फल मक्खियां झूला झूलने का आनंद लेती हैं!

च्चे हों या बड़े झूला झूलने में मज़ा सबको आता है। और अब, हालिया अध्ययन से लगता है कि इसका मज़ा फल मक्खियां भी लेती हैं। एक अध्ययन में देखा गया है कि कुछ फल मक्खियां खुद से बार-बार चकरी जैसे गोल-गोल घूमते ‘झूले’ पर चढ़ रही थीं, जिससे लगता है कि उन्हें झूला झूलना अच्छा लग रहा था।

बायोआर्काइव्स प्रीप्रिंट में प्रकाशित यह अध्ययन अकशेरूकी जीवों में खेलकूद या मनोरंजन के प्रमाण भी देता है और कीटों में लोकोमोटर खेल का पहला उदाहरण है। लोकोमोटर खेल वे खेल होते हैं जिसमें स्वयं खिलाड़ी के शरीर में हरकत होती है जैसे दौड़ना, कूदना या झूलना। वैसे पूर्व में मधुमक्खियों को वस्तु के साथ खेल, और ततैया और मकड़ियों को सामाजिक खेल खेलते देखा गया है।

दरअसल कुछ साल पहले कॉन्सटेन्ज़ युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी वुल्फ हटरॉथ ने देखा था कि एक बत्तख तेज़ बहती नदी में बहते हुए कुछ दूरी बहने के बाद उड़कर लौटती और फिर बहकर नीचे चली जाती। वे सोचने लगे कि वह ऐसा व्यवहार क्यों करती है और क्या मक्खियां (या कीट) भी ऐसा करते हैं।

यह देखने के लिए हटरॉथ और उनके साथी टिलमन ट्रिफान ने चकरी जैसा घूमने वाला झूला बनाया। फिर उन्होंने प्रयोगशाला में में नर फल मक्खियों (ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर) को कूदकर झूले पर चढ़ने का मौका दिया। उन्होंने देखा कि कुछ फल मक्खियों ने झूले को नज़रअंदाज़ किया लेकिन कुछ फल मक्खियों का व्यवहार ऐसा था मानो वे डिज़्नीलैंड में हैं।

शोधकर्ता बताते हैं कि फल मक्खियों के एक समूह ने अपने दिन का 5 प्रतिशत या उससे अधिक समय झूले पर बिताया। और जब उन्होंने दो झूले रखे जो बारी-बारी घूमते थे तो कुछ फल मक्खियां उन झूलों पर चली जाती थीं जो घूम रहे होते थे। और एक मक्खी तो थोड़ी देर झूला झूलती, फिर उससे उतर जाती और फिर वापस थोड़ा और झूलने चली जाती थी।

शोधकर्ता बताते हैं कि फल मक्खियों को स्थान के बारे में अच्छी समझ होती हैं, इसलिए यदि उन्हें गोल घूमना पसंद नहीं आएगा तो वे झूले की सवारी नहीं करेंगी, जैसा कि कुछ ने किया भी। लेकिन अधिकतर मक्खियां ऐसी थीं जिन्होंने न तो झूले का लुत्फ उठाया, न परहेज किया। इसलिए ऐसा लगता है कि (कम से कम कुछ) मक्खियां झूले पर सवारी का आनंद ले रही थीं।

बहरहाल, शोधकर्ता पक्के तौर पर यह कहने में झिझक रहे हैं कि मक्खियां को झूलने में मज़ा आता है क्योंकि वे अभी यह नहीं जान पाए हैं कि मक्खियां ऐसा क्यों करती हैं।

शोधकर्ता इस व्यवहार में शामिल तंत्रिका तंत्र को समझना चाहते हैं। इससे यह समझने में मदद मिल सकती है कि मक्खियों (या किसी अन्य जीव) को लोकोमोटर खेल से क्या फायदा हो सकता है? इस तरह के खेल व्यवहार का महत्व क्या है? क्या यह किसी भी चीज़ के लिए अच्छा है? वगैरह।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्माते समुद्र पेंगुइन का प्रजनन दूभर कर सकते हैं

म्परर पेंगुइन अच्छी तरह जमी हुई समुद्री बर्फ वाले इलाकों में ही प्रजनन और अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। उनके प्रजनन क्षेत्रों के आसपास की बर्फ पिघल कर टूटने लगे तो वे स्थान बदल लेते हैं लेकिन इससे उनका प्रजनन प्रभावित होता है। कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि हाल ही में जलवायु परिवर्तन के चलते अंटार्कटिका के आसपास के समुद्र गर्म होने से मौसम के पहले ही बर्फ टूटने लगी है, जिसके कारण पेंगुइन अपने प्रजनन स्थल से पलायन कर गए हैं।

ब्रिटिश अंटार्कटिका सर्वेक्षण लगभग पिछले 15 सालों से उपग्रह द्वारा अंटार्कटिका में पेंगुइन बस्तियों की निगरानी कर रहा है। पिछले साल रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ और भूगोलविद पीटर फ्रेटवेल और उनके साथियों ने अक्टूबर के अंत में कुछ स्थानों पर समुद्री बर्फ टूटते हुए देखी थी। एम्परर पेंगुइन प्रजनन के लिए इन स्थानों पर मार्च-अप्रैल में पहुंचते हैं। अगस्त-सितंबर के बीच उनके अंडों से चूज़े निकलते हैं और दिसंबर और जनवरी तक इनके पंख विकसित हो पाते हैं। यदि चूज़ों के परिपक्व होने के पहले ही समुद्री बर्फ टूट जाएगी तो बच्चे डूब जाएंगे या फ्रीज़ हो जाएंगे। यानी अक्टूबर में बर्फ का बिखरना पेंगुइन के लिए निश्चित खतरा होगा।

हुआ भी वही। उपग्रह चित्रों से पता चलता है कि जब 2022 में समुद्री बर्फ टूटी तो अक्टूबर के अंत में पेंगुइन की एक बस्ती ने वह स्थान छोड़ दिया था। दिसंबर की शुरुआत में पेंगुइन के तीन अन्य समूह वहां से चले गए। सिर्फ सुदूर उत्तर में स्थित रोथ्सचाइल्ड द्वीप पर एक बस्ती बची रही और सफलतापूर्वक अपने चूज़ों को पाल पाई।

ऐसा अनुमान है कि अंटार्कटिका में एम्परर पेंगुइन के कुल प्रजनन जोड़े करीब 2,50,000 हैं। पिछले साल बेलिंगशॉसेन में लगभग 10,000 जोड़े प्रभावित हुए थे। वैसे तो यह आपदा उतनी बड़ी नहीं लगती। पेंगुइन की उम्र 20 साल होती है तो इनमें से अधिकांश पेंगुइन अगले साल फिर प्रजनन कर लेंगी। लेकिन लगातार ऐसी स्थिति रही तो हालात मुश्किल होंगे। मौजूदा परिस्थितियों के आधार पर फ्रेटवेल का अनुमान है कि यह साल भी पांचों बस्तियों के लिए उतना ही बुरा होगा। पूर्व में भी समुद्री बर्फ की स्थिति बदलने के चलते ऐसी स्थितियां बनी हैं जब पेंगुइन के लिए प्रजनन मुश्किल हुआ है। कार्बन उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है, और कार्बन उत्सर्जन समुद्र के गर्माने में बड़ा योगदान देता है। हालात इसी तरह बदलते रहे तो यह पूरा का पूरा क्षेत्र ही पेंगुइन के लिए अनुपयुक्त हो जाएगा और उन्हें अपने लिए वैकल्पिक स्थान ढूंढना भी मुश्किल हो जाएगा। संभव है कि अगले कुछ वर्षों में उनकी कॉलोनियां विलुप्त हो जाएंगी।

यदि हम कार्बन उत्सर्जन को तत्काल कम करते हैं तो पेंगुइन के लिए महफूज़ बचे स्थान सलामत रहेंगे। साथ ही इस क्षेत्र में मछली पकड़ने पर रोक लगाकर पेंगुइन के लिए पर्याप्त भोजन संरक्षित रखा जा सकता है और पर्यटन को कम करके उनके लिए तनावमुक्त माहौल सुनिश्चित किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हिमनदों के पिघलने से उभरते नए परितंत्र

तेज़ी से बढ़ते वैश्विक तापमान का एक और बड़ा प्रभाव ऊंचे पहाड़ी (अल्पाइन) हिमनदों में देखा जा सकता है। हालिया अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन से विश्व भर के अल्पाइन हिमनद काफी तेज़ी से पिघल रहे हैं जिसके नतीजतन शताब्दियों से हिमाच्छादित भूमि के विशाल हिस्से उजागर हो सकते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि इन उभरते हुए नए परितंत्रों का संरक्षण नई चुनौतियों के साथ-साथ नए अवसर भी देगा।

अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड के बाहर वर्तमान में अल्पाइन हिमनद लगभग 6.5 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं। गर्मियों में ये हिमनद लगभग दो अरब लोगों के अलावा वैश्विक परितंत्र को जल आपूर्ति करते हैं। ज़ाहिर है इनके पिघलने से वैश्विक परितंत्र पर काफी प्रभाव पड़ेगा।

शोधकर्ताओं ने इसके प्रभाव को समझने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखते हुए एक जलवायु मॉडल तैयार किया जिसमें हिमनदों के पिघलने और सिमटने से खुलने वाले परितंत्र पर प्रकाश डाला गया है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सबसे आशाजनक स्थिति में भी इस सदी के अंत तक 1,40,500 वर्ग कि.मी. (झारखंड के बराबर) क्षेत्र उजागर हो सकता है। यदि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन ज़्यादा रहा तो यह क्षेत्र इसका दुगना हो सकता है। सबसे अधिक प्रभाव अलास्का और एशिया के ऊंचे पहाड़ों पर पड़ने की संभावना है।

इस अध्ययन के प्रमुख और हिमनद वैज्ञानिक ज़्यां-बैप्टिस्ट बोसां ने इसे पृथ्वी के सबसे बड़े पारिस्थितिक परिवर्तनों में से एक निरूपित किया है। उनका अनुमान है कि नव उजागर क्षेत्र में से करीब 78 प्रतिशत भूमि और 14 प्रतिशत व 8 प्रतिशत हिस्सा क्रमश: समुद्री और मीठे पानी वाले क्षेत्र होंगे।

एक दिलचस्प बात यह है कि इस क्षेत्र में निर्मित नए प्राकृतवास महत्वपूर्ण होंगे जिनका संरक्षण करने की ज़रूरत होगी। पेड़-पौधे बढें़गे तो कार्बन भंडारण अधिक होगा, जो निर्वनीकरण की प्रतिपूर्ति कर सकता है और ऐसे जंतुओं को नए प्राकृतवास मिलेंगे जो कम ऊंचाई पर रहते हैं और बढ़ते तापमान से जूझ रहे हैं।

यह अध्ययन उन वैज्ञानिकों के लिए मार्गदर्शन भी प्रदान करेगा जो अनछुए स्थानों पर सूक्ष्मजीवों, पौधों और जंतुओं के प्रवास को समझने का प्रयास कर रहे हैं। गौरतलब बात है कि इस अध्ययन में शामिल किए गए आधे से भी कम हिमनद क्षेत्र वर्तमान के संरक्षित क्षेत्रों में शामिल हैं। लिहाज़ा इस अध्ययन से इस भावी परिघटना के मद्देनज़र भूमि प्रबंधन को लेकर सरकारें भी नई चुनौतियों से निपट पाएंगी।

वैसे बोसां का कहना है कि  ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के प्रयास तत्काल किए जाएं तो वर्तमान हिमनदों का काफी हिस्सा बचाया जा सकता है। चूंकि वर्तमान में हम बढ़ते तापमान की समस्या से जूझ रहे हैं, इन उभरते परितंत्रों का संरक्षण और प्रबंधन न केवल जैव विविधता संरक्षण के लिए अनिवार्य है बल्कि जलवायु परिवर्तन के दूरगामी प्रभावों को कम करने का एक अवसर भी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आदित्य मिशन: सूरज के अध्ययन में शामिल होगा भारत

चंद्रयान के सकुशल अवतरण के बाद इसरो की तैयारी सूरज को पढ़ने की है। इसरो का आदित्य-L1 मिशन 2 सितंबर को प्रक्षेपित होने जा रहा है। इसे सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्री हरिकोटा से PSLV-XL रॉकेट द्वारा प्रक्षेपित किया जाएगा। यह अंतरिक्ष यान पृथ्वी से करीब 15 लाख किलोमीटर दूर सूर्य-पृथ्वी के बीच लैग्रांजे बिंदु-1 (L-1) की कक्षा में स्थापित किया जाएगा, जहां से यह सौर गतिविधियों की निगरानी करेगा। यह सूर्य का अध्ययन करने वाला पहला भारतीय अंतरिक्ष अभियान होगा। गौरतलब है कि फिलहाल विभिन्न देशों के 20 से ज़्यादा सौर अध्ययन अंतरिक्ष मिशन अंतरिक्ष में मौजूद हैं।

बताते चलें कि लैग्रांजे बिंदु अंतरिक्ष में दो पिंडों के बीच वे स्थान होते हैं जहां यदि कोई छोटा पिंड या उपग्रह रख दिया जाए तो वह वहां टिका रहता है। पृथ्वी-सूर्य प्रणाली के बीच ऐसे पांच बिंदु हैं। L1 बिंदु की कक्षा में स्थापित करने का फायदा यह है कि आदित्य-L1 बिना किसी अड़चन, ग्रहण वगैरह के सूर्य की लगातार निगरानी कर सकता है।

पृथ्वी से सूर्य की निगरानी और अवलोकन तो हम करते रहे हैं। लेकिन अंतरिक्ष से सूर्य के अवलोकन का कारण है कि पृथ्वी का वायुमंडल कई तंरगदैर्घ्यों और कणों को प्रवेश नहीं करने देता। इसलिए ऐसे विकिरण की मदद से होने वाले अवलोकन पृथ्वी से कर पाना संभव नहीं है। चूंकि अंतरिक्ष में ऐसी कोई बाधा नहीं है इसलिए अंतरिक्ष से इनका अवलोकन संभव है।  

आदित्य-L1 में सूर्य की गतिविधियां, सौर वायुमंडल (मुख्यत: क्रोमोस्फीयर और कोरोना) और अंतरिक्ष के मौसम का निरीक्षण करने के लिए सात यंत्र लगे हैं। इनमें से चार यंत्र बिंदु L1 पर बिना किसी बाधा के सीधे सूर्य का अवलोकन करेंगे, और शेष तीन यंत्र लैग्रांजे बिंदु L1 की स्थिति और कणों का जायज़ा लेंगे। आदित्य-L1 पर लगे विज़िबल एमिशन लाइन कोरोनाग्राफ (VELC) का काम होगा सूर्य के कोरोना और कोरोना से निकलने वाले पदार्थों का अध्ययन करना। कोरोना सूर्य की सबसे बाहरी सतह है जो सूर्य के तेज़ प्रकाश में ओझल रहती है। इसे विशेष उपकरणों से ही देखा जा सकता है। वैसे कोरोना को पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान देखा जा सकता है। सोलर अल्ट्रावॉयलेट इमेजिंग टेलीस्कोप (SUIT) पराबैंगनी प्रकाश में सूर्य के फोटोस्फीयर और क्रोमोस्फीयर की तस्वीरें लेगा और अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश के नज़दीक सौर विकिरण विचलन मापेगा। फोटोस्फीयर या प्रकाशमंडल वह सतह है जहां से प्रकाश फैलता है। सोलर लो एनर्जी एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (SoLEXS) और हाई एनर्जी L1 ऑर्बाइटिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (HEL1OS) सूर्य की एक्स-रे प्रदीप्ति का अध्ययन करेगा। आदित्य सोलर विंड पार्टीकल एक्सपेरिमेंट (ASPEX) और प्लाज़्मा एनालाइज़र पैकेज फॉर आदित्य (PAPA) सौर पवन, उसके आयन और ऊर्जा वितरण का अध्ययन करेगा। इसका एडवांस्ड ट्राय-एक्सिस हाई रिज़ॉल्यूशन डिजिटल मैग्नेटोमीटर L1 बिंदु पर मौजूद चुम्बकीय क्षेत्र का मापन करेगा।

प्रक्षेपण के करीब 100 दिन बाद आदित्य अपनी मंज़िल (L1) पर पहुंचेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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