हाल ही में वन संरक्षण अधिनियम, 1980 व जैव विविधता अधिनियम, 2002 में संशोधन किए गए हैं। सरकारी स्तर पर चाहे इन दो संशोधनों के पक्ष में बहुत कुछ कहा गया है, किंतु पर्यावरण संरक्षण के अनेक विशेषज्ञ व आदिवासी हकदारी से जुड़े हुए अनेक जाने-माने कार्यकर्ता इन संशोधनों का अंत तक विरोध करते रहे। आखिर उनके विरोध का क्या कारण था?
वन संरक्षण कानून, 1980 को वन व पर्यावरण संरक्षण के भारत के प्रयासों में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर माना गया है। यह अधिनियम उस समय बना था जब भारत में पर्यावरण व वन रक्षा के प्रयास ज़ोर पकड़ रहे थे। इस अधिनियम के बनने के बाद वन क्षेत्र की रक्षा करने में यह कानून काफी हद तक सफल रहा। दूसरी ओर, वन अधिकार कानून बनने के दौर में आदिवासियों व वन समुदायों के वन अधिकारों की आवाज ने ज़ोर पकड़ा।
वास्तव में ये दोनों ही सही दिशा में कदम थे। एक ओर वन क्षेत्र का संरक्षण होना चाहिए तथा दूसरी ओर, आदिवासी-वनवासी समुदायों के वन अधिकारों की भी रक्षा होनी चाहिए।
सबसे उचित तो यही है कि आदिवासी समुदायों के लिए ऐसी स्थितियां उत्पन्न की जाएं जिनके अंतर्गत उनकी टिकाऊ आजीविका को वनों की रक्षा से जोड़कर साथ-साथ आगे बढ़ाया जाए ताकि वनों की रक्षा भी हो व आदिवासी समुदायों की टिकाऊ आजीविका सुरक्षित रहे।
वन संरक्षण अधिनियम के इस वर्ष हुए संशोधन की मुख्य आलोचना यही है कि इन दोनों सार्थक उद्देश्यों की दृष्टि से यह सही दिशा में नहीं है। इस संशोधन के आधार पर देश के बहुत से जंगल संरक्षण के दायरे से बाहर आ जाएंगे तथा उद्योग, खनन व प्लांटेशन के लिए वन-भूमि को प्राप्त करने की संभावना पहले की अपेक्षा बढ़ जाएगी।
सरकार का कहना है कि जलवायु बदलाव के संकट को कम करने के लिए जो बड़े पैमाने पर वृक्ष लगाने का कार्य है, वह इस संशोधन से बेहतर ढंग से हो सकेगा। पर हमें यह ध्यान में रखना पड़ेगा कि इस तरह के कई प्लांटेशन जल्दबाज़ी में लगाए जा रहे हैं व इनमें व्यापारिक महत्व के पेड़ों पर व कभी-कभी तो एक ही प्रजाति के पेड़ों पर या मोनोकल्चर को महत्व दिया जाता है। बेशक ऐसा सभी प्लांटेशन परियोजनाओं में नहीं होता है पर प्रायः यही देखा गया है। पाम ऑयल के पेड़ों को भी भारत में तेज़ी से बढ़ाने के प्रयास चल रहे हैं जबकि अन्य देशों में इसके प्लांटेशन पर्यावरण क्षति के लिए चर्चित रह चुके हैं।
अतः प्लांटेशन और प्राकृतिक वन में जो बड़ा अन्तर है उसे स्पष्ट करना ज़रूरी है। यदि संशोधन से प्राकृतिक वन कम होते हैं तथा खनन, उद्योग आदि के लिए दे दिए जाते हैं और इनके स्थान पर प्लांटेशन बढ़ते हैं तो यह पर्यावरण की दृष्टि से हानिकारक ही माना जाएगा, चाहे वृक्षों की संख्या में कमी न हो।
इस संशोधन के बाद, विशेषकर हिमालय क्षेत्र में वन अधिक संकटग्रस्त हो गए हैं। गौरतलब है कि इस वर्ष चिपको आंदोलन के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं और इस आंदोलन का हिमालय के वनों की रक्षा में व इसके प्रति जन-जागृति उत्पन्न करने में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इसी वर्ष हिमालय में आपदाओं के बढ़ने के लिए भी पर्यावरण के विनाश को ज़िम्मेदार माना गया है।
जहां तक जैव-विविधता के संरक्षण का सवाल है, तो पेटेंट कानूनों को पौधों के संदर्भ में लागू करने से जो समस्याएं उत्पन्न हो गई थीं, उनके समाधान के लिए वर्ष 2002 का जैव विविधता अधिनियम बना था। इससे पहले अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इस प्रवृत्ति का बहुत विरोध हुआ था कि वे विकासशील व निर्धन देशों की जैव संपदा का बहुत दोहन करती रही हैं और पेटेंट कानून पारित होने के बाद यह दोहन बहुत अधिक बढ़ जाएगा। यहां तक कि नीम और हल्दी का जो परंपरागत औषधि उपयोग भारत में होता रहा था, उस पर भी विदेशी तत्व अपना पेटेंट अधिकार जताने लगे थे।
इस स्थिति में जैव-विविधता कानून, 2002 बनाकर विभिन्न पौधों व वृक्षों के व्यावसायिक उपयोग को नियमित व नियंत्रित करने का प्रयास किया गया था। दूसरी ओर, समुदायों के अधिकारों को भी निर्धारित किया गया था ताकि जो लाभ व्यावसायिक हित प्राप्त करते हैं उसमें वे समुदायों को भी भागीदारी दें। विदेशी अनुसंधानकर्ताओं व व्यवसायों की इस संदर्भ में ज़िम्मेदारी भी निर्धारित की गई थी।
हालांकि इस कानून का पालन इसकी भावना के अनुरूप नहीं हुआ था, फिर भी वर्ष 2016 के न्यायालय के निर्णय के आधार पर उम्मीद बंधी थी कि इसमें सुधार होगा। समुदायों को भी व्यावसायिक निकायों की आय का कुछ भाग प्राप्त होगा। दूसरी ओर, हाल का संशोधन व्यावसायिक हितों पर बंधन व जि़म्मेदारियों में ढील देने की दिशा में है। समुदायों के अधिकार इससे कम होते हैं। जबकि व्यावसायिक हितों द्वारा जैव विविधता के अधिक दोहन की संभावना बढ़ती है। अतः जैव विविधता की रक्षा के स्थानीय समुदायों की हकदारी की दृष्टि से यह संशोधन उचित नहीं है।
वास्तव में जैव विविधता की रक्षा के प्रयास व्यापक स्तर पर मज़बूत करने चाहिए ताकि जैव विविधता की रक्षा हो व समुदायों के अधिकारों की संभावित क्षति को रोका जा सके।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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