखिर्यों में है। दरअसल यह कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस यानी एआई) के इस्तेमाल की एक और देन है। आजकल इंटरनेट पर डीप फेक तकनीक से बने वीडियो में वृद्धि हुई है क्योंकि अब इसने सेलेब्रिटीज़ को चपेट में ले लिया है। कुछ का कहना है कि जिस तरह से उन्हें डीपफेक तकनीक से तैयार वीडियो-ऑडियो में पेश किया गया है, उन्होंने वैसा एक बार भी नहीं किया है।
डीपफेक तकनीक डिजिटल हेरफेर का कमाल है, जिसका इस्तेमाल व्यक्तियों के बारे में भ्रामक जानकारियां फैलाने के लिए किया गया है। जानकारों का विचार है कि भविष्य में होने वाले चुनावों में डीपफेक प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से मनगढ़ंत वीडियो की बाढ़ आ सकती है; विपक्ष के खिलाफ भ्रामक कंटेट तैयार कर प्रसारित किया जा सकता है।
डीपफेक प्रौद्योगिकी क्या है? मशीन लर्निंग, डीप लर्निंग और न्यूरल नेटवर्क कुछ मुख्य तकनीकें हैं जिनका उपयोग डीपफेक बनाने में किया जाता है। इनकी सहायता से किसी व्यक्ति का किसी भी तरह का वीडियो अथवा फोटो बनाया जा सकता है। दरअसल इसका इस्तेमाल विश्वसनीय दिखने वाली भ्रामक वीडियो, तस्वीरें और श्रव्य सामग्री बनाने में किया जाता है।
एआई आधारित डीपफेक तकनीक संपादन का एक ऐसा साॅफ्टवेयर है, जिसमें मशीन लर्निंग एल्गोरिद्म का उपयोग किया जाता है। अर्थात डीपफेक एक सिंथेटिक माध्यम है, जिसका इस्तेमाल वीडियो, ऑडियो और तस्वीरें बनाने में किया जाता हैै। हाल के वर्षों में एआई के उपयोग का विस्तार हुआ है और डीपफेक तकनीक के दुरूपयोग का चेहरा भी सामने आया है।
डीपफेक तकनीक में दो प्रकार के एल्गोरिद्म – जनरेटर और डिस्क्रिमिनेटर – भूमिका निभाते हैं। इसे बनाने के लिए सोर्स, वीडियो डीपफेक, ऑडियो डीपफेक और लिप सिंक आदि का उपयोग किया जाता है। वर्तमान दौर में ऐसी तकनीकें उपलब्ध हैं, जिनसे सटीक डीपफेक बनाना आसान हो गया है। इनमें जनरेटिव एडवरसेरियल नेटवर्क (जीएएन), कन्वोल्यूशन न्यूरल नेटवर्क (सीएनएन) और ऑटो एन्कोडर्स शामिल हैं। ऑडियो डीपफेक बनाने के लिए नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग (एनएलपी) का उपयोग किया जाता है।
दरअसल डीपफेक तकनीक का अतीत अधिक पुराना नहीं है। तस्वीरों में फेरबदल करना उन्नीसवीं सदी में शुरू हुआ था। आगे चलकर इसका इस्तेमाल चलचित्रों में होने लगा। विकास का सिलसिला बीसवीं सदी में जारी रहा और डिजिटल वीडियो आने के साथ ही विकास की रफ्तार और तेज़ हो गई। डीपफेक टेक्नॉलॉजी नब्बे के दशक तक अनुसंधानकर्ताओं तक सीमित थी, लेकिन बाद में शौकिया लोग इस तकनीक का इस्तेमाल ऑनलाइन संचार में करने लगे।
वस्तुत: डीपफेक शब्द ‘डीप लर्निंग’ और ‘फेक’ से मिलकर बना है। इस नाम का उपयोग एक रेडिट उपयोगकर्ता ने किया था। रेडिट सामाजिक खबरें जुटाने वाली अमेरिकी वेबसाइट और प्लेटफॉर्म है।
सन 2017 में पहली बार सार्वजनिक डोमेन में इसका इस्तेमाल किया गया। डीपफेक हेरफेर की अति उन्नत प्रौद्योगिकी है, जिसमें किसी का वीडियो किसी में मिलाकर और किसी का चेहरा किसी में लगाकर नकली वीडियो अथवा फोटो बना दिया जाता है।
अलबत्ता, डीपफेक का सकारात्मक चेहरा भी है, जो चर्चा का विषय नहीं बना है। इसके इस्तेमाल से विदेशी भाषाओं की फिल्मों को डबिंग के ज़रिए बेहतर बनाया जा सकता है। जो गायक या गायिकाएं अब हमारे बीच नहीं हैं, उनकी आवाज़ को जिलाया जा सकता है। यह तकनीक युद्धग्रस्त इलाकों में लोगों में सहानुभूति पैदा करने में सहायक सिद्ध हुई है। इस प्रौद्योगिकी से स्क्लेरोसिस बीमारी की चपेट में आ चुके लोगों की आवाज़ को वापस लाने में सफलता मिली है।
इस तकनीक से शैक्षणिक वीडियो बनाए जा सकते हैं। विद्यार्थियों को इतिहास की घटनाओं से परिचित कराया जा सकता है। डीपफेक तकनीक से मृत व्यक्ति का चेहरा बनाने में सफलता मिली है। अक्टूबर 2020 में किम कार्देशियन ने अपने दिवंगत पिता का चेहरा इसी तकनीक से बनाया था। हेल्थकेयर, फैशन, ई-कामर्स आदि में भी इस प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया है। इस तकनीक से कलाकृतियों का सृजन भी किया जा सकता है। ऐसे सदुपयोगों की सूची लंबी होती जा रही है।
हाल के वर्षों में डीपफेक प्रौद्योगिकी के दुरूपयोग का खुलासा हुआ है। इनमें ब्लैकमेल, पोर्नोग्राफी, वित्तीय धोखाधड़ी, फर्ज़ी खबरें आदि शामिल हैं। इस तकनीक का इस्तेमाल बराक ओबामा, डोनाल्ड ट्रंप, व्लादीमीर पुतिन, रश्मिका मंदाना जैसी सेलेब्रिटीज़ को बदनाम करने हेतु और राजनेताओं पर व्यंग्य और पैरोडी बनाने में भी हुआ है। इस तकनीक का इस्तेमाल विपक्षी उम्मीदवार के खिलाफ माहौल बनाने और भ्रामक जानकारियां प्रसारित करने में किया जा सकता है।
आखिर कैसे बनता है डीपफेक? यह विशेष मशीन लर्निंग – डीप लर्निंग का उपयोग करके बनाया जाता है। कंप्यूटर को दो वीडियो अथवा फोटो दिए जाते हैं, जिन्हें देखकर वह स्वयं ही दोनों वीडियो अथवा फोटो को एक ही जैसा बनाता है। इस प्रकार के फोटो और वीडियो में गुप्त परतें होती हैं, जिन्हें विशेष साॅफ्टवेयर के ज़रिए ही देखा जा सकता है।
अब एक सवाल यह है कि डीपफेक वीडियो अथवा तस्वीर को कैसे पहचानें? डीपफेक वीडियो इतने सटीक होते हैं कि इन्हें पहली नज़र में पहचाना नहीं जा सकता। इसके लिए डीपफेक तकनीक से तैयार वीडियो का बेहद बारीकी से अवलोकन करना होता है। इसमें चेहरे और आंखों से झलकती अभिव्यक्ति सम्मिलित है। लिप सिंकिंग के ज़रिए भी इस प्रकार के वीडियो पहचाने जाते हैं। ऐसे वीडियो को अतिरिक्त ब्राइटनेस द्वारा भी पहचाना जा सकता है।
सोशल मीडिया कंपनियों, संगठनों और सरकारी एजेंसियों ने डीपफेक का पता लगाने की तकनीक का विकास किया है। इसी प्रकार अमेरिका की डिफेंस एडवांस रिसर्च एजेंसी (डीएआरपीए) ने भी इसके लिए प्रौद्योगिकी विकसित की है। सोशल मीडिया से जुड़ी कुछ कंपनियों ने डीपफेक का पता लगाने के लिए ब्लाॅकचेन प्रौद्योगिकी का उपयोग किया है। एडोब, माइक्रोसाॅफ्ट सहित कुछ कंपनियों ने डीपफेक प्रोटेक्शन साॅफ्टवेयर उपलब्ध कराया है। वैसे तो डीपफेक का उपयोग वैधानिक है, लेकिन नियमों को तोड़ने पर अवैधानिक हो जाता है।
डीपफेक तकनीक का सबसे चुनौतीपूर्ण पहलू यह है कि इसके गलत इस्तेमाल को प्रभावी तरीके से कैसे रोका जाए? युरोप, अमेरिका, चीन आदि ने डीपफेक तकनीक से उत्पन्न चुनौतियों से निपटने के लिए कारगर कदम उठाए हैं। हाल की घटनाओं के बाद भारत भी कानून बनाने की दिशा में सक्रिय हो गया है। लेकिन मात्र कानून बनाना पर्याप्त नहीं होगा। वर्तमान दौर में डिजिटल डोमेन में प्रौद्योगिकी साक्षरता और जागरूकता दोनों ही ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.spiceworks.com/wp-content/uploads/2022/05/23103504/Concept-of-artificial-intelligence-face-combined-with-electronic-circuit.jpg
मध्य पूर्व के शुष्क क्षेत्र में एथल टमारिस्क (Tamarix aphylla) नामक एक रेगिस्तानी पेड़ ज़िंदा रहने के लिए एक अनूठी रणनीति अपनाता है। यह पौधा झुलसाने वाली गर्मी में पानी प्राप्त करने के लिए नमकीन स्राव का फायदा उठाता है।
प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित यह अध्ययन संकेत देता है कि पौधे दूभर परिस्थितियों में जीवित रहने के लिए किस तरह के रासायनिक जुगाड़ करते हैं। गौरतलब है कि लवण से समृद्ध तटीय मिट्टी में पनपने वाला यह पौधा एक लवणमृदोद्भिद (हैलोफाइट) है जो अतिरिक्त लवण को ग्रंथियों से बूंदों के रूप में स्रावित करके पत्तियों पर जमा करता है। जैसे-जैसे दिन गर्म होता है, इन चमकदार बूंदों का पानी तो वाष्पित हो जाता है जिससे पौधे पर सफेद रवों की परत जम जाती है जो अंतत: तेज़ हवा से झड़ जाते हैं।
इस रणनीति का खुलासा तब हुआ जब अबू धाबी स्थित न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी की वैज्ञानिक मारियेह अल-हंदावी ने संयुक्त अरब अमीरात के गर्म, आर्द्र रेगिस्तानों से गुज़रते समय इन रवों पर पानी को संघनित होते देखा। उनका अनुमान था कि इस प्रक्रिया में उत्सर्जित लवण-मिश्रण के रासायनिक संघटन की महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी।
व्यापक शोध के बाद अल-हंदावी और उनकी टीम ने पाया कि दिन के समय में उत्सर्जन से बने नमक के रवे रात में पानी सोख कर फूल जाते हैं। टीम द्वारा की गई जांच से साबित हुआ कि जल संचयन में लवणों का प्राथमिक योगदान है, क्योंकि विशिष्ट परिस्थितियों में प्राकृतिक रूप से रवेदार परत वाली शाखाएं धुली हुई शाखाओं की तुलना में काफी अधिक पानी एकत्र करती है। यहां तक कि 50 प्रतिशत से कम आर्द्रता पर भी रवों पर ओस बन सकती है।
एथल टमारिस्क की विशिष्टता इसके द्वारा उत्सर्जित लवणों का जटिल मिश्रण है, जिसमें सोडियम क्लोराइड, जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट) और एक अन्य घटक – लिथियम सल्फेट – शामिल है जिसमें सोडियम क्लोराइड और जिप्सम की अपेक्षा कम आर्द्रता पर भी नमी को अवशोषित करने की क्षमता कहीं अधिक होती है।
कई विशेषज्ञों के अनुसार यह अध्ययन एक नए स्तर की समझ प्रदान करता है जिससे यह पता चलता है कि कैसे रेगिस्तानी पौधे लवणों से छुटकारा भी पाते हैं और हवा से पानी संचय के लिए इनका उपयोग भी करते हैं। इन लवणों का संघटन रेगिस्तानी पौधों द्वारा विकसित जटिल रणनीतियों को उजागर करता है।
शोधकर्ताओं द्वारा किया गया यह अध्ययन अन्य रेगिस्तानी पौधों में भी इस प्रकार की विशेषता का संकेत देता है। संभव है कि अपना अस्तित्व बचाने के लिए हर पौधे के पास कोई विशिष्ट गुप्त नुस्खा हो। बहरहाल, इस अध्ययन से हमें विश्व भर में पानी की कमी से निपटने के तरीके के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त हुई है जो आगे खोज की संभावना का संकेत देती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i0.wp.com/www.sciencenews.org/wp-content/uploads/2023/10/103023_ar_desert_plant_feat.jpg?fit=1030%2C580&ssl=1
मौसम पूर्वानुमान के क्षेत्र में धीरे-धीरे क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। इन दिनों कृत्रिम बुद्धि (एआई) आधारित मौसम पूर्वानुमान सटीक और बेहतर होते जा रहे हैं।
गौरतलब है कि कई दशकों से मौसम पूर्वानुमान सुपर कंप्यूटरों पर निर्भर रहे हैं। अत्यधिक ऊर्जा खपत वाले सुपरकंप्यूटरों से पूर्वानुमान लगाने के लिए इन्हें निरंतर चालू रखना होता है। लेकिन एआई के उद्भव ने इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया है। विश्व की सबसे बड़ी मौसम पूर्वानुमान संस्था युरोपियन सेंटर फॉर मीडियम-रेंज वेदर फोरकास्ट्स (ECMWF) ने हाल ही में एआई को अपनाया है और प्रायोगिक स्तर पर पूर्वानुमान करना शुरू किया है। शोधकर्ताओं के अनुसार डेस्कटॉप पर मिनटों में तैयार किए गए एआई-जनित पूर्वानुमान सटीकता में पारंपरिक मॉडल के बराबर और कई मामलों में उससे भी बेहतर हैं।
एआई की इस क्षमता को देखते हुए गूगल डीप माइंड और हुवाई जैसी कंपनियां अधिक सटीक एआई मौसम मॉडल तैयार करने का प्रयास कर रही हैं। गूगल के ग्राफकास्ट और हुवाई के पंगु-वेदर ने दस दिनों का पूर्वानुमान तैयार करने में अभूतपूर्व क्षमताओं का प्रदर्शन किया है।
कंप्यूटेशन आधारित पारंपरिक मौसम मॉडल के विपरीत एआई मॉडल डीप लर्निंग पर आधारित हैं। ECMWF के 40 वर्षों के मौसम अवलोकनों और अल्पकालिक पूर्वानुमानों के व्यापक डैटासेट पर प्रशिक्षित ये एआई मॉडल वायुमंडल में हो रहे परिवर्तन के जटिल पैटर्न को समझते हैं। ग्राफकास्ट पेपर के मुख्य लेखक रेमी लैम ने मॉडल की दक्षता को पारंपरिक पूर्वानुमानों का एक तेज़, सटीक और व्यावहारिक विकल्प बताया है।
इन एआई मॉडलों पर काम कर रहे ECMWF शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि सीमित अवलोकन डैटा के साथ भी हुवाई का पंगु मॉडल प्रचलित मॉडल की दक्षता से मेल खाता है। इस तेज़ी से परिवर्तन के पीछे गूगल द्वारा तैयार किया गया वेदरबेंच है जो डैटा तक पहुंच को सरल बनाता है। इसके अलावा, रयान केसलर के व्यक्तिगत योगदान से उपजा मॉडल सरल लेकिन अत्यधिक प्रभावी 6-दिनी पूर्वानुमान प्रदान करने में सक्षम हैं।
एआई मौसम मॉडलिंग के लिए अगला कदम मौसम के एकाधिक पूर्वानुमान में है जिनके बीच से चयन किया जा सके। इसमें चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाओं के लिए पूर्वानुमान की सटीकता को बढ़ाया सकता है। ये मॉडल मौसम का पूर्वानुमान और एक्सास्केल कंप्यूटरों पर काम करने वाले उच्च-रिज़ॉल्यूशन वाले जलवायु मॉडल पर निर्भर हैं। ये शीघ्र परिणाम देंगे और जलवायु भविष्यवाणी में बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं।
बहरहाल मौसम के पूर्वानुमान का भविष्य अंतत: उपयोगकर्ता की प्राथमिकताओं पर निर्भर होगा। इसमें एआई-आधारित पूर्वानुमानों की सटीकता और एल्गोरिद्म-आधारित पूर्वानुमानों की समझ के बीच चयन करना होगा। फिलहाल उम्मीद है कि ये मॉडल उपयोगकर्ताओं को मौसम की घटनाओं को समझने में मदद करेंगे और पूर्वानुमान में सटीकता, दक्षता और विश्वसनीयता का एक अभूतपूर्व मिश्रण प्रदान करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adm9275/full/_20231114_nid_ai_weather_forecasting-1700071831893.jpg