वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है। पिछला वर्ष अब तक का सबसे गर्म वर्ष माना जा रहा है। एक गैर-मुनाफा संगठन, क्लाइमेट सेंट्रल, द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष लगभग 7.3 अरब लोगों ने ग्लोबल वार्मिंग जनित तापमान वृद्धि का अनुभव किया जबकि एक-चौथाई आबादी को अत्यधिक गर्मी झेलनी पड़ी।
इस रिपोर्ट के आधार पर क्लाइमेट सेंट्रल के एंड्रयू पर्शिंग के अनुसार यदि कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस पर हमारी निर्भरता बनी रही तो आने वाले वर्षों में जलवायु प्रभाव और अधिक प्रचंड होंगे। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने नवंबर 2022 से अक्टूबर 2023 तक 175 देशों और 920 शहरों में दैनिक वायु तापमान पर मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन किया है। उन्होंने पाया कि इस अवधि में औसत वैश्विक तापमान औद्योगिक युग (1850-1900) से पहले के तापमान से औसतन 1.32 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। इसने 2015-2016 के 1.29 डिग्री सेल्सियस के रिकॉर्ड को पछाड़ दिया है।
शोध में वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यधिक तापमान की संभावना दर्शाने के लिए क्लाइमेट शिफ्ट इंडेक्स का उपयोग किया। इसके परिणामों के अनुसार शुरुआत में इस भीषण गर्मी का सबसे अधिक खामियाज़ा दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और मलय द्वीपसमूह के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के निवासियों को भुगतना पड़ा है और समय गुज़रने के साथ इसका प्रभाव और अधिक भीषण होता गया।
जमैका, ग्वाटेमाला और रवांडा जैसे देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान वृद्धि चार गुना अधिक होने की संभावना है। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि 37 देशों के 156 शहरों को लंबे समय तक अत्यधिक गर्मी झेलनी पड़ी जिसमें ह्यूस्टन में रिकॉर्ड 22 दिनों तक गर्मी का सिलसिला जारी रहा जबकि जकार्ता, न्यू ऑरलियन्स, टैंगेरांग और क्विजिंग में लगातार 16 दिनों तक अत्यधिक गर्मी पड़ी।
गौरतलब है कि निरंतर बदलते जलवायु के दौर में अत्यधिक गर्मी सिर्फ असुविधाजनक नहीं बल्कि जीवन के लिए खतरा बन गई है। कई विशेषज्ञ इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जीवाश्म ईंधन के उपयोग को जारी रखना अधिकतर वैश्विक आबादी के बुनियादी मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है। इसके अलावा, अप्रैल 2024 तक जारी रहने वाली अल नीनो घटना तापमान को और भी अधिक बढ़ाने के लिए तैयार है।
विशेषज्ञ विनाशकारी वृद्धि को रोकने के लिए जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से बंद करने की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का मुकाबला करने के लिए तत्काल और निर्णायक कार्रवाई की आवश्यकता बताते हैं। केन्या के मौसम विज्ञान विभाग के जॉयस किमुताई गंभीर प्रभावों और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में तेज़ी से कमी लाने के लिए आगामी कोप-28 जलवायु शिखर सम्मेलन में कुछ महत्वपूर्ण घोषणाओं की उम्मीद रखते हैं।
बहरहाल यह रिपोर्ट एक व्यापक चेतावनी है जो बताती है कि कैसे जलवायु परिवर्तन दुनिया के कोने-कोने को प्रभावित कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://climate.nasa.gov/rails/active_storage/disk/eyJfcmFpbHMiOnsibWVzc2FnZSI6IkJBaDdDVG9JYTJWNVNTSWhPSFpwYkhrMWFUazBjR0l3TjI1MlpEQnhOMnRoTkhCdlpYbHVkQVk2QmtWVU9oQmthWE53YjNOcGRHbHZia2tpUjJsdWJHbHVaVHNnWm1sc1pXNWhiV1U5SW0xaGFXNWZhVzFoWjJVdWFuQm5JanNnWm1sc1pXNWhiV1VxUFZWVVJpMDRKeWR0WVdsdVgybHRZV2RsTG1wd1p3WTdCbFE2RVdOdmJuUmxiblJmZEhsd1pVa2lEMmx0WVdkbEwycHdaV2NHT3daVU9oRnpaWEoyYVdObFgyNWhiV1U2Q214dlkyRnMiLCJleHAiOm51bGwsInB1ciI6ImJsb2Jfa2V5In19–548c9bd35e18113f04e8e78ea41c5271ff30f953/main_image.jpg
पिछले कुछ सालों में मायोपिया या निकट-दृष्टिता के मामले काफी बढ़ गए हैं। इस स्थिति में व्यक्ति को दूर का देखने में कठिनाई होती है। ऐसा अनुमान है कि 2050 तक दुनिया की आधी आबादी मायोपिया का शिकार होगी। मायोपिया से न सिर्फ दृष्टि धुंधली पड़ती है, वरन आगे चलकर यह अन्य गंभीर समस्याओं का कारण भी बनता है। इन जटिलताओं से बचने के लिए वैज्ञानिक इसके मामले बढ़ने के कारणों का पता लगाने और इसे थामने के लिए प्रयासरत हैं। मुख्य कारण है कमरे के अंदर सीमित होती दिनचर्या, हालांकि जेनेटिक कारण भी मायोपिया की स्थिति पैदा करते हैं।
मायोपिया मतलब क्या? अक्सर मायोपिया बचपन में शुरू होता है। मायोपिया की स्थिति तब बनती है जब नेत्रगोलक अपेक्षा से अधिक बड़ा हो जाता है। इसकी वजह से लेंस प्रकाश को रेटिना पर नहीं बल्कि रेटिना के आगे ही फोकस कर देता है, जिससे दूर की वस्तुएं धुंधली दिखाई देती हैं।
एक तथ्य यह भी है कि जितनी कम उम्र में, जितना गंभीर मायोपिया होगा बड़ी उम्र में रेटिना डिटेचमेंट, ग्लूकोमा, मैक्यूलर डीजनरेशन और मोतियाबिंद जैसी स्थितियां होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी। कारण यह है कि अधिकांश बच्चों की दृष्टि किशोरावस्था के अंत तक स्थायित्व प्राप्त करती है, जबकि कुछ बच्चों में 20 वर्ष की आयु के मध्य तक। मायोपिया जितनी जल्दी होगा नेत्रगोलक को वृद्धि करने के लिए उतना लंबा समय मिलेगा। नेत्रगोलक जितना अधिक बड़ा होगा उतना अधिक यह रेटिना की नाज़ुक तंत्रिकाओं और रक्त वाहिकाओं पर दबाव डालेगा। नतीजतन ग्लूकोमा, रेटिनल डिटेचमेंट जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
वैसे तो मायोपिया की स्थिति कई कारणों से पैदा हो सकती है लेकिन कई अध्ययनों का कहना है कि बाहर खुले में बिताया गया समय लगातार कम होते जाना मायोपिया के प्रमुख कारणों में से एक है। दरअसल सूर्य का प्रकाश (धूप) डोपामाइन के स्राव को बढ़ाता है, और डोपामाइन नेत्रगोलक के विकास को धीमा रखता है।
स्क्रीन टाइम बढ़ना और पास से देखने वाले काम करना जैसे पढ़ना, कढ़ाई करना वगैरह भी मायोपिया की बढ़ती संख्या के कारण बताए जा रहे हैं, लेकिन इसके कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं क्योंकि मायोपिया के मामलों में वृद्धि पहला आईफोन आने के पहले ही शुरू हो गई थी।
बहरहाल कारण जो भी हो मायोपिया के मामले बढ़ रहे हैं। और जब तक कारण पूर्णत: स्पष्ट नहीं हो जाते तब तक इसे टालने और इसकी गंभीरता कम करने के प्रयास ही किए जा सकते हैं।
बायफोकल लेंसेस इन नियरसाइटेड किड्स (ब्लिंक – BLINK) अध्ययन का यही उद्देश्य है – क्या किसी बाहरी हस्तक्षेप से नेत्रगोलक की वृद्धि या चश्मे का पॉवर बढ़ने को धीमा किया जा सकता है। इसकी पड़ताल के लिए शोधकर्ताओं ने 7 से 11 साल के 294 बच्चों को कॉन्टैक्ट लेंस दिए: कुछ कॉन्टैक्ट लेंस नियमित, एकल फोकस वाले थे जबकि कुछ बाइफोकल थे। आम तौर पर ये विशेष बाइफोकल कॉन्टैक्ट लेंस वृद्धजनों को दिए जाते हैं जिन्हें बाइफोकल चश्मे की आवश्यकता पड़ती है। ये लेंस अधिकांश प्रकाश को तो रेटिना पर डालते हैं जिससे स्पष्ट केंद्रीय दृष्टि मिलती है, लेकिन साथ ही थोड़े प्रकाश को फैला देते हैं। जिससे परिधीय दृष्टि हल्की सी धुंधली हो जाती है। परिधीय दृष्टि का यह धुंधलापन संभवत: आंख के विकास को धीमा करता है। एक प्रतिभागी का अनुभव है कि इन विशिष्ट कॉन्टैक्ट लेंस को पहनने से नज़र बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं हुई। हालांकि आगे चलकर नज़र थोड़ी कमज़ोर ज़रूर हो गई थी लेकिन अंतत: वह स्थिर हो गई।
अन्य प्रयासों में, रोज़ाना एट्रोपिन नामक एक विशेष आई ड्रॉप आंखों में डाला गया, जो प्रभावी नज़र आया है। एक अध्ययन में पाया गया है कि सोने से ठीक पहले एट्रोपिन की बूंदें डालने पर नेत्रगोलक का विकास धीमा हो जाता है। अलबत्ता, यह सवाल बना हुआ है कि कितनी मात्रा सबसे अधिक प्रभावी है, और क्या अलग-अलग बच्चों के लिए अलग-अलग है।
ऐसे ही एक प्रयास में जिन बच्चों को मायोपिया होने की संभावना है उन्हें एट्रोपिन आई ड्रॉप्स दी जाएंगी ताकि मायोपिया की शुरुआत को थामा या टाला जा सके।
बहरहाल इन शोध के जारी रहते मायोपिया थामने के अन्य उपाय भी आज़माने की ज़रूरत है। जैसे बाहर बिताया समय बढ़ाना। क्योंकि मुख्य कारण के रूप में तो यही उभरा है और बाहर बिताया समय बढ़ाने से आंखों पर कोई अन्य दुष्प्रभाव होने की संभावना भी नहीं होगी, जबकि एट्रोपिन ड्रॉप्स रोज़ाना लेने के दुष्प्रभाव अभी स्पष्ट नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.natgeofe.com/n/20d6b0c2-c5c2-40e5-b7bd-e918a6d7914e/GettyImages-1241017718.jpg?w=374&h=262
अक्टूबर माह में एनसीईआरटी ने अंग्रेज़ी और हिंदी में चंद्रयान-3 पर 10 शैक्षिक मॉड्यूल्स जारी किए। इनका उद्देश्य लाखों स्कूली बच्चों को हालिया चंद्रयान मिशन की जानकारी प्रदान करना है। प्रेस और मीडिया में गंभीर आलोचना के बाद इन मॉड्यूल्स को एनसीईआरटी के वेबपेज से हटा लिया गया था, लेकिन सरकार द्वारा जारी विज्ञप्ति के बाद इसे पुन: अपलोड कर दिया गया। सरकारी विज्ञप्ति में मॉड्यूल्स का बचाव करते हुए कहा गया है कि “पौराणिक कथाएं और दर्शन विचारों को जन्म देते हैं और ये विचार नवाचार एवं अनुसंधान की ओर ले जाते हैं।”
गौरतलब है कि इन मॉड्यूल्स को नई शिक्षा नीति (एनईपी 2020) में वर्णित सीखने के विभिन्न चरणों (फाउंडेशनल, प्रायमरी, मिडिल स्कूल, सेकंडरी और हायर सेकंडरी) के अनुसार तैयार किया गया है। यह काफी हैरानी की बात है कि इन मॉड्यूल्स की सामग्री में कई वैज्ञानिक और तकनीकी त्रुटियां हैं जिनमें से कुछ का आगे ज़िक्र किया जा रहा है। इसके अलावा, इनमें छद्म वैज्ञानिक दावे किए गए हैं, भ्रामक वैज्ञानिक सामग्री है और यहां तक कि एक नाज़ी वैज्ञानिक का हवाला भी दिया गया है जो एनसीईआरटी सामग्री के सामान्य मानकों से मेल नहीं खाता है। अंग्रेज़ी संस्करण में व्याकरण सम्बंधी त्रुटिया तो हैं ही।
इस प्रकार की गलत जानकारी विद्यार्थियों तक पहुंचे तो काफी नुकसान कर सकती है। और तो और, सामग्री का घटिया प्रस्तुतीकरण विद्यार्थियों को इस रोमांचक क्षेत्र से विमुख कर देगा।
वैज्ञानिक समुदाय के सदस्यों और सभी तर्कसंगत सोच वाले नागरिकों को इस घटिया ढंग से तैयार की गई सामग्री को खारिज कर देना चाहिए। व्यापक आलोचना के बाद एनसीईआरटी द्वारा इस सामग्री को वेबसाइट से हटाना और सरकार द्वारा पौराणिक कथाओं का हवाला देते हुए उन्हें वापस प्रसारित करना न तो उचित है और न ही ऐसा दोबारा होना चाहिए। एआईपीएसएन मांग करता है कि एनसीईआरटी इन मॉड्यूल्स को स्थायी रूप से हटा दे। चंद्रयान पर एनसीईआरटी मॉड्यूल्स में वैज्ञानिक त्रुटियों, छद्म वैज्ञानिक दावों और मिथकों की बानगी –
1. बुनियादी स्तर (कोड 1.1एफ, केजी और कक्षा 1-2):
मॉड्यूल उवाच: (चंद्रयान-2 के संदर्भ में) …इस बार रॉकेट के पुर्ज़े में कुछ तकनीकी खामी के कारण उसका धरती से संपर्क टूट गया। टिप्पणी: लॉन्चर रॉकेट ने ठीक तरह से काम किया। जबकि लैंडर सतह पर उतरने में विफल रहा, लेकिन चंद्रयान का ऑर्बाइटर मॉड्यूल काम करता रहा और इससे इसरो को डैटा भी प्राप्त होता रहा।
2. प्राथमिक स्तर (कोड 1.2पी, कक्षा 3-5):
मॉड्यूल उवाच: इस रॉकेट के तीन प्रमुख हिस्से हैं – प्रोपल्शन मॉड्यूल, रोवर मॉड्यूल और लैंडर मॉड्यूल जो हमें चंद्रमा के बारे में जानकारी भेजता है। टिप्पणी: चंद्रयान-3 अंतरिक्ष यान को रॉकेट (एलएमवी3) अंतरिक्ष में लेकर गया था। अंतरिक्ष यान में एक ऑर्बाइटर और एक लैंडर था। रोवर को लैंडर के अंदर रखा गया था ताकि चंद्रमा की सतह पर उतरने के बाद उसे बाहर निकाला जा सके।
3. माध्यमिक स्कूल स्तर (कोड: 1.3एम, कक्षा 6-8):
मॉड्यूल उवाच: प्राचीन साहित्य में वैमानिक शास्त्र ‘विमान विज्ञान’ से पता चलता है कि उन दिनों हमारे देश में उड़ने वाले वाहनों का ज्ञान था (इस पुस्तक में इंजनों के निर्माण, कार्यप्रणालियों और जायरोस्कोपिक सिस्टम के दिमाग चकरा देने वाले विवरण हैं)। टिप्पणी: कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि बहुप्रचारित वैमानिक शास्त्र की रचना 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हुई है और इसमें वर्णित डिज़ाइन, इंजन और उपकरण पूरी तरह से काल्पनिक, अवैज्ञानिक और नाकारा हैं।
मॉड्यूल उवाच: वेद भारतीय ग्रंथों में सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। इनमें विभिन्न देवताओं को पशुओं, आम तौर पर घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले पहिएदार रथों पर ले जाने का उल्लेख मिलता है। ये रथ उड़ भी सकते थे। उड़ने वाले रथों या उड़ने वाले वाहनों (विमान) का उपयोग किए जाने का उल्लेख भी मिलता है। ऐसी मान्यता है कि हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार सभी देवताओं के पास अपना वाहन था जिसका उपयोग वे एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए करते थे। माना जाता है कि वाहनों का उपयोग अंतरिक्ष में सहजता और बिना किसी शोर के यात्रा करने के लिए किया जाता था। ऐसे ही एक विमान – पुष्पक विमान (जिसका शाब्दिक अर्थ ‘पुष्प रथ’ है) का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है। टिप्पणी: विभिन्न वैदिक ग्रंथों और महाकाव्यों में उड़ने वाले वाहनों के ये सभी उल्लेख कवियों की कल्पनाएं हैं। दुनिया भर की लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं के साहित्य में उनके देवताओं के आकाश में उड़ने का उल्लेख मिलता है। इन्हें प्राचीन काल में उड़ने वाले वाहनों के अस्तित्व का प्रमाण नहीं माना जा सकता है। 1961 में यूरी गागरिन द्वारा अंतरिक्ष की यात्रा करने से पहले किसी भी मानव द्वारा अंतरिक्ष यात्रा के लिए पृथ्वी छोड़ने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
मॉड्यूल उवाच: आधुनिक भारत ने वैमानिकी विज्ञान की विरासत को आगे बढ़ाते हुए अंतरिक्ष अनुसंधान में उल्लेखनीय प्रगति की है। टिप्पणी: जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, ऐसे साहित्यिक संदर्भ कई प्राचीन सभ्यताओं में पाए जा सकते हैं और भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए साराभाई और अन्य वैज्ञानिकों के प्रयास इन काव्यात्मक कथाओं का उत्पाद नहीं हैं। ऐसा दावा करना साराभाई की विरासत और कई समकालीन वैज्ञानिकों के अग्रणी कार्यों का अपमान होगा।
मॉड्यूल उवाच: चंद्रमा पर ऐसी चोटियां भी हैं जहां हर समय सूर्य का प्रकाश मौजूद होता है तथा ये चंद्र गतिविधियों की सहायता हेतु विद्युत उत्पन्न करने के उत्कृष्ट अवसर पैदा कर सकती हैं। टिप्पणी: भले ही चंद्रमा के घूर्णन की धुरी क्रांतिवृत्त (एक्लिप्टिक) तल के लगभग लंबवत है, लेकिन किसी भी पर्वत शिखर पर ‘निरंतर सूर्य का प्रकाश’ तभी हो सकता है जब वह लगभग दक्षिणी ध्रुव पर हो। चंद्रयान-3 का अवतरण स्थल चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव से 500 कि.मी. से अधिक दूर है। ऐसे में अवतरण स्थल के पास ऐसी पर्वत चोटियों का पता लगाना संभव नहीं है।
मॉड्यूल उवाच: (गतिविधि-1) चंद्रयान-3 बनाने में उपयोग की जाने वाली स्वदेशी सामग्रियों की सूची बनाएं जिसने चंद्रयान-3 को एक बजट अनुकूल मिशन बनाया। टिप्पणी: इसरो ने सार्वजनिक रूप से इस सम्बंध में कोई शैक्षिक सामग्री जारी नहीं की है और इसलिए यह गतिविधि केवल अटकलबाज़ी और बिना समझे इसरो की वेबसाइट से शब्दजाल को पुन: प्रस्तुत करने का खेल है।
मॉड्यूल उवाच: प्राचीन भारतीय ग्रंथों और विमर्शों में वैमानिकी सहित विभिन्न विषयों पर वैज्ञानिक ज्ञान के बाहुल्य हैं। टिप्पणी: जैसी कि ऊपर चर्चा की गई है, ये ग्रंथ या तो काव्यात्मक कल्पनाएं हैं या कदापि प्राचीन नहीं हैं।
4. माध्यमिक स्तर (कोड्स 1.4एस – 1.7एस, कक्षा 9-10):
मॉड्यूल उवाच(कोड 1.4एस): “चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव कहां है?” चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव चंद्रमा पर 90 डिग्री दक्षिण स्थित सबसे अंतिम दक्षिणी बिंदु है। टिप्पणी: यह टॉटोलॉजी (पुनरुक्ति) है, जो किसी भी शैक्षिक पाठ में अवांछनीय है।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.4एस): पहले के चंद्रमा मिशनों, यानी ‘ऑर्बिटल मिशन’ और ‘फ्लाईबाई मिशन’ के आधार पर यह पाया गया कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव में कुछ गहरे गड्ढों… टिप्पणी: यदि कोई अंतरिक्ष यान किसी खगोलीय पिंड के चारों ओर की कक्षा में प्रवेश किए बिना उसके करीब से गुज़रता है, तो इसे ‘फ्लाईबाई मिशन’ कहा जाता है। इस परिभाषा से चलें, तो किसी भी फ्लाईबाई मिशन ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की छानबीन नहीं की है।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.4एस): चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर कई ऐसे पहाड़ हैं जो पृथ्वी की ओर नहीं हैं और ग्राउंड रेडियो वेधशाला से ऐसे खगोलीय रेडियो सिग्नल प्राप्त करने के लिए ये आदर्श स्थान हैं। टिप्पणी: इसका चंद्रयान मिशन से कोई सम्बंध नहीं है। इसके अलावा, “ग्राउंड वेधशाला से संकेत प्राप्त करने” का कोई मतलब नहीं है।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.5एस): चैत्र महीने का नाम चित्रा नक्षत्र के नाम पर रखा गया है जो इस अवधि के दौरान चंद्रमा के सामने गोचर करता है। टिप्पणी: वास्तव में नक्षत्र पृष्ठभूमि है और चंद्रमा उसके सामने पारगमन करता है। इन मॉड्यूल में कई मान्यताओं व लोककथाओं का ज़िक्र है। जैसे भारतीय परंपराओं में चंद्रमा चंद्रदेव के रूप में जाना जाता है जो दयालु देवता है और शांति और अनुग्रह का संचार करता है…। हालांकि लेखक इस मान्यता का श्रेय लोककथाओं को देते हैं, लेकिन यहां इससे बचना चाहिए। अव्वल तो ये अप्रासंगिक हैं और यदि इनका उल्लेख करना ही है तो यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि चंद्रमा की किरणों में शीतलता देने जैसे गुण वैज्ञानिक रूप से समर्थित नहीं हैं।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.6एस): (गतिविधि 1) ग्रह और उपग्रह सहित सौर मंडल का एक अनुकृति मॉडल बनाएं। सौर मंडल की एक अनुकृति बनाएं → सौर मंडल के केंद्र में सूर्य का पता लगाएं → सूर्य की परिक्रमा करने वाला अण्डाकार पथ बनाएं → प्रत्येक अण्डाकार पथ पर ग्रहों के नाम बताएं → प्रत्येक ग्रह के उपग्रह का पता लगाएं जो ग्रह की परिक्रमा करता है → हमारे ग्रह का चंद्रमा दिखाएं। टिप्पणी: भाषा का स्तर इतना खराब है कि पाठ का अर्थ ही नहीं बनता है। जैसेे “सूर्य की परिक्रमा करने वाला अण्डाकार पथ बनाएं”; ज़रा सोचिए पथ कैसे परिक्रमा करेंगे, या कैसे उपग्रह प्रत्येक ग्रह पर स्थित हो सकते हैं। दरअसल, यह उस गतिविधि का एक नया संस्करण है जो एनसीईआरटी की कक्षा 8 की पुस्तक में पहले से मौजूद है। यदि पुस्तक के उस अध्याय का वही हिस्सा लिख देते तो बेहतर होता।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.6एस): पृथ्वी से देखने पर चंद्रमा हमारे रात्रि आकाश का सबसे चमकीला और सबसे बड़ा खगोलीय पिंड दिखाई देता है। चंद्रमा से पृथ्वी को अनेक लाभ मिलते हैं। चंद्रमा पृथ्वी की धुरी के उतार-चढ़ाव को नियंत्रित करता है, जिससे अपेक्षाकृत स्थिर जलवायु बनती है। यह ज्वार भी बनाता है और पृथ्वी को सौर हवाओं से बचाता है, जो ब्रह्मांड के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन के लिए आदर्श है। टिप्पणी: यह एक खराब तरीके से लिखा गया पैराग्राफ है जो बहुत सारी गलतफहमियां पैदा करता है। चंद्रमा सबसे बड़ा पिंड प्रतीत होता है, लेकिन ऐसा उसकी निकटता के कारण है। यह भी वैज्ञानिक रूप से गलत है कि चंद्रमा पृथ्वी को सौर हवाओं से बचाता है, और इसी वाक्य के दूसरा भाग “ब्रह्मांड के अध्ययन के लिए आदर्श” का पहले भाग से कोई सम्बंध नहीं है, और यह यहां अर्थहीन है।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.6एस): मिशन (चंद्रयान-2) ने चंद्र क्रेटर में एक बर्फ की चादर की खोज की। टिप्पणी: यह वैज्ञानिक परिणामों का पूर्णत: गलत प्रस्तुतिकरण है। मिशन ने पानी के अणुओं की मौजूदगी की पुष्टि की थी।, “बर्फ की चादर” से मतलब तो बर्फ की मोटी परत होती है, जबकि चंद्रमा के गड्ढों में मिली पानी की मात्रा एक चादर बनाने के लिए बहुत ही कम है।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.6एस): निकट भविष्य में ‘चंदा मामा दूर के’ नारे की जगह ‘चंदा मामा टूर के’ कहा जाएगा। टिप्पणी: यह निकट भविष्य में अंतरिक्ष अनुसंधान के विकास व दिशा का पूरी तरह भ्रामक चित्रण है। वाणिज्यिक अंतरिक्ष पर्यटन इसरो की प्राथमिकता नहीं है। और अंतरिक्ष पर्यटन (यहां तक कि पृथ्वी की कक्षाओं के निकट भी पर्यटन) कम से कम एक-दो पीढ़ी तक अधिकांश मानव आबादी के लिए अत्यधिक महंगा बना रहेगा।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.7एस): पृथ्वी को अपनी धुरी पर एक चक्कर लगाने में लगभग 24 घंटे लगते हैं। जिसमें से हम 12 घंटे सूर्य के संपर्क में रहते हैं और 12 घंटे अंधेरे में डूबे रहते हैं। यह पृथ्वी पर एक पूरे दिन का चक्र पूरा करता है। इसी प्रकार, चंद्रमा का एक हिस्सा एक चंद्र दिवस के लिए सूर्य के प्रकाश के संपर्क में रहता है जो पृथ्वी पर लगभग 14 दिनों के बराबर होता है। टिप्पणी: एक चंद्र दिवस 27.3 पृथ्वी दिवस के बराबर होता है। 14 दिन की अवधि लगभग आधे चंद्र दिवस के बराबर होती है। इसे एक चंद्र दिवस कहना उसी पाठ में पृथ्वी दिवस (24 घंटे) की परिभाषा से मेल नहीं खाता है।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.7एस): 240.25 घंटे, या 10 दिन और 6 घंटे। टिप्पणी: 10 दिन 6 घंटे 246 घंटे होंगे, न कि 240.25 घंटे।
5. उच्च माध्यमिक स्तर (1.8एचएस-1.10एचएस, ग्रेड 11-12)
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.8एचएस): एक बार जब कोई रॉकेट पृथ्वी से एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंच जाता है तो यह उपग्रह या अंतरिक्ष यान को छोड़ देता है। टिप्पणी: सिर्फ यह कहना कि कोई उपग्रह छोड़ दिया गया है बिना यह कहे कि कक्षा में छोड़ दिया गया है, तो वाक्य का अर्थ पूरी तरह से बदल जाता है। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए: “एक बार जब कोई रॉकेट पृथ्वी से एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंच जाता है, तो यह उपग्रह या अंतरिक्ष यान को वांछित कक्षा में पहुंचा देता है।”
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.9एचएस): ये संचार उपग्रह सी-बैंड, विस्तारित सी-बैंड, केयू-बैंड, केए/केयू बैंड और एस-बैंड सहित विभिन्न आवृत्ति बैंड के ट्रांसपोंडरों से सुसज्जित हैं। टिप्पणी: क्या छात्र जानते हैं कि ये बैंड क्या हैं? स्पष्टीकरण के बिना शब्दों की बौछार शैक्षणिक रूप से उपयोगी नहीं है।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.9एचएस): एस्ट्रोसैट, भारत की पहली खगोलीय अंतरिक्ष वेधशाला है,… टिप्पणी: मज़ेदार बात यह है कि इसे “ग्रहों का अनुसंधान” शीर्षक के अंतर्गत रखा गया है।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.9एचएस): पृथ्वी पर हमारे पास 24 घंटे का एक दिन होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पृथ्वी 24 घंटे में एक चक्कर पूरा करती है। हालांकि, यही स्थिति चंद्रमा के लिए समान नहीं है। इसे एक चक्कर पूरा करने में लगभग 14 पृथ्वी दिवस लगते हैं। दिनांक, 23 अगस्त 2023, चंद्र दिवस (पृथ्वी के 14 दिनों के बराबर) की शुरुआत को चिह्नित करती है। टिप्पणी: पंक्तियों को इस प्रकार पढ़ा जाना चाहिए: “हालांकि, चंद्रमा पर स्थिति ऐसी ही नहीं है।” इसे एक चक्कर पूरा करने में लगभग 27.3 पृथ्वी दिवस लगते हैं, इसलिए चंद्रमा पर प्रत्येक स्थान को लगभग 14 पृथ्वी दिवसों तक लगातार सूर्य का प्रकाश प्राप्त होता है। दिनांक, 23 अगस्त 2023, अवतरण स्थान के लिए दिन के उजाले की अवधि की शुरुआत को चिह्नित करती है।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.10एचएस): जैसे-जैसे हम इस ब्रह्मांडीय यात्रा में गहराई से उतरते हैं, हम दूरदर्शी इंजीनियर वर्नर वॉन ब्रान (रॉकेट विज्ञान के जनक) की अदम्य भावना से प्रेरित हुए बिना नहीं रह पाते, जिन्होंने सितारों तक पहुंचने के सपनों को वायुमंडल के आर-पार जाने वाले मूर्त रॉकेट में बदल दिया। उनकी विशाल उपलब्धियों ने अंतरिक्ष के असीमित विस्तार को एक प्राप्य सीमा में बदल दिया, जहां अन्वेषण के लिए मानव की लालसा उड़ान भर सकती थी। टिप्पणी: और इस कथन को देकर हम आसानी से यूएस के साथ जुड़कर इस तथ्य पर लीपा-पोती कर देते हैं कि वॉन ब्रॉन एक नाज़ी वैज्ञानिक थे जिन्होंने हिटलर के लिए मिसाइल V2 का निर्माण किया था।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.10एचएस): वेलोड्रोम या मौत के कुएं का आकार एक छिन्नक की तरह है, सवार की कक्षा एक समतल की तरह है जो इस कुएं (शंकु) की धुरी को काटती है इस तरह सवार दीर्घ-वृत्ताकार पथ पर आगे बढ़ रहा है। टिप्पणी: क्या विद्यार्थी व्याकरण की दृष्टि से गलत संवेदनहीन विवरण को समझ पाएंगे?
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.10एचएस): … अगर उसे चंद्र गमन करना है तो वांछित गति प्राप्त करने के लिए उसे भी अपनी गति बढ़ानी होगी ताकि यह चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र तक पहुंच सके। टिप्पणी: इसे इस तरह लिखना चाहिए था “… ताकि यह चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव क्षेत्र तक पहुंच सके”, गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र नहीं क्योंकि गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र तो अनंत तक फैला हुआ है।
मॉड्यूल उवाच (कोड 1.10एचएस): यदि किसी ग्रह के चारों ओर परिक्रमा करने वाला उपग्रह उस ग्रह के बराबर है, तो बाइनरी सिस्टम (जैसे पृथ्वी और चंद्रमा) उनके सामान्य केंद्रक (बैरीसेंटर) के चारों ओर घूमते हैं।टिप्पणी: पिंड हमेशा अपने सामान्य बैरीसेंटर के चारों ओर घूमेंगे। यदि एक पिंड दूसरे पिंड की तुलना में बहुत अधिक विशाल है, तो इस प्रणाली का बैरीसेंटर बड़े पिंड के केंद्र के करीब होगा और इसलिए इसकी गति नज़र नहीं आएगी। बात बस इतनी ही है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/aajtak/images/story/202311/ncert_chandrayaan_module_controversy-sixteen_nine.jpg?size=948:533
हम इंटरनेट युग में जी रहे हैं जहां पूरी दुनिया डैटा से घिरी हुई है। यह डैटा और कुछ नहीं बल्कि हमारी यादें, अनुभव, सूझ-बूझ, दुख-दर्द के क्षण और कभी-कभी सांसारिक गतिविधियों के बारे में है। जैसे, कोई विगत यात्रा या महीने और वर्ष में दिन के किसी विशेष घंटे में क्या खाया या फिर दैनिक जीवन के सामान्य घटनाक्रम का लेखा-जोखा।
क्या ऐसा पहले नहीं था? ऐसे तथ्यात्मक, भावनात्मक, आनुभविक और व्यवहारिक क्षणों को संग्रहित और संरक्षित करना हमेशा से एक मानवीय प्रवृत्ति रही है। अंतर केवल इतना है कि हमारे पूर्वज डैटा को अपनी स्मृतियों में या गुफाओं, पत्थरों या कागजों पर उकेरी गई छवियों के माध्यम से संग्रहित करते थे, जबकि आज हम प्रौद्योगिकी एवं उपकरणों की मदद से ऐसा करते हैं!
अतीत में, बातों को मानव स्मृति में संग्रहित करने के साथ-साथ पत्थर पर नक्काशी करना, पत्तों पर और बाद में कागज़ो पर ग्रंथ लिखना काफी श्रमसाध्य था। यह संग्रहण कुछ समय तक ही रह पाता था। समय के साथ, जलवायु के प्रहार पत्थरों, कागज़ों को नष्ट कर डैटा को भी विलोपित कर देते थे। मानव स्मृति की भी डैटा संग्रहण की एक निर्धारित क्षमता होती है। दूसरे शब्दों में, प्राचीन काल से चली आ रही डैटा संग्रहण की मानवीय प्रवृत्ति, वर्तमान युग की वैज्ञानिक तकनीकों एवं साधनों की आसान उपलब्धता से डैटा विज्ञान का उदय हुआ है।
डैटाविज्ञान: शुरुआतीवर्ष
शब्द ‘डैटा विज्ञान’ 1960 के दशक में एक नए पेशे का वर्णन करने के लिए गढ़ा गया था, जो उस समय भारी मात्रा में एकत्रित होने वाले डैटा को समझने और उसका विश्लेषण करने में सहायक सिद्ध हुआ। वैसे संरचनात्मक रूप से इसने 2000 की शुरुआत में ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
यह एक ऐसा विषय है जो सार्थक भविष्यवाणियां करने और विभिन्न उद्योगों में सूझ-बूझ प्राप्त करने के लिए कंप्यूटर विज्ञान और सांख्यिकीय पद्धतियों का उपयोग करता है। इसका उपयोग न केवल सामाजिक जीवन, खगोल विज्ञान और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में बल्कि व्यापार में भी बेहतर निर्णय लेने के लिए किया जाता है।
1962 में अमेरिकी गणितज्ञ जॉन डब्ल्यू. टुकी ने सबसे पहले डैटा विज्ञान के सपने को स्पष्ट किया। अपने प्रसिद्ध लेख ‘दी फ्यूचर ऑफ डैटा एनालिसिस’ में उन्होंने पहले पर्सनल कंप्यूटर (पीसी) से लगभग दो दशक पहले इस नए क्षेत्र के उद्गम की भविष्यवाणी की थी।
एक अन्य प्रारंभिक व्यक्ति डेनिश कंप्यूटर इंजीनियर पीटर नॉर थे, जिनकी पुस्तक कॉन्साइस सर्वे ऑफ कंप्यूटर मेथड्स डैटा विज्ञान की सबसे पहली परिभाषाओं में से एक प्रस्तुत करती है।
1990 और 2000 के दशक की शुरुआत में हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि डैटा विज्ञान एक मान्यता प्राप्त और विशिष्ट क्षेत्र के रूप में उभरा। कई डैटा विज्ञान अकादमिक पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगीं, और जेफ वू और विलियम एस. क्लीवलैंड आदि ने डैटा विज्ञान की आवश्यकता और क्षमता को विकसित करने और समझने में मदद करना जारी रखा।
पिछले 15 वर्षों में, पूरे विषय को व्यापक उपकरणों, प्रौद्योगिकियों और प्रक्रिया के द्वारा परिभाषित और लागू करने के साथ एक भलीभांति स्थापित पहचान मिली है।
डैटाविज्ञानऔरजीवन
पिछले 100 वर्षों में मानव जीवन शैली में बहुत कुछ बदला है और विज्ञान और प्रौद्योगिकी से 20 वर्षों में तो बदलावों का सैलाब-सा ही आ गया है। अलबत्ता, जो चीज़ समय के साथ नहीं बदली, वह है मूल मानव व्यवहार और अपने क्षणों और अनुभवों को संग्रहित करने की उसकी प्रवृत्ति।
मानवीय अनुभव और क्षण (डैटा!), जो मानव स्मृति, नक्काशी और चित्रों में रहते थे, उन्हें प्रौद्योगिकी के ज़रिए एक नया शक्तिशाली भंडारण मिला है। अब मानव डैटा छोटे/बड़े बाहरी ड्राइव्स, क्लाउड स्टोरेज जैसे विशाल डैटा भंडारण उपकरणों में संग्रहित किए जा रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि अब डैटा को, पहले के विपरीत, बिना किसी बाधा के, जितना चाहें उतना और जब तक चाहें तब तक संग्रहित रखा जा सकता है।
पिछले 20 वर्षों में, एक और दिलचस्प बदलाव इंटरनेट टेक्नॉलॉजी के आगमन से भी हुआ। इंटरनेट टेक्नॉलॉजी की शुरुआत के साथ, मानव व्यवहार और उसके सामाजिक संपर्क की प्रवृत्ति ने एक बड़ी छलांग लगाई। लोगों ने दिन-प्रतिदिन हज़ारों किलोमीटर दूर विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में अन्य मनुष्यों से जुड़ना शुरू कर दिया और इस तरह विभिन्न तरीकों से बातचीत करने और अभिव्यक्ति की मानवीय क्षमता कई गुना बढ़ गई।
आज छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के ग्रामीण इलाके का कोई बच्चा बॉलीवुड की किसी मशहूर हस्ती को सुन सकता है और उससे जुड़ सकता है, वहीं न्यूयॉर्क में रहते हुए एक व्यक्ति उत्तरी अफ्रीका में रह रहे किसी पीड़ित बच्चे की भावनाओं से रूबरू हो सकता है। इंटरनेट क्रांति ने इस पूरी दुनिया को मानो एक बड़े से खेल के मैदान में बदल दिया है जहां हर एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति, विषय या घटना से तत्काल जुड़ सकता है।
इन क्षमताओं के रहते पूरा विश्व नई तरह की संभावनाओं और अभिव्यक्तियों के प्रयोगों से भर गया है। इस तरह की गतिविधियों ने अपनी एक छाप छोड़ी है (जिन्हें हम डैटा कह सकते हैं) और टेक्नॉलॉजी ने इसे असीमित रूप से एकत्रित और संग्रहित करना शुरू कर दिया है।
नई दुनिया के ये परिवर्तन विशाल डैटा (Big Data) के रूप में प्रस्फुटित हुए। अधिकांश लोग (जो इंटरनेट वगैरह तक पहुंच रखते हैं) डैटा (यानी शब्द, आवाज़, चित्र, वीडियो वगैरह के रूप में) के ज़रिए यादों और अनुभवों से सराबोर हैं। ये डैटा न केवल सामाजिक या अंतर-वैयक्तिक स्तर पर, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर (जैसे ऑनलाइन भुगतान, ई-बिल, ई-लेनदेन, क्रेडिट कार्ड) और यहां तक कि अस्पतालों के दौरों, नगर पालिका की शिकायतों, यात्रा के अनुभवों, मौसम के परिवर्तन तक में नज़र आते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण जीवन की गतिविधियां डैटा पैदा कर रही हैं और इसे संग्रहित किया जा रहा है।
आधुनिक जीवनशैली बड़ी मात्रा में डैटा उत्पन्न करती है। डैटा की मात्रा इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि आधुनिक तकनीक ने बड़ी मात्रा में डैटा निर्मित करना और संग्रहित करना आसान बना दिया है। पिछले कुछ वर्षों में, दुनिया में पैदा किया गया 90% से अधिक डैटा संग्रहित कर लिया गया है। उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया उपयोगकर्ता हर घंटे 2 करोड़ से अधिक छवियां पोस्ट करते हैं।
डैटाविज्ञान: कार्यपद्धति
मानव मस्तिष्क विभिन्न उपकरणों में संग्रहित विशाल डैटा का समय-समय पर उपयोग करना चाहता है। इस कार्य के लिए एक अलग प्रकार की तकनीकी क्षमता की आवश्यकता थी, जो संग्रहित डैटा को निकालने और निर्णय लेने का काम कर सके। यह मस्तिष्क के संचालन की नकल करने जैसा था। ऐसे जटिल दिमागी ऑपरेशनों को दोहराने के लिए एक कदम-दर-कदम चलने वाले एक समग्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है ताकि:
– डैटा इष्टतम तरीके से संग्रहित किया जाए;
– डैटा को कुशलतापूर्वक, शीघ्रता से प्रबंधित, पुनर्प्राप्त, संशोधित, और विलोपित किया जा सके;
– डैटा की व्याख्या आसानी से और शीघ्रता से की जा सके; इससे भविष्य के बारे में निर्णय लेने में मदद मिलती है।
वैसे तो हमारा मस्तिष्क सूक्ष्म और जटिल तरीके से डैटा को आत्मसात करने और निर्णय लेने का काम करता आया है, लेकिन मस्तिष्क की क्षमता सीमित है। डैटा से जुड़ी उक्त प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मानव मस्तिष्क जैसे एक विशाल स्पेक्ट्रम की आवश्यकता हुई। टेक्नॉलॉजी ने इस प्रक्रिया के लिए डैटा भंडारण (विशाल डैटा सर्वर), पुनर्प्राप्ति के विभिन्न साधनों को सांख्यिकीय/गणितीय जानकारी से युक्त करना शुरू कर दिया। जावा, पायथन, पर्ल जैसी कोडिंग भाषा, विभिन्न मॉडलिंग तकनीकों (जैसे क्लस्टरिंग, रिग्रेशन, भविष्यवाणी और डैटा माइनिंग) के साथ-साथ ऐसी मशीनें विकसित हुईं जो डैटा को बार-बार समझ सकती हैं और स्वयं सीखकर खुद को संशोधित कर सकती हैं (मशीन लर्निंग मॉडल)। मूल रूप से कोशिश यह थी कि प्रौद्योगिकी और विज्ञान के सहारे हम अपने मस्तिष्क जैसी निर्णय लेने की क्षमता मशीन में पैदा कर सकें!
प्रौद्योगिकी द्वारा मानव मस्तिष्क की क्षमताओं के प्रतिरूपण की इस पूरी प्रक्रिया को डैटा विज्ञान का नाम दिया गया है। डैटा विज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है जो डैटा से अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने के लिए सांख्यिकी, वैज्ञानिक तकनीक, कृत्रिम बुद्धि (एआई) और डैटा विश्लेषण सहित कई विषयों को जोड़ता है। डैटा वैज्ञानिक वे हैं जो वेब, स्मार्टफोन, ग्राहकों और सेंसर सहित विभिन्न स्रोतों से प्राप्त डैटा का विश्लेषण करने के लिए विभिन्न प्रकार की क्षमताओं को एकीकृत करते हैं।
डैटासाइंसकाभविष्य
क्या यह डैटा विज्ञान, भारत जैसे देश में अंतिम व्यक्ति के जीवन को छू सकता है या यह केवल थ्रिलर फिल्म या सस्ते दाम में कॉन्टिनेंटल खाने के लिए सर्वश्रेष्ठ रेस्तरां की खोज करने जैसे कुछ मनोरंजक/आनंद/विलास की गतिविधियों तक ही सीमित है? क्या यह हमारे समाज को बेहतर बनाने और वंचितों को कुछ बुनियादी सुविधाएं देने में मदद कर सकता है?
यकीनन। किसी भी अन्य गहन ज्ञान की तरह विज्ञान भी राष्ट्र, पंथ, जाति, रंग या एक वर्ग तक सीमित नहीं है। इरादा हो तो यह सभी के लिए है। संक्षेप में इसका उपयोग भारत में समाज को कई तरीकों से बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है। कुछ उदाहरण देखिए।
चिकित्सा/स्वास्थ्य
यह एक प्राथमिक क्षेत्र हो सकता है जहां डैटा विज्ञान का लाभ उठाया जा सकता है। डैटा के संदर्भ में, वर्तमान अस्पताल प्रणाली अभी भी रोगियों के प्रवेश, निदान और उपचार जैसे सामान्य संदर्भो में ही काम करती है। इस क्षेत्र में जनसांख्यिकी, स्वास्थ्य मापदंडों से लेकर रोगियों के विभिन्न चरणों में किए गए निदान/उपचार जेसे डैटा को संग्रहित करने की आवश्यकता है, जिसे नैदानिक परिणामों और उपचार विकल्पों को एकत्रित, संग्रहित, और व्याख्या के द्वारा व्यापक रूप से चिकित्सा समुदाय में साझा किया जा सके। यह डैटा विज्ञान को भारतीय स्थिति में रोगियों को समझने और सर्वोत्तम संभव उपचार विकल्पों के साथ-साथ रोकथाम के उपायों को समझने में सक्षम करेगा। यह रोगियों/डॉक्टरों का बहुत सारा धन और समय बचा सकता है, त्रुटियों को कम कर सकता है और मानव जीवन को अधिक सुरक्षित और स्वस्थ बना सकता है। आवश्यकता यह है कि सरकारी और निजी अस्पताल डैटा रिकॉर्ड करना और संग्रहित करना शुरू करें ताकि इसका उपयोग अनुसंधान और विकास के लिए किया जा सके। यूएस जैसे विकसित देशों में ऐसी प्रक्रिया से समाज को काफी लाभ मिलता है। डैटा विज्ञान वास्तव में भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र को कई लाभकारी तरीकों से सम्पन्न कर सकता है।
कृषिउत्पादकता
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में डैटा विज्ञान तरह-तरह की जानकारी के ज़रिए किसानों को लाभ पहुंचा सकता है:
– मिट्टी किस प्रकार की फसल के लिए अच्छी है;
– मौसम और जलवायु की परिस्थिति में किन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है;
– फसल के प्रकार के लिए आवश्यक मिट्टी की पानी और नमी की आवश्यकता;
– अप्रत्याशित मौसम की भविष्यवाणी और फसलों की सुरक्षा;
– ऐतिहासिक आंकड़ों के साथ-साथ मौसम के मिज़ाज के आधार पर निश्चित समय में किसी निश्चित क्षेत्र में इष्टतम फसल की पैदावार की भविष्यवाणी करना।
इस तरह के डैटा का सरकार द्वारा समय-समय पर निरीक्षण करना और भौगोलिक सेंसर व अन्य उपकरणों की मदद से डैटा तैयार करने की आवश्यकता है। डैटा विज्ञान फसलों की बहुत बर्बादी को बचा सकता है और हमारी उपज में भारी वृद्धि कर सकता है।
शिक्षाएवंकौशलविकास
अशिक्षा का मुकाबला करने के लिए शैक्षणिक सुविधाओं के अधिक प्रसार की और शिक्षकों की दक्षता, अनुकूलित शिक्षण विधियों के विकास की भी आवश्यकता है। इसके अलावा विभिन्न छात्रों की विविध और व्यक्तिगत सीखने की शैलियों/क्षमताओं के संदर्भ में गहरी समझ की भी आवश्यकता है। डैटा विज्ञान इस संदर्भ में समाधान प्रदान कर सकता है:
– देश भर में छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों के विस्तृत प्रोफाइल तैयार करना;
– छात्रों के सीखने और प्रदर्शन के आंकड़े जुटाना;
– प्रतिभाओं के कुशल प्रबंधन के लिए व्यक्तिगत शिक्षण विधियों/शैलियों का विकास
– देश भर में कनेक्टेड डैटा के साथ अकादमिक अनुसंधान को बढ़ाना।
पर्यावरणसंरक्षण
– भूमि, जल, वायु/अंतरिक्ष और जीवन के सम्बंध में डैटा एकत्र करना और पृथ्वी ग्रह के स्वास्थ्य को बढ़ाना;
– वनों की कटाई के विभिन्न कारणों जैसे मौसम पैटर्न, मिट्टी या नदियों की स्थलाकृति के बीच सम्बंध का पता लगाना;
– ग्रह-स्तरीय डिजिटल मॉडल निरंतर, वास्तविक समय में डैटा कैप्चर करेगा और चरम मौसम की घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं (जैसे, आग, तूफान, सूखा और बाढ़), जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी के संसाधनों से सम्बंधित अत्यधिक सटीक पूर्वानुमान प्रदान कर सकता है;
– विलुप्ति की प्रक्रिया का कारण जानने और इसे उलटने के तरीके के लिए वर्षों से एकत्र किए गए आंकड़ों का विश्लेषण;
– विलुप्ति के खतरे से घिरे जीवों को बचाने के लिए कारणों का विश्लेषण।
ग्रामीणएवंशहरीनियोजन
भारत में नगर पालिकाओं, ग्राम पंचायतों, भू-राजस्व सम्बंधी डैटा अभी भी विशाल कागज़ी फाइलों में संग्रहित किया जाता है, जिससे कुशल निर्णय लेने में देरी होती है। डैटा विज्ञान डैटा को एकीकृत करने में मदद कर सकता है और डैटा साइंस राज्य के प्रबंधन के लिए प्रभावी नीति निर्माण और निर्णय प्रक्रिया में गति ला सकता है।
कुल मिलाकर डैटा विज्ञान के उपयोग के कई लाभ हैं। देश की विशाल प्रतिभा और अपेक्षाकृत कम श्रम लागत की बदौलत भारत तेज़ी से डैटा साइंस का केंद्र बनता जा रहा है। नैसकॉम विश्लेषण का अनुमान है कि भारतीय डैटा एनालिटिक्स बाज़ार 2017 के 2 अरब डॉलर से बढ़कर 2025 में 16 अरब डॉलर का हो जाएगा। यह तीव्र वृद्धि कई कारकों से प्रेरित है, जिसमें डैटा की बढ़ती उपलब्धता, डैटा-संचालित निर्णय-प्रक्रिया, कृत्रिम बुद्धि (एआई) की वृद्धि शामिल हैं। भारत में कई विश्वविद्यालयों में डैटा साइंस के कोर्सेस भी चलाए जा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
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जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपने हालिया प्रयास में एक एंटीवायरल दवा का परीक्षण किया है जिससे डेंगू वायरस को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है। वर्तमान टीकों की सीमाओं के मद्देनज़र यह प्रयास काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। यह एक विशेष किस्म का परीक्षण था जिसे मानव चुनौती परीक्षण कहते हैं। इसमें चंद स्वस्थ व्यक्तियों को पहले जानबूझकर वायरस से संक्रमित किया जाता है और फिर इलाज किया जाता है।
जेएनजे-1802 नामक इस दवा ने शुरुआती परीक्षणों में डेंगू संक्रमण को रोकने में काफी अच्छे परिणाम दिए हैं। 31 प्रतिभागियों पर इस दवा की उच्च खुराक वायरस के खिलाफ एक मज़बूत ढाल साबित हुई। इसमें से कुछ प्रतिभागी तो संक्रमण से पूरी तरह सुरक्षित रहे जबकि अन्य में वायरस की प्रतिलिपियां बनाने की दर काफी कम देखी गई। यह परिणाम अमेरिकन सोसायटी ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत किए गए हैं।
गौरतलब है कि जेएनजे-1802 वायरस के दो प्रोटीनों के बीच एक ज़रूरी अंतर्क्रिया को रोकने का काम करती है। डेंगू वायरस की प्रतिलिपियां बनने के लिए यह अंतर्क्रिया अनिवार्य होती है। वर्तमान डेंगू टीकों की तुलना में यह नया तरीका काफी प्रभावी है।
पुराने टीकों के साथ समस्या थी कि महीनों तक इनकी कई खुराक लेना पड़ता था। और तो और, मनुष्यों को संक्रमित करने वाले चार अलग-अलग डेंगू सीरोटाइप के खिलाफ ये टीके समान रूप से प्रभावी भी नहीं थे। लेकिन जेएनजे-1802 प्रकोप के दौरान जल्द से जल्द सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम है। वैज्ञानिकों के अनुसार भविष्य में यह डेंगू नियंत्रण का एक अमूल्य साधन बन सकता है।
फिलहाल इसका दूसरा चरण एक प्लेसिबो-तुलना चरण है जिसमें लैटिन अमेरिका और एशिया के लगभग 2000 वालंटियर्स शामिल हो रहे हैं। उम्मीद है कि इसके परिणाम 2025 तक मिल जाएंगेे।
इस अध्ययन में उपयोग किए गए डेंगू वायरस संस्करण का चयन भी काफी दिलचस्प है। यह वही स्ट्रेन है जिसने 1970 के दशक में इंडोनेशिया में हल्के शारीरिक लक्षण उत्पन्न किए थे। 2000 के दशक की शुरुआत में, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने इस संस्करण को कमज़ोर करके और इसमें विशिष्ट संशोधन करके इसे उम्मीदवार टीके के रूप में उपयोग किया था। लेकिन जब इसे गैर-मानव प्रायमेट्स को दिया गया, तो वायरस कमज़ोर साबित नहीं हुआ। इस कारणवश इस संस्करण को टीके के विकास में नहीं लिया गया। फिर भी, जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी की वैज्ञानिक एना डर्बिन और उनकी टीम ने इस संस्करण को एक चुनौती के रूप में देखा। इस संस्करण से पीड़ित लोगों में उन्होंने लगातार वायरस प्रतिलिपिकरण पाया जो प्राकृतिक वायरस के जितनी प्रतिलिपियां बनाता था। इसके संपर्क में आने वाले 90 से 100 प्रतिशत व्यक्तियों में एक विशिष्ट प्रकार की फुंसियां बनती हैं। इससे श्वेत रक्त कोशिका और प्लेटलेट की संख्या कम तो होती है लेकिन खतरनाक स्तर तक नहीं।
यहां एक आश्चर्य की बात यह है कि शोधकर्ताओं ने संक्रमित मच्छरों का उपयोग करने की बजाय वायरस को सीधे इंजेक्शन से देने का विकल्प क्यों चुना। इस मामले में डर्बिन ने स्पष्ट किया कि चयनित संस्करण मच्छरों के शरीर में कुशलतापूर्व प्रतिलिपियां नहीं बनाता था। यह बाह्य रोगियों पर अध्ययनों के लिए एक आदर्श था। इसके चलते मच्छरों द्वारा वायरस फैलाए जाने की चिंता नहीं रही। दूसरी बात यह है मच्छर द्वारा प्रसारित हो तो वायरस की सटीक मात्रा निर्धारित करना मुश्किल है। इंजेक्शन ने यह सुनिश्चित किया कि सभी प्रतिभागी संक्रमित हो गए हैं।
आने वाले समय में जेएनजे-1802 के विविध उपयोगों को समझने का प्रयास किया जा रहा है। यह यात्रियों, सैन्य कर्मियों, गर्भवती महिलाओं और कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले व्यक्तियों के लिए रोकथाम के एक उपाय के रूप में काम कर सकता है। इसके अलावा, शोधकर्ता सक्रिय डेंगू संक्रमण के इलाज के लिए इस दवा की चिकित्सकीय क्षमता की खोज कर रहे हैं।
हालांकि अभी भी इस विषय में काफी काम बाकी है फिर भी इस अध्ययन के नतीजे एक ऐसे भविष्य की आशा प्रदान करते हैं जहां डेंगू का अधिक प्रभावी ढंग से प्रबंधन किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cloudfront-us-east-2.images.arcpublishing.com/reuters/Y44NFKHLBRPT7AUB4I6VY5YENA.jpg
लगभग 25 लाख वर्षों से मनुष्य अपने पोषण के लिए मांस पर निर्भर रहे हैं। यह तथ्य जीवों की जीवाश्मित हड्डियों, पत्थर के औज़ारों और प्राचीन दंत अवशेषों के साक्ष्य से अच्छी तरह साबित है। आज भी मनुष्य का मांस खाना जारी है – भारत के आंकड़े बताते हैं कि यहां के लगभग 70 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में मांसाहार करते हैं और आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2023 में विश्व की मांस की खपत 35 करोड़ टन थी। वैसे कई अन्य देशों के मुकाबले भारत का आंकड़ा (सालाना 3.6 किलोग्राम प्रति व्यक्ति) बहुत कम है लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में मांस खाना, और इतना मांस खाना ज़रूरी है?
एक प्रचलित सिद्धांत के अनुसार मांस के सेवन ने हमें मनुष्य बनाने में, खास तौर से हमारे दिमाग के विकास में, महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज के समय में भी कई लोग इतिहास और मानव विकास का हवाला देकर मांस के भरपूर आहार को उचित ठहराते हैं। उनका तर्क है कि आग, भाषा के विकास, सामाजिक पदानुक्रम और यहां तक कि संस्कृति की उत्पत्ति मांस की खपत से जुड़ी है। यहां तक कि कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि मांस मनुष्य के लिए एक कुदरती ज़रूरत है, जबकि वे शाकाहार को अप्राकृतिक और संभवत: हानिकारक मानते हैं। विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने इन धारणाओं को चुनौती भी दी है।
वास्तव में तो मानव विकास अब भी जारी है, लेकिन साथ ही हमारी आहार सम्बंधी ज़रूरतें भी इसके साथ विकसित हुई हैं। भोजन की उपलब्धता, उसके घटक और तैयार करने की तकनीकों में बदलाव ने महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। अब हमें भोजन की तलाश में घंटों भटकने की ज़रूरत नहीं होती और आधुनिक कृषि तकनीकों ने वनस्पति-आधारित आहार में काफी सुधार भी किया है। खाना पकाने की विधि ने पोषक तत्व और भी अधिक सुलभ बनाए हैं।
गौरतलब है कि पहले की तुलना में अब मांस आसानी से उपलब्ध है लेकिन इसके उत्पादन में काफी अधिक संसाधनों की खपत होती है। वर्तमान में दुनिया की लगभग 77 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि का उपयोग मांस और दूध उत्पादन के लिए किया जाता है जबकि ये उत्पाद वैश्विक स्तर पर कैलोरी आवश्यकता का केवल 18 प्रतिशत ही प्रदान करते हैं। इससे मांस की उच्च खपत की आवश्यकता पर महत्वपूर्ण सवाल उठता है।
हालिया अध्ययनों ने ‘मांस ने हमें मानव बनाया’ सिद्धांत पर संदेह जताया है। इसके साथ ही मस्तिष्क के आकार और पाचन तंत्र के आकार के बीच कोई स्पष्ट सम्बंध भी नहीं पाया गया जो महंगा-ऊतक परिकल्पना को चुनौती देता है। महंगा-ऊतक परिकल्पना कहती है कि मस्तिष्क बहुत खर्चीला अंग है और इसके विकास के लिए अन्य अंगों की बलि चढ़ जाती है और मांस खाए बिना काम नहीं चल सकता। 2022 में व्यापक स्तर पर किए गए एक अध्ययन में भी पाया गया है कि इस सिद्धांत के पुरातात्विक साक्ष्य उतने मज़बूत नहीं हैं जितना पहले लगता था। इस सम्बंध में हारवर्ड युनिवर्सिटी के प्रायमेटोलॉजिस्ट रिचर्ड रैंगहैम का मानना है कि मानव इतिहास में सच्ची आहार क्रांति मांस खाने से नहीं बल्कि खाना पकाना सीखने से आई है। खाना पकाने से भोजन पहले से थोड़ा पच जाता है जिससे हमारे शरीर के लिए पोषक तत्वों को अवशोषित करना आसान हो जाता है और मस्तिष्क को काफी अधिक ऊर्जा मिलती है।
दुर्भाग्यवश, हमारे आहार विकास ने एक नई समस्या को जन्म दिया है – भोजन की प्रचुरता। आज बहुत से लोग अपनी ज़रूरत से अधिक कैलोरी का उपभोग करते हैं, जिससे मधुमेह, कैंसर और हृदय रोग सहित विभिन्न स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं। इन समस्याओं के कारण मांस की खपत को कम करने का सुझाव दिया जाता है।
ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो मांस हमेशा से अन्य आहार घटकों का पूरक रहा है, इसने किसी अन्य भोजन की जगह नहीं ली है। दरअसल मानव विकास के दौरान मनुष्यों ने जो भी मिला उसका सेवन किया है। ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण है कि मनुष्यों द्वारा मांस के सेवन ने नहीं बल्कि चयापचय में अनुकूलन की क्षमता ने मानव विकास को गति व दिशा दी है। मनुष्य विभिन्न खाद्य स्रोतों से पोषक तत्व प्राप्त करने के लिए विकसित हुए हैं। हमारी मांसपेशियां और मस्तिष्क कार्बोहाइड्रेट और वसा दोनों का उपयोग कर सकते हैं। और तो और, हमारा मस्तिष्क अब चीनी-आधारित आहार और केटोजेनिक विकल्पों के बीच स्विच भी कर सकता है। हम यह भी देख सकते हैं कि उच्च कोटि के एथलीट शाकाहारी या वीगन आहार पर फल-फूल सकते हैं, जिससे पता चलता है कि वनस्पति प्रोटीन मांसपेशियों और मस्तिष्क को बखूबी पर्याप्त पोषण प्रदान कर सकता है।
एक मायने में, अधिक स्थानीय फलों, सब्ज़ियों और कम मांस के मिले-जुले आहार को अपनाना हमारे स्वास्थ्य और ग्रह दोनों के लिए फायदेमंद हो सकता है। दरअसल हमारी अनुकूलनशीलता और मांस की भूख मिलकर अब एक पारिस्थितिकी आपदा बन गई है। यह बात शायद पूरे विश्व पर एक समान रूप से लागू न हो लेकिन अमेरिका जैसे देशों के लिए सही है जहां प्रति व्यक्ति मांस की खपत अत्यधिक है।
यह सच है कि मांस ने हमारे विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन आज की दुनिया में यह आवश्यक आहार नहीं रह गया है। अधिक टिकाऊ, वनस्पति-आधारित आहार को अपनाना हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए लाभकारी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://d37dl0g9cmc67r.cloudfront.net/blog-images/Do-Humans-Need-Meat-Blog-Hero.png
मैं पर्यावरण वैज्ञानिकों को एकाउंटेंट के रूप में देखना पसंद करता हूं। जब भी हम अर्थव्यवस्था या अपने जीवन स्तर के विकास के लिए पर्यावरण प्रतिकूल तरीके अपनाते हैं तो हम वास्तव में प्रकृति से कुछ ऋण ले रहे होते हैं। यह ऋण बढ़ता रहता है जब तक कि प्रकृति इसे वसूलने नहीं लगती। जब हम इस प्राकृतिक ऋण का भुगतान करने में असमर्थ होते हैं, तो प्रकृति वैश्विक तापमान में वृद्धि, प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि, समुद्र के स्तर में वृद्धि और हिमनदों के पिघलने जैसे उपाय करना शुरू कर देती है। पर्यावरण वैज्ञानिक कोशिश करते हैं कि इस ऋण का हिसाब रखें क्योंकि प्रकृति हमेशा ध्यान रखती है कि उसे कितनी वसूली करना है। आपको लगेगा कि जलवायु परिवर्तन के बारे में वैज्ञानिकों के विचार जानना लाज़मी है लेकिन हमारे वैश्विक राजनेता ऐसा नहीं सोचते।
जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनेता इसे एक वैश्विक घटना के रूप में देखते हैं और सतही तौर पर देखें तो लगता है कि यह अमीर और गरीब दोनों को समान रूप से प्रभावित करता है। लेकिन ऐसा नहीं है। इस लेख के माध्यम से हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि जलवायु परिवर्तन और असमानता परस्पर सम्बंधित हैं। हम यह भी देखेंगे कि राष्ट्रों ने पृथ्वी को प्रदूषित करने के लिए किस तरह अनैतिक तौर-तरीकों का उपयोग किया है और कार्बन पदचिह्न चर्चाओं में अपना बचाव करने से पीछे भी नही हटे हैं।
जलवायु परिवर्तन व असमानता
कुछ देर के लिए भोपाल गैस त्रासदी वाली रात की कल्पना कीजिए। सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक संयंत्र में रखे गैस कंटेनरों से रिसी हानिकारक गैस ने अमीर और गरीब के बीच अंतर नहीं किया होगा। लेकिन जब आप रिसाव के बाद के परिणामों को देखेंगे तो आपको इस आपदा से हताहत होने वाले लोगों की संख्या में एक पैटर्न दिखाई देगा।
2-3 दिसंबर 1984 को हुई भोपाल गैस त्रासदी में कई मौतें हुईं। इसमें मरने वालों की संख्या के बारे में कोई सटीक जानकारी तो नहीं है लेकिन कुछ स्रोतों के अनुसार तत्काल मौतों का अनुमान लगभग 2-3 हज़ार का है। इस घटना का लोगों पर दीर्घकालिक प्रभाव भी पड़ा। कार्बाइड से निकलने वाली ज़हरीली गैस के संपर्क में आने से हज़ारों लोगों में श्वसन सम्बंधी समस्याएं, आंखों की बीमारियां और अन्य चिकित्सीय जटिलताएं विकसित हुईं। इनमें से कुछ भाग्यशाली लोग तो कुछ वर्षों में स्वस्थ हो गए जबकि अन्य के लिए ये चिकित्सीय जटिलताएं उनके जीवन की नई समस्याएं बन गईं। गैस रिसाव के कारण जल स्रोतों और मिट्टी में भी दीर्घकालिक पर्यावरणीय जटिलताएं उत्पन्न हुईं। इससे प्रभावित समुदायों के स्वास्थ्य और आजीविका पर भी दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा।
प्रभावितों का एक बड़ा हिस्सा गरीब या हाशिए पर रहने वाले समुदायों से है। त्रासदी के अधिकांश पीड़ित संयंत्र के आसपास की घनी आबादी वाली झुग्गियों में रहने वाले लोग थे। यहां मुख्य रूप से कम आय वाले परिवार रहते थे जिनके पास न तो रहने के लिए पर्याप्त आवास थे और न ही स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच। यही लोग इस त्रासदी से सबसे अधिक प्रभावित हुए। भोपाल गैस त्रासदी पर्यावरणीय अन्याय और हाशिए वाले समुदाय पर इसके असंगत प्रभाव का एक ज्वलंत उदाहरण है।
लेकिन औद्योगिक आपदा का जलवायु परिवर्तन से क्या सम्बंध है? वास्तव में भोपाल गैस त्रासदी (इससे प्रभावित लोगों के लिए) कई मायनों में सड़कों पर वाहनों में वृद्धि के कारण बढ़ते प्रदूषण के समान है। एक बार गतिशील होने पर इन दोनों ही परिस्थितियों को पलटना असंभव होता है। और सिद्धांतत: प्रदूषित हवा और कारखाने से हानिकारक गैस का रिसाव सारे लोगों को लगभग समान रूप से प्रभावित कर सकते हैं।
लेकिन वास्तव में जलवायु परिवर्तन का समूहों और क्षेत्रों पर अनुपातहीन प्रभाव पड़ता है। आम तौर पर निम्न-आय और हाशिए पर रहने वाले समुदायों तथा विकासशील देशों में रहने वाली असुरक्षित आबादी जलवायु परिवर्तन से अधिक गंभीर रूप से प्रभावित होती है। इन समूहों के पास जलवायु परिवर्तन के से तालमेल बनाने और इसके दुष्प्रभावों से बचने के लिए संसाधन सीमित और बुनियादी ढांचा निम्न-स्तर का होता है। गैस त्रासदी के संदर्भ में यह सवाल ज़रूर उठता है कि उद्योग केवल वहीं स्थापित क्यों किए जाते हैं जहां गरीब लोग रहते हैं। क्या धनी लोग अपने आवासीय क्षेत्र में ऐसे उद्योग खोलने की अनुमति देंगे? यदि सही जानकारी हो तो भी क्या गरीबों के पास इसका विरोध करने या याचिका दायर करने के लिए अमीरों के समान ही सामर्थ्य होगी? यही सवाल जलवायु परिवर्तन और अमीर बनाम गरीब देशों तथा उनके निवासियों पर इसके प्रभावों की चर्चा करते समय भी किया जा सकता है।
इसमें एक सवाल संसाधनों तक असमान पहुंच का भी है। आय में असमानता और संसाधनों तक असमान पहुंच के बीच एक गहरा सम्बंध है; आम तौर पर उच्च आय वाले लोगों के पास जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए काफी संसाधन होते हैं। इसमें जलवायु-अनुकूल बुनियादी ढांचे में निवेश, बीमा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच भी शामिल हैं। निम्न-आय वाले लोगों और समुदायों के पास इन चुनौतियों से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन न होने के कारण वे सबसे अधिक असुरक्षित हैं।
निम्न-आय समूहों और यहां तक कि बड़े पैमाने पर गरीब राष्ट्रों को पर्यावरणीय अन्याय का सामना करना पड़ता है। वे हमेशा से पर्यावरण प्रदूषण और इससे होने वाले खतरों का अनुपातहीन बोझ उठा रहे हैं। काफी संभावना है कि ऐसे समुदाय पर्यावरण प्रदूषण और औद्योगिक खतरों के करीब रहते हों, जैसा कि भोपाल गैस त्रासदी में स्पष्ट नज़र आया। जलवायु परिवर्तन मौसम की चरम घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि करता है और मौजूदा पर्यावरणीय समस्याओं को बदतर बनाकर पर्यावरणीय अन्याय को भी बढ़ा देता है।
इस लेख में भोपाल गैस त्रासदी के कारण पानी और मिट्टी पर दीर्घकालिक प्रभाव का उल्लेख हुआ है। इस सम्बंध में स्वाभाविक सवाल है कि किसकी आजीविका मिट्टी और पानी की गुणवत्ता पर सबसे अधिक निर्भर करती है, उत्तर ‘निश्चित रूप से किसान!’ है। भारत जैसे देश में अधिकांश किसान छोटे और मझोले हैं। हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि पर्यावरण क्षति विभिन्न समूहों को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करती है। दरअसल मृदा और जल प्रदूषण का एकमात्र उदाहरण भोपाल गैस त्रासदी नहीं है बल्कि दुनिया भर से निकल रहा औद्योगिक कचरा भी इस तरह की पर्यावरण क्षति करता है। जहां पानी और मिट्टी ज़हरीली हो, वहां के छोटे और मध्यम किसानों के लिए जीवित रहना मुश्किल हो जाता है। कृषि, मत्स्य पालन और अन्य जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन आजीविका को बाधित कर सकता है। इन उद्योगों पर निर्भर निम्न आय वाले लोगों के पास नए और अधिक जलवायु-अनुकूलित नौकरियों की तरफ जाने के अवसर सीमित होते हैं। इसके परिणामस्वरूप नौकरियों की कमी और गरीबी में वृद्धि अवश्यंभावी है।
नवीकरणीय और स्वच्छ स्रोतों से प्राप्त उर्जा तक पहुंच चिंता का एक और विषय है। नवीकरणीय और स्वच्छ स्रोत काफी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके उपयोग से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी आती है और यह जलवायु परिवर्तन को थामने का काम करता है। यहां भी कई निम्न आय वाले परिवारों के पास किफायती और स्वच्छ ऊर्जा विकल्पों तक पहुंच की कमी है जिसके कारण उन्हें जीवाश्म ईंधन पर निर्भर रहना पड़ता है। इससे जलवायु में परिवर्तन तेज़ होता है। स्वच्छ ऊर्जा तक पहुंच में समता से जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में मदद मिल सकती है।
जलवायु परिवर्तन में सरकार की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नियमन, नीति निर्माण और शासन-प्रशासन के उसके अधिकार असमानताओं को कायम रख सकते हैं। यदि नीति निर्माण के समय समता के सिद्धांतों को ध्यान में नहीं रखा गया तो जलवायु नियम-कायदे जाने-अनजाने में अमीरों और गरीबों को भिन्न ढंग से प्रभावित करेंगे। इस संदर्भ में जॉन रॉल्स ने अपनी पुस्तक ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ में कहा है कि “यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि सभी (जलवायु) नीतियों को ऐसे तैयार किया जाए जिससे समाज के सबसे कमज़ोर व्यक्ति को भी लाभ हो।”
देशों द्वारा अपनाए जाने वाले अनैतिक तरीके
विश्व भर के राजनेता इन समाधानों से अच्छी तरह परिचित तो हैं लेकिन इन्हें अपनाने के लिए वे तैयार नहीं हैं। उनके हिसाब से विकास और पर्यावरणीय स्थिरता तराजू के दो विपरीत छोर हैं जिनमें से किसी एक की बलि चढ़ाए बगैर दूसरे को हासिल नहीं किया जा सकता। राजनीति का झुकाव हमेशा से ही दिखावे की ओर रहा है। इसलिए, कुछ राष्ट्र अपनी छवि चमकाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर संदिग्ध और आपत्तिजनक रणनीति का सहारा लेते हैं जबकि ‘विकास’ के अपने दृष्टिकोण से पर्यावरण को प्रदूषित करते चले जाते हैं।
कुछ देश तो ऐसे कार्यों में भी लिप्त हैं जिसे जलवायु कार्यकर्ता ‘ग्रीनवॉशिंग’ कहते हैं। इसका मतलब अपने पर्यावरणीय प्रयासों को बढ़ा-चढ़ाकर बताना या झूठे दावे करना है। कई देश पर्यावरण संरक्षण में कोई ठोस कार्य किए बिना यह धारणा बनाने का प्रयास करते हैं कि वे पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक और ज़िम्मेदार हैं। दुनिया भर की सरकारें ग्रीनवॉशिंग के तहत व्यापक स्तर पर जनसंपर्क अभियान, भ्रामक विज्ञापन जैसे तरीके अपनाती हैं।
कुछ राष्ट्र तो अस्पष्टता और जानकारी देने में देरी का सहारा लेते हैं। इसमें आम तौर वे अपने वास्तविक कार्बन पदचिह्न को ओझल रखने के लिए जटिल रिपोर्टिंग विधियों या नौकरशाही विलंब का सहारा लेते हैं।
अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले देश कार्बन व्यापार या कार्बन ट्रेडिंग के नाम से मशहूर तरीके का भी इस्तेमाल करते हैं। कार्बन ट्रेडिंग ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने की एक बाज़ार-आधारित पद्धति है। इसके तहत जिन देशों या संस्थानों के लिए उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं वे ऐसे संस्थानों से उत्सर्जन क्रेडिट खरीद सकते हैं जिन्होंने अपने निर्धारित लक्ष्य को हासिल कर लिया है और उनके पास उत्सर्जन की गुंजाइश बची है। कार्बन ट्रेडिंग के दो तरीके हैं।
1. कैप–एंड–ट्रेड – इस प्रणाली के तहत सरकार एक किस्म के उद्योग के लिए उत्सर्जन की कुल मात्रा निर्धारित करती है। इसके बाद कंपनियों या उद्योगों को उत्सर्जन परमिट आवंटित किए जाते हैं। जो कंपनियां अपने आवंटित परमिट से अधिक उत्सर्जन करती हैं, उन्हें या तो अधिशेष परमिट वाली कंपनियों से अतिरिक्त परमिट खरीदने होंगे या फिर निर्धारित सीमा का अनुपालन करने के लिए उत्सर्जन में कमी करना होगा। इस तरह की व्यवस्था आम तौर पर राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर दिखती है।
2. ऑफसेटिंग कार्यक्रम – इसके तहत कंपनियों को अपने उत्सर्जन की भरपाई के लिए अन्य देशों या क्षेत्रों में उत्सर्जन में कमी के कार्यक्रमों में निवेश करने की अनुमति दी जाती है। इन प्रयासों के एवज में उन्हें विकास के नाम पर और अधिक प्रदूषण फैलाने की अनुमति मिलती है। ऑफसेटिंग परियोजनाओं में पुनर्वनीकरण, नवीकरणीय ऊर्जा विकास के प्रयास या लैंडफिल से मीथेन कैप्चर जैसी चीज़ें शामिल हो सकती हैं।
भारत सहित कई देश जीवाश्म ईंधन पर सबसिडी देते रहेंगे और साथ-साथ जलवायु लक्ष्यों के प्रति समर्थन और प्रतिबद्धता के बयान भी। इन देशों का मानना है कि ये उद्योग उनकी आर्थिक स्थिरता के लिए ज़रूरी हैं और वे कोई बड़ा बदलाव न करते हुए इन्हें क्रमश: खत्म करने के प्रयास करेंगे।
कई राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय जलवायु समझौतों में भी भाग लेते हैं जिनमें कानूनी रूप से बाध्यता का अभाव होता है। इससे उन्हें राजनीतिक क्षेत्र में दिखावे के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य दर्शाने का मौका मिलता है। लेकिन सच तो यह है कि वे इन बड़े-बड़े महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के प्रति स्पष्ट प्रतिबद्धता के बिना अपना काम चलाते जाते हैं।
कुल मिलाकर, हमारे पास असल मुद्दे का कोई जवाब नहीं है – हम जलवायु परिवर्तन के बारे में क्या कर रहे हैं, और खासकर जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों में क्या हम सबसे कमज़ोर वर्ग के लिए सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं?
जलवायु परिवर्तन और असमानता को एक साथ संबोधित करने के लिए ऐसी नीतियां और रणनीतियां लागू करना होगा जो पर्यावरणीय स्थिरता और सामाजिक समता दोनों को समान रूप से प्राथमिकता देती हों। इसमें कमज़ोर समुदायों में जलवायु-अनुकूल बुनियादी ढांचे में निवेश करना, स्वच्छ ऊर्जा, भोजन और पानी तक पहुंच प्रदान करना और स्थायी आजीविका विकल्पों को प्रोत्साहित करना शामिल हो सकता है। इसके लिए पर्यावरण नीति का न्यायसंगत और समावेशी होना भी आवश्यक है। दरअसल, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई अनिवार्य रूप से एक निष्पक्ष और अधिक न्यायसंगत दुनिया के लिए लड़ाई भी होनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.imf.org/-/media/Images/IMF/FANDD/article-image/2019/December/walsh-index.ashx
इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में मतदाता बटन दबाकर उम्मीदवार का चुनाव करते हैं। इस पोर्टेबल इलेक्ट्रॉनिक उपकरण ने कागज़ी मतपत्रों की जगह ले ली है। ईवीएम ने आम चुनाव को पारदर्शी बनाने में अहम भूमिका निभाई है।
पहली बार 1982 में केरल के पारूर में ईवीएम का उपयोग किया गया था। बाद में विभिन्न राज्यों के उपचुनावों में भी ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था। आरंभ में मशीनी मतदान की विशेषताओं से परिचित न होने के कारण राजनीतिक दलों ने कई शंकाएं जताते हुए इसका विरोध किया था, लेकिन विशेषज्ञों द्वारा समाधान के बाद इन पर विराम लग गया। मतदाताओं ने भी जानकारी के अभाव में ईवीएम को लेकर कल्पानाएं गढ़ ली थीं। आगे चलकर निर्वाचन आयोग ने स्थिति स्पष्ट की। काफी समय से ईवीएम का उपयोग लोकसभा और विधानसभा से लेकर स्थानीय निकाय के चुनावों में हो रहा है।
भारत में ईवीएम का उपयोग करने से पहले दस वर्षों तक रिसर्च हुई और उसके बाद निर्वाचन आयोग के अनुरोध पर भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल) और इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (ईसीआईएल) ने इन मशीनों का निर्माण किया है। ईवीएम की शेल्फ लाइफ 15 वर्ष होती है। इनमें चुनाव परिणामों को कई वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। अनुसंधान के दौरान ईवीएम की कार्यक्षमता पर मौसम, तापमान, धूल, धुएं, पानी आदि का कोई असर नहीं पड़ा है।
ईवीए दो भागों में बंटी होती है: बैलट युनिट और कंट्रोल युनिट। कंट्रोल युनिट पॉवर सप्लाई, रिकार्डिंग, संग्रहण आदि का काम करती है। बैलट युनिट में वोटिंग पैनल होता है, जिसका उपयोग मतदान करने के लिए किया जाता है। एक कंट्रोल युनिट से अधिकतम चार बैलट युनिट को जोड़ा जा सकता है। एक बैलट युनिट में अधिकतम 16 उम्मीदवारों के वोट दर्ज किए जा सकते हैं। इस प्रकार एक कंट्रोल युनिट 64 उम्मीदवारों के वोट दर्ज करने की क्षमता रखती है।
एक बैलट युनिट में अधिकतम 3840 वोट दर्ज किए जा सकते हैं। आम तौर पर एक मतदान केंद्र पर एक कंट्रोल युनिट और एक या एक से अधिक बैलट युनिट हो सकती हैं। कंट्रोल युनिट में 6 वोल्ट की रिचार्जेबल बैटरियों का इस्तेमाल किया जाता है जिनका जीवनकाल दस वर्ष का होता है। कंट्रोल युनिट में चार बटन होते हैं। पहला बटन दबाने पर मशीन बैलट युनिट को वोट रिकॉर्ड करने का आदेश देती है। दूसरा बटन दबाने से मशीन में संग्रहित पूरी जानकारी खत्म हो जाती है। तीसरा बटन दबाने से मशीन बंद हो जाती है और उसके बाद वह वोट दर्ज नहीं करती। चौथा बटन दबाने पर परिणाम बताती है।
बैलट युनिट के ऊपरी फलक पर उम्मीदवारों के नाम और चुनाव चिन्ह चिपका दिए जाते हैं। प्रत्येक नाम के सामने एक बटन और लाल बत्ती होती है। जिस उम्मीदवार के नाम के आगे बटन दबाया जाता है, उसके खाते में वोट दर्ज हो जाता है। गोपनीयता की दृष्टि से बैलट युनिट को एक अलग स्थान पर रखा जाता है जहां मतदाता के अलावा कोई नहीं रहता है। कंट्रोल युनिट मतदान केंद्र के पीठासीन अधिकारी के पास होती है, जहां पर विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि भी मौजूद रहते हैं।
ईवीएम से वोट डालने का तरीका अलग है। वोट डालने के लिए जाने वाले मतदाता की अंगुली पर अमिट स्याही का निशान लगाकर और उसके हस्ताक्षर लेकर उसे मतदान कक्ष में भेज दिया जाता है। मतदाता के मतदान कक्ष में प्रवेश करते ही मतदान अधिकारी मशीन का स्टार्ट बटन दबा देते हैं और वोटिंग मशीन वोट दर्ज करने के लिए तैयार हो जाती है।
ईवीएम काम कैसे करती है? कंट्रोल युनिट में सबसे पहले क्लीयर का बटन दबाया जाता है। इससे मशीन की मेमोरी में मौजूद हर चीज मिट जाती है। इसके बाद पीठासीन अधिकारी द्वारा स्टार्ट बटन दबाया जाता है। बटन के दबते ही कंट्रोल युनिट में लाल बत्ती और बैलट युनिट में हरी बत्ती जल उठती है। यानी बैलट युनिट बैलट लेने को और कंट्रोल युनिट मत को दर्ज करने के लिए तैयार है। जैसे ही मतदाता द्वारा अपने पसंदीदा उम्मीदवार के सामने वाला बटन दबाया जाएगा, उम्मीदवार के सामने वाली बत्ती जल उठेगी। और कंट्रोल युनिट में ‘बीप’ की आवाज़ भी होगी। इससे मतदाता को पता चल जाएगा कि उसने वोट दे दिया है। इसके बाद बटन दबाने बटन का कोई अर्थ नहीं होगा। यदि दो बटन एक साथ दबा दिए जाएं तो वोट दर्ज नहीं होगा। मतदान समाप्ति पर क्लोज़ का बटन दबाया जाता है।
मतदाताओं का भरोसा बढ़ाने के लिए ईवीएम के साथ अब ‘वीवीपैट’ (वोटर वेरीफाएबल पेपर ऑडिट ट्रेल) जोड़ दिया गया है। यह एक स्वतंत्र प्रिंटर प्रणाली है। इससे मतदाताओं को अपना मतदान बिलकुल सही होने की पुष्टि करने में सहायता मिलती है। ‘वीवीपैट’ का निर्माण भी सार्वजनिक क्षेत्र के उपरोक्त दो प्रतिष्ठानों ने ही किया है। वर्ष 2017-18 के दौरान गोवा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में ‘वीवीपैट’ का उपयोग किया गया था।
वैज्ञानिक अध्ययनों और विश्लेषणों में पता चला है कि चुनाव में ईवीएम के इस्तेमाल से लाभ की तुलना में हानि नहीं के बराबर है। ईवीएम के इस्तेमाल से होने वाले लाभ की एक सूची बनाई जा सकती है। यह सूची लगातार लंबी होती जा रही है। ईवीएम के इस्तेमाल से बूथ पर कब्ज़ा करने की घटनाएं खत्म हो गई हैं। वोटिंग में बहुत कम समय लगता है। वोटों की गिनती तीन से छह घंटों में पूरी हो जाती है, जबकि पहले दो दिन तक लगते थे। इन मशीनों में सीलबंद सुरक्षा चिप होती है। ईवीएम के प्रोग्राम में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इससे वोटों की हेरा-फेरी को रोका जा सकता है।
एक मिनट में एक ईवीएम से पांच लोग वोट डाल सकते हैं। ईवीएम बैटरी से चलती है। इसमें डैटा एक दशक तक सुरक्षित रहता है। एक ईवीएम में 64 उम्मीदवार फीड हो सकते हैं। मतपत्रों के ज़माने में बड़ी संख्या में मत अवैध हो जाते थे। कई चुनावों में अवैध मतों की संख्या जीत के अंतर से ज़्यादा हुआ करती थी। अब ईवीएम के उपयोग से कोई वोट अवैध नहीं होता है। (स्रोत फीचर्स)
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फर्ज़ी मतदान रोकने में ‘अमिट स्याही’ की अहम भूमिका रही है। अमिट स्याही की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे मिटाया अथवा धोया नहीं जा सकता। बैंगनी रंग की यह स्याही आम चुनाव का प्रतीक बन गई है। अभी तक कोई भी विकल्प अमिट स्याही की जगह नहीं ले पाया है।
मतदान में प्रयुक्त अमिट स्याही को बनाने में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (एनपीएल) के वैज्ञानिकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसे अमिट स्याही की जन्म स्थली कहा जाता है। प्रयोगशाला की स्थापना के तुरन्त बाद रसायन विज्ञान प्रभाग के अंतर्गत स्याही विकास इकाई का गठन किया गया था। एनपीएल ने 1950-51 में अमिट स्याही तैयार कर ली थी, जिसका उपयोग प्रथम आम चुनाव में किया गया था। दूसरे आम चुनाव (1957) में एनपीएल ने ही अमिट स्याही की 3,16,707 शीशियां उपलब्ध कराई थीं।
बहरहाल, अनुसंधान के अन्य क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने के कारण अमिट स्याही उत्पादन के काम को आगे जारी नहीं रखा जा सका था। ऐसी स्थिति में सरकारी-निजी प्रतिष्ठान को इसके उत्पादन का लायसेंस देने की ज़रूरत दिखाई दी। काफी विचार-विमर्श के बाद कर्नाटक की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी मैसूर पेंट्स का चुनाव किया गया। इस कंपनी की स्थापना 1937 में मैसूर के महाराजा कृष्णराजा वाडियार ने की थी। वर्ष 1947 में इस कंपनी का अधिग्रहण पूर्व मैसूर राज्य ने कर लिया था और आगे चलकर इसका नाम बदल कर मैसूर लैक एंड पेंट वर्क्स लिमिटेड कर दिया गया। फिर 1989 में नाम बदलकर मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड कर दिया गया। वर्तमान में इसी को निर्वाचन आयोग से अमिट स्याही खरीदी के आदेश प्राप्त हो रहे हैं। और तो और, यह कंपनी दो दर्ज़न अन्य देशों को भी अमिट स्याही का निर्यात कर रही है।
निर्णय लिया गया है कि 1962 के बाद के सभी चुनावों में मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड ही अमिट स्याही का उत्पादन और निर्यात करेगी। नेशनल रिसर्च एंड डेवलपमेंट कार्पोरेशन ने अमिट स्याही के नुस्खे का पेटेंट करा लिया है, ताकि अन्य कंपनियां इसका उत्पादन न कर सकें।
अमिट स्याही के विकास का इतिहास लगभग सात दशकों का है। सात दशकों की इस छोटी-सी अवधि में कई महत्वपूर्ण अध्याय जुड़े हैं। 1940 के दशक में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के तत्कालीन महानिदेशक डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर ने रसायन विज्ञानी डॉ. सलीमुज्जमान सिद्दीकी से अमिट स्याही तैयार करने के लिए कहा था। उन्होंने सिद्दीकी को सिल्वर क्लोराइड युक्त एक नमूना भेजा, जिसे लगाने के बहुत देर बाद त्वचा पर निशान पड़ता था। रसायनविद डॉ. सिद्दीकी ने इसमें सिल्वर ब्रोमाइड मिलाया, जिससे तत्काल निशान पड़ गया। डॉ. सिद्दीकी शुरुआत से ही एनपीएल में स्याही विकास इकाई से जुड़े थे। आगे चलकर डॉ. एम. एल. गोयल के नेतृत्व में अमिट स्याही का नुस्खा तैयार किया गया। उनके सहयोगी प्रतिष्ठित और समर्पित युवा रसायन विज्ञानी डॉ. जी. बी. माथुर, डॉ. वी. डी. पुरी आदि थे।
‘अमिट स्याही’ का मुख्य घटक सिल्वर नाइट्रेट है। यही रसायन स्याही के निशान को उभारता है। इसकी सांद्रता दस से लेकर पच्चीस प्रतिशत के बीच होती है। सिल्वर नाइट्रेट और त्वचा के प्रोटीन की अभिक्रिया से त्वचा पर गहरा निशान बन जाता है, जो कुछ दिनों तक नहीं छूटता। सिल्वर नाइट्रेट से त्वचा को जरा भी हानि नहीं होती। यह निशान तभी हटता है, जब नई कोशिकाएं पुरानी कोशिकाओं की जगह ले लेती हैं। स्याही चालीस सेकंड से कम समय में सूख जाती है। अमिट स्याही में कुछ रंजक भी होते हैं। यह स्याही रोशनी के प्रति संवेदनशील होती है, अत: इसे रंगीन शीशियों में रखा जाता है।
निर्वाचन आयोग को सौंपने के पहले अमिट स्याही का कई बार परीक्षण किया जाता है। निर्वाचन आयोग चुनाव प्रक्रिया के दौरान ‘रेंडम सेम्पल’ लेकर परीक्षण के लिए एनपीएल के पास भेजता है जो प्रत्येक परीक्षण के बाद निर्वाचन आयोग को नियमित रिपोर्ट भेजती है।
बैंगनी रंग की अमिट स्याही को मतदाता के बाएं हाथ की तर्जनी पर लगाया जाता है। मतदान की अवधि में स्याही सूखने का पर्याप्त समय मिल जाता है। इसे साबुन, तेल, डिटरजेंट अथवा रसायनों से मिटाया नहीं जा सकता। कुछ दिनों बाद यह अपने आप मिट जाती है।
एक बात और। एनपीएल को आज भी अमिट स्याही की रॉयल्टी मिलती है।
वर्ष 1962 में विकसित अमिट स्याही का मूल नुस्खा छह दशकों बाद भी नहीं बदला है। साल 2001 में एनपीएल के निदेशक प्रोफेसर कृष्ण लाल ने अमिट स्याही के नुस्खे को बेहतर बनाने का प्रस्ताव रखा था। इसका उद्देश्य मूल स्याही से पानी को हटाना था, ताकि यह जल्दी सूख सके। सूखने की प्रक्रिया को बेहतर करने के लिए अनुसंधानकर्ताओं की एक टीम ने बिना पानी का एक ऐसा मिश्रण तैयार किया, जो पहले मिश्रण की तुलना में जल्दी सूख तो जाता था, लेकिन रंग बहुत समय तक बना रहता था।
पिछले वर्षों में अमिट स्याही के उपयोग का विस्तार हुआ है। 2016 में इसका उपयोग नोटबंदी के संदर्भ में हुआ था।
तर्जनी उंगली पर अमिट स्याही का निशान लगाना संवैधानिक ज़रूरत है। सवाल यह है कि निशान कहां पर लगाया जाए? इस बारे में परिवर्तन हुए हैं। शुरुआत में अमिट स्याही का निशान तर्जनी के मूल में बिंदु के रूप में लगाया जाता था। वर्ष 1962 में यह निशान नाखून की जड़ के ऊपर लगाया जाता था। साल 2006 से इस निशान को बड़ा करके नाखून के ऊपर के सिरे से तर्जनी अंगुली के जोड़ के नीचे तक लगाया जाता है। इसने अब एक छोटी-सी लकीर का रूप ले लिया है।
स्वतंत्रता के पहले अमिट स्याही के मामले में देश निर्यात पर निर्भर था। लेकिन आज हम इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो चुके हैं। यही नहीं भारत 25 देशों को अमिट स्याही का निर्यात भी कर रहा है। अमिट स्याही का उपयोग लोकसभा, विधानसभा चुनावों से लेकर स्थानीय निकायों के चुनावों में हो रहा है। सारांश में कहा जा सकता है कि अमिट स्याही का नुस्खा अपने ही देश में बनाना और उत्पादन करना लोकतंत्र को मज़बूत बनाने के साथ ही हमारे देश के वैज्ञानिकों की ऐतिहासिक भूमिका और प्रतिभा को आम मतदाताओं के सामने प्रदर्शित करता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://starofmysore.com/wp-content/uploads/2018/05/news-5-7.jpg
हम दैनिक जीवन में गंध का बहुत इस्तेमाल करते हैं, लेकिन फिर भी उसे इतनी तवज्जो नहीं देते। गलती से गैस खुली छूट जाए या गैस पर दूध चढ़ा कर भूल जाएं, तो गैस की या जलने की बू हमें हमारी भूल का एहसास करा देती है। अब, एक अध्ययन में गंध से हमारी याददाश्त में सुधार की संभावना दिख रही है। सूंघने की शक्ति क्षीण पड़ने का सम्बंध कई स्वास्थ्य समस्याओं से देखा गया है; जैसे अवसाद, संज्ञान क्षमता में कमी वगैरह। इस बात के भी प्रमाण मिले हैं कि नियमित रूप से तीक्ष्ण गंध सूंघने से इस तरह की दिक्कतों से बचाव संभव है। और अब, युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के माइकल लियोन के दल ने नींद के दौरान लोगों को गंध सुंघाकर उनका संज्ञान प्रदर्शन बेहतर करने में सफलता प्राप्त की है। अध्ययन के लिए 60 वर्ष से अधिक उम्र के सामान्यत: स्वस्थ 20 प्रतिभागियों को चुना गया। उन्हें लगातार छह महीने तक रोज़ रात को एक गंध सुंघाई गई – गुलाब, संतरा, नीलगिरी, नींबू, पेपरमिंट, गुलमेंहदी और लैवेंडर; यानी सप्ताह की हर रात अलग गंध। फ्रंटियर्स इन न्यूरोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि नियंत्रण समूह (जिसे गंध नहीं सुंघाई गई थी) की तुलना में गंध उपचािरत समूह के सदस्यों ने अधिक शब्द याद रखे थे। हालांकि शोधकर्ता अभी यह पुख्ता तौर पर नहीं जानते कि गंध ने यह कमाल कैसे दिखाया, लेकिन उनका अनुमान है कि गंध संवेदना में शामिल तंत्रिकाओं का मस्तिष्क के स्मृति और भावना से जुड़े क्षेत्र से सीधा सम्बंध होता है। उनके इस अनुमान का आधार एमआरआई की रिपोर्ट है, जिसमें उन्हें गंध उपचारित प्रतिभागियों के मस्तिष्क की उस संरचना में परिवर्तन दिखा है जो स्मृति और भावनात्मक केंद्रों को जोड़ती है – यह कड़ी अक्सर बढ़ती उम्र में, खासकर अल्ज़ाइमर से ग्रस्त लोगों में कमज़ोर पड़ जाती है। हालांकि ये परिणाम प्रारंभिक हैं और एक छोटे समूह में दिखे हैं लेकिन यदि यह उपचार बड़े परीक्षणों में सफल साबित होता है तो यह इस तरह की समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए मददगार हो सकता है। बड़े पैमाने का अध्ययन कई अनसुलझे सवालों के जवाब ढूंढने में भी मददगार होगा। जैसे इस अध्ययन में सात खुशनुमा गंधों का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी भी तरह की गंध (तीखी, बुरी गंध) भी इसी तरह के परिणाम दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static01.nyt.com/images/2012/08/28/science/28OBSLEEP2/28OBOX2-articleLarge.jpg?quality=75&auto=webp&disable=upscale