बारिश के मौसम में आपने घरों के आसपास, बाग-बगीचों और खेतों में अक्सर जोंक जैसा दिखने वाला एक जीव अवश्य देखा होगा। चिपचिपे पदार्थ को अपने शरीर से स्रावित कर ज़मीन पर बेहद धीमी गति से रेंगते हुए इस जीव को देखकर अक्सर यह जिज्ञासा पैदा होती है कि आखिर ये कौन-सा अनोखा जीव है? प्राय: देखा गया है कि अधिकांश लोग अनुमान लगाते और मान लेते हैं कि यह जोंक है। क्या आपने कभी सोचा है कि वास्तव में यह कौन-सा जीव हो सकता है?
मानसून के दौरान दिखाई देने वाला ये जीव दरअसल घोंघे की एक प्रजाति है। इसे स्लग (slug) कहते हैं और हिंदी में इसे मंथर के नाम से जाना जाता है। स्लग एक अकशेरुकी जीव है जिसे जोंक समझ बैठते हैं। घोंघे के बारे में लोगों की धारणा है कि वह अपनी खोल के भीतर बंद रहता है और जिसके शरीर पर एक कठोर कवच पाया जाता है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि हमने बचपन से ही नदी, तालाबों, पोखरों जैसे जलभराव क्षेत्रों में घोंघे का यही आकार एवं स्वरूप देखा है। विज्ञान की किताबों में भी अक्सर विद्यार्थियों को कवच वाले घोंघे के बारे में ही जानकारी दी जाती है, स्लग घोंघे के बारे में नहीं। लिहाज़ा लोग जानते ही नहीं कि बिना कवच के भी कोई घोंघा हो सकता है।
स्लग धरती पर जंतुओं के दूसरे सबसे बड़े संघ मोलस्का के अन्तर्गत गैस्ट्रोपॉड वर्ग के प्राणी हैं। आर्थ्रोपॉड्स के बाद मोलस्का ही जंतुओं का दूसरा सबसे बड़ा संघ है जिसमें 85 हज़ार से भी ज़्यादा प्रजातियां शामिल हैं। सामान्य तौर पर दिखाई देने वाले कठोर कवचयुक्त घोंघे के विपरीत स्लग एक ऐसा घोंघा है जिसके शरीर पर कोई कठोर खोल अथवा कवच जैसी संरचना नहीं पाई जाती है। इसलिए इसे कवच विहीन स्थलीय घोंघा कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसे लैंड स्लग, गार्डन स्लग, लेदरलीफ स्लग आदि नामों से जाना जाता है। दुनिया भर में स्लग की हज़ारों प्रजातियां पाई जाती हैं। वैज्ञानिक शोधों के मुताबिक भारत में स्लग और स्थलीय घोंघो की 1400 से भी ज़्यादा प्रजातियां विभिन्न भौगोलिक पर्यावासों में फैली हुई हैं: पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर भारत, हिमालयी क्षेत्र वगैरह।
स्लग मुख्यत: रात में सक्रिय होते हैं। स्लग का शरीर बेहद नरम एवं मुलायम होने के साथ ही बहुत नम भी होता है। स्लग कड़ी धूप और तापमान के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं क्योंकि इन्हें अपने नरम ऊतकों के सूखने का खतरा बना रहता है। अत: अपने शरीर में नमी बनाए रखने हेतु ये ज़्यादा गर्म व शुष्क मौसम से बचने का प्रयास करते हैं। शरीर की नमी सूखने ना पाए, इसलिए ये पेड़ की छाल, पत्तियों के ढेर और ज़मीन पर गिरी लकड़ी जैसी जगहों पर छिप जाते हैं। यही कारण है कि स्लग वर्षा ऋतु में ही बाग-बगीचों, नर्सरी और खेतों की नम भूमि तथा पौधों पर दिखाई देते हैं। स्लग के सिर के अग्रभाग पर दो जोड़ी स्पर्शिकाएं पाई जाती हैं। ये स्पर्शिकाएं स्लग को गंध एवं प्रकाश का अनुमान लगाने में मदद करती हैं।
स्लग प्राय: काले, भूरे, हरे, पीले और स्लेटी रंगों में देखने को मिलते हैं। स्लग का प्रजनन काल मुख्यत: बारिश के मौसम में शुरू होता है। इनकी प्रजनन गतिविधियां भरपूर नमी और उच्च आर्द्रता वाले मौसम पर निर्भर करती हैं। यही कारण है कि मानसून के दौरान उच्च आर्द्रता वाले मौसम में प्रजनन के उपरांत इनकी संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी देखी जाती है। स्लग एक बार में औसतन 30-40 अंडे देते हैं। कुछ प्रजातियां एक बार में 80 से भी ज़्यादा अंडे दे सकती हैं।
ज़मीन पर चलते हुए ये अपने शरीर से एक बेहद चिपचिपा सा तरल पदार्थ छोड़ते जाते हैं जिस कारण से देखने में ये घिनौने प्रतीत होते हैं। दरअसल इस चिपचिपे द्रव से इन्हें ज़मीन की उबड़-खाबड़ सतह पर चलने में मदद मिलती है। इसी चिपचिपे पदार्थ की मदद से ये पौधों की टहनियों और पत्तियों पर भी बड़ी आसानी चलते जाते हैं। यह चिपचिपा पदार्थ शिकारियों से सुरक्षा करने में भी इनकी सहायता करता है।
स्लग का आहार वनस्पतियां और फफूंद हैं। स्लग पौधों की पत्तियां, बीजांकुर, कुकुरमुत्ते, फफूंद, सब्जि़यां, फल आदि खाते हैं। खतरा महसूस होने पर स्लग अपने बेहद लचीले शरीर को सिकोड़कर गोल और स्थिर कर लेते हैं। काले और भूरे रंगों वाले स्लग स्थिर एवं संकुचित अवस्था में आलू के छिलके की तरह दिखाई देते हैं इसलिए कभी-कभी इनके शिकारी और इंसान भी गच्चा खा जाते हैं।
स्लग पारिस्थितिकी तंत्र में भी अहम भूमिका निभाते हैं। वातावरण के प्रति बेहद संवेदनशील होने के कारण ये बदलते मौसम एवं जलवायु के प्राकृतिक संकेतक हैं। स्लग प्राकृतिक खाद्य शृंखला के भी महत्वपूर्ण घटक हैं। कई प्रजाति के पक्षियों, सांपों, छिपकलियों, छोटे स्तनपायी जीवों एवं कुछ अकशेरुकी जंतुओं के लिए भी स्लग मुख्य आहार हैं। स्लग वातावरण से सड़ी-गली वनस्पतियों, कवकों तथा मृत कीटों के अवशेषों का भी सफाया करते हैं और पर्यावरण में पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण करते हैं। स्लग कई जंगली प्रजाति के जीवों को मैग्नीशियम, पोटेशियम और कैल्शियम जैसे पोषक तत्व उपलब्ध करवाते हैं।
हालांकि स्लग की पर्यावरण में महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन इनकी कई प्रजातियां आज कृषि एवं बागवानी के लिए बेहद हानिकारक कीट के रूप में गिनी जाती हैं। पिछले कुछ दशकों से स्लग दुनिया भर के सैकड़ों देशों में आक्रामक प्रजाति के तौर पर व्यापक रूप से फैल गए हैं जो अंकुरित पौधों, पत्तियों, फल-फूलों और सब्जि़यों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और आयात-निर्यात जैसी आर्थिक गतिविधियों के चलते स्लग की कई प्रजातियां अपने मूल स्थान से अन्य भौगोलिक क्षेत्रों में पहुंचकर वहां की स्थानीय जैव विविधता के लिए खतरा पैदा कर रही हैं। ज़ाहिर है जब वनस्पति या जीव-जंतु की कोई भी प्रजाति अपने मूल स्थान से नए क्षेत्रों में पहुंच जाए तो वे या तो उस वातावरण में जीवित नहीं रह पाती, या यदि किसी तरह उस नए वातावरण में ढल जाती हैं और वहां की स्थानीय प्रजातियों से प्रतिस्पर्धा करने लगती है जिस कारण पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन पैदा होना स्वाभाविक है। लैंटाना और गाजर घास इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। स्लग की भी कई प्रजातियां एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप में पहुंचकर आज कृषि एवं पर्यावरण के लिए हानिकारक साबित हो रही हैं। स्लग नए पारिस्थितिकी क्षेत्रों में इसलिए भी तेज़ी से फलते-फूलते हैं क्योंकि नई जगह पर उनका कोई बड़ा शिकारी नहीं होता।
स्लग पौधे के समस्त हिस्सों का उपभोग करते हैं। ये पत्तियों के बीच वाले भाग में छेद कर देते हैं और किनारे वाले भागों को कुतर देते हैं जिससे पौधे सूख जाते हैं। स्लग पौधों को तेज़ी से चट करते हैं जिसके चलते वनस्पतियों की कई प्रजातियों में काफी गिरावट आती है। यहां तक कि कई पौधों की प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर भी पहुंच जाती हैं और उन वनस्पतियों पर निर्भर जीव-जंतुओं का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाता है। स्लग द्वारा स्रावित चिपचिपा पदार्थ भी पौधों की संरचना को नुकसान पहुंचाता है।
भारत में स्लग की तकरीबन 15 प्रजातियां गंभीर कृषि कीट के रूप में पहचानी गईं हैं जिनमें से कॉमन गार्डन स्लग या लेदरलीफ स्लग (लेविकौलिस अल्टे) और ब्राउन गार्डन स्लग (फीलिकौलिस अल्टे) लगभग पूरे देश में फैली हैं। पश्चिम बंगाल में मार्श स्लग (डेरोसिरास लीवे) एक नई खोजी गई आक्रामक स्लग प्रजाति है। आज कॉमन गार्डन स्लग भारत सहित दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया के कई देशों में तेज़ी से फैल रहे हैं। भारत में कई सब्ज़ियों और फूलों को तेज़ी से नुकसान पहुंचाते देखा गया है। ये स्लग नर्सरी में सुगंधित एवं औषधीय पौधों के लिए अत्यन्त हानिकारक है। इसी तरह ब्राउन गार्डन स्लग मूली, बंदगोभी, ब्रोकोली और पत्तागोभी को नष्ट करता है। दक्षिण भारत में यह कॉफी, रबर, ताड़, केला और काली मिर्च के पौधों के लिए अत्यन्त नुकसानदायक है। अफ्रीका का मूल निवासी कैटरपिलर स्लग भारत में हाल में ही नई आक्रामक प्रजाति के रूप में रिपोर्ट किया गया है। एक अनुमान के मुताबिक कैटरपिलर स्लग के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रतिवर्ष 26 अरब डॉलर का घाटा होता है। लेविकौलिस हेराल्डी नामक एक नई विदेशी स्लग प्रजाति महाराष्ट्र में पहचानी गई है।
कई देशों में इन हानिकारक स्लग प्रजातियों को नियंत्रित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। आम तौर पर किसान अपने खेतों में स्लग की बढ़ती आबादी को रोकने हेतु नमक का छिड़काव करते हैं जो उनके शरीर की नमी को सोख लेता है लेकिन इससे मिट्टी के क्षारीय एवं लवणीय होने का खतरा है। स्लग प्राय: शुष्क जगहों से बचने का प्रयास करते हैं इसीलिए किसानों द्वारा इन्हें नियंत्रित करने के लिए सूखी राख का भी प्रयोग किया जाता है। साल में दो बार खेतों की गहरी जुताई करना भी स्लग से छुटकारा पाने का पर्यावरण अनुकूल तरीका है। जुताई से मिट्टी में मौजूद स्लग के अंडे नष्ट हो जाते हैं या मिट्टी से बाहर आकर शिकारियों द्वारा खा लिए जाते हैं। खेतों-क्यारियों की समय-समय पर निंदाई-गुड़ाई करते रहना भी स्लग को रोकने का एक कारगर उपाय है क्योंकि इससे स्लग के अंडे और स्लग को पोषण तथा आश्रय देने वाले खरपतवार पौधे नष्ट हो जाते हैं। कॉपर सल्फेट और ऑयरन फास्फेट भी स्लग को नष्ट करने में मददगार साबित हुए हैं।
स्लग नियंत्रण के उपायों में कृषि भूमि के आसपास पक्षियों एवं सांपो का संरक्षण शामिल करना होगा क्योंकि ये जंतु इनके प्राकृतिक शिकारी हैं और इनकी बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाने में सक्षम हैं। कुछ किसानों और बागवानों द्वारा इन्हें हाथ से पकड़कर दूर किया जाता है जो एक सार्थक प्रयास है।
वास्तव में देखा जाए तो मानव द्वारा पर्यावरण एवं जैव विविधता को नुकसान पहुंचाने के चलते ही स्लग की कुछ प्रजातियां कृषि और बागवानी के लिए हानिकारक साबित हुई हैं। हम मनुष्यों ने विदेशी पौधों एवं वन्य जीवों को दूसरे देशों से आयात किया और साथ में इन आक्रामक प्रजातियों को भी अपने खेतों तक पहुंचा दिया। किसानों द्वारा पक्षियों और सांपों को कीटनाशकों का उपयोग कर मार दिया गया जो स्लग के प्राकृतिक नियंत्रणकर्ता थे। कहीं ऐसा ना हो कि एक दिन स्लग हमारी खेती और अर्थव्यवस्था को चौपट कर दें। सरकार द्वारा प्रशिक्षण एवं जागरूकता कार्यक्रम आयोजित कर किसानों को स्लग के भावी खतरे के प्रति सचेत करना होगा। बंदरगाहों एवं हवाई अड्डों पर बाहरी देशों से आयातित वस्तुओं का निरीक्षण कर देश में विदेशी स्लग प्रजातियों के घुसपैठ को रोका जा सकता है। अत: इस बारे में नियम-कायदे बनाने चाहिए। स्लग पारिस्थितिकी तंत्र में मुख्य भूमिका निभाते हैं और वो भी इसी पर्यावरण के अभिन्न अंग है लेकिन जब वो मानवीय गतिविधियों के चलते अपने मूल भौगोलिक क्षेत्र से भटक जाते हैं, तब नए परितंत्र में वे कृषि एवं जैव विविधता के लिए संकट खड़ा करते हैं। आज ज़रूरत है कि हम खुद पर्यावरण के प्रति सचेत हों ताकि मानव, जैव विविधता एवं प्रकृति के बीच संतुलन बना रहे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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