कई देशों में आजकल ट्रांस-जेंडर लोगों के खिलाफ कानून बनाने की वकालत की जा रही है। इसके पीछे प्रमुख तर्क यह दिया जा रहा है कि अपने कुदरती लिंग के प्रति असंतोष की भावना छूत की तरह फैलती है और इसलिए ऐसे लोगों से दूर ही रहना बेहतर है। यह दावा एक अध्ययन के आधार पर किया गया था। इस अध्ययन में 1600 ऐसे ट्रांस-जेंडर मामलों का विवरण दिया गया था जो संभवत: सामाजिक छूत के परिणाम हैं। लेकिन इस अध्ययन को संस्थागत समीक्षा समिति ने नैतिकता सम्बंधी स्वीकृति नहीं दी और इसे वापिस ले लिया गया है।
उक्त सर्वेक्षण में अचानक प्रारंभ होने वाले जेंडर असंतोष की छानबीन की गई थी, जिसे सामाजिक रूप से छूत की संज्ञा दी गई है। इस धारणा में माना जाता है कि किशोरों में अपने कुदरती जेंडर के प्रति असंतोष की भावना दोस्तों या सोशल मीडिया के ज़रिए ट्रांस-जेंडर लोगों से संपर्क से पैदा हो सकती है। इस तरह के ‘रोग’ की उपस्थिति ट्रांस-जेंडर लोगों के अधिकारों के विरुद्ध एक प्रमुख दलील रही है, हालांकि चिकित्सा विशेषज्ञ ऐसे किसी सिंड्रोम को खारिज कर चुके हैं।
वर्ष 2021 में अमेरिकन सायकोलॉजिकल एसोसिएशन तथा 61 स्वास्थ्य प्रदाता संगठनों ने एक पत्र के माध्यम से ऐसे किसी सिंड्रोम के अस्तित्व को खारिज कर दिया था। इस सम्बंध में वैज्ञानिक प्रमाण बढ़ते जा रहे हैं कि यह ट्रांस-जेंडर किशोरों के अनुभवों को प्रतिबिंबित नहीं करता और आज यदि ज़्यादा युवा लोग जेंडर सम्बंधी मशवरे की तलाश कर रहे हैं तो इसका कारण सामाजिक छूत नहीं है। फिर भी इस धारणा का इस्तेमाल यूएस में ट्रांस विरोधी कानूनों के समर्थन में किया जा रहा है।
वर्ल्ड प्रोफेशनल एसोसिएशन फॉर ट्रांस-जेंडर हेल्थ के पूर्व अध्यक्ष एली कोलमैन का कहना है कि आज की स्थिति में तो इस सिंड्रोम को एक परिकल्पना भी नहीं कहा जा सकता।
कई ट्रांस-जेंडर लोग जेंडर असंतोष महसूस करते हैं। अर्थात जन्म के समय उनकी घोषित लैंगिक पहचान और उनकी जेंडर पहचान आपस में मेल नहीं खाती। जेंडर पहचानों के बीच इस गफलत को 2018 में ब्राउन विश्वविद्यालय की लिसा लिटमैन ने त्वरित स्थापित जेंडर असंतोष (रैपिड ऑनसेट जेंडर डिसफोरिया यानी आरओजीडी) का नाम दिया था।
लिटमैन ने एक सर्वेक्षण में ट्रांस-जेंडर किशोरों के पालकों से अपने बच्चे में जेंडर असंतोष के अचानक प्रकट होने को लेकर सवाल किए थे और पूछा था कि क्या इसका सम्बंध सोशल मीडिया के अत्यधिक इस्तेमाल अथवा बच्चे के दोस्तों में ट्रांसजेंडरों की उपस्थिति से था। गौरतलब है कि इन पालकों का चुनाव ज़्यादातर ट्रांस-जेंडर विरोधी वेबसाइट्स या मंचों से किया गया था।
बाद में लिटमैन ने त्रुटि सुधार किया था जिसमें बताया गया था सर्वेक्षण में पालकों का चुनाव किस तरह की वेबसाइट्स और मंचों से किया गया था। इसमें उन्होंने कहा था कि आरओजीडी कोई औपचारिक निदान नहीं है। लेकिन तब तक यह धारणा व्यापक तौर पर घर कर चुकी थी। राजनीतिज्ञों ने भी यह प्रचारित करना शुरु कर दिया था कि दोस्तों का दबाव और सोशल मीडिया बच्चों को ट्रांस-जेंडर बना रहा है या ट्रांस-जेंडर होना एक मनोरोग है। यूएस के कई राज्यों में इस धारणा का उपयोग ट्रांस-जेंडर विरोधी कानूनों के समर्थन में किया गया और युवा लोगों के लिए जेंडर सम्बंधी देखभाल को सीमित किया गया। अलबत्ता, वर्ल्ड प्रोफेशनल एसोसिएशन फॉर ट्रांस-जेंडर हेल्थ का कहना है कि यह मात्र भय-दोहन का मामला है जिसमें लोगों को डराकर विकल्प चुनने के कहा जाता है।
इस संदर्भ में ताज़ा शोध पत्र आर्काइव्स ऑफ सोशल बिहेवियर में प्रकाशित हुआ था जिसे अब वापिस ले लिया गया है। इसके लिए भी ट्रांसजेंडर बच्चों के पालकों से उनके बच्चे के अनुभव के बारे में सवाल किए गए थे। इस अध्ययन को वापिस लेने का कारण यह था कि शोधकर्ताओं ने पालकों से उनके जवाबों को प्रकाशित करने की अनुमति नहीं ली थी।
2018 और 2023 दोनों वर्षों के अध्ययनों में सहभागियों का चयन ऐसे ऑनलाइन समुदायों से किया गया था जो ट्रांस-जेंडर बच्चों के लिए जेंडर सम्बंधी देखभाल या परामर्श के आलोचक थे। वैसे लिटमैन इस बात से असहमत हैं कि इस बात का असर पालकों के जवाबों पर पड़ा होगा।
कई विशेषज्ञों का मत है कि इस अध्ययन में एक बड़ी समस्या यह है कि इसमें बच्चों के अनुभव जानने की बजाय पालकों के सर्वेक्षण को निष्कर्षों का आधार बनाया गया है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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