भारत में ‘अनाथ रोगों’ के बहुत कम मामले दर्ज होते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

स्वास्थ्य के बारे में हमारी अधिकांश चर्चा उन चंद आम बीमारियों तक सिमटी होती है जिनसे हमारे परिचित पीड़ित होते हैं – डायबिटीज़ संभवत: इन बीमारियों की सूची में सबसे ऊपर है। यद्यपि, कई बीमारियां ऐसी हैं जो बिरले (किसी-किसी को) ही होती हैं, लेकिन इनका प्रभाव/परिणाम पीड़ितों और उनके परिवारों के लिए भयावह हो सकता है।

दुर्लभ बीमारी की सबसे सामान्य परिभाषा है कि प्रति 10,000 लोगों में जिसका एक मामला मिले। इनके लिए ‘अनाथ रोग’ शब्द कई कारणों से उपयुक्त है। दुर्लभ होने के कारण इनका निदान/पहचान करना कठिन होता था, क्योंकि कई युवा चिकित्सकों ने संभवत: इनका एक भी मामला नहीं देखा होता था। इसी कारण से इन पर अधिक शोध नहीं हुए थे, जिसके कारण अक्सर इनके उपचार भी उपलब्ध नहीं होते थे।

यह स्थिति अब बदल रही है क्योंकि बीमारियों के बारे में जागरूकता और उनके निदान के लिए जीनोमिक तकनीकें बढ़ गई है। कई देशों में नियामक संस्थाएं उपेक्षित बीमारियों की औषधि के विकास हेतु निवेश को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन भी देती हैं। उम्मीद के मुताबिक, इस तरह के कदमों से ‘अनाथ रोगों’ की औषधियों’ में रुचि बढ़ गई है। वर्ष 2009 से 2014 के बीच, यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा औषधियों/उपचारों को दी गई सभी मंज़ूरियों में से आधी दुर्लभ बीमारियों और कैंसर के लिए थीं। अलबत्ता, इन उपचारों की कीमतें, खासकर भारत के दृष्टिकोण से, पहुंच से परे हैं। अनुमान है कि इनका खर्च प्रति वर्ष 10 लाख रुपए से 2 करोड़ रुपये के बीच है।

रोगी समूहों द्वारा पहल

वैश्विक आंकड़े बताते हैं कि ऐसी लगभग 7000 दुर्लभ बीमारियां हैं जो 30 करोड़ लोगों को प्रभावित करती हैं। उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर गणना से पता चलता है कि भारत में ऐसे 7 करोड़ मामले होने चाहिए। लेकिन भारत के अस्पतालों ने अब तक इनमें से 500 से भी कम बीमारियों की सूचना दी है। जिन समुदायों में ये दुर्लभ बीमारियां होती हैं, उनके बारे में रोगप्रसार विज्ञान सम्बंधी पर्याप्त डैटा उपलब्ध नहीं है। इन विकारों की पुष्टि करने के लिए अक्सर परिष्कृत नैदानिक जीनोमिक्स उपकरणों की आवश्यकता होती है। दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए सरकार की राष्ट्रीय नीति (NPRD) ने हाल ही में अपना असर दिखाना शुरू किया है। हमारे देशों में प्रचलित बीमारियों में सिस्टिक फाइब्रोसिस, हीमोफीलिया, लाइसोसोमल स्टोरेज विकार, सिकल सेल एनीमिया आदि शामिल हैं।

‘अनाथ रोगों’ के सम्बंध में नागरिकों की पहल भारत की प्रगति की एक और उल्लेखनीय बात है। इसका एक अच्छा उदाहरण है DART, डिस्ट्रॉफी एनाइलेशन रिसर्च ट्रस्ट, जो डुख्ने पेशीय अपविकास से पीड़ित रोगियों के माता-पिता द्वारा बनाया गया है। इस बीमारी में, तीन साल की उम्र से कूल्हे की मांसपेशियां कमज़ोर होने लगती हैं। इस ट्रस्ट ने जोधपुर स्थित आईआईटी और एम्स के साथ मिलकर इस अपविकास के लिए एक कुशल और व्यक्तिपरक एंटीसेंस ऑलिगोन्यूक्लियोटाइड (ASO) आधारित उपचारात्मक आहार का क्लीनिकल परीक्षण शुरू किया है।

कुष्ठ मुक्त भारत

प्रति 10,000 लोगों में 0.45 मामले मिलने की दर के साथ भारत में कुष्ठ रोग अब एक दुर्लभ बीमारी मानी जाती है। लेकिन इस बीमारी के प्रसार को थामने के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कुष्ठ रोग इस बात का एक अच्छा उदाहरण है कि किस तरह ‘अनाथ रोगों’ पर शोध के सामाजिक लाभ हो सकते हैं। सिंथेटिक एंटीबायोटिक रिफापेंटाइन, जिसका व्यापक रूप से उपयोग तपेदिक (टीबी) के खिलाफ किया जाता है, पर हालिया शोध से पता चला है कि इस दवा की एक खुराक जब कुष्ठ रोगियों के घरवालों को दी गई तो इसने चार साल की अध्ययन अवधि में उन लोगो में कुष्ठ रोग के प्रसार को काफी कम कर दिया था। यह अध्ययन न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित हुआ है। इस तरह के निष्कर्ष हमारी सरकार के 2027 तक कुष्ठ रोग मुक्त भारत के लक्ष्य को हासिल करने में मदद कर सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सिर्फ मनुष्य ही मोटे नहीं होते

मोटापे की समस्या हम मनुष्यों के लिए तो अब आम बात हो गई है। कई बार तो हमें सबसे मोटा प्राइमेट भी कहा जाता है और इसके लिए लंबे समय से वैज्ञानिक या तो हमारे उन जीन्स को दोष देते आए हैं जो हमें अधिक वसा संग्रहित करने में मदद करते हैं, या फिर हमारे मीठे और तले-भुने खाने की आदत को।

लेकिन यदि आप कांगो गणराज्य जाएंगे तो पाएंगे कि वहां चिम्पैंज़ी इतने मोटे होते हैं कि उन्हें पेड़ों पर चढ़ने में परेशानी होती है, या वर्वेट बंदर इतने मोटे मिलेंगे कि एक शाखा से दूसरी शाखा पर छलांग लगाते हुए वे हाफंने लगेंगे।

और अब गैर-मानव प्राइमेट्स की 40 प्रजातियों (छोटे माउस लीमर्स से लेकर हल्किंग गोरिल्ला तक) पर हुए एक नए अध्ययन में पाया गया है कि अतिरिक्त भोजन मिलने पर इन प्रजातियां में भी उतनी ही आसानी से वज़न बढ़ जाता है जितनी आसानी से हम मनुष्य मोटे हो जाते हैं।

कुछ वैज्ञानिकों का मानना था कि हमारी प्रजाति (होमो सैपिएन्स) ही मोटापे से ग्रसित है क्योंकि हमारे पूर्वज कैलोरी का भंडारण बहुत दक्षता से करने के लिए विकसित हुए थे। इस विशेषता से हमारे प्राचीन खेतिहर सम्बंधियों को अक्सर पड़ने वाले अकाल के समय इस संग्रहित वसा से मदद मिलती होगी। कहा यह गया कि इसी चीज़ ने हमें बाकी प्राइमेट्स से अलग किया।

लेकिन देखा जाए तो अन्य प्राइमेट भी मोटाते हैं। कांजी नामक बोनोबो वानर शोध-अनुसंधानों के दौरान केले, मूंगफली और अन्य व्यंजनों से पुरस्कृत होकर अपनी प्रजाति के औसत से तीन गुना अधिक वज़नी हो गया था। इसी प्रकार से, बैंकॉक की सड़कों पर अंकल फैटी नामक मकाक वानर भी इसी का उदाहरण है जो पर्यटकों द्वारा दिए गए मिल्कशेक, नूडल्स और अन्य जंक फूड खा-खाकर मोटा हो गया था; वज़न औसत से तीन गुना अधिक (15 किलोग्राम) था।

ये वानर अपवादस्वरूप मोटे हुए थे या इनमें भी मोटे होने की कुदरती संभावना होती है, यह जानने के लिए ड्यूक युनिवर्सिटी के जैविक नृविज्ञानी हरमन पोंटज़र ने चिड़ियाघरों, अनुसंधान केंद्रों और प्राकृतिक हालात में रहने वाले गैर-मानव प्राइमेट्स की 40 प्रजातियों के कुल 3500 जानवरों का प्रकाशित वज़न देखा और उसका विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि बंदी अवस्था (चिड़ियाघर वगैरह) में रखे गए कई जानवरों के वज़न औसत से अधिक थे। बंदी अवस्था में 13 प्रजातियों की मादा और छह प्रजातियों के नर जानवरों का वज़न प्राकृतिक की तुलना में औसतन 50 प्रतिशत अधिक था।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने पश्चिमी आहार पाने वाले लगभग 4400 अमेरिकी वयस्कों (मनुष्यों)का वज़न देखा। तुलना के लिए नौ ऐसे समुदाय के वयस्कों का वज़न देखा जो भोजन संग्रह और शिकार करते हैं, या अपना भोजन खुद उगाते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि कद को ध्यान में रखें तो अमेरिकी लोग इन समुदाय के लोगों से 50 प्रतिशत अधिक वज़नी हैं।

फिलॉसॉफिकल ट्रांज़ेक्शन ऑफ रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि हालांकि जेनेटिक कारणों से कुछ व्यक्तियों में मोटापे का खतरा बढ़ सकता है, लेकिन हमारा बज़न बढ़ना बाकी प्राइमेट्स से भिन्न नहीं है। पोंटज़र कहते हैं कि वज़न बढ़ने के पीछे कार्बोहाइड्रेट्स या किसी विशेष भोजन को दोष न दें। जंगली प्राइमेट अपने बंदी साथियों की तुलना में कहीं अधिक कार्बोहाइड्रेट खाते हैं, जबकि बंदी जानवर अधिक कैलोरी-अधिक प्रोटीन वाला भोजन खाते हैं। दोनों समूहों के दैनिक व्यायाम सम्बंधी गतिविधियों में अंतर के बावजूद दोनों समूह के जानवर प्रतिदिन समान मात्रा में कैलोरी खर्च करते हैं। इसलिए ऐसी बात नहीं है कि बंदी जानवर इसलिए मोटे हैं कि वे बस आराम से पड़े रहते हैं और खाते रहते हैं।

अध्ययन सुझाता है कि बंदी प्राइमेट मानव मोटापे को समझने के लिए अच्छे मॉडल हो सकते हैं, इनसे मोटापे के इलाज के नए तरीके खोजने में मदद मिल सकती है।(स्रोत फीचर्स)

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पतंगों की साइज़ के चमगादड़

हाल ही में शोधकर्ताओं ने फिजी के दूर-दराज द्वीप वनुआ बालावु पर पतंगों की साइज़ के चमगादड़ों का नया आवास खोज निकाला है। इस अभियान में शोधकर्ताओं को न सिर्फ प्रशांत द्वीप में सबसे अधिक चमगादड़ आबादी (तकरीबन 2000 से 3000) वाली गुफा मिली है बल्कि विलुप्ति की ओर अग्रसर इस जीव को बचाने के प्रति कुछ आशा भी जगी है।

गैर-मुनाफा संगठन कंज़र्वेशन इंटरनेशनल के नेतृत्व में किए गए इस अभियान में शोधकर्ता चमगादड़ों की गुफा तक स्थानीय लोगों की मदद से पहुंचे। यह एक गिरजाघर जितनी बड़ी कंदरा थी। यहीं उन्हें ठसाठस भरे म्यान जैसी पूंछ वाले चमगादड़ (एम्बालोनुरा सेमिकॉडैटा सेमीकॉडैटा) मिले।

इन चमगादड़ों के फर मुलायम, चॉकलेटी-भूरे रंग के होते हैं। ये चार सेंटीमीटर लंबे होते हैं और इनका वज़न अधिक से अधिक पांच ग्राम तक होता है। ये छोटे-छोटे कीटों को खाते हैं। मनुष्यों द्वारा प्रशांत महासागर पार करने और इन द्वीपों पर बसने से कुछ लाख साल पहले ये चमगादड़ उड़कर आए और यहां बस गए थे।

गौरतलब है कि प्रशांत द्वीप समूहों पर चमगादड़ों की 191 प्रजातियां ज्ञात हैं; इनमें कीटभक्षी चमगादड़ से लेकर पेड़ों पर लटकने वाले और फलाहारी उड़न-लोमड़ी चमगादड़ तक रहते हैं। इस क्षेत्र में लोग चमगादड़ों की विष्ठा (गुआनो) उर्वरक के तौर पर इकट्ठा करते हैं तथा भोजन के लिए उनका शिकार करते हैं। यहां तक कि सोलोमन द्वीप के लोग इनके दांतों का उपयोग पारंपरिक मुद्रा के रूप में भी करते हैं। इसके अलावा, कीटभक्षी चमगादड़ अपने आसपास के पारिस्थितिक तंत्र में फसल के कीटों और रोग फैलाने वाले मच्छरों को नियंत्रित करके महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

म्यान जैसी पूंछ वाले चमगादड़ किसी समय प्रशांत क्षेत्र में सबसे अधिक पाए जाने वाले स्तनधारियों में से थे, लेकिन अब इन पर विलुप्ति का संकट सबसे अधिक है। करीब सौ साल पहले तक ये गुआम से लेकर अमेरिकी समोआ तक पाए जाते थे। लेकिन आज महज चार उप-प्रजातियां माइक्रोनेशिया और फिजी के ही कुछ द्वीपों पर बची हैं और इनकी संख्या लगातार घट रही है।

चमगादड़ों के कुछ महत्वपूर्ण बसेरे अब पूरी तरह से चमगादड़ विहीन हो गए हैं। 2018 में वनुआ बालावु से लगभग 120 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में तवेउनी द्वीप पर एक गुफा में लगभग 1000 ऐसे चमगादड़ मिले थे लेकिन 2019 तक जंगलों के सफाए के कारण चंद सैकड़ा ही बचे थे।

इस अभियान से जुड़ी संरक्षण विज्ञानी सितेरी टिकोका का कहना है कि वनुआ बालावु की गुफा में ऐसा भरा-पूरा चमगादड़ का बसेरा मिलना सुखद था; इसने इनके बचने की आशा को फिर से जगा दिया है। लेकिन तवेउनी की स्थिति से सबक लेना चाहिए, जहां हम देख चुके हैं कि सिर्फ एक वर्ष में ही स्थिति कितनी बदल सकती है। यदि हमने इनके संरक्षण के लिए ज़रूरी कदम तत्काल नहीं उठाए तो ये चमगादड़ पूरी तरह लुप्त हो जाएंगे। स्थानीय लोगों का सहयोग भी ज़रूरी है क्योंकि स्पष्ट है कि स्थानीय लोगों ने ही इस जगह, इन गुफाओं और चमगादड़ों की देखभाल की है और बचाए रखा है।(स्रोत फीचर्स)

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भूमिगत हाइड्रोजन भंडारों की खोज

मेरिका की एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी-एनर्जी (एआरपीए-ई) भूमिगत स्वच्छ हाइड्रोजन का पता लगाने के लिए 2 करोड़ डॉलर का निवेश कर रही है। यह निवेश स्वच्छ उर्जा उत्पादन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। एआरपीए-ई उन्नत ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान एवं विकास को वित्तीय सहायता प्रदान करने वाला एक सरकारी संस्थान है।

ऐसा माना जा रहा है कि हाइड्रोजन जीवाश्म ईंधन का एक विकल्प हो सकती है। लेकिन कम ऊर्जा घनत्व, उत्पादन के पर्यावरण प्रतिकूल तौर-तरीकों और बड़ी मात्रा में जगह घेरने के कारण हाइड्रोजन के उपयोग की कई चुनौतियां भी हैं। वर्तमान में हाइड्रोजन का उत्पादन औद्योगिक स्तर पर भाप और मीथेन की क्रिया से किया जाता है जिसमें कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है जो एक ग्रीनहाउस गैस है। इससे निपटने के लिए दुनिया भर में ब्लू हाइड्रोजन (जिसमें उत्पादन के दौरान उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड को कैद कर लिया जाता है) और ग्रीन हाइड्रोजन (पानी के विघटन) जैसे तरीकों से स्वच्छ हाइड्रोजन उत्पादन के प्रयास चल रहे हैं।

हाइड्रोजन उत्पादन की इस दौड़ में अब ‘भूमिगत’ या ‘प्राकृतिक’ हाइड्रोजन को खोजने के प्रयास किए जा रहे हैं। यह सस्ता और पर्यावरण के अनुकूल साबित हो सकता है। हाल ही में पश्चिमी अफ्रीका स्थित माली के नीचे विशाल हाइड्रोजन क्षेत्र की खोज और पुराने बोरहोल में शुद्ध हाइड्रोजन की रहस्यमयी उपस्थिति ने इस क्षेत्र में पुन: रुचि उत्पन्न की है। फिलहाल हाइड्रोजन खोजी लोग महाद्वीपों के प्राचीन, क्रिस्टलीय कोर का अध्ययन कर रहे हैं। इन स्थानों पर लौह-समृद्ध चट्टानों में खोज चल रही है जो सर्पेन्टिनाइज़ेशन नामक प्रक्रिया से हाइड्रोजन उत्पादन को बढ़ावा दे सकते हैं।

गौरतलब है कि एआरपीए-ई कार्यक्रम मौजूदा भंडारों का पता लगाने पर नहीं बल्कि कृत्रिम ढंग से सर्पेन्टिनाइज़शन के माध्यम से हाइड्रोजन उत्पादन में तेज़ी लाने के तरीके खोजने पर केंद्रित है।

विशेषज्ञों का अनुमान है कि हाइड्रोजन उत्पादन दक्षता बढ़ाने के उद्देश्य से एआरपीए-ई फंडिंग का अधिकांश हिस्सा मॉडलिंग और प्रयोगशाला-आधारित अनुसंधान के लिए होगा। इसके अतिरिक्त, इन अभिक्रियाओं को समझने तथा भूपर्पटी में पदार्थों को इंजेक्ट करने से जुड़े जोखिमों का आकलन करने के लिए भी फंड निधारित किया गया है।

पिछले कुछ समय से प्राकृतिक हाइड्रोजन की खोज ने कई स्टार्टअप कंपनियों को जन्म दिया है। ये कंपनियां कम ताप और दाब पर हाइड्रोजन उत्पादन के तरीकों की खोज कर रही हैं जिनकी मदद से ओमान जैसे स्थानों में सतह के पास पाए जाने वाले लौह-समृद्ध भंडार से हाइड्रोजन उत्पन्न की जा सकेगी।

इस क्षेत्र में अपार संभावनाओं को देखते हुए कई प्रमुख तेल कंपनियां भी इस क्षेत्र में प्रवेश कर रही हैं। निवेश के उत्साह को देखते हुए पृथ्वी में छिपे हुए हाइड्रोजन भंडार की खोज में तेज़ी आएगी और हम भविष्य में एक स्वच्छ और लंबे समय तक प्राप्य ऊर्जा स्रोत की उम्मीद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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मधुमक्खियों की भूमिगत दुनिया

पको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मधुमक्खियों की कई प्रजातियां अपना अधिकांश जीवन ज़मीन के नीचे बिताती हैं जहां वे छत्ते बनाती हैं। हाल ही में उन्नत एक्स-रे तकनीक की मदद से शोधकर्ताओं ने भूमिगत मधुमक्खियों की गुप्त दुनिया को खोज निकाला है। अब वे इन छत्तों के निर्माण और मिट्टी की सेहत पर इनके प्रभाव को समझने का प्रयास कर रहे हैं।

लगभग 85 प्रतिशत मधुमक्खी प्रजातियां अपने छत्ते ज़मीन के नीचे बनाती हैं लेकिन इस बारे में बहुत कम जानकारी है कि ये जटिल संरचनाएं कैसे बनाई जाती हैं। इनके अध्ययन के लिए छत्तों को खोदना पड़ता है। एक तरीका यह है कि छत्ते में टैल्कम पाउडर डालकर खुदाई की जाए ताकि छत्ते की दीवारें अलग चमकें। फिर मिट्टी की एक-एक परत हटाकर छत्ते का चित्र बनाते जाना होता है। एक अन्य तरीका यह रहा है कि मधुमक्खी को प्रयोगशाला में पालकर उसे भूमिगत छत्ता बनाने दिया जाए। लेकिन इन तकनीकों से घोंसलों के त्रि-आयामी आकार की केवल एक सीमित तस्वीर ही बन पाती है।

इनकी त्रि-आयामी संरचना को समझने के लिए स्वीडिश युनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज़ के मृदा वैज्ञानिक थॉमस केलर ने अस्पतालों में इस्तेमाल की जाने वाली सीटी स्कैनिंग तकनीक का उपयोग किया। इस तरह मधुमक्खियों की दो मुख्य प्रजातियों, खनिक मधुमक्खी (कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस) और स्वेद मधुमक्खी (लेज़ियोग्लॉसम मैलाचरम), के छत्तों का खुलासा किया गया। कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस एकाकी जीव है; हरेक मादा अपना घोंसला अकेले बनाती है, खुद ही पराग इकट्ठा करती है और छत्ता छोड़ने से पहले अंडे देती है। दूसरी ओर, लेज़ियोग्लॉसम मैलाचरम सामुदायिक रूप से प्रजनन करती है, कई पीढ़ियां साथ रहती हैं और यह समूह छत्ते को निरंतर विस्तार देता रहता है।

इन मधुमक्खियों का अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने स्विट्जरलैंड के घास के मैदानों की विभिन्न प्रकार की मिट्टियों का चयन किया। उन्होंने ज़मीन के भीतर 20 सेंटीमीटर चौड़े प्लास्टिक के पाइप डाले जहां मधुमक्खियां सक्रिय थीं और एक महीने बाद लेज़ियोग्लोसम मैलाचरम इन पाइपों को बाहर निकालकर सीटी स्कैनर से छत्तों को स्कैन किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस का छत्ता सरल लंबवत था, जबकि लेज़ियोग्लोसम मैलाचरम का छत्ता कहीं अधिक जटिल था।

मधुमक्खियों की गतिविधियों का मिट्टी की संरचना पर महत्वपूर्ण प्रभाव दिखा। छत्तों में इल्लियों के लिए बनाए प्रकोष्ठ मिट्टी में उपस्थित अन्य छिद्रों (जैसे जड़ों या कृमियों द्वारा बनाए गए छिद्रों) की तुलना में कहीं अधिक टिकाऊ थे क्योंकि इन्हें पत्तियों और पंखुड़ियों का अस्तर लगाकर वॉटरप्रूफ किया गया था। एक सुराख तो 16 महीने के अध्ययन में महफूज़ रहा।

हालांकि इस प्रकार के अध्ययन के लिए बड़े सीटी स्कैनर का व्यापक स्तर पर उपयोग करना तो संभव नहीं है लेकिन आज की उन्नत तकनीकों की मदद से शोधकर्ता यह तो पता लगा ही सकते हैं कि क्या मधुमक्खियां अपने भूमिगत छत्ते की डिज़ाइन को मिट्टी की किस्म और जलवायु के अनुसार ढालती हैं। इसके अतिरिक्त, वे यह भी पता लगा सकते हैं कि क्या कुछ परिस्थितियां उनके प्रजनन में मददगार होती हैं। इस आधार पर इनके संरक्षण के प्रयास किए जा सकते हैं।

फिलहाल शोधकर्ताओं का उद्देश्य यह पता लगाना है कि खेतों की जुताई जैसी प्रथाएं मधुमक्खियों को कैसे प्रभावित करती हैं। उम्मीद है कि यह अध्ययन नीति निर्माताओं को जंगली मधुमक्खियों की आबादी को बढ़ावा देने सम्बंधी महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराएगा। (स्रोत फीचर्स)

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सही दिशा में नहीं है वन व जैव विविधता कानूनों में संशोधन – भारत डोगरा

हाल ही में वन संरक्षण अधिनियम, 1980 व जैव विविधता अधिनियम, 2002 में संशोधन किए गए हैं। सरकारी स्तर पर चाहे इन दो संशोधनों के पक्ष में बहुत कुछ कहा गया है, किंतु पर्यावरण संरक्षण के अनेक विशेषज्ञ व आदिवासी हकदारी से जुड़े हुए अनेक जाने-माने कार्यकर्ता इन संशोधनों का अंत तक विरोध करते रहे। आखिर उनके विरोध का क्या कारण था?

वन संरक्षण कानून, 1980 को वन व पर्यावरण संरक्षण के भारत के प्रयासों में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर माना गया है। यह अधिनियम उस समय बना था जब भारत में पर्यावरण व वन रक्षा के प्रयास ज़ोर पकड़ रहे थे। इस अधिनियम के बनने के बाद वन क्षेत्र की रक्षा करने में यह कानून काफी हद तक सफल रहा। दूसरी ओर, वन अधिकार कानून बनने के दौर में आदिवासियों व वन समुदायों के वन अधिकारों की आवाज ने ज़ोर पकड़ा।

वास्तव में ये दोनों ही सही दिशा में कदम थे। एक ओर वन क्षेत्र का संरक्षण होना चाहिए तथा दूसरी ओर, आदिवासी-वनवासी समुदायों के वन अधिकारों की भी रक्षा होनी चाहिए।

सबसे उचित तो यही है कि आदिवासी समुदायों के लिए ऐसी स्थितियां उत्पन्न की जाएं जिनके अंतर्गत उनकी टिकाऊ आजीविका को वनों की रक्षा से जोड़कर साथ-साथ आगे बढ़ाया जाए ताकि वनों की रक्षा भी हो व आदिवासी समुदायों की टिकाऊ आजीविका सुरक्षित रहे।

वन संरक्षण अधिनियम के इस वर्ष हुए संशोधन की मुख्य आलोचना यही है कि इन दोनों सार्थक उद्देश्यों की दृष्टि से यह सही दिशा में नहीं है। इस संशोधन के आधार पर देश के बहुत से जंगल संरक्षण के दायरे से बाहर आ जाएंगे तथा उद्योग, खनन व प्लांटेशन के लिए वन-भूमि को प्राप्त करने की संभावना पहले की अपेक्षा बढ़ जाएगी।

सरकार का कहना है कि जलवायु बदलाव के संकट को कम करने के लिए जो बड़े पैमाने पर वृक्ष लगाने का कार्य है, वह इस संशोधन से बेहतर ढंग से हो सकेगा। पर हमें यह ध्यान में रखना पड़ेगा कि इस तरह के कई प्लांटेशन जल्दबाज़ी में लगाए जा रहे हैं व इनमें व्यापारिक महत्व के पेड़ों पर व कभी-कभी तो एक ही प्रजाति के पेड़ों पर या मोनोकल्चर को महत्व दिया जाता है। बेशक ऐसा सभी प्लांटेशन परियोजनाओं में नहीं होता है पर प्रायः यही देखा गया है। पाम ऑयल के पेड़ों को भी भारत में तेज़ी से बढ़ाने के प्रयास चल रहे हैं जबकि अन्य देशों में इसके प्लांटेशन पर्यावरण क्षति के लिए चर्चित रह चुके हैं।

अतः प्लांटेशन और प्राकृतिक वन में जो बड़ा अन्तर है उसे स्पष्ट करना ज़रूरी है। यदि संशोधन से प्राकृतिक वन कम होते हैं तथा खनन, उद्योग आदि के लिए दे दिए जाते हैं और इनके स्थान पर प्लांटेशन बढ़ते हैं तो यह पर्यावरण की दृष्टि से हानिकारक ही माना जाएगा, चाहे वृक्षों की संख्या में कमी न हो।

इस संशोधन के बाद, विशेषकर हिमालय क्षेत्र में वन अधिक संकटग्रस्त हो गए हैं। गौरतलब है कि इस वर्ष चिपको आंदोलन के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं और इस आंदोलन का हिमालय के वनों की रक्षा में व इसके प्रति जन-जागृति उत्पन्न करने में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इसी वर्ष हिमालय में आपदाओं के बढ़ने के लिए भी पर्यावरण के विनाश को ज़िम्मेदार माना गया है।

जहां तक जैव-विविधता के संरक्षण का सवाल है, तो पेटेंट कानूनों को पौधों के संदर्भ में लागू करने से जो समस्याएं उत्पन्न हो गई थीं, उनके समाधान के लिए वर्ष 2002 का जैव विविधता अधिनियम बना था। इससे पहले अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इस प्रवृत्ति का बहुत विरोध हुआ था कि वे विकासशील व निर्धन देशों की जैव संपदा का बहुत दोहन करती रही हैं और पेटेंट कानून पारित होने के बाद यह दोहन बहुत अधिक बढ़ जाएगा। यहां तक कि नीम और हल्दी का जो परंपरागत औषधि उपयोग भारत में होता रहा था, उस पर भी विदेशी तत्व अपना पेटेंट अधिकार जताने लगे थे।

इस स्थिति में जैव-विविधता कानून, 2002 बनाकर विभिन्न पौधों व वृक्षों के व्यावसायिक उपयोग को नियमित व नियंत्रित करने का प्रयास किया गया था। दूसरी ओर, समुदायों के अधिकारों को भी निर्धारित किया गया था ताकि जो लाभ व्यावसायिक हित प्राप्त करते हैं उसमें वे समुदायों को भी भागीदारी दें। विदेशी अनुसंधानकर्ताओं व व्यवसायों की इस संदर्भ में ज़िम्मेदारी भी निर्धारित की गई थी।

हालांकि इस कानून का पालन इसकी भावना के अनुरूप नहीं हुआ था, फिर भी वर्ष 2016 के न्यायालय के निर्णय के आधार पर उम्मीद बंधी थी कि इसमें सुधार होगा। समुदायों को भी व्यावसायिक निकायों की आय का कुछ भाग प्राप्त होगा। दूसरी ओर, हाल का संशोधन व्यावसायिक हितों पर बंधन व जि़म्मेदारियों में ढील देने की दिशा में है। समुदायों के अधिकार इससे कम होते हैं। जबकि व्यावसायिक हितों द्वारा जैव विविधता के अधिक दोहन की संभावना बढ़ती है। अतः जैव विविधता की रक्षा के स्थानीय समुदायों की हकदारी की दृष्टि से यह संशोधन उचित नहीं है।

वास्तव में जैव विविधता की रक्षा के प्रयास व्यापक स्तर पर मज़बूत करने चाहिए ताकि जैव विविधता की रक्षा हो व समुदायों के अधिकारों की संभावित क्षति को रोका जा सके।(स्रोत फीचर्स)

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मानव भ्रूण का एक अनजाना अंग

क्षियों, सरिसृपों जैसे अंडा देने वाले जंतुओं में भ्रूण का विकास शरीर के बाहर होता है जबकि मनुष्यों व स्तनधारियों में भ्रूण का लगभग पूरा विकास मादा शरीर के अंदर गर्भाशय में होता है। अंडा देने वाले जंतुओं में भ्रूण के विकास हेतु पोषण अंडे में ही संग्रहित रहता है और यह धीरे-धीरे चुकता जाता है। इन जंतुओं में यह पोषण योक थैली नामक एक अंग में भरा रहता है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि मनुष्यों के भ्रूण में भी योक थैली पाई जाती है, हालांकि इसकी भूमिका अस्पष्ट ही रही है। पहली बात तो यह है कि इस थैली में योक नहीं पाया जाता और दूसरी बात कि गर्भ की दूसरी तिमाही में यह सिकुड़ने लगती है। दरअसल मनुष्य व अन्य स्तनधारियों में विकसित होते भ्रूण को पोषण प्रदान करने का प्रमुख ज़रिया आंवल होती है। तो यह थैली करती क्या है?

साइन्स में प्रकाशित एक अध्ययन में खुलासा किया गया है कि मनुष्यों में योक थैली एक नहीं बल्कि तीन-तीन अंगों का काम करती है। लीवर और गुर्दों का विकास काफी देर से होता है और तब तक योक थैली इन अंगों का काम निपटाती रहती है। अब तक इन बातों का खुलासा न होने का प्रमुख कारण यह रहा है कि वैज्ञानिक जिन भ्रूण का अध्ययन करते हैं, वे उन्हें गर्भपात के बाद मिलते हैं और उनमें योक थैली नहीं होती।

यह तो पता रहा है कि चूहों में योक थैली भ्रूण की प्रारंभिक रक्त कोशिकाएं बनाती है। इसके अलावा यह गर्भाशय द्वारा निर्मित पोषक अणुओं को भ्रूण तक पहुंचाने का काम भी करती है। और तो और, वयस्क चूहों के कुछ ऊतकों में मैक्रोफेज नाम प्रतिरक्षा कोशिकाएं, दरअसल, योक थैली की कोशिकाओं की ही वंशज होती हैं। अर्थात यह कोई अवशिष्ट अंग नहीं है। अब वेलकम सैंगर रिसर्च इंस्टीट्यूट की सारा टाइकमैन, मुज़लिफा हनीफा और उनके साथियों ने मनुष्यों में योक थैली की भूमिका पर प्रकाश डाला है।

अपने अध्ययन के लिए उन्होंने योक थैली ऊतक के नमूने यू.के. स्थित एक बायोबैंक से प्राप्त किए थे। ये नमूने 4-8 सप्ताह के भ्रूणों से प्राप्त हुए थे। शोधकर्ताओं ने इन ऊतकों में जीन्स की गतिविधि की तस्वीर बनाई ताकि यह पता चल सके कि कौन-कौन सी कोशिकाएं उपस्थित हैं और वे क्या कर रही हैं।

इस डैटा से पुष्टि हो गई कि मानव योक थैली भी भ्रूण की प्रारंभिक रक्त कोशिकाएं बनाती है। गर्भधारण के महज 4 सप्ताह बाद इस थैली में रक्त बनाने वाली स्टेम कोशिकाएं, मैक्रोफेज और परिसंचरण तंत्र से सम्बंधित अन्य कोशिकाएं पाई गईं। भ्रूण के परिवर्धन के साथ योक थैली यह काम विकसित हो रहे लीवर को सौंप देती हैं और आगे चलकर लीवर यह भूमिका अस्थि मज्जा के हवाले कर देता है।

यानी अध्ययन बताता है कि मानव योक थैली एकाधिक भूमिका निभाती है। इसमें ऐसे प्रोटीन्स भी मिले जो हानिकारक विषैले पदार्थों को नष्ट करते हैं, और यह रक्त का थक्का जमने के लिए ज़रूरी प्रोटीन्स भी बनाती है। मानव योक थैली में कई ऐसे एंज़ाइम्स भी मिले हैं जो वसा व शर्करा के पाचन में काम आते हैं। इसका अर्थ है कि योक थैली पोषण में कुछ भूमिका तो निभाती है हालांकि उसमें कोई पोषक पदार्थ नहीं होते।

टाइकमैन और हनीफा के दल को एक महत्वपूर्ण बात यह पता चली है कि योक थैली मैक्रोफेज के निर्माण हेतु एक शॉर्टकट अपनाती है। आम तौर पर इन कोशिकाओं को एक मध्यवर्ती अवस्था से गुज़रना होता है लेकिन योक थैली में इस अवस्था को बायपास कर दिया जाता है। इसका मतलब है कि प्रयोगशाला में इस विधि का इस्तेमाल करके अधिक तेज़ी से मैक्रोफेज बनाए जा सकते हैं।

कुल मिलाकर मानव भ्रूण के शुरुआती विकास के दौरान योक थैली एक अस्थायी रचना होती है जो कई अहम भूमिकाएं निभाकर लुप्त हो जाती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अचानक होने वाले जेंडर असंतोष के दावों में दम नहीं है

ई देशों में आजकल ट्रांस-जेंडर लोगों के खिलाफ कानून बनाने की वकालत की जा रही है। इसके पीछे प्रमुख तर्क यह दिया जा रहा है कि अपने कुदरती लिंग के प्रति असंतोष की भावना छूत की तरह फैलती है और इसलिए ऐसे लोगों से दूर ही रहना बेहतर है। यह दावा एक अध्ययन के आधार पर किया गया था। इस अध्ययन में 1600 ऐसे ट्रांस-जेंडर मामलों का विवरण दिया गया था जो संभवत: सामाजिक छूत के परिणाम हैं। लेकिन इस अध्ययन को संस्थागत समीक्षा समिति ने नैतिकता सम्बंधी स्वीकृति नहीं दी और इसे वापिस ले लिया गया है।

उक्त सर्वेक्षण में अचानक प्रारंभ होने वाले जेंडर असंतोष की छानबीन की गई थी, जिसे सामाजिक रूप से छूत की संज्ञा दी गई है। इस धारणा में माना जाता है कि किशोरों में अपने कुदरती जेंडर के प्रति असंतोष की भावना दोस्तों या सोशल मीडिया के ज़रिए ट्रांस-जेंडर लोगों से संपर्क से पैदा हो सकती है। इस तरह के ‘रोग’ की उपस्थिति ट्रांस-जेंडर लोगों के अधिकारों के विरुद्ध एक प्रमुख दलील रही है, हालांकि चिकित्सा विशेषज्ञ ऐसे किसी सिंड्रोम को खारिज कर चुके हैं।

वर्ष 2021 में अमेरिकन सायकोलॉजिकल एसोसिएशन तथा 61 स्वास्थ्य प्रदाता संगठनों ने एक पत्र के माध्यम से ऐसे किसी सिंड्रोम के अस्तित्व को खारिज कर दिया था। इस सम्बंध में वैज्ञानिक प्रमाण बढ़ते जा रहे हैं कि यह ट्रांस-जेंडर किशोरों के अनुभवों को प्रतिबिंबित नहीं करता और आज यदि ज़्यादा युवा लोग जेंडर सम्बंधी मशवरे की तलाश कर रहे हैं तो इसका कारण सामाजिक छूत नहीं है। फिर भी इस धारणा का इस्तेमाल यूएस में ट्रांस विरोधी कानूनों के समर्थन में किया जा रहा है।

वर्ल्ड प्रोफेशनल एसोसिएशन फॉर ट्रांस-जेंडर हेल्थ के पूर्व अध्यक्ष एली कोलमैन का कहना है कि आज की स्थिति में तो इस सिंड्रोम को एक परिकल्पना भी नहीं कहा जा सकता।

कई ट्रांस-जेंडर लोग जेंडर असंतोष महसूस करते हैं। अर्थात जन्म के समय उनकी घोषित लैंगिक पहचान और उनकी जेंडर पहचान आपस में मेल नहीं खाती। जेंडर पहचानों के बीच इस गफलत को 2018 में ब्राउन विश्वविद्यालय की लिसा लिटमैन ने त्वरित स्थापित जेंडर असंतोष (रैपिड ऑनसेट जेंडर डिसफोरिया यानी आरओजीडी) का नाम दिया था।

लिटमैन ने एक सर्वेक्षण में ट्रांस-जेंडर किशोरों के पालकों से अपने बच्चे में जेंडर असंतोष के अचानक प्रकट होने को लेकर सवाल किए थे और पूछा था कि क्या इसका सम्बंध सोशल मीडिया के अत्यधिक इस्तेमाल अथवा बच्चे के दोस्तों में ट्रांसजेंडरों की उपस्थिति से था। गौरतलब है कि इन पालकों का चुनाव ज़्यादातर ट्रांस-जेंडर विरोधी वेबसाइट्स या मंचों से किया गया था।

बाद में लिटमैन ने त्रुटि सुधार किया था जिसमें बताया गया था सर्वेक्षण में पालकों का चुनाव किस तरह की वेबसाइट्स और मंचों से किया गया था। इसमें उन्होंने कहा था कि आरओजीडी कोई औपचारिक निदान नहीं है। लेकिन तब तक यह धारणा व्यापक तौर पर घर कर चुकी थी। राजनीतिज्ञों ने भी यह प्रचारित करना शुरु कर दिया था कि दोस्तों का दबाव और सोशल मीडिया बच्चों को ट्रांस-जेंडर बना रहा है या ट्रांस-जेंडर होना एक मनोरोग है। यूएस के कई राज्यों में इस धारणा का उपयोग ट्रांस-जेंडर विरोधी कानूनों के समर्थन में किया गया और युवा लोगों के लिए जेंडर सम्बंधी देखभाल को सीमित किया गया। अलबत्ता, वर्ल्ड प्रोफेशनल एसोसिएशन फॉर ट्रांस-जेंडर हेल्थ का कहना है कि यह मात्र भय-दोहन का मामला है जिसमें लोगों को डराकर विकल्प चुनने के कहा जाता है।

इस संदर्भ में ताज़ा शोध पत्र आर्काइव्स ऑफ सोशल बिहेवियर में प्रकाशित हुआ था जिसे अब वापिस ले लिया गया है। इसके लिए भी ट्रांसजेंडर बच्चों के पालकों से उनके बच्चे के अनुभव के बारे में सवाल किए गए थे। इस अध्ययन को वापिस लेने का कारण यह था कि शोधकर्ताओं ने पालकों से उनके जवाबों को प्रकाशित करने की अनुमति नहीं ली थी।

2018 और 2023 दोनों वर्षों के अध्ययनों में सहभागियों का चयन ऐसे ऑनलाइन समुदायों से किया गया था जो ट्रांस-जेंडर बच्चों के लिए जेंडर सम्बंधी देखभाल या परामर्श के आलोचक थे। वैसे लिटमैन इस बात से असहमत हैं कि इस बात का असर पालकों के जवाबों पर पड़ा होगा।

कई विशेषज्ञों का मत है कि इस अध्ययन में एक बड़ी समस्या यह है कि इसमें बच्चों के अनुभव जानने की बजाय पालकों के सर्वेक्षण को निष्कर्षों का आधार बनाया गया है।(स्रोत फीचर्स)

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कोरल भी खेती करते हैं शैवाल की

बीगल नौका पर सवार होकर दक्षिणी प्रशांत महासागर से गुज़रते हुए डारविन इस सवाल से परेशान रहे थे: बंजर समुद्र में कोरल (मूंगा) फलते-फूलते कैसे हैं? इसे डारविन की गुत्थी भी कहा जाता है। और अब नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन ने हमें इसके जवाब के नज़दीक पहुंचा दिया है।

शोध पत्र के लेखकों ने बताया है कि कोरल पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति उन पर उगने वाली शैवाल को खाकर करते हैं। यह तो काफी समय से पता रहा है कि कोरल का उन एक-कोशिकीय शैवालों के साथ परस्पर लाभ का सम्बंध रहता है जो उन पर पनपते हैं और उन्हें अपना ‘घर’ मानते हैं। कोरल की पनाह में शैवाल समुद्र के कठिन वातावरण से सुरक्षा पाते हैं और कोरल के अपशिष्ट पदार्थों का उपयोग भोजन के रूप में करते हैं। बदले में ये शैवाल सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को भोज्य पदार्थों में बदलते हैं जिनका उपयोग वे स्वयं तथा अपने मेज़बान कोरल के पोषण हेतु करते हैं। इसके अलावा कोरल बहकर आने वाले जंतु-प्लवकों का भक्षण भी करते हैं।

लेकिन दुनिया भर में फैली विशाल कोरल चट्टानों का काम इतने भर से नहीं चलता। और सबसे बड़ी परेशानी यह है कि यहां नाइट्रोजन और फॉस्फोरस जैसे पोषक पदार्थों का अभाव होता है।

अलबत्ता, आसपास रहने वाले जीव-जंतु काफी मात्रा में अकार्बनिक नाइट्रोजन व फॉस्फोरस का उत्सर्जन करते हैं, जिसका उपभोग कोरल पर बसे शैवाल कुशलतापूर्वक कर सकते हैं। तो साउथेम्पटन विश्वविद्यालय के यॉर्ग वाइडेलमैन को विचार आया कि क्या शैवाल ये पोषक तत्व अपने कोरल मेज़बानों को प्रदान करते हैं।

जानने के लिए वाइडेलमैन की टीम ने कोरल (शैवाल सहित) नमूनों को कुछ टंकियों में रखा जिनमें कोई भोजन नहीं था। इनमें से आधी टंकियों में उन्होंने ऐसे अकार्बनिक पोषक तत्व डाले जिनका उपयोग कोरल पर बसने वाली शैवाल ही कर सकती थी। पोषक तत्वों से रहित टंकियों में कोरल की वृद्धि रुक गई और 50 दिनों के अंदर उनके लगभग आधे शैवाल साथी गुम हो गए। लेकिन जिन टंकियों में शैवाल को भोजन मिला था उनमें कोरल की वृद्धि उम्दा रही।

यह तो पहले से पता था कि शैवाल प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए कोरल को ऊर्जा उपलब्ध कराते हैं लेकिन उक्त परिणामों से लगता है कि वे अकार्बनिक नाइट्रोजन और फॉस्फोरस को कोरल के लिए उपयुक्त रूप में बदल देते हैं। लेकिन वे ये पोषक तत्व कोरल को कैसे हस्तांतरित करते हैं, यह एक रहस्य ही बना रहा था।

विचार यह आया कि शायद कोरल इन शैवाल का भक्षण करते हैं। इसे समझने के लिए टीम ने यह हिसाब लगाया कि पोषक तत्वों की दी गई मात्रा से कोरलवासी शैवाल की आबादी में कितनी वृद्धि अपेक्षित है। फिर इसकी तुलना टंकियों में शैवाल कोशिकाओं की वास्तविक संख्या से की गई। इन कोशिकाओं की संख्या अपेक्षा से काफी कम थी। और तो और, जो कोशिकाएं नदारद थीं, उनके जितने नाइट्रोजन और फॉस्फोरस लगते, उतने ही कोरल को उतना बड़ा करने के लिए ज़रूरी थे। यानी कोरल्स शैवाल का शिकार कर रहे थे।

यह तो हुई टंकियों की बात। इस परिघटना को प्रकृति में देखने के लिए टीम ने हिंद महासागर के चागोस द्वीपसमूह में कोरल चट्टानों की वृद्धि का अवलोकन किया। यहां के कुछ द्वीपों पर समुद्री पक्षियों का घनत्व काफी अधिक है। और पक्षियों की बीट में ऐसे अकार्बनिक पोषक पदार्थ होते हैं जिनका उपयोग शैवाल सीधे-सीधे कर सकते हैं लेकिन कोरल नहीं कर सकते। तीन वर्षों की अवधि में टीम ने देखा कि पक्षियों के अधिक घनत्व वाले द्वीपों पर कोरल की वृद्धि कम घनत्व वाले द्वीपों की अपेक्षा दुगनी थी। इसके अलावा, पक्षियों के उच्च घनत्व वाले द्वीपों के तटवर्ती कोरल में नाइट्रोजन का एक ऐसा रूप भी पुन: दिखने लगा था जो पक्षियों की बीट में तो होता है लेकिन जंतु-प्लवकों में नहीं। अर्थात यह ज़रूर शैवालों के ज़रिए कोरल को मिला होगा।

पूरे मामले की सबसे मज़ेदार बात यह है कि इस अध्ययन में एक सजीवों के बीच के जटिल जैविक सम्बंध की खोज करने के लिए वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगों और प्रकृति में प्रत्यक्ष अवलोकनों का सुंदर मिला-जुला इस्तेमाल किया है।(स्रोत फीचर्स)

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किसी समय मानव प्रजाति विलुप्ति की कगार पर थी

गभग 9 लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में रहने वाले मनुष्यों के पूर्वजों को एक खतरनाक दौर का सामना करना पड़ा था। साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार हमारी प्रजाति (होमो सेपियन्स) के उद्भव से काफी पहले प्राचीन होमो पूर्वजों की जनसंख्या में इतनी गंभीर गिरावट हुई थी कि उनकी विलुप्ति का संकट पैदा हो गया था। उस समय जनसंख्या घटकर मात्र 1280 रह गई थी जो लगभग 1 लाख 17 हज़ार वर्षों तक स्थिर रही।

युनिवर्सिटी ऑफ चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के जनसंख्या आनुवंशिकीविद और इस अध्ययन के सह-लेखक हैपेंग ली के अनुसार इतिहास में एक लंबा दौर रहा जब 98.7 प्रतिशत मानव पूर्वजों की आबादी का खात्मा हो चुका था। उनका कहना है कि अफ्रीका और युरेशिया में 9.5 लाख से 6.5 लाख वर्ष के बीच जीवाश्मों की बहुत कमी दिखती है। उक्त खोज इस कमी की व्याख्या कर सकती है।

3 लाख साल के इस अंतराल में जनसंख्या तो काफी कम थी ही लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि इतनी छोटी-सी आबादी इतने लंबे समय तक जीवित रही। अनुमान है कि इस समूह में सामाजिक बंधन मज़बूत रहे होंगे और यह पर्याप्त संसाधनों और न्यूनतम तनाव वाले एक छोटे क्षेत्र में रहती होगी।

मानव इतिहास के इस छिपे हुए अध्याय को उजागर करने के लिए शोधकर्ताओं ने नई आनुवंशिक विधियां विकसित कीं। जीनोम अनुक्रमण की आधुनिक तकनीकों ने हालिया मानव आबादियों के आकार के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है लेकिन प्रारंभिक पूर्वजों के बारे पद्धतिगत सीमाएं और प्राचीन डीएनए की कमी बाधा रही हैं। इस नई तकनीक ने शोधकर्ताओं को आधुनिक मनुष्यों के जीन्स के डैटा की मदद से प्राचीन जनसंख्या के उतार-चढ़ाव को समझने का मौका दिया। टीम ने जीन्स के एक विस्तृत वंशवृक्ष का निर्माण करते हुए 8 से 10 लाख साल पहले की अवधि पर ध्यान केंद्रित किया और महत्वपूर्ण वैकासिक घटनाओं का निर्धारण करने में सफल रहे।

यह काल प्रारंभिक-मध्य प्लायस्टोसिन संक्रमण का हिस्सा था जब पृथ्वी गंभीर जलवायु परिवर्तन से गुज़र रही थी और हिमनद चक्र लंबे-लंबे व भीषण हो रहे थे। ऐसा अनुमान है कि इस अवधि में अफ्रीकी क्षेत्र में काफी समय तक सूखा रहा होगा जिसने संभवतः हमारे पूर्वजों के पतन और नई मानव प्रजातियों के उद्भव में प्रमुख भूमिका निभाई होगी। ये नई प्रजातियां अंततः आधुनिक मानव, निएंडरथल और डेनिसोवन्स में विकसित हुई।

लगभग 8,13,000 साल पहले मानव-पूर्वज जनसंख्या में फिर से वृद्धि शुरू हुई। हालांकि इस पुनरुत्थान के कारण तो स्पष्ट नहीं हैं लेकिन इस लंबे अंतराल ने मनुष्यों की आनुवंशिक विविधता पर गहरा प्रभाव डाला होगा जिसका असर कई लक्षणों (जैसे मस्तिष्क का आकार) पर पड़ा होगा। ऐसा अनुमान है कि इस अवधि में दो-तिहाई आनुवंशिक विविधता नष्ट हो गई थी।

इस शोध अध्ययन से लगता है कि यह मानव विकास में एक महत्वपूर्ण चरण रहा होगा और यह कई सवाल उठाता है। लेकिन कई पुरातत्वविद इन निष्कर्षों की पुष्टि के लिए अतिरिक्त पुरातात्विक और जीवाश्म साक्ष्य की अपेक्षा करते हैं। जैसे, इस अध्ययन में वैश्विक जनसंख्या में भारी कमी की जानकारी दी गई है लेकिन अफ्रीका के बाहर स्थित पुरातात्विक स्थलों की प्रचुर संख्या इस निष्कर्ष की पुष्टि नहीं करती। अन्य विशेषज्ञों के अनुसार यह कोई विश्वव्यापी परिघटना न होकर मात्र एक छोटे से क्षेत्र में सीमित थी। (स्रोत फीचर्स)

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