दुबई में चल रहे जलवायु सम्मेलन (कॉप-28) के संदर्भ में महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हम पेरिस समझौते (2015) के लक्ष्य की दिशा में कारगर प्रगति कर रहे हैं। पेरिस समझौते में पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि को औद्योगिक-पूर्व तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने का लक्ष्य रखा गया था। यह सम्मेलन इस प्रगति का मूल्यांकन करने का औपचारिक अवसर है।
वैसे तो विभिन्न सरकारें निवेश में वृद्धि एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत अपनाने के साथ जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास कर रही हैं, लेकिन ये प्रयास काफी धीमी गति से हो रहे हैं। अब तक की प्रगति पर एक नज़र डालते हैं और देखते हैं कि पेरिस समझौते के सपने को जीवित रखने के लिए क्या करना होगा।
बढ़ते तापमान की हकीकत
स्थिति काफी गंभीर है। पिछले एक दशक में ग्लोबल वार्मिंग की गति तेज़ हुई है। वर्ष 2022 में औसत तापमान औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.3 डिग्री अधिक रहा था और एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2023 में औसत तापमान औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.4 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहेगा। यह स्थिति एक दशक से भी कम समय में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने का संकेत देती है। इसके अलावा उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में चल रहे एल-नीनो प्रभाव वगैरह कम समय में तापमान पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं।
जलवायु मॉडलों का अनुमान है कि 2100 तक तापमान में औद्योगिक-पूर्व स्तर से 2.4-2.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी। इससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर तत्काल अंकुश लगाने की आवश्यकता स्पष्ट है।
देरी के परिणाम
काफी लंबे समय से विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दों पर जल्द से जल्द कार्रवाई करने पर ज़ोर देते रहे हैं। तीन दशक पहले, 1992 में वैश्विक नेताओं ने तेज़ी से बदल रही जलवायु को नियंत्रित करने के लिए प्रतिबद्धता जताई थी। लेकिन हालिया रुझानों से पता चलता है कि उत्सर्जन की मौजूदा दर पांच वर्षों के भीतर वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ा देगी।
तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रहने की 50 प्रतिशत संभावना बनाए रखने के लिए 2034 तक उत्सर्जन में सालाना 8 प्रतिशत की कमी करनी होगी, जो कि कठिन लगती है। तुलना के लिए, 2020 में महामारी के दौरान उत्सर्जन में मात्र 7 प्रतिशत की कमी देखी गई थी जब कामकाज लगभग ठप था।
कार्बन हटाने का मामला
उत्सर्जन को लेकर इस तरह की ढिलाई को देखते हुए 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार करने से बचने के लिए विशेषज्ञ वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने की वकालत करते हैं। इसे ऋणात्मक उत्सर्जन भी कहा जा रहा है। इसके लिए प्राकृतिक तरीके (जैसे जंगल लगाना या समुद्रों में ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड को सोखना) तथा औद्योगिक तरीके भी शामिल हैं। लेकिन जलवायु मॉडल वातावरण से कार्बन हटाने के तरीकों की मापनीयता और प्रभाविता को लेकर अनिश्चित हैं। और तो और, ऐसे किसी भी उपाय के साइड इफेक्ट भी होंगे।
इसके अलावा, इन समाधानों को लागू करने के लिए पर्याप्त निवेश और गहन शोध की आवश्यकता होगी, जिसकी संभावित लागत खरबों डॉलर तक हो सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार यदि इस तकनीक का उपयोग किया जाता है तो वैश्विक तापमान को महज़ 0.1 डिग्री सेल्सियस कम करने में 22 ट्रिलियन डॉलर खर्च होंगे। यह लागत पिछले साल विश्व भर की सरकारों और व्यवसायों द्वारा किए गए वार्षिक जलवायु व्यय से लगभग 16 गुना अधिक है। बेहतर तो यही होगा कि उत्सर्जन पर लगाम कसी जाए। फिर भी कई विशेषज्ञों का मत है कि कार्बन हटाने का उपाय अपनाना होगा।
उत्सर्जन पर अंकुश
महामारी के दौरान जीवाश्म ईंधन से होने वाले वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में कमी के बाद अब यह बढ़कर 37.2 अरब टन प्रति वर्ष के नए शिखर पर पहुंच गया है। दूसरी ओर, तमाम चुनौतियों के बावजूद नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन भी तेज़ी से बढ़ रहा है और दुनिया भर में पर्याप्त निवेश भी आकर्षित कर रहा है। इससे शायद जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम हो।
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार आने वाले वर्षों में वार्षिक जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन चरम पहुंच जाएगा जिसके बाद 2030 तक घटकर 35 अरब टन वार्षिक रह जाएगा। 2015 के स्तर से सालाना 7.5 अरब टन सालाना की यह कमी एक बड़े परिवर्तन की द्योतक है।
स्वच्छ बिजली
वैश्विक तापमान को कम रखने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए बिजली ग्रिड में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके लिए पारेषण व वितरण लाइनों का समन्वय बिजली उत्पादन की नई परियोजनाओं के साथ करना होगा। इस तरह से स्वच्छ ऊर्जा से संचालित एक संशोधित ग्रिड उत्सर्जन को आधा कर सकती है।
अलबत्ता, इसमें कई चुनौतियां हैं। इसके लिए नवीकरणीय और कम उत्सर्जन वाले ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता 2050 तक लगभग 77 ट्रिलियन टेरावाट घंटे सालाना तक बढ़ाते हुए 2040 तक कोयला, गैस और तेल को लगभग पूरी तरह से समाप्त करना होगा। बड़ी चुनौती भारी उद्योग, विमानन, परिवहन, कृषि और खाद्य प्रणालियों जैसे क्षेत्र हैं। इसके अलावा, मीथेन जैसी अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से निपटना भी महत्वपूर्ण होगा।
ज़िम्मेदारियां और वित्तीय निवेश
ऐतिहासिक रूप से औद्योगिक राष्ट्र ही अधिकांश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के ज़िम्मेदार रहे हैं। अब चीन और भारत जैसे विकासशील देशों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। वैसे, चीन स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में गहन प्रयास कर रहा है, फिर भी ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका को छोड़ दें, तो अन्य कम आय वाले देशों में काम काफी धीमी गति से चल रहा है।
गौरतलब है कि हाल के वर्षों में वैश्विक जलवायु निवेश में काफी वृद्धि हुई है, लेकिन भविष्य की वित्तीय प्रतिबद्धता स्वच्छ ऊर्जा को अपनाने में तेज़ी और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए आवश्यक है।
निवेश में वृद्धि
पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक जलवायु निवेश में वृद्धि हुई है। वर्ष 2021 में 1.1 ट्रिलियन डॉलर का निवेश वर्ष 2022 में 1.4 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया। जलवायु सम्बंधी खर्च को 2035 तक लगभग 11 ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ाने की आवश्यकता है।
सालाना 1 ट्रिलियन डॉलर की प्रत्यक्ष जीवाश्म ईंधन सब्सिडी सहित विभिन्न स्रोतों से धन का नए ढंग से आवंटन एक अच्छा विकल्प है। लेकिन कमज़ोर समुदायों पर होने वाले प्रतिकूल प्रभावों के कारण इन सब्सिडीज़ को खत्म करना एक बड़ी चुनौती है। इस महत्वपूर्ण परिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिए विशेषज्ञ ठोस तथा तत्काल प्रयास और राजनीतिक दृढ़ संकल्प पर ज़ोर देते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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