स्वास्थ्य के बारे में हमारी अधिकांश चर्चा उन चंद आम बीमारियों तक सिमटी होती है जिनसे हमारे परिचित पीड़ित होते हैं – डायबिटीज़ संभवत: इन बीमारियों की सूची में सबसे ऊपर है। यद्यपि, कई बीमारियां ऐसी हैं जो बिरले (किसी-किसी को) ही होती हैं, लेकिन इनका प्रभाव/परिणाम पीड़ितों और उनके परिवारों के लिए भयावह हो सकता है।
दुर्लभ बीमारी की सबसे सामान्य परिभाषा है कि प्रति 10,000 लोगों में जिसका एक मामला मिले। इनके लिए ‘अनाथ रोग’ शब्द कई कारणों से उपयुक्त है। दुर्लभ होने के कारण इनका निदान/पहचान करना कठिन होता था, क्योंकि कई युवा चिकित्सकों ने संभवत: इनका एक भी मामला नहीं देखा होता था। इसी कारण से इन पर अधिक शोध नहीं हुए थे, जिसके कारण अक्सर इनके उपचार भी उपलब्ध नहीं होते थे।
यह स्थिति अब बदल रही है क्योंकि बीमारियों के बारे में जागरूकता और उनके निदान के लिए जीनोमिक तकनीकें बढ़ गई है। कई देशों में नियामक संस्थाएं उपेक्षित बीमारियों की औषधि के विकास हेतु निवेश को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन भी देती हैं। उम्मीद के मुताबिक, इस तरह के कदमों से ‘अनाथ रोगों’ की औषधियों’ में रुचि बढ़ गई है। वर्ष 2009 से 2014 के बीच, यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा औषधियों/उपचारों को दी गई सभी मंज़ूरियों में से आधी दुर्लभ बीमारियों और कैंसर के लिए थीं। अलबत्ता, इन उपचारों की कीमतें, खासकर भारत के दृष्टिकोण से, पहुंच से परे हैं। अनुमान है कि इनका खर्च प्रति वर्ष 10 लाख रुपए से 2 करोड़ रुपये के बीच है।
रोगी समूहों द्वारा पहल
वैश्विक आंकड़े बताते हैं कि ऐसी लगभग 7000 दुर्लभ बीमारियां हैं जो 30 करोड़ लोगों को प्रभावित करती हैं। उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर गणना से पता चलता है कि भारत में ऐसे 7 करोड़ मामले होने चाहिए। लेकिन भारत के अस्पतालों ने अब तक इनमें से 500 से भी कम बीमारियों की सूचना दी है। जिन समुदायों में ये दुर्लभ बीमारियां होती हैं, उनके बारे में रोगप्रसार विज्ञान सम्बंधी पर्याप्त डैटा उपलब्ध नहीं है। इन विकारों की पुष्टि करने के लिए अक्सर परिष्कृत नैदानिक जीनोमिक्स उपकरणों की आवश्यकता होती है। दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए सरकार की राष्ट्रीय नीति (NPRD) ने हाल ही में अपना असर दिखाना शुरू किया है। हमारे देशों में प्रचलित बीमारियों में सिस्टिक फाइब्रोसिस, हीमोफीलिया, लाइसोसोमल स्टोरेज विकार, सिकल सेल एनीमिया आदि शामिल हैं।
‘अनाथ रोगों’ के सम्बंध में नागरिकों की पहल भारत की प्रगति की एक और उल्लेखनीय बात है। इसका एक अच्छा उदाहरण है DART, डिस्ट्रॉफी एनाइलेशन रिसर्च ट्रस्ट, जो डुख्ने पेशीय अपविकास से पीड़ित रोगियों के माता-पिता द्वारा बनाया गया है। इस बीमारी में, तीन साल की उम्र से कूल्हे की मांसपेशियां कमज़ोर होने लगती हैं। इस ट्रस्ट ने जोधपुर स्थित आईआईटी और एम्स के साथ मिलकर इस अपविकास के लिए एक कुशल और व्यक्तिपरक एंटीसेंस ऑलिगोन्यूक्लियोटाइड (ASO) आधारित उपचारात्मक आहार का क्लीनिकल परीक्षण शुरू किया है।
कुष्ठ मुक्त भारत
प्रति 10,000 लोगों में 0.45 मामले मिलने की दर के साथ भारत में कुष्ठ रोग अब एक दुर्लभ बीमारी मानी जाती है। लेकिन इस बीमारी के प्रसार को थामने के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कुष्ठ रोग इस बात का एक अच्छा उदाहरण है कि किस तरह ‘अनाथ रोगों’ पर शोध के सामाजिक लाभ हो सकते हैं। सिंथेटिक एंटीबायोटिक रिफापेंटाइन, जिसका व्यापक रूप से उपयोग तपेदिक (टीबी) के खिलाफ किया जाता है, पर हालिया शोध से पता चला है कि इस दवा की एक खुराक जब कुष्ठ रोगियों के घरवालों को दी गई तो इसने चार साल की अध्ययन अवधि में उन लोगो में कुष्ठ रोग के प्रसार को काफी कम कर दिया था। यह अध्ययन न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित हुआ है। इस तरह के निष्कर्ष हमारी सरकार के 2027 तक कुष्ठ रोग मुक्त भारत के लक्ष्य को हासिल करने में मदद कर सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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