वर्ष 2016 के दी लैसेंट की स्तनपान शृंखला में सीज़र विक्टोरा और उनके साथियों ने लिखा था: “नवजात शिशुओं के लिए स्तनपान न सिर्फ बखूबी संतुलित पोषण आपूर्ति है, बल्कि संभवत: यह उसे मिलने वाली सबसे विशिष्ट वैयक्तिकृत औषधि है, जो ऐसे समय उसे मिलती है जब जीवन के लिए उसकी जीन अभिव्यक्ति बेहतर तालमेल बैठा रही होती है।”
अब मानव दूध की इस ध्यानपूर्वक संरचित समृद्धि के बारे में आई नई खोज ने मायो-इनोसिटॉल के महत्व पर प्रकाश डाला है। मायो-इनोसिटॉल एक चक्रीय शर्करा अल्कोहल है। स्तनपान के पहले दो हफ्तों में मायो-इनोसिटॉल का स्तर उच्च होता है फिर कुछ महीनों की अवधि में धीरे-धीरे इसका स्तर कम होता जाता है। शुरुआती चरणों में, नवजात शिशु के मस्तिष्क में तेज़ी से नए-नए सायनेप्स (तंत्रिकाओं के संगम बिंदु) बनकर ‘तार’ जुड़ रहे होते हैं (या ‘वायरिंग’ हो रही होती है)। प्रारंभिक विकास के दौरान उचित सायनेप्स बनना संज्ञानात्मक विकास की नींव रखते हैं; अपर्याप्त सायनेप्स निर्माण से मस्तिष्क के विकास में कठिनाई आती है।
येल विश्वविद्यालय के थॉमस बाइडरर के शोध दल द्वारा PNAS में प्रकाशित निष्कर्ष भी उपरोक्त निष्कर्ष से मेल खाते हैं – परखनली में संवर्धित चूहे की तंत्रिकाओं में मायो-इनोसिटॉल देने पर उनकी तंत्रिकाओं के बीच प्रचुर मात्रा में सायनेप्स बने थे।
मायो-इनोसिटॉल एक चक्रीय शर्करा-अल्कोहल है, जो चीनी से लगभग आधा मीठा होता है। यह मस्तिष्क में प्रचुर मात्रा में मौजूद होता है, जहां यह कई हार्मोनों की क्रियाओं में मध्यस्थता करता है। हमारे शरीर को कोशिका झिल्ली बनाने के लिए इनोसिटॉल की आवश्यकता होती है। हमारा शरीर ग्लूकोज़ से मायो-इनोसिटॉल बनाता है और यह प्रक्रिया अधिकांशत: किडनी में होती है। कॉफी और चीनी के सेवन से, और मधुमेह जैसी स्थितियों में हमारे शरीर की इनोसिटॉल ज़रूरत बढ़ जाती है। अनाज और बीजों के चोकर (ऊपरी छिलके) में इनोसिटॉल के निर्माण में शामिल घटक, फायटिक एसिड, होता है। बादाम, मटर और खरबूजे भी इसके समृद्ध स्रोत हैं।
मधुमेह से ग्रसित जंतु मॉडल में, इनोसिटॉल से वंचित चूहों के आहार में मायो-इनोसिटॉल पुन: शामिल करने से उनमें मोतियाबिंद और मधुमेह से जुड़ी अन्य समस्याओं को रोकने में मदद मिली।
मानव दूध के अन्य घटक भी विशिष्ट पोषकों से परिपूर्ण होते हैं। मेक्सिको स्थित मीड जॉनसन पीडियाट्रिक न्यूट्रिशन इंस्टीट्यूट के डॉ. शे फिलिप्स और उनके साथियों ने मानव दूध के संघटन को प्रभावित करने वाले कई कारकों का विश्लेषण किया है। वे बताते हैं कि एक आवश्यक पोषक तत्व, ओमेगा-3 वसा अम्ल (डाइकोसा-हेक्सेनोइक एसिड या डीएचए) की मात्रा गर्भवती स्त्री द्वारा लिए गए भोजन के आधार पर बदलती है। स्तनपान कराने वाली मां के दूध में डीएचए का स्तर विभिन्न देशों में अलग-अलग होता है – चीन की महिलाओं के दूध में 2.8 प्रतिशत, जापान की महिलाओं में 1 प्रतिशत, युरोप और अमेरिका की महिलाओं में लगभग 0.4-0.2 प्रतिशत और कई विकासशील देशों की महिलाओं के दूध में महज़ 0.1 प्रतिशत। डीएचए विकासशील मस्तिष्क और रेटिना के लिए महत्वपूर्ण होता है।
नेक्रोटाइज़िंग एंटरोकोलाइटिस (एनईसी) पाचन तंत्र की एक गंभीर तकलीफ है जो समय-पूर्व जन्मे या बेहद कम वज़न वाले शिशुओं को प्रभावित करती है। लक्षण हैं: पर्याप्त दूध न पीना, पेट में सूजन, अंगों की गड़बड़। यह जानलेवा हो सकती है। बोतल से दूध पिलाना, समय-पूर्व जन्म और जन्म के समय कम वज़न (<1.5 किलोग्राम) इसके होने का जोखिम बढ़ाते हैं। यह स्थिति खराब रक्त संचार और आंतों के संक्रमण के मिले-जुले असर से उत्पन्न होती है। स्तनपान और प्रोबायोटिक्स के उपयोग से एनईसी को होने से रोका जा सकता है। समय-पूर्व जन्मे लगभग 10 प्रतिशत शिशु एनईसी से ग्रसित हो जाते हैं, और प्रभावित शिशुओं में से एक चौथाई इस बीमारी के कारण दम तोड़ देते हैं। समय-पूर्व जन्मे बच्चों की आंतें पर्याप्त मात्रा में इंटरल्यूकिन-22 नामक पदार्थ नहीं बना पातीं जो हमें संक्रमण से बचाने में सहायक होता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://news.mit.edu/sites/default/files/images/202204/MIT-Lactation-Genes-01-PRESS.jpg
विटामिन डी स्वास्थ्य के लिए एक महत्वपूर्ण और आवश्यक पोषक तत्व है। यह हड्डियों को मज़बूत बनाए रखता है, मांसपेशियों के काम में मदद करता है और प्रतिरक्षा प्रणाली को भी मज़बूत करता है। विटामिन डी के निर्माण के लिए शरीर को मात्र सूरज की रोशनी चाहिए होती है। लेकिन भारत जैसे पर्याप्त धूप वाले देशों में भी लोगों में विटामिन डी की कमी है।
लेकिन जहां एक ओर धूप को इसका सबसे अच्छा स्रोत कहा जाता है, वहीं त्वचा के कैंसर से बचने के लिए धूप से बचने की सलाह भी दी जाती है। तो विटामिन डी से भरपूर चीज़ें खाने की सलाह दी जाती है, लेकिन सच तो यह है कि अधिकांश खाद्य पदार्थों में इसकी पर्याप्त मात्रा नहीं होती है। लिहाज़ा इसकी कमी को प्रभावित करने वाले कारकों को समझने के साथ यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि हमारे शरीर को पर्याप्त मात्रा में विटामिन डी कैसे मिल सकता है।
विटामिन डी का प्रमुख कार्य भोजन से कैल्शियम को अवशोषित करने में मदद करना है। यह अवशोषण प्रक्रिया हमारी हड्डियों को मज़बूत रखने में महत्वपूर्ण है। इसके अलावा यह मांसपेशियों के कार्य, तंत्रिका संचार और हानिकारक बैक्टीरिया तथा वायरस के खिलाफ हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
विटामिन डी की कमी का जोखिम कई कारकों पर निर्भर करता है। बढ़ती उम्र के साथ त्वचा विटामिन डी का उत्पादन करने में कम कुशल हो जाती है और जीवन के हर दशक में लगभग 13 प्रतिशत की गिरावट होती है। इसके अलावा गहरे रंग की त्वचा हल्के रंग की त्वचा की तुलना में विटामिन डी बनाने में लगभग 90 प्रतिशत कम कुशल होती है।
इसी तरह मोटापे से ग्रस्त लोगों को दो से तीन गुना अधिक विटामिन डी की आवश्यकता होती है। विटामिन डी शरीर की वसा कोशिकाओं में जमा होता है और मोटे लोगों में ज़्यादा वसा कोशिकाएं होती हैं। इसलिए रक्त संचार में विटामिन-डी कम मात्रा में रहता है।
गर्भवती महिलाओं, स्तनपान करने वाले शिशुओं, सीमित धूप वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों और एड्स जैसी स्थितियों को सम्भालने के लिए विशिष्ट दवाएं लेने वाले व्यक्तियों में विटामिन डी की कमी का जोखिम होता हैं। लीवर या किडनी रोग भी विटामिन डी को उसके सक्रिय रूप में बदलने में बाधा डाल सकते हैं।
विटामिन डी की कमी के कोई विशिष्ट लक्षण नहीं है इसलिए इसका पता रक्त परीक्षण से लगता है। वैसे थकान, हड्डियों में दर्द और मांसपेशियों में कमज़ोरी कुछ लक्षण बताए जाते हैं।
सूर्य का प्रकाश विटामिन डी का मुख्य स्रोत है। आम तौर पर हल्की रंग की त्वचा वाले लोगों के लिए, सप्ताह में तीन बार कम से कम 10 से 20 मिनट की धूप विटामिन डी के आवश्यक स्तर को बनाए रखने के लिए पर्याप्त मानी जाती है। इसके विपरीत, गहरे रंग की त्वचा वाले लोगों को उतना ही विटामिन डी बनाने के लिए तीन से पांच गुना अधिक समय तक धूप में रहने की आवश्यकता होती है। वैसे सबसे प्रभावी समय वह होता है, जब सूर्य ठीक सिर पर होता है। दरअसल सूर्य की यू.वी.बी किरणें विटामिन डी के उत्पादन में मदद करती हैं। सुबह और देर दोपहर और सर्दियों में (जब सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं) और अधिक समय वातावरण में बिताती हैं तो वहीं (वातावरण में) अवशोषित हो जाती हैं। कुछ अन्य कारक भी विटामिन डी के उत्पादन को प्रभावित करते हैं। एक समय में सनस्क्रीन को विटामिन डी उत्पादन में बाधा माना जाता था लेकिन हाल के अध्ययनों ने इस धारणा को खारिज कर दिया है।
लेकिन विटामिन डी के लिए मात्र सूरज की रोशनी के भरोसे नहीं रहा जा सकता क्योंकि धूप से अधिक संपर्क के साथ त्वचा कैंसर का खतरा जुड़ा है और बदलती जीवन शैली के चलते लोग अधिक समय घरों के अंदर बिताने लगे हैं।
अमेरिकन एकेडमी ऑफ डर्मेटोलॉजी ने वयस्कों को सूर्य के संपर्क या इनडोर टैनिंग के माध्यम से विटामिन डी प्राप्त करने के बजाय आहार स्रोतों का सुझाव दिया है। दुर्भाग्य से, विटामिन डी के प्राकृतिक खाद्य स्रोत दुर्लभ हैं। ट्राउट, ट्यूना, सैल्मन और मैकेरल जैसी वसायुक्त मछलियां, मछली के जिगर के तेल और यूवी-एक्सपोज़्ड मशरूम विटामिन-डी के सबसे अच्छे स्रोत हैं। इसकी कुछ मात्रा अंडे की ज़र्दी, पनीर और बीफ लीवर में पाई जाती है। यूएस, यूके और फिनलैंड सहित विभिन्न देश इस कमी को दूर करने के लिए दूध, अनाज, संतरे का रस और दही जैसे उत्पादों को विटामिन डी से समृद्ध करते हैं। लेकिन इसमें दिक्कतें हैं। जैसे, एक कप विटामिन डी युक्त दूध में आम तौर पर लगभग 3 माइक्रोग्राम विटामिन डी होता है, जबकि 70 से कम उम्र वालों के लिए 15 माइक्रोग्राम और इससे अधिक उम्र के वयस्कों के लिए 20 माइक्रोग्राम ज़रूरी है।
शरीर को पर्याप्त विटामिन डी प्रदान करने के लिए धूप, विटामिन डी से भरपूर आहार और ज़रूरत पड़ने पर पूरक आहार के बीच संतुलन बनाना होता है। जहां तक विटामिन पूरकों की बात है, इनके अधिक सेवन से बचना चाहिए। अत्यधिक विटामिन डी के सेवन से मितली, मांसपेशियों में कमज़ोरी, भ्रम, उल्टी और निर्जलीकरण जैसे लक्षण हो सकते हैं। गुर्दे की पथरी, गुर्दे का खराब होना, अनियमित धड़कन और यहां तक कि मृत्यु भी संभव है। पूरकों के विपरीत, सूर्य का संपर्क स्वाभाविक रूप से विटामिन डी उत्पादन को नियंत्रित करता है, जिससे विटामिन डी की अधिकता का खतरा नहीं रहता।
वैसे यदि आपमें विटामिन डी की कमी नहीं है, तो अधिक विटामिन डी लेने से कोई अतिरिक्त लाभ नहीं मिलेगा।(स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में एनवायरनमेंट साइंस एंड टेक्नॉलॉजी में प्रकाशित एक अभूतपूर्व अध्ययन में शोधकर्ताओं ने एक महत्वपूर्ण सवाल का जवाब प्रस्तुत किया है: किसी व्यक्ति को अत्यधिक गरीबी से बाहर निकालने के लिए कितने ‘सामान’ की आवश्यकता है। और जवाब है कि किसी व्यक्ति को सालाना लगभग 6 टन सामान लगेगा जिसमें भोजन, ईंधन, कपड़े और कई अन्य आवश्यक चीजें शामिल हैं।
यह अध्ययन ऐसे समय में काफी महत्वपूर्ण है जब संयुक्त राष्ट्र अपने सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की चुनौती से जूझ रहा है। इन लक्ष्यों में पर्यावरण की सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के साथ 2030 तक वैश्विक गरीबी उन्मूलन का लक्ष्य शामिल है। वैसे इन चर्चाओं में जीवाश्म ईंधन हावी रहते हैं लेकिन इस अध्ययन में सीमेंट, धातु, लकड़ी और अनाज जैसे कच्चे माल की भूमिका पर भी प्रकाश डाला गया है। गौरतलब है कि इनके उत्पादन और शोधन से जैव विविधता को 90 प्रतिशत हानि होती है और ये कार्बन उत्सर्जन में 23 प्रतिशत का योगदान देते हैं।
यह अध्ययन 2017 में निर्धारित बुनियादी जीवन मानकों पर आधारित है: रहने के लिए 15 वर्ग मीटर जगह, प्रतिदिन 2100 कैलोरी का सेवन, बुनियादी उपकरण, एक फोन, लैपटॉप और यातायात के साधन वगैरह।
अध्ययन में भौतिक ज़रूरतों की दो श्रेणियों पर ध्यान दिया गया: पहली श्रेणी में घर, स्कूल और बुनियादी ढांचे के निर्माण को शामिल किया गया जिसमें काफी अधिक प्रारंभिक निवेश की आवश्यकता होती है। कुल मिलाकर, ये बुनियादी संरचनाएं गरीबी में रह रहे प्रति व्यक्ति के लिए लगभग 43 टन या वैश्विक स्तर पर 51.6 अरब टन कच्चे माल की मांग करती हैं।
दूसरी श्रेणी में जीवन यापन के लिए दैनिक आवश्यक चीज़ें शामिल हैं: भोजन, शिक्षा, कामकाज जैसी दैनिक ज़रूरतें। इसकी अधिक विस्तृत गणना में फसल बायोमास, उर्वरक, कीटनाशकों और विभिन्न परिवहन साधनों को शामिल किया गया है। इन सभी डैटा को ध्यान में रखते हुए शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि अत्यंत गरीबी में रहने वाले 1.2 अरब लोगों के लिए सबसे न्यूनतम स्तर की सभ्य जीवन शैली को बनाए रखने के लिए प्रति वर्ष 7.2 अरब टन कच्चे माल की आवश्यकता होती है यानी प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष लगभग 6 टन। अध्ययन की सबसे खास और उत्साहजनक बात यह है कि 6 टन का यह आंकड़ा ग्रह को अपूरणीय क्षति पहुंचाए बिना प्राप्त किया जा सकता है।
हालांकि इसमें अभी भी एक समस्या है। इस अध्ययन में माना गया है कि वैश्विक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति समान मात्रा में कच्चे माल का उपभोग करेगा। वर्तमान स्थिति को देखा जाए तो यूएस और जर्मनी जैसे समृद्ध देशों में रहने वाले हर व्यक्ति को 70 टन प्रति वर्ष से अधिक कच्चे माल की आवश्यकता होती है। यह दुनिया भर में उचित जीवन स्तर के लिए आवश्यक 8-14 टन प्रति व्यक्ति से कहीं अधिक है। यह बात संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिहाज़ से असमानता को कम करने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है।
इतने बड़े अंतर को कम करने में अधिक कुशल उपकरणों का उपयोग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। उदाहरण के लिए, मांस की खपत को आधा करने या सार्वजनिक परिवहन का विकल्प चुनने से प्रति व्यक्ति सामग्री उपयोग में 10 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। ये निष्कर्ष पृथ्वी के स्वास्थ्य से समझौता किए बिना गरीबी को समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ने के मार्ग की एक सम्मोहक तस्वीर पेश करते हैं।(स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 2023 का भौतिकी नोबेल पुरस्कार उन प्रायोगिक विधियों के लिए दिया गया है जिनकी मदद से प्रकाश की अत्यंत अल्प अवधि (एटोसेकंड) चमक पैदा करके पदार्थ में इलेक्ट्रॉन की गतियों का अध्ययन किया जा सकता है। पुरस्कार ओहायो विश्वविद्यालय के पियरे एगोस्टिनी, मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ क्वांटम ऑप्टिक्स के फेरेंक क्राउज़, तथा लुंड विश्वविद्यालय के एन एलहुइलियर को संयुक्त रूप से दिया गया है।
इन तीन भौतिक शास्त्रियों ने वैज्ञानिकों को ऐसे औज़ार उपलब्ध कराए हैं जिनकी मदद से परमाणुओं और अणुओं के अंदर इलेक्ट्रॉन्स का बेहतर अध्ययन संभव हो जाएगा। दरअसल, अणु-परमाणु में इलेक्ट्रॉन्स की गतियां बहुत तेज़ रफ्तार से होती हैं और उनकी गति या ऊर्जा में परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए वैसे ही त्वरित अवलोकन साधन की ज़रूरत होती है। आम तौर पर इतनी तेज़ रफ्तार घटनाएं एक-दूसरे पर इस कदर व्याप्त हो जाती हैं कि उन्हें अलग-अलग देखना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, जब हम कोई फिल्म देखते हैं तो उनकी अलग-अलग तस्वीरें ऐसे घुल-मिल जाती हैं कि हमें एक निरंतर चलती तस्वीर का आभास होता है। इलेक्ट्रॉन के स्तर पर तो सब कुछ इतनी तेज़ी से होता है कि प्रत्येक परिघटना 1 एटोसेकंड के दसवें भाग में सम्पन्न हो जाती है। कहते हैं कि एक एटोसेकंड इतना छोटा होता है कि एक सेकंड में उतने ही एटोसेकंड होते हैं जितने सेकंड ब्रह्मांड की उत्पत्ति से लेकर अब तक बीते हैं।
इस वर्ष के नोबेल विजेता प्रकाश का ऐसा पल्स पैदा करने में सफल रहे हैं जो एक एटोसेकंड को नाप सकता है। इसकी मदद से हम अणु-परमाणु के अंदर चल रही प्रक्रियाओं की तस्वीरें प्राप्त कर सकते हैं।
बहरहाल उनके इस काम को वैज्ञानिक स्तर पर समझना काफी मुश्किल होगा और हमें इन्तज़ार करना होगा कि कोई भौतिक शास्त्री उसे हमारे स्तर पर समझाए। (स्रोत फीचर्स)
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इस वर्ष का कार्यिकी अथवा चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार एक निहायत उपयोगी शोध कार्य के लिए दिया गया है। यह पुरस्कार जैव रसायन शास्त्री केटेलिन केरिको और प्रतिरक्षा विज्ञानी ड्रयू वाइसमैन को उन खोजों के लिए दिया जा रहा है जिनके दम पर कोविड-19 के खिलाफ आरएनए टीके का विकास संभव हुआ।
नोबेल समिति ने बताया है कि यह टीका कम से कम 13 अरब मर्तबा दिया गया और अनुमान है कि इसने लाखों लोगों की जान बचाने के अलावा कोविड-19 के करोड़ों गंभीर मामलों की रोकथाम में भूमिका निभाई थी।
केरिको ने पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में काम करते हुए मेसेंजर आरएनए नामक जेनेटिक सामग्री (एम-आरएनए) को कोशिकाओं में पहुंचाने का तरीका खोजा था जिसकी मदद से एम-आरएनए को कोशिकाओं में पहुंचाते हुए अनावश्यक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती।
गौरतलब है कि केरिको चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित 13वीं महिला वैज्ञानिक हैं। उनका जन्म हंगरी में हुआ था लेकिन बाद में यूएस आ गई थीं।
यह तो सर्वविदित है कि मॉडर्ना और फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा संयुक्त रूप से विकसित कोविड-19 टीका उस एम-आरएनए को कोशिकाओं में पहुंचा देता है जो कोशिका में एक प्रोटीन का निर्माण करवाता है। यह प्रोटीन वही होता है जो सार्स-कोव-2 वायरस की सतह पर पाया जाता है, जिसे स्पाइक प्रोटीन कहते हैं। इस प्रोटीन की उपस्थिति की वजह से शरीर इसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने लगता है और इस तरह से प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है।
कई दशकों से एम-आरएनए आधारित टीकों के बारे में माना जाता था कि ये व्यावहारिक नहीं होंगे क्योंकि जैसे ही एम-आरएनए का इंजेक्शन दिया जाएगा, वह शरीर में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू कर देगा जो स्वयं उस एम-आरएनए को ही नष्ट कर देगी। 2000 के दशक के मध्य में केरिको और वाइसमैन ने दर्शाया था कि एक किस्म के एम-आरएनए अणु (युरिडीन) के स्थान पर उसी तरह के एक अन्य अणु (स्यूडोयुरिडीन) का उपयोग किया जाए तो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया से बचा जा सकता है। अर्थात टीके में एक किस्म के अणु की जगह दूसरे किस्म के अणु का इस्तेमाल करके कोशिका की प्रतिक्रिया को बदला जा सकता है। इसकी बदौलत एम-आरएनए द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। यानी टीके की प्रभाविता को बढ़ाया जा सकता है।
नोबेल समिति ने कहा है कि इस खोज ने चिकित्सा के क्षेत्र में एक नए अध्याय की शुरुआत कर दी है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आम धारणा के विपरीत सिर्फ उपयोगी विज्ञान ही नहीं, बुनियादी विज्ञान में निवेश भी महत्वपूर्ण है। कोविड-19 टीके की सफलता के बाद फ्लू, एचआईवी, मलेरिया और ज़िका जैसी कई बीमारियों के लिए टीके विकास के चरण में हैं। (स्रोत फीचर्स)
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बारिश के मौसम में आपने घरों के आसपास, बाग-बगीचों और खेतों में अक्सर जोंक जैसा दिखने वाला एक जीव अवश्य देखा होगा। चिपचिपे पदार्थ को अपने शरीर से स्रावित कर ज़मीन पर बेहद धीमी गति से रेंगते हुए इस जीव को देखकर अक्सर यह जिज्ञासा पैदा होती है कि आखिर ये कौन-सा अनोखा जीव है? प्राय: देखा गया है कि अधिकांश लोग अनुमान लगाते और मान लेते हैं कि यह जोंक है। क्या आपने कभी सोचा है कि वास्तव में यह कौन-सा जीव हो सकता है?
मानसून के दौरान दिखाई देने वाला ये जीव दरअसल घोंघे की एक प्रजाति है। इसे स्लग (slug) कहते हैं और हिंदी में इसे मंथर के नाम से जाना जाता है। स्लग एक अकशेरुकी जीव है जिसे जोंक समझ बैठते हैं। घोंघे के बारे में लोगों की धारणा है कि वह अपनी खोल के भीतर बंद रहता है और जिसके शरीर पर एक कठोर कवच पाया जाता है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि हमने बचपन से ही नदी, तालाबों, पोखरों जैसे जलभराव क्षेत्रों में घोंघे का यही आकार एवं स्वरूप देखा है। विज्ञान की किताबों में भी अक्सर विद्यार्थियों को कवच वाले घोंघे के बारे में ही जानकारी दी जाती है, स्लग घोंघे के बारे में नहीं। लिहाज़ा लोग जानते ही नहीं कि बिना कवच के भी कोई घोंघा हो सकता है।
स्लग धरती पर जंतुओं के दूसरे सबसे बड़े संघ मोलस्का के अन्तर्गत गैस्ट्रोपॉड वर्ग के प्राणी हैं। आर्थ्रोपॉड्स के बाद मोलस्का ही जंतुओं का दूसरा सबसे बड़ा संघ है जिसमें 85 हज़ार से भी ज़्यादा प्रजातियां शामिल हैं। सामान्य तौर पर दिखाई देने वाले कठोर कवचयुक्त घोंघे के विपरीत स्लग एक ऐसा घोंघा है जिसके शरीर पर कोई कठोर खोल अथवा कवच जैसी संरचना नहीं पाई जाती है। इसलिए इसे कवच विहीन स्थलीय घोंघा कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसे लैंड स्लग, गार्डन स्लग, लेदरलीफ स्लग आदि नामों से जाना जाता है। दुनिया भर में स्लग की हज़ारों प्रजातियां पाई जाती हैं। वैज्ञानिक शोधों के मुताबिक भारत में स्लग और स्थलीय घोंघो की 1400 से भी ज़्यादा प्रजातियां विभिन्न भौगोलिक पर्यावासों में फैली हुई हैं: पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर भारत, हिमालयी क्षेत्र वगैरह।
स्लग मुख्यत: रात में सक्रिय होते हैं। स्लग का शरीर बेहद नरम एवं मुलायम होने के साथ ही बहुत नम भी होता है। स्लग कड़ी धूप और तापमान के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं क्योंकि इन्हें अपने नरम ऊतकों के सूखने का खतरा बना रहता है। अत: अपने शरीर में नमी बनाए रखने हेतु ये ज़्यादा गर्म व शुष्क मौसम से बचने का प्रयास करते हैं। शरीर की नमी सूखने ना पाए, इसलिए ये पेड़ की छाल, पत्तियों के ढेर और ज़मीन पर गिरी लकड़ी जैसी जगहों पर छिप जाते हैं। यही कारण है कि स्लग वर्षा ऋतु में ही बाग-बगीचों, नर्सरी और खेतों की नम भूमि तथा पौधों पर दिखाई देते हैं। स्लग के सिर के अग्रभाग पर दो जोड़ी स्पर्शिकाएं पाई जाती हैं। ये स्पर्शिकाएं स्लग को गंध एवं प्रकाश का अनुमान लगाने में मदद करती हैं।
स्लग प्राय: काले, भूरे, हरे, पीले और स्लेटी रंगों में देखने को मिलते हैं। स्लग का प्रजनन काल मुख्यत: बारिश के मौसम में शुरू होता है। इनकी प्रजनन गतिविधियां भरपूर नमी और उच्च आर्द्रता वाले मौसम पर निर्भर करती हैं। यही कारण है कि मानसून के दौरान उच्च आर्द्रता वाले मौसम में प्रजनन के उपरांत इनकी संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी देखी जाती है। स्लग एक बार में औसतन 30-40 अंडे देते हैं। कुछ प्रजातियां एक बार में 80 से भी ज़्यादा अंडे दे सकती हैं।
ज़मीन पर चलते हुए ये अपने शरीर से एक बेहद चिपचिपा सा तरल पदार्थ छोड़ते जाते हैं जिस कारण से देखने में ये घिनौने प्रतीत होते हैं। दरअसल इस चिपचिपे द्रव से इन्हें ज़मीन की उबड़-खाबड़ सतह पर चलने में मदद मिलती है। इसी चिपचिपे पदार्थ की मदद से ये पौधों की टहनियों और पत्तियों पर भी बड़ी आसानी चलते जाते हैं। यह चिपचिपा पदार्थ शिकारियों से सुरक्षा करने में भी इनकी सहायता करता है।
स्लग का आहार वनस्पतियां और फफूंद हैं। स्लग पौधों की पत्तियां, बीजांकुर, कुकुरमुत्ते, फफूंद, सब्जि़यां, फल आदि खाते हैं। खतरा महसूस होने पर स्लग अपने बेहद लचीले शरीर को सिकोड़कर गोल और स्थिर कर लेते हैं। काले और भूरे रंगों वाले स्लग स्थिर एवं संकुचित अवस्था में आलू के छिलके की तरह दिखाई देते हैं इसलिए कभी-कभी इनके शिकारी और इंसान भी गच्चा खा जाते हैं।
स्लग पारिस्थितिकी तंत्र में भी अहम भूमिका निभाते हैं। वातावरण के प्रति बेहद संवेदनशील होने के कारण ये बदलते मौसम एवं जलवायु के प्राकृतिक संकेतक हैं। स्लग प्राकृतिक खाद्य शृंखला के भी महत्वपूर्ण घटक हैं। कई प्रजाति के पक्षियों, सांपों, छिपकलियों, छोटे स्तनपायी जीवों एवं कुछ अकशेरुकी जंतुओं के लिए भी स्लग मुख्य आहार हैं। स्लग वातावरण से सड़ी-गली वनस्पतियों, कवकों तथा मृत कीटों के अवशेषों का भी सफाया करते हैं और पर्यावरण में पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण करते हैं। स्लग कई जंगली प्रजाति के जीवों को मैग्नीशियम, पोटेशियम और कैल्शियम जैसे पोषक तत्व उपलब्ध करवाते हैं।
हालांकि स्लग की पर्यावरण में महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन इनकी कई प्रजातियां आज कृषि एवं बागवानी के लिए बेहद हानिकारक कीट के रूप में गिनी जाती हैं। पिछले कुछ दशकों से स्लग दुनिया भर के सैकड़ों देशों में आक्रामक प्रजाति के तौर पर व्यापक रूप से फैल गए हैं जो अंकुरित पौधों, पत्तियों, फल-फूलों और सब्जि़यों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और आयात-निर्यात जैसी आर्थिक गतिविधियों के चलते स्लग की कई प्रजातियां अपने मूल स्थान से अन्य भौगोलिक क्षेत्रों में पहुंचकर वहां की स्थानीय जैव विविधता के लिए खतरा पैदा कर रही हैं। ज़ाहिर है जब वनस्पति या जीव-जंतु की कोई भी प्रजाति अपने मूल स्थान से नए क्षेत्रों में पहुंच जाए तो वे या तो उस वातावरण में जीवित नहीं रह पाती, या यदि किसी तरह उस नए वातावरण में ढल जाती हैं और वहां की स्थानीय प्रजातियों से प्रतिस्पर्धा करने लगती है जिस कारण पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन पैदा होना स्वाभाविक है। लैंटाना और गाजर घास इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। स्लग की भी कई प्रजातियां एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप में पहुंचकर आज कृषि एवं पर्यावरण के लिए हानिकारक साबित हो रही हैं। स्लग नए पारिस्थितिकी क्षेत्रों में इसलिए भी तेज़ी से फलते-फूलते हैं क्योंकि नई जगह पर उनका कोई बड़ा शिकारी नहीं होता।
स्लग पौधे के समस्त हिस्सों का उपभोग करते हैं। ये पत्तियों के बीच वाले भाग में छेद कर देते हैं और किनारे वाले भागों को कुतर देते हैं जिससे पौधे सूख जाते हैं। स्लग पौधों को तेज़ी से चट करते हैं जिसके चलते वनस्पतियों की कई प्रजातियों में काफी गिरावट आती है। यहां तक कि कई पौधों की प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर भी पहुंच जाती हैं और उन वनस्पतियों पर निर्भर जीव-जंतुओं का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाता है। स्लग द्वारा स्रावित चिपचिपा पदार्थ भी पौधों की संरचना को नुकसान पहुंचाता है।
भारत में स्लग की तकरीबन 15 प्रजातियां गंभीर कृषि कीट के रूप में पहचानी गईं हैं जिनमें से कॉमन गार्डन स्लग या लेदरलीफ स्लग (लेविकौलिस अल्टे) और ब्राउन गार्डन स्लग (फीलिकौलिस अल्टे) लगभग पूरे देश में फैली हैं। पश्चिम बंगाल में मार्श स्लग (डेरोसिरास लीवे) एक नई खोजी गई आक्रामक स्लग प्रजाति है। आज कॉमन गार्डन स्लग भारत सहित दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया के कई देशों में तेज़ी से फैल रहे हैं। भारत में कई सब्ज़ियों और फूलों को तेज़ी से नुकसान पहुंचाते देखा गया है। ये स्लग नर्सरी में सुगंधित एवं औषधीय पौधों के लिए अत्यन्त हानिकारक है। इसी तरह ब्राउन गार्डन स्लग मूली, बंदगोभी, ब्रोकोली और पत्तागोभी को नष्ट करता है। दक्षिण भारत में यह कॉफी, रबर, ताड़, केला और काली मिर्च के पौधों के लिए अत्यन्त नुकसानदायक है। अफ्रीका का मूल निवासी कैटरपिलर स्लग भारत में हाल में ही नई आक्रामक प्रजाति के रूप में रिपोर्ट किया गया है। एक अनुमान के मुताबिक कैटरपिलर स्लग के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रतिवर्ष 26 अरब डॉलर का घाटा होता है। लेविकौलिस हेराल्डी नामक एक नई विदेशी स्लग प्रजाति महाराष्ट्र में पहचानी गई है।
कई देशों में इन हानिकारक स्लग प्रजातियों को नियंत्रित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। आम तौर पर किसान अपने खेतों में स्लग की बढ़ती आबादी को रोकने हेतु नमक का छिड़काव करते हैं जो उनके शरीर की नमी को सोख लेता है लेकिन इससे मिट्टी के क्षारीय एवं लवणीय होने का खतरा है। स्लग प्राय: शुष्क जगहों से बचने का प्रयास करते हैं इसीलिए किसानों द्वारा इन्हें नियंत्रित करने के लिए सूखी राख का भी प्रयोग किया जाता है। साल में दो बार खेतों की गहरी जुताई करना भी स्लग से छुटकारा पाने का पर्यावरण अनुकूल तरीका है। जुताई से मिट्टी में मौजूद स्लग के अंडे नष्ट हो जाते हैं या मिट्टी से बाहर आकर शिकारियों द्वारा खा लिए जाते हैं। खेतों-क्यारियों की समय-समय पर निंदाई-गुड़ाई करते रहना भी स्लग को रोकने का एक कारगर उपाय है क्योंकि इससे स्लग के अंडे और स्लग को पोषण तथा आश्रय देने वाले खरपतवार पौधे नष्ट हो जाते हैं। कॉपर सल्फेट और ऑयरन फास्फेट भी स्लग को नष्ट करने में मददगार साबित हुए हैं।
स्लग नियंत्रण के उपायों में कृषि भूमि के आसपास पक्षियों एवं सांपो का संरक्षण शामिल करना होगा क्योंकि ये जंतु इनके प्राकृतिक शिकारी हैं और इनकी बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाने में सक्षम हैं। कुछ किसानों और बागवानों द्वारा इन्हें हाथ से पकड़कर दूर किया जाता है जो एक सार्थक प्रयास है।
वास्तव में देखा जाए तो मानव द्वारा पर्यावरण एवं जैव विविधता को नुकसान पहुंचाने के चलते ही स्लग की कुछ प्रजातियां कृषि और बागवानी के लिए हानिकारक साबित हुई हैं। हम मनुष्यों ने विदेशी पौधों एवं वन्य जीवों को दूसरे देशों से आयात किया और साथ में इन आक्रामक प्रजातियों को भी अपने खेतों तक पहुंचा दिया। किसानों द्वारा पक्षियों और सांपों को कीटनाशकों का उपयोग कर मार दिया गया जो स्लग के प्राकृतिक नियंत्रणकर्ता थे। कहीं ऐसा ना हो कि एक दिन स्लग हमारी खेती और अर्थव्यवस्था को चौपट कर दें। सरकार द्वारा प्रशिक्षण एवं जागरूकता कार्यक्रम आयोजित कर किसानों को स्लग के भावी खतरे के प्रति सचेत करना होगा। बंदरगाहों एवं हवाई अड्डों पर बाहरी देशों से आयातित वस्तुओं का निरीक्षण कर देश में विदेशी स्लग प्रजातियों के घुसपैठ को रोका जा सकता है। अत: इस बारे में नियम-कायदे बनाने चाहिए। स्लग पारिस्थितिकी तंत्र में मुख्य भूमिका निभाते हैं और वो भी इसी पर्यावरण के अभिन्न अंग है लेकिन जब वो मानवीय गतिविधियों के चलते अपने मूल भौगोलिक क्षेत्र से भटक जाते हैं, तब नए परितंत्र में वे कृषि एवं जैव विविधता के लिए संकट खड़ा करते हैं। आज ज़रूरत है कि हम खुद पर्यावरण के प्रति सचेत हों ताकि मानव, जैव विविधता एवं प्रकृति के बीच संतुलन बना रहे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.collinsdictionary.com/images/full/slug_38280988.jpg
शिकारियों से बचने या शिकार करने के लिए कई सारे जीव तरह-तरह से रूप बदलते हैं। इसी क्रम में शोधकर्ताओं ने रोव बीटल की एक नई प्रजाति की खोज की है जो वास्तविक दीमकों को मूर्ख बनाने के लिए अपनी पीठ पर दीमक की प्रतिकृति विकसित कर लेती है। यह प्रतिकृति इतनी सटीक होती है कि इसमें दीमकों के शरीर के विभिन्न हिस्से भी दिखाई देते हैं: इसमें तीन जोड़ी छद्म उपांग भी होते हैं जो वास्तविक दीमकों के स्पर्शक और टांगों जैसे लगते हैं।
जीव जगत में स्टेफायलिनिडे कुल की रोव बीटल्स वेष बदल कर छलने के लिए मशहूर हैं। मसलन, उनकी कुछ प्रजातियां सैनिक चींटियों की तरह वेश बदलकर उनके साथ-साथ चलती हैं और उनके अंडे और बच्चों को खा जाती हैं।
ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी क्षेत्र में मिट्टी के नीचे पाई जाने वाली रोव बीटल की नई प्रजाति, ऑस्ट्रोस्पाइरेक्टा कैरिजोई, अपने उदर को बड़ा करके दीमक की नकल करती है। इसे फिज़ियोगैस्ट्री कहा जाता है। ज़ुओटैक्सा नामक पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि विकास ने इन बीटल्स के शरीर के ऊपरी हिस्से पर दीमक के समान सिर व बाकी सभी अंग, विकसित कर दिए हैं। बीटल का असली, बहुत छोटा सिर उसके छद्म वेश के नीचे छिपा रहता है।
इस छलावरण से बीटल दीमकों के समूह में पहचाने जाने से बच जाती हैं – हालांकि दीमक अंधी होती हैं, वे एक-दूसरे को स्पर्श से पहचानती हैं। दीमकों जैसी आकृति दीमक होने का ही एहसास देती है। दीमकों के समूह में जाकर ये बीटल उनका अद्वितीय उपचर्मीय हाइड्रोकार्बन मिश्रण भी सोख लेते हैं या इसी तरह के यौगिक स्वयं बनाने लगते हैं ताकि ऐसा पक्के में लगने लगे कि वे दीमक ही हैं।
चूंकि ए. कैरिजोई का मुंह छोटा होता है, इसलिए शोधकर्ताओं को लगता है कि वे दीमकों के अंडे या लार्वा खाने की बजाय उनसे भोजन मांगते हैं। श्रमिक दीमक भोजन के आदान-प्रदान (ट्रोफालैक्सिस) द्वारा भोजन या अन्य तरल अपने साथियों को खिलाते हैं। बीटल के इस छलावरण का मंतव्य साफ है, बस दीमक बनकर उनके समूह में बस जाओ और आराम से भोजन पाओ।(स्रोत फीचर्स)
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मिट्टी में रहने वाले कृमि एलोडिप्लोगैस्टर सुडौसी वैसे भी दैत्य के तौर पर जाने जाते हैं। साइज़ में ये अन्य सम्बंधित जीवों से लगभग दुगने बड़े होते हैं। लेकिन शोधकर्ताओं ने बायोआर्काइव्स प्रीप्रिंट में बताया है कि भूखे होने पर तो ये वास्तव में हैवान बन जाते हैं। इनका मुंह बड़ा हो जाता है और ये तेज़ी से अपने साथियों को खाने लगते हैं।
अन्य नेमेटोड कृमियों में देखा गया था कि जब उन्हें बैक्टीरिया खाने को दिए जाते हैं तो उनका मुंह छोटा ही रहता है, और अन्य कीटों को खाने में उनकी कोई रुचि नहीं होती है। लेकिन जब उन्हें खाने के लिए अन्य कृमियों के लार्वा दिए जाते हैं तो उनका मुंह बड़ा हो जाता है और वे अपने बाकी साथियों को खाने लगते हैं, अपनी संतानों को छोड़कर।
हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ए. सुडौसी में इसी क्रम को दोहराने का प्रयास किया था। इसके लिए उन्होंने इन कृमियों को विभिन्न तरह के खाद्य पदार्थ खाने को दिए। लेकिन जब उन्होंने इन कृमियों को एक फफूंद (पेनिसिलियम कैमेम्बर्टी) खिलाई, जिसका उपयोग विभिन्न चीज़ (cheese) बनाने में किया जाता है, तो इसे खाकर इन कृमियों का मुंह बड़ा हो गया।
अन्य कृमियों में ऐसा नहीं होता। शोधकर्ताओं का ख्याल है कि ऐसा करने में ए. सुडौसी को उनके जीन की अतिरिक्त जोड़ी ने सक्षम बनाया है। मुंह बड़ा होना उनमें तनाव के प्रति प्रतिक्रिया हो सकती है। ऐसा लगता है कि पेनिसिलियम कैमेम्बर्टी इन कृमियों को पर्याप्त पोषण नहीं देती है और स्वजाति भक्षण की यह क्षमता पोषण की क्षतिपूर्ति में उनकी मदद करती है। यानी बड़े जबड़े और मुंह के साथ इनमें से कम से कम कुछ कृमि तो उन परिस्थितियों में जीवित बच सकते हैं, जब अन्य नेमेटोड भूखे मर जाएंगे।(स्रोत फीचर्स)
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लगभग पांच लाख साल पहले मध्य अफ्रीका के प्राचीन मनुष्यों ने पेड़ों को काटकर खुदाई के औज़ार, फच्चर और अन्य चीज़ें बनाई थीं। 1950-60 के दशक में ज़ाम्बिया के कलाम्बो फॉल्स नामक पुरातात्विक स्थल पर खुदाई के दौरान लकड़ी की ऐसी वस्तु मिली थी जो किसी बड़े ढांचे का हिस्सा लगती थी। लेकिन तब यह पता नहीं चल पाया था कि यह कितनी पुरानी है, इसे किसने बनाया था, और ना ही यह समझ आया था कि वह पूरा ढांचा क्या रहा होगा। लेकिन हो सकता है कि यह एक चौपाल था, या आश्रय था, या कुछ और।
ढांचा चाहे जो रहा हो लेकिन नेचर पत्रिका की एक रिपोर्ट बताती है कि हमसे बहुत पहले अस्तित्व में रहे होमिनिन लोग लकड़ी का काम कर रहे थे, शायद होमो सेपिएन्स के आगमन से एक लाख साल पहले।
युनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल के पुरातत्वविद लैरी बरहैम और उनकी टीम ने 2000 के दशक में आधुनिक तकनीकों के साथ पुन: इस स्थल पर खुदाई शुरू की। हालांकि वे लकड़ी के औज़ारों का विश्लेषण करने की मंशा से नहीं बल्कि पत्थर के औज़ार खोजने गए थे। बहरहाल, खुदाई में उन्हें लकड़ी के कई ऐसे टुकड़े मिले जिन्हें, लगता था कि तराशा गया है। साथ ही उन्हें लकड़ी का एक 1.4 मीटर लंबा लट्ठा भी मिला, जिसके सिरे संकरे थे और सिरों को एक ओर से काट-छील कर एक खांचा बनाया गया था, जिस पर एक अन्य बड़ी लकड़ी टिकी हुई थी।
वहां मिली कई लकड़ी की वस्तुओं पर इरादतन तराशने के निशान मिले थे (जैसे खुरचने के)। ये निशान वैसे ही थे जैसे होमो सेपियन्स द्वारा उपयोग किए जाने वाले अन्य जल-जमाव वाले स्थानों पर मिली लकड़ी की वस्तुओं पर मिले थे। इनमें से एक छोटी लकड़ी ऐसी लग रही थी जैसे वह खुदाई के लिए हो; दूसरी फच्चरनुमा आकृति लग रही थी।
लेकिन खुदाई में मिलीं लकड़ी की दो बड़ी वस्तुएं क्या होंगी यह अस्पष्ट था। ये काष्ठकृतियां कुछ लिंकन लॉग्स खिलौने जैसी थीं जिनके सिरों पर चौड़े खांचे होते हैं, जिनके ज़रिए उन्हें एक-दूसरे में लंबवत फंसाया जा सकता है। बरहैम का कहना है कि खुदाई में मिली लकड़ियों पर खांचे भी शायद इसी उद्देश्य से बनाए गए होंगे। शायद वे मछली पकड़ने के लिए मचान बना रहे होंगे या कोई ऊंचा रास्ता या आश्रय स्थल बना रहे होंगे। फिलहाल ये सिर्फ अनुमान हैं, और सामग्री मिले तो बेहतर अनुमान लगाए जा सकेंगे।
ल्यूमिनिसेंस डेटिंग से पता चलता है कि ये बड़ी लकड़ियां कम से कम 4,76,000 वर्ष पुरानी हैं, और कुछ छोटे औज़ार इनसे थोड़ बाद के हैं। हालांकि कलाम्बो फॉल्स में होमिनिन के कोई अवशेष नहीं मिले हैं, लेकिन एक अन्य स्थल से तीन लाख साल पुरानी एक खोपड़ी मिली है जिसकी पहचान होमो हाईडलबरजेंसिस के रूप में की गई है।
वैसे अन्य पुरातत्वविदों को होमिनिन द्वारा काष्ठकारी पर अचरज नहीं हुआ है। इसी समय के आसपास, अफ्रीका और दुनिया के अन्य हिस्सों से लकड़ी पर जुड़े पत्थर के औज़ार मिले हैं। इस स्थल की और अधिक खुदाई से यह भी पता चल सकता है कि क्या लकड़ी का परिरक्षण किया जाता था।(स्रोत फीचर्स)
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जर्मनी के बावेरियन पर्वत के इलाके में जंगली सुअर इतने रेडियोसक्रिय हैं कि उन्हें भोजन की दृष्टि से असुरक्षित घोषित कर दिया गया है। लेकिन इनमें यह रेडियोसक्रियता आई कहां से? एंवायर्मेंटल साइन्स एंड टेक्नॉलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने बताया है कि इनके शरीर में यह रेडियोसक्रियता उन परमाणु परीक्षणों का परिणाम है जो आज से 60 साल पहले हुए थे। परमाणु हथियारों के परीक्षण के पर्यावरणीय व स्वास्थ्य सम्बंधी असर का अध्ययन बहुत कम किया गया है और प्राय: इन्हें भुला दिया गया है।
बावेरिया के जंगली सुअरों में रेडियोसक्रियता के इतने लंबे समय तक बने रहने का दोष अक्सर 1986 की चेर्नोबिल दुर्घटना को दे दिया जाता है। गौरतलब है कि चेर्नोबिल इस इलाके से करीब 1300 किलोमीटर दूर है। दुर्घटना के फौरन बाद रेडियोसक्रिय पदार्थ वातावरण में फैला और बावेरिया व अन्यत्र जंगली जानवरों में रेडियोसक्रिय सीज़ियम पहुंच गया। समय के साथ अधिकांश जानवरों में तो रेडियोसक्रियता कम होती गई लेकिन जंगली सुअरों में नहीं। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसका कारण यह है कि ये जंगली सुअर ट्रुफल मशरूम (कुकुरमुत्ते) खाना बहुत पसंद करते हैं। रेडियोसक्रिय कण मिट्टी में रिसते हैं और फिर मशरूम में संग्रहित होते रहते हैं। ये जंगली सुअर इन्हीं रेडियोधर्मी मशरूम को खाते हैं।
लेकिन इस कथानक को लेकर कई लोगों को संदेह था। उन्हें लगता था कि शायद चेर्नोबिल हादसा जंगली सुअरों में पाई गई उच्च रेडियोसक्रियता की पूरी व्याख्या नहीं कर सकता। लीबनिज़ विश्वविद्यालय के रेडियो-पारिस्थितिकीविद बिन फेंग का ख्याल था कि, हो न हो, ये जानवर उन परमाणु शस्त्र परीक्षणों के परोक्ष शिकार हैं, जो 1960 के दशक में अपने चरम पर थे। शीत युद्ध के दौरान दुनिया भर में 5000 से ज़्यादा परमाणु बमों का परीक्षण किया गया था और इनमें से 500 तो सीधे वातावरण में फोड़े गए थे। इनसे जो रेडियोधर्मी कण फैले वे अंतत: वापिस धरती पर पहुंचे थे। उपरोक्त अध्ययन के एक अन्य शोधकर्ता जॉर्ज स्टाइनहौसर का कहना है कि आज ये कण मिट्टी में सर्वत्र मौजूद हैं।
फेंग और उनके साथियों ने शिकारियों के साथ काम करते हुए इस इलाके के 48 सुअरों का मांस इकट्ठा किया और उनमें रोडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर नापा। पाया गया कि 88 प्रतिशत नमूने खाने के अयोग्य हैं।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने इन नमूनों में समस्थानिकों की छानबीन की। उनकी दिलचस्पी खास तौर से दो समस्थानिकों में थी – सीज़ियम-137 और सीज़ियम-135। इनका अनुपात रेडियोसक्रियता के स्रोत के अनुसार अलग-अलग होता है – यानी इनका अनुपात इस बात पर निर्भर करता है कि यह रेडियोसक्रियता किसी परमाणु बिजलीघर से आई है या परमाणु विस्फोट से आई है।
शोधकर्ताओं ने अध्ययन से निष्कर्ष निकाला कि सारे सुअरों के मांस में रोडियोसक्रियता चेर्नोबिल और परमाणु हथियारों का मिला-जुला परिणाम है। परमाणु विस्फोटों से आई रेडियोसक्रियता का अंश काफी अलग-अलग था – 10 से 99 प्रतिशत तक। कम से कम एक-चौथाई सुअरों में परमाणु बमों की वजह से ही इतनी रेडियोसक्रियता आई है कि वे खाने योग्य नहीं रह गए हैं। इतने वर्षों तक रेडियोसक्रियता के टिके रहने का कारण यह हो कि जंगल की मिट्टी में कणों के नीचे बैठने की रफ्तार कम होती है।
रेडियोसक्रियता के टिके रहने के अन्य परिणाम भी हो सकते हैं। जैसे, इस इलाके में जंगली सुअर के मांस की खपत काफी कम हो गई है। यदि खपत कम होगी तो शिकारी इन्हें पकड़ेंगे नहीं। इस तरह इनकी आबादी बेलगाम ढंग से बढ़ने का खतरा है, जिसका असर जंगल की पारिस्थितिकी पर भी होगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://d.newsweek.com/en/full/2142199/atomic-bomb-pig-looking.jpg