वर्ष 2023 का रसायन नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है – एलेक्साई एकिमोव (पूर्व सोवियत संघ), लुई ब्रुस (यूएस) और मौंगी बावेंडी (यूएस)। इन तीनों ने मिलकर एक ऐसे प्रभाव की खोज की है जिसने इलेक्ट्रॉनिक्स व संचार के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। लोग इसके उपयोग से तो परिचित हैं लेकिन इसके चौंकाने वाले वैज्ञानिक धरातल से अपरिचित हैं।
इस वर्ष के रसायन नोबेल का कथानक क्वांटम यांत्रिकी से जुड़ा है। जहां एकिमोव और ब्रुस ने इस प्रभाव का अवलोकन करके इसे पहचाना, वहीं बावेंडी का प्रमुख योगदान इसे उत्पन्न करने की विधियों पर केंद्रित रहा।
यह प्रभाव साइज़ के अनुसार पदार्थों के बदलते गुणधर्मों को दर्शाता है। खास तौर से नैनो साइज़ पर यह प्रभाव बढ़-चढ़कर नज़र आने लगता है। तीनों शोधकर्ताओं ने इस बात की खोज की है कि जब हम मिलीमीटर के लाखवें-करोड़वें साइज़ के कणों के साथ काम करते हैं तो विचित्र घटनाएं होने लगती है। ऐसे कणों को क्वांटम बिंदु कहते हैं।
दरअसल, इस तरह के विचित्र प्रभाव की भविष्यवाणी काफी पहले 1930 के दशक में हरबर्ट फ्रोलिश नामक भौतिक शास्त्री कर चुके थे। फ्रोलिश ने क्वांटम यांत्रिकी की मशहूर श्रॉडिंजर समीकरण के सैद्धांतिक निहितार्थ की पड़ताल करते हुए दर्शाया था कि जब कण अत्यंत छोटे हो जाएंगे तो उनमें इलेक्ट्रॉन के लिए कम जगह रह जाएगी। परिणाम यह होगा कि इलेक्ट्रॉन (जो क्वांटम यांत्रिकी के अनुसार कण भी होते हैं और तरंगें भी) पास-पास ठस जाएंगे। फ्रोलिश का मत था कि इसका पदार्थ के गुणधर्मों पर बहुत ज़्यादा असर होगा। इसे क्वांटम प्रभाव कहते हैं जो बहुत कम साइज़ों पर नज़र आता है।
भविष्यवाणी दिलचस्प थी और वैज्ञानिक गण इसे यथार्थ में साकार करने के प्रयासों में जुट गए हालांकि बहुत कम वैज्ञानिकों को लगता था कि इस क्वांटम प्रभाव का कोई व्यावहारिक उपयोग होगा।
खैर, 1970 के दशक में शोधकर्ता इस तरह की नैनो-संरचना बनाने में कामयाब हो गए। उन्होंने एक आणविक पुंज का उपयोग करते हुए एक मोटी सतह के ऊपर एक अत्यंत महीन (नैनो मोटी) परत बना दी। और इसके ज़रिए वे यह दिखा पाए कि इस महीन परत के प्रकाशीय गुणधर्म इसकी मोटाई के अनुसार बदलते हैं – यह प्रयोग क्वांटम यांत्रिकी की भविष्यवाणी से मेल खाता था। प्रायोगिक तौर पर क्वांटम प्रभाव को दर्शाना एक बड़ी बात थी लेकिन इस व्यवस्था को बनाने के लिए लगभग परम शून्य तापमान और अत्यंत गहन निर्वात की ज़रूरत थी।
इस प्रभाव को ज़्यादा साधारण अवस्था में देखने में मदद एक अनपेक्षित दिशा से मिली। रंगीन कांच बनाने की कला ने इस क्वांटम असर के अध्ययन में बहुत मदद की। प्राचीन समय से ही कारीगर लोग विभिन्न रंगों के कांच बनाते आए थे। वे कांच बनाते समय उसमें चांदी, सोना, कैडमियम जैसे पदार्थ मिलाते थे और फिर उसे अलग-अलग तापमान पर तपाकर विभिन्न रंग पैदा कर लेते थे।
भौतिक शास्त्रियों के लिए रंगीन कांच महत्वपूर्ण साधन साबित हुए थे। इनकी मदद से वे प्रकाश में से कुछ रंगों को (यानी कुछ तरंग दैर्घ्यों को) छानकर अलग कर सकते थे। इसके चलते शोधकर्ता खुद रंगीन कांच बनाने लगे। ऐसा करते हुए उन्होंने देखा कि एक ही पदार्थ मिलाने पर कांच में कई अलग-अलग रंग पैदा किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, कैडमियम सेलेनाइड और कैडमियम सल्फाइड का मिश्रण कांच में मिलाया जाए, तो वह पीला बन सकता है या लाल भी बन सकता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि पिघले कांच को कितना तपाया गया था और किस तरह ठंडा किया गया था। है ना आश्चर्य की बात? शोधकर्ता यह भी दर्शा पाए कि कांच में रंग उसके अंदर बनने वाले कणों से पैदा होता है और कणों की साइज़ पर निर्भर करता है।
इस वर्ष के एक नोबल विजेता, एलेक्साई एकिमोव, ने इसी बात को आगे बढ़ाया। उन्हें यह बात थोड़ी बेतुकी लगी कि एक ही पदार्थ कांच में अलग-अलग रंग पैदा कर सकता है। लेकिन खुशकिस्मती से एकिमोव प्रकाशीय अध्ययनों से वाकिफ थे। लिहाज़ा, 1970 दशक में उन्होंने इनकी मदद से रंगीन कांचों की तहकीकात शुरू कर दी। उन्होंने व्यवस्थित रूप से कॉपर क्लोराइड से रंजित कांचों का निर्माण किया और पिघले हुए कांच को 500 से 700 डिग्री सेल्सियस पर अलग-अलग अवधियों (1 से लेकर 96 घंटे) तक तपाया। एक्सरे विश्लेषण से पता चला कि निर्माण की प्रक्रिया का असर कॉपर क्लोराइड के कणों की साइज़ पर हुआ था – कुछ नमूनों में ये कण मात्र 2 नैनोमीटर के थे जबकि कुछ नमूनों में इनकी साइज़ 30 नैनोमीटर तक थी।
सबसे दिलचस्प बात यह रही कि इन कणों की साइज़ का असर कांच द्वारा सोखे गए प्रकाश पर पड़ रहा था – बड़े कण तो प्रकाश को उसी तरह सोख रहे थे जैसे कॉपर क्लोराइड सामान्यत: सोखता है लेकिन कण की साइज़ जितनी कम होती थी, वे उतना ही अधिक नीला प्रकाश सोखते थे।
भौतिक शास्त्री होने के नाते एकिमोव क्वांटम यांत्रिकी के नियमों से परिचित थे और फौरन समझ गए कि वे जिस चीज़ का अवलोकन कर रहे हैं, वह साइज़-आधारित क्वांटम प्रभाव है। यह पहली बार था कि किसी ने जानबूझकर क्वांटम बिंदु निर्मित किए थे। क्वांटम बिंदु यानी ऐसे नैनो-कण जो साइज़-आधारित प्रभाव उत्पन्न करें।
दिक्कत यह हुई कि एकिमोव ने अपनी खोज के परिणाम एक सोवियत शोध पत्रिका में प्रकाशित किए। शीत युद्ध के दौर में सोवियत संघ से बाहर इस शोध पत्र पर किसी का ध्यान ही नहीं गया।
सो, इस वर्ष के दूसरे नोबेल विजेता लुई ब्रुस ने 1983 में यह खोज दोबारा की। दरअसल, ब्रुस तो कोशिश कर रहे थे कि सौर ऊर्जा की मदद से रासायनिक क्रियाओं को गति दे सकें। उन्होंने कैडमियम सल्फाइड के अत्यंत छोटे कण एक घोल में बनाए। छोटे कण बनाने का मकसद था कि उनकी सतह का क्षेत्रफल अधिकतम रहे। लेकिन ऐसा करते हुए ब्रुस ने एक अजीब-सा अवलोकन किया – जब वे इन कणों को प्रयोगशाला की बेंच पर कुछ समय के लिए छोड़ देते थे, तो उनके गुणधर्म बदल जाते थे। उन्होंने अनुमान लगाया कि शायद ऐसा इसलिए हो रहा होगा क्योंकि रखे-रखे वे कण बड़े हो जाते होंगे। अपने अनुमान की पुष्टि के लिए उन्होंने कैडमियम सल्फाइड के लगभग 4.5 नैनोमीटर के कण बनाए और इनके प्रकाशीय गुणधर्मों की तुलना 12.5 नैनोमीटर के कणों से की। निष्कर्ष यह निकला कि बड़े कण तो उसी तरंग दैर्घ्य का प्रकाश अवशोषित करते हैं जो कैडमियम सल्फाइड सामान्य रूप से करता है लेकिन छोटे कणों के मामले में अवशोषण थोड़ा नीले रंग की ओर सरक जाता है। ब्रुस भी समझ गए कि उन्होंने साइज़-आधारित क्वांटम प्रभाव का अवलोकन किया है। 1983 में अपने परिणाम प्रकाशित करने के बाद उन्होंने कई पदार्थों के साथ प्रयोग करके पाया कि जितने छोटे कण होते हैं, अवशोषण नीली तरंग दैर्घ्यों की ओर खिसकता जाता है।
अब सवाल उठता है कि इससे क्या फर्क पड़ता है। जवाब है कि यदि एक ही पदार्थ के कणों की साइज़ बदलने से उसका प्रकाश अवशोषण बदल जाता है, तो इसका मतलब हुआ कि उसमें कुछ तो बुनियादी रूप से बदल गया है। किसी भी पदार्थ के प्रकाशीय गुण उसके इलेक्ट्रॉन पर निर्भर करते हैं और उसके रासायनिक गुण भी। यानी किसी पदार्थ के रासायनिक गुण सिर्फ इलेक्ट्रॉन कक्षकों की संख्या और सबसे बाहरी कक्षा में इलेक्ट्रॉनों की संख्या से तय नहीं होते बल्कि नैनो पैमाने पर साइज़ पर भी निर्भर करते हैं।
धीरे-धीरे स्पष्ट होता गया कि क्वांटम बिंदु के कई व्यावहारिक उपयोग हैं। ये आज क्वांटम बिंदु नैनो-टेक्नॉलॉजी का एक महत्वपूर्ण औज़ार हैं और तमाम उत्पादों में नज़र आते हैं। इनका सबसे अधिक उपयोग रंगीन प्रकाश पैदा करने में किया गया है। यदि क्वांटम बिंदुओं पर नीला प्रकाश डाला जाए तो ये उसे सोख लेते हैं और किसी अन्य रंग का प्रकाश छोड़ते हैं। उत्सर्जित प्रकाश का रंग क्वांटम बिंदु की साइज़ पर निर्भर करता है। इस तरह नीले प्रकाश को अलग-अलग रंगों में बदलकर तीन प्राथमिक रंग (नीला, लाल और हरा) बनाए जा सकते हैं। इनकी मदद से एलईडी लैम्प के प्रकाश का रंग व तीव्रता भी नियंत्रित किए जा सकते हैं।
क्वांटम बिंदुओं का उपयोग जैव-रसायन और चिकित्सा में भी किया जा सकता है। जैसे क्वांटम बिंदुओं को जैविक अणुओं से जोड़कर कोशिकाओं तथा अंगों का अध्ययन किया जा सकता है। और तो और, शरीर में ट्यूमर ऊतकों पर नज़र रखने में भी क्वांटम बिंदुओं के उपयोग पर काम शुरू हुआ है। माना जा रहा है कि भविष्य में इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में ये निहायत उपयोगी साबित होने जा रहे हैं।
अलबत्ता सही मनचाही साइज़ के क्वांटम बिंदु बनाना टेढ़ी खीर थी। जब तक उम्दा गुणवत्ता के क्वांटम बिंदु बनाने का कोई आसान तरीका सामने नहीं आता तब तक इनका उपयोग करना असंभव था। और यहीं तीसरे नोबेल विजेता मौंगी बावेंडी के योगदान को सम्मान दिया गया है। उन्होंने वह टेक्नॉलॉजी विकसित जिसकी मदद से नियंत्रित ढंग से क्वांटम बिंदुओं का निर्माण करना संभव हुआ। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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