हमें, और खासकर छोटे बच्चों को, गुदगुदी का खेल पसंद आता है। लेकिन गुदगुदी, खेल-मनोरंजन या स्तनधारियों के ऐसे ही सकारात्मक व्यवहारों को बहुत कम समझा गया है। इसके विपरीत आक्रामकता या डर जैसे व्यवहारों को समझने के लिए काफी अध्ययन हुए हैं।
हम्बोल्ट विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी माइकल ब्रेख्त की रुचि यह समझने में थी कि खेल के सुखद अहसास कहां से आते हैं। पूर्व में देखा जा चुका था कि कुछ कृंतकों को मनोरंजन पसंद होता है। और यदि वे अच्छे मूड और अनुकूल महौल में हैं तो गुदगुदी का आनंद लेते हैं, और इंसानों की हंसी के समान उच्च आवृत्ति की आवाज़ें निकालते हैं। न्यूरॉन में प्रकाशित हालिया अध्ययन के मुताबिक शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क में इस आनंद के लिए ज़िम्मेदार क्षेत्र की पहचान कर ली है।
पूर्व अध्ययन बताते हैं कि चूहों में चेतना और अन्य उच्च श्रेणि के व्यवहार के लिए ज़िम्मेदार मस्तिष्क का क्षेत्र (कॉर्टेक्स) पूरा नष्ट हो जाने के बाद भी वे खेलकूद जारी रखते हैं। इससे पता चलता है कि डर की तरह खेल (या मनोरंजन) भी नैसर्गिक है। कुछ अध्ययन बताते हैं कि पेरिएक्वाडक्टल ग्रे (पीएजी) नामक एक संरचना की भी इसमें भूमिका हो सकती है जो ध्वनि, ‘लड़ो-या-भागो’ प्रतिक्रिया और अन्य व्यवहारों में भूमिका निभाती है। जब चूहे एक-दूसरे के साथ लड़ाई-लड़ाई खेलते हैं तो वे भय और आक्रामकता जैसा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। इसलिए ब्रेख्त को लगा कि पीएजी या मस्तिष्क का ऐसा ही कोई क्षेत्र मनोरंजन में भागीदार हो सकता है।
वे अपने पूर्व अध्ययन में देख चुके थे कि चूहे इंसानों की तरह पेचीदा खेल खेल सकते हैं। उनकी टीम कृंतकों को लुका-छिपी खेलना भी सिखा चुकी थी। खेल के शुरू में चूहे को एक बक्से में बंद कर शोधकर्ता कमरे में कहीं छिप गए। फिर रिमोट कंट्रोल की मदद से बक्सा खोलने पर चूहे ने बाहर आकर शोधकर्ता को ‘ढूंढना’ शुरू किया। जब चूहे ने छुपे हुए शोधकर्ता को ढूंढ लिया तो उसे गुदगुदी के रूप में पुरस्कार मिला। चूहों को भी छिपने का अवसर दिया गया था, और देखा गया कि चूहे छिपने की काफी नई-नई जगहें ढूंढ लेते हैं।
अपने अनुमान – खेल में पीएजी की भूमिका – की जांच के लिए ब्रेख्त की टीम ने पहले तो यह सुनिश्चित किया कि चूहे अपने अनुकूल और सहज माहौल में रहें। चूहों को मद्धम रोशनी वाली जगह सुहाती हैं, तेज़ रोशनी वाली और ऊंची जगहों पर वे परेशान होते हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने उनके साथ ‘हाथ पकड़ो’ खेल खेला। जब चूहे उनके हाथ तक पहुंच जाते थे तो शोधकर्ता उनकी पीठ और पेट पर गुदगुदी करते थे। गुदगुदी करने पर चूहे खुश होते थे और ‘खिलखिलाते’ थे। शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड लगाकर उनके मस्तिष्क की गतिविधि की निगरानी की। और अल्ट्रासोनिक माइक्रोफोन से उनकी हंसी भी रिकॉर्ड की।
पाया गया कि चूहे मनुष्यों के सुनने की क्षमता से बहुत अधिक आवृति पर ‘हंसते’ हैं। और, जब चूहे हंस रहे थे और खेल में व्यस्त थे तो उनके पीएजी के एक विशिष्ट क्षेत्र में हलचल देखी गई। इसके विपरीत जब चूहों को असहज जगह पर बैठाकर गुदगुदी की तो उन्होंने हंसना बंद कर दिया व उनके पीएजी का सक्रिय हिस्सा शांत हो गया। इससे लगता है कि विनोदभाव के लिए चूहों में पीएजी ज़िम्मेदार है। इसकी पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने पीएजी के उस हिस्से की तंत्रिकाओं को एक रसायन की मदद से शांत कर दिया। इसके बाद गुगगुदी करने पर चूहे नहीं हंसे और उनकी इंसानों और खेल में रुचि भी जाती रही। इससे लगता है कि गुदगुदी और खेल में पीएजी की महत्वपूर्ण भूमिका है।
ये नतीजे और भी महत्वपूर्ण इसलिए लगते हैं क्योंकि यह देखा जा चुका है कि जब कुछ चूहों को खेलने से वंचित कर दिया जाए तो वे मायूस हो जाते हैं, रिश्ते बनाने में असफल रहते हैं और तनावपूर्ण स्थितियों में कम लचीले हो जाते हैं। यह भी देखा गया है कि खेल की कमी से मस्तिष्क का विकास भी रुक जाता है।
आगे ब्रेख्त यह देखना चाहते हैं कि पीएजी की खेल के अन्य पहलुओं, जैसे नियमों का पालन करने के व्यवहार में क्या भूमिका है। उनका अवलोकन था कि लुका-छिपी खेल में यदि मनुष्य बार-बार एक ही जगह छिपें या ठीक से छिपने में विफल रहें तो चूहों ने खेल में रुचि खो दी थी। उम्मीद है कि इस काम से सकारात्मक भावनाओं को समझने की दिशा में अधिक काम होगा और चिंता व अवसाद से पीड़ित रोगियों के लिए प्रभावी उपचार विकसित करने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adk0145/full/_20230728_on_rattickling-1690557289130.jpg
हाल ही में मधुमक्खियों और ततैयों पर किए गए एक अध्ययन से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए हैं। प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जैव विकास की राह में 18 करोड़ वर्ष पूर्व अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ने के बावजूद मधुमक्खियों और ततैयों दोनों समूहों ने छत्ता निर्माण की जटिल ज्यामितीय समस्या से निपटने के लिए एक जैसी तरकीब अपनाई है।
गौरतलब है कि मधुमक्खियों और ततैयों के छत्ते छोटे-छोटे षट्कोणीय प्रकोष्ठों से मिलकर बने होते हैं। इस प्रकार की संरचना में निर्माण सामग्री कम लगती है, भंडारण के लिए अधिकतम स्थान मिलता है और स्थिरता भी रहती है। लेकिन रानी मक्खी जैसे कुछ सदस्यों के लिए बड़े आकार के प्रकोष्ठ बनाना होता है और उनको समायोजित करना एक चुनौती होती है। यदि कुछ प्रकोष्ठ का आकार बड़ा हो जाए तो ये छत्ते में ठीक से फिट नहीं होंगे और छत्ता कमज़ोर बनेगा।
मामले की छानबीन के लिए ऑबर्न विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मधुमक्खी और ततैया की कई प्रजातियों के छत्तों का विश्लेषण किया और पाया कि दोनों जीव इस समस्या के समाधान के लिए एक जैसी तरकीब अपनाते हैं। यदि छोटे और बड़े प्रकोष्ठ की साइज़ में अंतर बहुत अधिक न हो तो वे बीच-बीच में थोड़े विकृत मध्यम आकार के षट्कोणीय प्रकोष्ठ बना देते हैं। यदि आकार का अंतर अधिक हो तो वे बीच-बीच में प्रकोष्ठों की ऐसी जोड़ियां बना देते हैं जिनमें से एक प्रकोष्ठ पांच भुजाओं वाला और दूसरा सात भुजाओं वाला होता है।
शोधकर्ताओं ने इसका एक गणितीय मॉडल भी तैयार किया जो बड़े और छोटे षट्कोणों के आकार में असमानता के आधार पर बता सकता है कि प्रकोष्ठों की साइज़ में कितना अंतर होने पर पंचभुज व सप्तभुज प्रकोष्ठों की कितनी जोड़ियां लगेंगी। अत: भले ही मधुमक्खियों और ततैयों ने स्वतंत्र रूप से षट्कोणीय प्रकोष्ठों से छत्ता बनाने की क्षमता विकसित की हो लेकिन लगता है कि वे इन्हें बनाने के लिए एक जैसे गणितीय सिद्धांतों का उपयोग करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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वैकासिक चिकित्सा के क्षेत्र में अपेक्षा यह है कि अधिकांश गतिविधि जिज्ञासा-प्रेरित पहेली सुलझाने पर आधारित अनुसंधान से जुड़ी होंगी और सफलता का आकलन इस आधार पर किया जाएगा कि नए निष्कर्ष कितने सुंदर और तार्किक हैं और कैसे वे अब तक असम्बंधित दिखने वाली परिघटनाओं को संतोषजनक ढंग से आपस में जोड़ते हैं। विज्ञान के फलने-फूलने के लिए यही तो चाहिए। आइए अब कुछ हालिया उदाहरणों पर गौर करते हैं।
रोगनुमा मोटापा: वैकासिक उत्पत्ति
मैरी जेन एक अत्यंत प्रतिष्ठित वैकासिक जीव विज्ञानी हैं। उनकी पुस्तक डेवलपमेंटल प्लास्टिसिटी एंड इवोल्यूशन (Developmental Plasticity and Evolution, 2003) ने उन्हें वैकासिक जीव विज्ञान में एक प्रमुख समकालीन विचारक के रूप में स्थापित कर दिया है। खुशी की बात है कि ऐसे लेखक ने अब अपना ध्यान वैकासिक चिकित्सा की समस्या पर लगाया है।
वर्ष 2019 में PNAS के एक परिप्रेक्ष्य आलेख – ‘न्यूट्रिशन, दी विसरल इम्यून सिस्टम, एंड दी इवोल्यूशनरी ओरिजिन्स ऑफ पैथोजेनिक ओबेसिटी’ – में मैरी जेन ने एक नवीन परिकल्पना प्रस्तावित की थी: ‘VAT prioritisation’। उनका मुख्य सुझाव यह था कि आमाशयी वसा और त्वचा के नीचे जमा वसा के बीच भेद किया जाना चाहिए। इन्हें एक ही श्रेणि में रखना ठीक नहीं है जैसा कि बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) के संदर्भ में किया जाता है। बीएमआई का मतलब होता है आपका कुल वज़न बटा मीटर में कद का वर्ग।
बीएमआई अति वज़न और मोटापे की स्थिति का विवऱण देने या उनका निदान करने के लिए पर्याप्त नहीं होता और न ही उनसे सम्बंधित तमाम रोगों (जैसे टाइप-2 डायबिटीज़ या रक्त संचार सम्बंधी रोग) को समझने में मददगार होता है। इसका कारण यह है कि आमाशयी वसा, जिसे तकनीकी भाषा में विसरल एडिपोज़ टिश्यू (VAT) कहते हैं, और त्वचा के नीचे जमा वसा, जिसे सबक्यूटेनियस एडिपोज़ टिश्यू (SAT) कहते हैं, इन दोनों के कार्य अलग-अलग हैं और ये पर्यावरणीय कारकों के प्रति अलग-अलग ढंग से प्रत्युत्तर देते हैं। स्वास्थ्य, सामाजिक व वैकासिक संदर्भ में इनके परिणाम भी अलग-अलग होते हैं।
लिहाज़ा, मैरी जेन का कहना है कि “इन मुख्य संरचनाओं के जैविक कार्यों को समझे बगैर, मोटापे की बीमारी का विश्लेषण करना ऐसा है जैसे हृदय के जैविक कार्य को समझे बगैर रक्त संचार सम्बंधी रोगों को समझने की कोशिश।”
VAT के प्रमुख प्रतिरक्षा सम्बंधी कार्य हैं जिनमें प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू करने के लिए ज़रूरी कुछ वसा अम्लों का भंडारण करना और ऐसे संकेतों का प्रत्युत्तर देना जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया की ज़रूरत दर्शाते हैं। लिहाज़ा, VAT आमाशयी संक्रमणों से निपटने में निर्णायक भूमिका निभाता है। दूसरी ओर, SAT संक्रमणों से निपटने में महत्वपूर्ण नहीं होता और उसके अन्य कार्य होते हैं जैसा कि हम आगे देखेंगे।
VAT प्रायोरिटाइज़ेशन परिकल्पना कहती है कि जब भ्रूण को कम पोषण मिले तो उसे SAT के मुकाबले VAT में निवेश को प्राथमिकता देनी चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि जन्म के समय बच्चे का वज़न कम होगा, जो संक्रमण के उच्च जोखिम से जुड़ा देखा गया है।
लेकिन कभी-कभी अभावग्रस्त भ्रूणीय पर्यावरण के आधार पर अभावग्रस्त वयस्क पर्यावरण की भविष्यवाणी असफल रहती है (जैसा तब होता है जब कम वज़न वाले बच्चे को बढ़िया भोजन मिलने लगता है) तो एक दिक्कत होती है, एक नए किस्म का असामंजस्य प्रकट होता है। अतिरिक्त व अनावश्यक आमाशयी वसा जमा होने लगती है, जिसका परिणाम मोटापे के रूप में सामने आता है, जिसका सम्बंध डायबिटीज़ और रक्तसंचार सम्बंधी रोगों से देखा गया है।
आमाशयी वसा के अतिरेक की समस्या तब और विकट हो जाती है जब वयस्कों को वसा व शकर से भरपूर भोजन मिलने लगता है। ऐसा भोजन शरीर को सूजननुमा (शोथनुमा) प्रतिक्रिया शुरू करने को उकसाता है। और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अतिरिक्त वसा व शकर आंतों के बैक्टीरिया को प्रभावित करते हैं, जिसके कारण संभवत: विसरल रोगजनकों के लिए पारगम्यता और बढ़ जाती है।
शरीर के विभिन्न कार्यिकीय घटकों की जटिल परस्पर क्रियाओं की जानकारी के बगैर चिकित्सकीय हस्तक्षेपों को लेकर सचेत हो जाना चाहिए।
मुझे खास तौर से मैरी जेन द्वारा उद्धरित एक शोध पत्र ने प्रभावित किया था जिसमें नीना मोदी और इम्पीरियल कॉलेज लंदन और किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल, पुणे के उनके साथियों ने भारतीय व युरोपीय शिशुओं की तुलना की थी। इसमें कहा गया था, “वयस्क एशियाई भारतीय फीनोटाइप में कमतर बॉडी मास इंडेक्स के बावजूद कमर वाले हिस्से में मोटापा पाया जाता है।”
उनका निष्कर्ष गौरतलब है। युरोपीय शिशुओं की तुलना में एशियाई भारतीय नवजातों में VAT वसा-संग्रह कहीं ज़्यादा था, जबकि पूरे शरीर के स्तर पर वसा संग्रह लगभग बराबर था। उनका निष्कर्ष था कि “वसा ऊतकों का विभाजन जन्म के समय ही अस्तित्व में होता है” और उन्होंने सलाह दी थी कि “खोजबीन, स्क्रीनिंग तथा रोकथाम के उपायों में मां के स्वास्थ्य, गर्भाशय में रहने की अवधि और शैशवावस्था को शामिल किया जाना चाहिए।”
SAT के ऊपर VAT को प्राथमिकता देना शरीर का एक उपयोगी प्रत्युत्तर हो सकता है – लेकिन गर्भावस्था के दौरान घटिया पोषण की भरपाई ज़्यादा वसा और शकर युक्त आहार देकर करना शायद मामले को और बिगाड़ सकता है। कहने का मतलब यह है कि जीवन में खराब परिस्थितियों के कारण हुए असर को किसी अन्य समय पर परिस्थिति में सुधार करके संभाला नहीं जा सकता। दरअसल, यह बात को बिगाड़ सकता है।
यह एक बार फिर दर्शाता है कि चिकित्सा और स्वास्थ्य देखभाल में शरीर की उन क्रियाविधियों का ध्यान रखना होगा, जो प्रतिकूलताओं से निपटने के लिए विकसित हुई हैं। कोशिश इन प्रक्रियाओं को सुदृढ़ बनाने की होनी चाहिए, न कि उनको अनदेखा करके कुछ एकदम नया करने की।
दूसरी ओर, SAT का अतिरेक स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। इसीलिए अधिक SAT वाले लोगों पर ‘चयापचयी रूप से स्वस्थ मोटा’ का लेबल चस्पा कर दिया जाता है। VAT प्रायोरिटाइज़ेशन परिकल्पना का एक प्रमुख तत्व यह है कि VAT-SAT संतुलन फीनोटायपिक लचीलेपन से आकार पाता है – कहने का मतलब कि एक ही जीन समुच्चय पर्यावरण के अनुसार अलग-अलग प्रकट रूपों को जन्म दे सकता है: यदि परिस्थितियां खराब हों तो VAT ज़्यादा और यदि बाहर सब कुछ ठीक-ठाक लगे तो SAT ज़्यादा। तो आखिर ज़्यादा SAT क्यों अच्छा है?
विविध साहित्य के आधार पर, मैरी जेन का तर्क है कि SAT व्यक्ति को स्तनों और कूल्हों जैसे क्षेत्रों में वसा संग्रह की अनुमति देता है, जिनसे शरीर का शेप तथा सौंदर्य व उर्वरता के अन्य लक्षण परिलक्षित होते हैं और यौन व सामाजिक आकर्षण के ज़रिए प्रजनन में सफलता मिलती है। यौन व सामाजिक आकर्षण ऐसी परिघटना है जिसका मैरी जेन पहले काफी विस्तार में अध्ययन कर चुकी हैं और ये प्राकृतिक वरण की विविधताएं हैं जहां व्यक्ति प्रजनन या सामाजिक सहयोग के लिए साथी के रूप में वरीयता पाकर वैकासिक सफलता हासिल करता है।
कुल मिलाकर मैरी जेन का निष्कर्ष था कि “VAT–SAT संतुलन को वैकासिक दृष्टि से देखा जा सकता है जिसमें VAT की प्रतिरक्षा भूमिका और SAT की सामाजिक भूमिका (शरीर को आकार देना) के बीच लेन-देन होता है।”
निसंदेह इन विचारों को संभावित परिकल्पना के रूप में देखा जाना चाहिए, जिनकी आगे जांच करना उपयोगी होगा। कोई परिकल्पना जितने विविध व सहजबोध विरुद्ध अवलोकनों को जोड़ सके वह उतनी ही आकर्षक होनी चाहिए।
अलबत्ता, परिकल्पना के उच्चतर आकर्षण का मतलब ज़रूरी नहीं कि वह सही हो, लेकिन इतना तो है कि ऐसी परिकल्पना को परीक्षण में प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
टाइप-2 डायबिटीज़ पर पुनर्विचार
मेरे मित्र व सहकर्मी मिलिंद वाटवे ने पिछले दो दशक टाइप-2 डायबिटीज़ के बारे में हमारी समझ को चुनौती देते व्यतीत किए हैं और एक संभव नया मान्यता-आधार सुझाने की कोशिश की है। एक पुस्तक डव्स, डिप्लोमैट्स एंड डायबिटीज़ में वाटवे पहले तो टाइप-2 डायबिटीज़ की हमारी पारंपरिक समझ का सार प्रस्तुत करते हैं:
1. मोटापा धनात्मक ऊर्जा संतुलन का परिणाम है – यानी हम जितना जलाते हैं, उससे ज़्यादा खाते हैं।
2. मोटापा इंसुलिन प्रतिरोध का प्रमुख कारण है।
3. इंसुलिन प्रतिरोध से निपटने के लिए शरीर ज़्यादा इंसुलिन बनाने लगता है।
4. इंसुलिन निर्माण की क्षमता में क्रमिक गिरावट और इंसुलिन प्रतिरोध का विकास मिलकर रक्त शर्करा में वृद्धि का कारण बनते हैं।
5. बढ़ी हुई रक्त शर्करा डायबिटीज़ के रोग परिणामों के लिए उत्तरदायी होती है।
दूसरे भाग में तमाम शोध साहित्य की मदद से वे इनमें से प्रत्येक वक्तव्य पर सवाल खड़े करते हैं:
1. धनात्मक ऊर्जा संतुलन का कारण अस्पष्ट है; क्या यह इसलिए होता है कि हम ज़्यादा खाते हैं या कमजलाते हैं? यदि हम नहीं जानते कि कौन-सी बात सही है, तो धनात्मक ऊर्जा संतुलन का विचार उपयोगी नहीं रह जाता। दूसरे शब्दों में, हम आजकल के मोटापे के कारणों को नहीं समझते।
2. मोटापा और इंसुलिन प्रतिरोध में सह-सम्बंध तो है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कौन-सा कारण है और कौन-सा उसका परिणाम। यदि इनके बीच कार्य-कारण सम्बंध मान लिया जाए, तो भी यह स्पष्ट नहीं है कि मोटापा किस क्रियाविधि से इंसुलिन प्रतिरोध को जन्म देता है।
3. यह भी सही है कि इंसुलिन प्रतिरोध और इंसुलिन के उत्पादन के बीच सह-सम्बंध है लेकिन यहां भी कार्य-कारण सम्बंध अस्पष्ट है। यदि ऐसा हो कि इंसुलिन का अति-उत्पादन इंसुलिन प्रतिरोध को जन्म देता हो, तो कहानी पलट जाएगी और खुराक व मोटापे की भूमिकाओं पर सवाल खड़े हो जाएंगे।
4. शोध-साहित्य में सारे प्रमाण संकेत देते हैं कि इंसुलिन की कमी और इंसुलिन प्रतिरोध, दोनों ही महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ये रक्त शर्करा में वृद्धि पैदा करने के लिए न तो आवश्यक हैं और न ही पर्याप्त।
5. उच्च रक्त शर्करा और डायबिटीज़ के रोगनुमा प्रभावों के बीच प्रस्तावित कड़ी सबसे कमज़ोर है और इसके चलते पूरा मामला प्रमाणित तथ्य की बजाय एक विश्वास ज़्यादा लगता है।
प्रचलित मान्यता-आधार से असंतुष्ट होकर, वाटवे ने एक नया मान्यता-आधार प्रस्तुत करने की कोशिश की। संक्षेप में, वाटवे का नया मान्यता-आधार यह है कि हमारी व्यवहारगत रणनीतियां स्वास्थ्य और बीमारी, खास तौर से चयापचय-सम्बंधी बीमारियों, के संदर्भ में महत्वपूर्ण तत्व हैं।
व्यापक शोध साहित्य के आधार पर वाटवे ने अपनी परिकल्पना और वर्तमान मान्यता-आधार का अंतर संक्षेप में इन शब्दों में प्रस्तुत किया था:
“क्लासिकल सिद्धांत की दलील है कि सुस्त जीवन शैली मोटापे को जन्म देती है, मोटापा इंसुलिन-प्रतिरोध पैदा करता है। [मेरी] नई परिकल्पना कहती है कि शारीरिक गतिविधियां और खास तौर से आक्रामक गतिविधियां, मोटापे से स्वतंत्र, अपने-आप में इंसुलिन के प्रति संवेदनशील बनाती हैं…।”
अर्थात, वाटवे द्वारा प्रस्तावित कार्य-कारण दिशा ‘जीवन शैली से इंसुलिन प्रतिरोध से मोटापे’ की ओर जाती है, न कि पूर्व में बताई गई ‘जीवन शैली से मोटापा से इंसुलिन प्रतिरोध’ की ओर। ज़ाहिर है कि यह प्रस्तावित नया कार्य-कारण सम्बंध बहुत अलग किस्म के नीतिगत नुस्खे का रास्ता खोलता है।
वाटवे ने दीनानाथ मंगेशकर हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर (पुणे) में हाल ही में स्थापित बिहेवियोरल इंटरवेंशन फॉर लाइफस्टाइल डिस-ऑर्डर्स (BILD) में चिकित्सकों के साथ काम शुरू भी कर दिया है। एक हालिया प्रकाशन में उन्होंने और उनके साथियों ने दर्शाया है कि “कामकाजी फिटनेस के एक बहुआयामी स्कोर का टाइप-2 डायबिटीज़ के साथ ज़्यादा सशक्त सह-सम्बंध है बनिस्बत मोटापे के।”
अलबत्ता, मान्यता-आधारों को बदलना बहुत मुश्किल काम है। एक हालिया ईमेल में वाटवे ने मुझे बताया था:
“मैं डायबिटीज़ के सम्बंध में शोध कार्य प्रकाशित करता रहा हूं (अब तक 20 शोध पत्र और 2 पुस्तकें)। लेकिन मैं डायबिटीज़ अनुसंधान समुदाय की प्रतिक्रिया से हैरान हूं। किसी ने विरोध में तर्क नहीं दिए, जो कुछ मैं कह रहा हूं, किसी ने उस पर सवाल नहीं उठाए और संदेह व्यक्त नहीं किए। मैंने हारवर्ड मेडिकल स्कूल के जोसलिन डायबिटीज़ सेंटर जैसी जगहों पर व्याख्यान दिए। लोगों ने मुझे रुचिपूर्वक सुना और व्यक्ति की हैसियत से सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। लेकिन विज्ञान के स्तर पर कुछ नहीं हुआ। प्रचलित मान्यता-आधार में कोई परिवर्तन नहीं दिखा जबकि अनगिनत प्रयोग उसका खंडन कर रहे हैं। मेरे शोध पत्रों को बहुत कम उद्धरित किया जाता है। चिकित्सकीय कामकाज में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।”
वाटवे के साथ न्याय करते हुए, कहना होगा कि उनके दावे और अपेक्षाएं बहुत अधिक नहीं हैं। अपनी पुस्तक का समापन करते हुए उन्होंने लिखा है कि हो सकता है कि वे गलत हों और उन्हें खुशी होगी कि कोई उनकी गलतियां बताए या उनकी भविष्यवाणियों को परखने के लिए प्रयोग करे।
वैकासिक सोच, डॉक्टर और मरीज़
बदकिस्मती से, वैकासिक जीव विज्ञान में वैकासिक चिकित्सा के विचार से प्रेरित गतिविधियों का अंबार अपने आप चिकित्सा के कामकाज में, डॉक्टरों के पेशेवर जीवन में या मरीज़ों के अनुभव में कोई ठोस परिवर्तन नहीं लाएगा।
नए अनुसंधान का डॉक्टरों व मरीज़ों पर कोई असर हो, इसके लिए ज़रूरी होगा कि वैकासिक जीव विज्ञान का उतना ही लाभदायक असर चिकित्सा विज्ञान तथा चिकित्सकीय कामकाज पर हो। यह तभी होगा जब डॉक्टर और चिकित्सा शोधकर्ता वैकासिक जीव विज्ञान को मुख्य सिद्धांत के रूप में स्वीकार करें।
इसके लिए ज़रूरी होगा कि वैकासिक जीव विज्ञान चिकित्सा शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बने ताकि चिकित्सा शोधकर्ता और चिकित्सक स्वयं चिकित्सा का एक जैव विकास प्रेरित अजेंडा विकसित कर सकें। यहां जॉर्ज विलियम्स और रैडॉल्फ नेसे की वह टिप्पणी दोहराना मुनासिब है जो उन्होंने अपने महत्वपूर्ण शोध पत्र दी डॉन ऑफ डार्विनियन मेडिसिन (1991) में व्यक्त की थी:
“चिकित्सा सम्बंधी समस्याओं में जैव विकास के सिद्धांतों के नए अनुप्रयोग दर्शाते हैं कि यदि चिकित्सा व्यवसायी डार्विन से उसी तरह प्रेरित हों, जिस तरह से वे पाश्चर से हुए हैं, तो प्रगति और भी तेज़ होगी।”
जैव विकास और चिकित्सा पाठ्यक्रम
चिकित्सा विद्यालयों को यह समझाने के काफी प्रयास किए गए हैं कि वे चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम में वैकासिक जीव विज्ञान को शामिल करें लेकिन ज़्यादा सफलता नहीं मिली है। रैडॉल्फ नेसे ने एक हालिया ईमेल में मुझे बताया था:
“कोई चिकित्सा विद्यालय यह विषय नहीं पढ़ाता, हालांकि एक व्याख्यान होता है। क्यों नहीं पढ़ाता? एक वास्तविक तहकीकात ज़रूरी है लेकिन मुख्य बात यह है कि डॉक्टर्स वैकासिक जीव विज्ञान जानते ही नहीं, और चिकित्सा विद्यालयों की फैकल्टी में कोई वैकासिक जीव वैज्ञानिक नहीं होता…और चिकित्सा एक ऐसा व्यवसाय है जो सिर्फ ठीक करने (फिक्सिंग) पर ध्यान देता है और मात्र उस समझ को बढ़ावा देता है जो ठीक करने में या स्थापित चिकित्सा वैज्ञानिकों के कैरियर में मदद करे…। PNAS में मेरे आलेख (कि क्यों चिकित्सा पाठ्यक्रम में जैव विकास ज़रूरी है) में हारवर्ड और येल विश्वविद्यालय के डीन्स सहलेखक थे किंतु उसका लगभग कोई असर नहीं हुआ।”
पाठ्यक्रम सुधार प्राय: विभिन्न विषयों के संरक्षकों के बीच दंगल-सा होता है। जैव विकास के मामले में एक अतिरिक्त समस्या है – जैव विकास को लेकर धार्मिक आपत्तियां और कतिपय समाजों में हित-सम्बंधी समूहों के तुष्टिकरण की राजनैतिक मजबूरी। डॉक्टरों और चिकित्सा विज्ञान शोधकर्ताओं को वैकासिक सोच आत्मसात करवाना पाठ्यक्रम सुधार के बिना संभव नहीं है। लेकिन यह वह क्षेत्र है जिसमें प्रगति बहुत कम हुई है और भविष्य भी बहुत आशाजनक नहीं लगता।
इस बात की तत्काल ज़रूरत है कि शिक्षाविद और प्रशासक इस बाधा को पार करने के उपाय निकालें, क्योंकि दांव पर काफी कुछ लगा है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://iiif.elifesciences.org/journal-cms/collection%2F2021-07%2Felife-evolutionary-medicine-2.jpg/0,1,10738,3576/2000,/0/default.jpg
पिछले दिनों देश के अखबारों में प्रयोगशाला में मांस बनाने के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। यह रिपोर्ट पोल्ट्री फार्म में या विशेष रूप से निर्मित बूचड़खानों में जानवरों को मारने की बजाय प्रयोगशाला में मांस निर्मित करने के भारतीय प्रयासों के बारे में हैं।
वास्तव में, प्रयोगशाला में मांस तैयार करने का काम अमेरिका और युरोप दोनों जगहों पर जारी है। विचार है कि मांस के लिए जानवरों को न मारें बल्कि उन्हें बचाएं और प्रयोगशाला में मांस तैयार करें। दी स्टेट्समैन में प्रकाशित लेख में कहा गया है कि ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से प्रयोगशाला संवर्धित मांस एक बेहतर विकल्प है: इसमें कोई क्रूरता नहीं की जाती है; प्रयोगशाला मांस को बहुत कम वसा वाला, कोलेस्ट्रॉल-रहित और संतृप्त वसा-रहित बनाया जा सकता है, जो उपभोक्ताओं के लिए स्वास्थ्यवर्धक होगा; भविष्य में जब प्रयोगशाला मांस बाज़ार के लिए उपलब्ध होगा तो यह पारंपरिक मांस से सस्ता हो सकता है; और प्रयोगशाला में निर्मित मांस के पर्यावरणीय प्रभाव भी कम होंगे।
आखिरी बिंदु विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि अनुमान है कि विश्व स्तर पर मांस के लिए हर साल 50 अरब से अधिक मुर्गियां पाली जाती हैं। इसका मतलब है कि दुनिया भर में हर दिन लगभग साढ़े 13 करोड़ मुर्गियां मारी जाती हैं। मुर्गीपालन के मामले में अमेरिका तीसरे नंबर पर है। रूस्टर हॉउस रेस्क्यू वेबसाइट बताती है कि अकेले अमेरिका में हर दिन 2.33 करोड़ थलचर जानवर मार दिए जाते हैं। इतनी ही संख्या में पोर्क और बीफ के लिए भी जानवर मारे जाते हैं। यह सब ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में लगभग 15 प्रतिशत का योगदान देता है, जिससे पर्यावरण प्रभावित होता है।
इस लिहाज़ से प्रयोगशाला में मांस बनाना एक स्वच्छ और बेहतर विकल्प है। 2017 में एक डच वैज्ञानिक डॉ. मार्क पोस्ट ने अपनी प्रयोगशाला में बीफ बनाया था। तब से हमने प्रयोगशाला में मांस विकसित करने के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है, जो पशु और पर्यावरण दोनों के अनुकूल है। यहां तक कि अमेरिकी कृषि विभाग ने प्रयोगशाला में पशु कोशिकाओं से मांस विकसित करने वाली कई निजी कंपनियों को मंज़ूरी दे दी है। अमेरिका में पेटा (पीपल फॉर दी एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स) नामक समूह ने प्रयोगशाला में मांस तैयार करने वाली दो फर्मों, अपसाइड फूड्स और गुड मीट, को इसके लिए वित्तीय सहायता दी है। भारत में, जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) ने पशु कोशिकाओं से प्रयोगशाला में मांस का विकसित करने के लिए हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी को अनुदान दिया है, और डॉ. ज्योत्सना धवन और मधुसूदन राव ने इसे सफलतापूर्वक तैयार किया है। वर्तमान में, भारत में कुछ निजी प्रयोगशालाएं हैं जो संवर्धित मांस तैयार करती हैं।
संवर्धित मांस कैसे बनाया जाता है? अमेरिका की गुड मीट फर्म जीवित जानवर की मांसपेशियों और अन्य अंगों से तैयार की गई स्टेम कोशिकाओं का उपयोग करती है। इन कोशिकाओं को अमीनो एसिड और कार्बोहाइड्रेट के पोषण से भरी पेट्री डिश में रखा जाता है ताकि ये कोशिकाएं फल-फूल सकें। कोशिकाओं की स्टील की टंकियों में वृद्धि की जाती है और मांस उत्पादित किया जाता है। फिर तैयार मांस को कटलेट और सॉसेज जैसा आकार दिया जाता है और बाज़ार में बेच दिया जाता है। भारत में संवर्धित मांस उत्पादन में लगी कंपनियां भी इसी तरीके से मांस तैयार करती हैं। (स्रोत फीचर्स)
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जब तक पृथ्वी पर डायनासौर का राज रहा, स्तनधारी जीव काफी छोटे साइज़ के हुआ करते थे। ऐसा माना जाता है कि जिस समय डायनासौर पृथ्वी पर राज कर रहे थे उस समय स्तनधारी जीव उनसे डरकर यहां-वहां छिप जाते थे। लेकिन चीन में मिला जीवाश्म एक स्तनधारी जीव द्वारा डायनासौर का शिकार करने का दुर्लभ साक्ष्य पेश करता है और उक्त धारणा को चुनौती देता है।
वर्ष 2012 में उत्तरी चीन के लुजियाटुन के हरे-भरे जंगल में एक किसान को एक जीवाश्म मिला था। किसान ने यह जीवाश्म हानियन वोकेशनल युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के जीवाश्म विज्ञानी गैग हैन के सुपुर्द कर दिया।
जीवाश्म लगगभग 12.5 करोड़ साल पुराना था। उस समय इस इलाके में ट्राइसेराटॉप्स के पूर्वज डायनासौर सिटेकोसॉरस अपने दो पैरों पर विचरते थे। ये सिटेकोसॉरस साइज़ में लगभग कुत्ते बराबर थे और शाकाहारी थे। इन्हीं के साथ उस समय का सबसे बड़ा स्तनधारी जीव रेपेनोमेमस रोबस्टस इन जंगलों में विचरता था, जो लगभग अभी के जीव बिज्जू के बराबर था। यह झबरीला था और इसके दांत पैने-नुकीले थे और वह मांसाहारी था। यह सिटेकोसॉरस के शिशुओं का शिकार करने के लिए जाना जाता था।
साइंटिफिक रिपोर्ट्स में शोधकर्ता बताते हैं कि इस जीवाश्म में इन्हीं दोनों प्राणियों की मुठभेड़ कैद है। लेकिन रेपेनोमेमस रोबस्टस के साथ मुठभेड़ में शिशु सिटेकोसॉरस नहीं बल्कि किशोरवय सिटेकोसॉरस है, जिसका आकार रेपेनोमेमस रोबस्टस स्तनधारी से लगभग तीन गुना बड़ा है। सिटेकोसॉरस लगभग 10.6 किलोग्राम का रहा होगा और स्तनधारी लगभग 3.4 किलोग्राम का। दृश्य देखकर लगता है कि स्तनधारी जीव ही डायनासौर पर हावी था। संभव है कि डायनासौर कुछ ही क्षण में स्तनधारी जीव का भोजन बन जाता लेकिन ऐसा होने के पहले ही अचानक ज्वालामुखीय मलबा बहकर आ गया जिसमें ये दोनों योद्धा मारे गए और उसी मुद्रा में कैद हो गए।
जीवाश्म में, स्तनधारी जीव डायनासौर के ऊपर बैठा था, उसके दांत डायनासौर की दो पसलियों में गड़े हुए थे, उसका पिछला पैर डायनासौर के एक पैर के नीचे दबा हुआ था, और उसका एक हाथ डायनासौर का जबड़ा जकड़े हुए था: ज़ाहिर है, इस मुठभेड़ में डायनासौर शिकस्त पाने वाला था।
कुछ शोधकर्ता इस जीवाश्म की वैधता को लेकर शंकित हैं क्योंकि पूर्व में इस क्षेत्र में जीवाश्म जालसाज़ी के कई उदाहरण देखे जा चुके हैं।
लेकिन हैन का कहना है कि उनकी टीम ने स्तनधारी जीव के निचले बाएं जबड़े की सावधानीपूर्वक जांच करके जीवाश्म की सत्यता की पुष्टि कर ली है। जीवाश्म के आसपास की तलछट भी उस तह से मेल खाती है जहां से जीवाश्म मिला था। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले लेख में हमने वैकासिक चिकित्सा नामक एक नए विषय-क्षेत्र के प्रादुर्भाव की चर्चा की थी। अब इस पनपते विषय की वर्तमान हालत का जायज़ा लेंगे।
वर्तमान में वैकासिक चिकित्सा
तीन विद्वानों (पक्षी वैज्ञानिक पौल एवाल्ड, मनोचिकित्सक रैडोल्फ नेसे, और समुद्री जीव विज्ञानी जॉर्ज विलियम्स) के शुरुआती प्रयासों के बाद वैकासिक चिकित्सा ने लंबा सफर तय किया है। आज इस विषय में हज़ारों शोध पत्र हैं, दर्जनों मोनोग्राफ्स और पाठ्य पुस्तकें हैं, एक जर्नल है (इवोल्यूशन, मेडिसिन एंड पब्लिक हेल्थ), एक इंटरनेशनल सोसायटी फॉर इवोल्यूशन, मेडिसिन एंड पब्लिक हेल्थ और वर्चुअल इवोल्यूशनरी मेडिसिन कंवर्सेशन के लिए एक क्लब है। यहां तक कि एक नया विषय वैकासिक मनोचिकित्सा भी अस्तित्व में आ चुका है। इस प्रगति में येल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर स्टीफन सी. स्टर्न्स का महत्वपूर्ण योगदान रहा है जिन्होंने इस नए विकसित होते विषय में गहरी रुचि दिखाई।
स्टर्न्स खास तौर से ‘जीवन चक्र के उद्विकास’ विषय से जुड़े थे। जीवन चक्र के विकास के अंतर्गत ऐसे सवाल पूछे जाते हैं कि जीव बूढ़े क्यों होते हैं और मरते क्यों हैं, वे कैसे तय करते हैं कि कितनी संतानें पैदा करें, किस साइज़ की और अपने जीवन के किस समय, और कैसे जीनोटाइप का वही सेट अलग-अलग पर्यावरण में अलग-अलग फीनोटाइप को जन्म देता है।
स्टर्न्स ने अटकलों और कुछ दावों के समर्थन में प्रायोगिक जानकारी के अभाव की दिक्कत को सुलझाने के लिए – 1999 से पहले ही – एक संपादित ग्रंथ तैयार कर लिया था – इवोल्यूशन इन हेल्थ एंड डिसीज़(Evolution in Health and Disease)। इसमें विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा लिखे गए उच्च स्तर के 24 अध्याय थे।
अंतत: स्टर्न्स ने येल विश्वविद्यालय के अपने सहकर्मी रुसलन मेडज़ितोव (प्रतिरक्षा विज्ञान के प्रोफेसर) के साथ टीम बनाकर इवोल्यूशनरी मेडिसिन (Evolutionary Medicine, 2018) लिखी। स्टर्न्स और मेडज़ितोव ने वैकासिक चिकित्सा को एक मज़बूत सैद्धांतिक आधार दिया और इस विषय के कई दावों के प्रायोगिक प्रमाण प्रस्तुत किए।
मुझे यह बात बहुत प्रभावशाली लगी कि उन्होंने अपनी काफी सारी अवधारणाएं और आंकड़े ऐसे विषयों से हासिल किए थे जो पारंपरिक रूप से वैकासिक चिकित्सा से सम्बंधित नही हैं।
चिकित्सकीय परिणामों वाली प्राचीन वैकासिक घटनाएं
स्टर्न्स और मेडज़ितोव की इस पुस्तक में एक खंड है “प्राचीन इतिहास जिनके चिकित्सकीय परिणाम हुए हैं”। आशय सचमुच ‘प्राचीन’ से है; वे 3 अरब से लेकर 20-30 लाख वर्षों पूर्व जीवन के इतिहास में घटी पांच घटनाओं का उल्लेख करते हैं।
असममिति (asymmetry) की उत्पत्ति – 3 अरब वर्ष पहले एक-कोशिकीय जीवों में असममित विभाजन होने लगा था – विभाजन के बाद एक पुत्री कोशिका को मातृ कोशिका की पूरी सामग्री मिलती जबकि दूसरी कोशिका को नए सिरे से संश्लेषित सामग्री। इस पड़ाव पर, अपरिहार्य रूप से प्राकृतिक वरण का प्रवेश हुआ और उसने नवीन पुत्री कोशिका, जिसमें प्रजनन की बेहतर क्षमता थी, में सुधार शुरू कर दिए और कमतर प्रजनन क्षमता वाली ‘पुरानी’ कोशिका की उपेक्षा की।
लिहाज़ा, ‘पुरानी’ पुत्री कोशिका में हो रहे हानिकारक उत्परिवर्तनों पर वरण की सख्ती नहीं हुई और वे एकत्रित होते रहे और वह कोशिका बुढ़ाने लगी और अंतत: मारी गई। दूसरी ओर, ‘नवीन’ पुत्री कोशिका में होने वाले हानिकारक उत्परिवर्तनों को ज़्यादा कुशलता से हटाया गया और वह कोशिका स्वस्थ व युवा बनी रही। बुढ़ाने की उत्पत्ति कुछ इसी तरह हुई है जो, डॉक्टर तो डॉक्टर, हमें भी परेशान करता है।
मुझे यह देखकर बहुत हैरानी हुई कि (1) असममित कोशिका विभाजन का यह विचार जर्मन जीव विज्ञानी ऑगस्ट वाइसमैन (1834-1914) पहले ही 1882 में सुझा चुके थे लेकिन इसे भुला दिया गया था और हाल ही में पुन: खोजा गया है; और (2) कोशिका विभाजन में ऐसी असममिति को प्रयोगशाला में ई. कोली नामक बैक्टीरिया की आबादी में भी देखा जा सकता है – दो पुत्री कोशिकाएं बनावट की दृष्टि से असममित होती हैं, हालांकि सामग्री की दृष्टि से नहीं।
यह काफी रोमांचक बात है और इससे असममित कोशिका विभाजन की जेनेटिक व आणविक क्रियाविधि को समझने में मदद मिल सकती है।
स्टेम कोशिकाओं का आविष्कार – करीब 1-2 अरब साल पहले बहुकोशिकीय जीवों ने तथाकथित स्टेम कोशिकाओं को अलग सहेजना शुरू कर दिया जिनमें बहुसक्षमता बरकरार होती थीं। इसलिए ये कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हिस्सों की मरम्मत कर सकती थी। और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अधिकांश कैंसर स्टेम कोशिकाओं में ही जन्म लेते हैं। तो आज लगता है कि स्टेम कोशिकाओं के नवाचार ने कैंसर विकास की ज़मीन तैयार कर दी थी।
स्टर्न्स और मेडज़ितोव बताते हैं कि बहुकोशिकत्व का विकास बहुकोशिकीय जीवों की कोशिकाओं के बीच एक समझौता है, जहां कायिक कोशिकाएं तब संख्यावृद्धि बंद कर देंगी जब वे ज़रूरी ऊतकों और अंगों का निर्माण कर देंगी; जनन कोशिकाएं कायिक कोशिकाओं के जीन्स की एक प्रतिलिपि को अगली पीढ़ी में पहुंचाएंगी। और, स्टेम कोशिकाएं संख्यावृद्धि की क्षमता बरकरार रखेंगी ताकि ज़रूरत पड़ने पर वे क्षतिग्रस्त ऊतकों व अंगों की मरम्मत कर सकें।
लेकिन ‘कैंसर इस समझौते का उल्लंघन करता है।’ स्टेम कोशिकाएं बहुसक्षम होती हैं, और उनमें, मरम्मत के लिए ज़रूरी होने पर, संख्यावृद्धि करने तथा किसी भी किस्म की कोशिकाएं में विभेदित होने की क्षमता होती है; लेकिन वे इस क्षमता का दुरुपयोग करने लगती हैं।
कशेरुकी अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र की उत्पत्ति – 50 करोड़ साल पहले एक क्रांतिकारी घटना घटी थी। हुआ यह था कि एक ट्रांसपोज़ेबल घटक (डीएनए के ऐसे अंश जो जीनोम में एक स्थान से दूसरे स्थान पर छलांग लगा सकते हैं) जिसमें दो जीन्स थे, मछली जैसे किसी पूर्वज में इम्यूनोग्लोबुलिन के एक जीन में जुड़ गया। संभवत: इसने ही कशेरुकी जीवों के अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र को अत्यंत विविध एंटीबॉडीज़ बनाने की क्षमता प्रदान की है। ये एंटीबॉडीज़ बाहर से आए एंटीजन को पहचानकर उनका सफाया कर सकती हैं।
इन दो जीन्स को RAG1 तथा RAG2 कहते हैं (रिकॉम्बीनेशन एक्टिवेटिंग जीन्स)। बैक्टीरिया को संक्रमित करने वाले कुछ वायरस (जैसे mu) स्वयं ट्रांसपोज़ेबल तत्व (तथाकथित फुदकते जीन्स)) हैं। इन ट्रांसपोज़ेबल तत्व की खोज के लिए बारबरा मैक्लिंटॉक को 1983 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
हमारे प्रतिरक्षा तंत्र में लगभग अनगिनत एंटीबॉडीज़ बनाने की जो क्षमता है – उन सारे एंटीजन्स के लिए जिनकी आप कल्पना कर सकते हैं – और अतीत के संक्रमणों की स्मृति रखने की जो क्षमता है, वह भी ताश के समान डीएनए को फेंटने की क्षमता पर ही टिकी है। इसे कायिक (सोमेटिक) रीकॉम्बिनेशन कहते हैं। एक व्याख्यान में स्टर्न्स ने बताया था कि यह विचित्र बात है कि हमारे पूर्वजों में हुए वायरस संक्रमण ने ही हमें वायरस से लड़ने की क्षमता प्रदान की है।
माता-संतान के टकराव में एक मध्यस्थ के रूप में आंवल – इसके बाद वे चिकित्सकीय महत्व की एक और ऐतिहासिक घटना की चर्चा करते हैं। यह घटना हमारे विकास के दौर में लगभग डेढ़ करोड़ साल पहले घटी थी। यह खास तौर से चकराने वाली है क्योंकि यह स्तनधारी आंवल का सम्बंध कैंसर की संभावना से जोड़ती है। इस तरह की सहजबोध विरुद्ध सूझबूझ वैकासिक सोच के सुखद परिणाम हैं। बदकिस्मती से, जिस घटना की चर्चा की जा रही है वह बहुत खुशनुमा नहीं है क्योंकि यह हमें मेटास्टेटिक (फैलने वाले) कैंसर का जोखिम देती है।
सवाल है कि आंवल और कैंसर के बीच क्या कड़ी हो सकती है। वैकासिक जीव विज्ञानी सोच से उभरा एक और सहजबोध विपरीत विचार यह है कि अभिभावकों और संतान के बीच कुछ टकराव अपरिहार्य है क्योंकि अभिभावक, जो सभी संतानों से बराबर सम्बंधित होते हैं, संसाधनों का आवंटन सभी संतानों में समानता से करेंगे। लेकिन उन संतानों को वरीयता मिलेगी जो अपने अभिभावकों से ज़्यादा की मांग करेंगे।
अभिभावक-संतान टकराव कई रूप ले सकता है। स्तनधारियों में भ्रूण की स्टेम कोशिकाएं आंवल के माध्यम से मां के शरीर में घुसपैठ कर सकती हैं। ये स्टेम कोशिकाएं मां की धमनियों के व्यास में बदलाव कर सकती हैं ताकि भ्रूण को मां की मंशा से ज़्यादा खून मिल पाए।
स्तनधारियों के वैकासिक इतिहास में कई उथल-पुथल देखने को मिलती हैं। शुरुआती वंशों में अत्यंत घुसपैठी आंवल का विकास हुआ है (यानी भ्रूण विजयी हुआ), गाय-घोड़ों जैसे कुछ वंशों में मां द्वारा घुसपैठी आंवल का दमन किया जाता है (मां विजयी), कुत्तों-बिल्लियों में ज़्यादा घुसपैठी आंवल पाई जाती है (भ्रूण विजयी) और अपेक्षाकृत हाल में, लगभग डेढ़ करोड़ वर्ष पूर्व, मनुष्यों, चिम्पैंज़ियों, गोरिल्ला में आंवल का पुनर्विकास ज़्यादा घुसपैठी रूप में हुआ है (भ्रूण विजयी रहा है)।
ज़्यादा घुसपैठी आंवल वाली स्तनधारी प्रजातियों (जिनमें मनुष्य शामिल हैं) में मेटास्टेटिक कैंसर की उच्च दर पाई जाती है। वहीं कम घुसपैठी आंवल वाली प्रजातियों में मेटास्टेटिक कैंसर कम होता है। ऐसा लगता है कि यदि भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं मां के शरीर में घुसपैठ करने में कुशल हैं, तो वे खुद अपने शरीर के अन्य हिस्सों में ज़्यादा घुसपैठ कर पाएंगी और मेटास्टेटिक कैंसर को बढ़ावा देंगी। यह एक विचित्र अदला-बदली को जन्म देता है – भ्रूण में ऐसे बदलाव जो भ्रूण के लिए मां के शरीर से ज़्यादा पोषण प्राप्त करने में सहायक हों लेकिन बाद के वयस्क जीवन में कैंसर का खतरा बढ़ाते हों।
दरअसल, मां के साथ अंतर्किया के दौरान भ्रूण जिन कई जीन्स और अंतर-कोशिकीय प्रक्रियाओं का उपयोग करते हैं, वे वही होती हैं जिनका उपयोग कैंसर कोशिकाएं मेटास्टेसिस के दौरान करती हैं। जिन कोशिकीय व आणविक प्रक्रियाओं की मदद से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं घुसपैठ करके मां की कार्यिकी के साथ छेड़छाड़ करती है और घुसपैठी आंवल का दमन करने के लिए मां द्वारा अपनाई गई रणनीतियां, संभवत: मेटास्टेसिस और उसके नियंत्रण की समझ बनाने में मददगार हो सकती हैं।
यह देखना रोचक है कि (उदाहरणार्थ) गायों और घोड़ों में मां की बचाव रणनीतियां भ्रूण के अत्याचार को पलटने में सफल रही हैं और इन्होंने वैकासिक दृष्टि से अधिक टिकाऊ फीनोटाइप को जन्म दिया है जो कम घुसपैठी है।
दोपाया चलन – चिकित्सकीय असर वाली ऐसी प्राचीन वैकासिक घटनाओं में से सबसे हाल की लगभग 20-30 लाख वर्ष पूर्व घटित हुई थी। चिम्पैंज़ियों से अलग होने के बाद मनुष्य के पूर्वज बढ़ते क्रम में सीधे खड़े होकर दो पैरों पर चलने लगे। इसने उन्हें परस्पर सहयोग से बड़े प्राणियों का शिकार करने में मदद दी।
कुशलतापूर्वक दो पैरों पर चल पाने के लिए कूल्हे में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए, जिनके चलते प्रसव की वर्तमान दिक्कतें पैदा हुईं। हमारे बड़े दिमाग के विकास ने इन दिक्कतों को और बढ़ाया – परिणाम यह हुआ कि मस्तिष्क के विकास का काफी बड़ा हिस्सा जन्म के बाद की अवधि के लिए विलंबित करना पड़ा। बहरहाल, प्रसव कठिन प्रक्रिया है और इसके लिए भ्रूण को घूमना पड़ता है और उल्टा होकर प्रसव मार्ग में से गुज़रना होता है। प्रसव के दौरान इन दिक्कतों के चलते बढ़ती मृत्यु दर से निपटने का एकमात्र समाधान यही था कि हम सहयोगी समूहों में जीने की काबिलियत रखते थे और प्रसव के दौरान एक-दूसरे की मदद कर सकते थे।
सहयोगी समूहों में जीवन को बड़े दिमागों ने सुगम बनाया, और, अपने तईं और बड़े दिमागों का मार्ग प्रशस्त किया। इसी से शिकारी-संग्रहकर्ता जीवन शैली संभव हुई जो चलने से जुड़ी है। तो दोपाएपन का एक और परिणाम यह हुआ कि चलना हमारे जीने और स्वास्थ्य के लिए निहायत महत्वपूर्ण हो गया।
सदर्न कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डेविड ए. रायक्लेन और हारवर्ड विश्वविद्यालय के डेनियल ई. लाइबरमैन ने हाल ही में मनुष्यों के चलने के व्यवहार की तहकीकात की है। उन्होंने फिटबिट व अन्य पहनने योग्य उपकरणों की मदद से यह गणना की है कि आधुनिक मनुष्य प्रतिदिन कितने कदम चलते हैं। हमारे पूर्वजों के लिए उन्होंने अन्य तरीकों से उनके द्वारा प्रतिदिन चले गए कदमों का भी अनुमान लगाया है।
गैर-मानव एप पूर्वजों, जैसे ओरांगुटान (1000 से थोड़े कम कदम प्रतिदिन), गोरिल्ला (1000 से थोड़े अधिक कदम प्रतिदिन), चिम्पैंज़ी (लगभग 4000 कदम प्रतिदिन), बोनोबो (लगभग 5000 कदम प्रतिदिन) और छोटे आकार के शिकारी-संग्रहकर्ता समाजों के मनुष्यों (18 से 20 हज़ार कदम प्रतिदिन) की तुलना के आधार पर उनका निष्कर्ष है कि मानव विकास के दौरान इस बात का काफी चयनात्मक दबाव रहा कि चलने के रूप में शारीरिक गतिविधियां बढ़ाई जाएं ताकि चुस्त-दुरुस्त बने रह सकें।
लिहाज़ा, आधुनिक औद्योगिक समाजों में घटा हुआ चलना (लगभग 5000 कदम प्रतिदिन) चिम्पैंज़ियों और बोनोबो के तुल्य है लेकिन यह हमारे शिकारी संग्रहकर्ता पूर्वजों से बहुत कम है। कम चलना कुछ हद तक टाइप-2 डायबिटीज़ और रक्त-संचार सम्बंधी रोगों में योगदान देता है।
ज़्यादा हाल की चिकित्सकीय असर वाली वैकासिक घटनाएं
अपेक्षाकृत हाल की कुछ वैकासिक घटनाओं के भी उल्लेखनीय चिकित्सकीय प्रभाव रहे हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण है हमारा अफ्रीका से बाहर प्रवास (करीब डेढ़ लाख साल पहले) और धरती के अधिकांश हिस्सों पर बस जाना। इस सफर में मानव समुदाय कई बार विभाजित हुए और कई बार फिर से साथ आए। परिणामस्वरूप, जेनेटिक विविधता के वितरण के निहायत जटिल पैटर्न बने।
जेनेटिक विविधता चिकित्सा के लिए विशेष चुनौती पेश करती है क्योंकि इसका मतलब होता है कि एक उपचार सारे मरीज़ों के लिए कारगर नहीं होगा। जेनेटिक विविधता की चुनौती और बढ़ जाती है क्योंकि मानव जेनेटिक विविधता के सामाजिक व राजनैतिक निहितार्थ होते हैं। एक परिणाम यह होता है कि किसी आबादी के अंदर या आबादियों के बीच जेनेटिक विविधता का अध्ययन करने का विरोध होता है या ऐसे अध्ययन करने में अनिच्छा होती हैं क्योंकि इनके दुरुपयोग का डर होता है। अब यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि अधिकांश जेनेटिक विविधता आबादियों और नस्लों के अंदर होती है, उनके बीच नहीं। यह काफी सुकूनदायक विचार है क्योंकि यह नस्ल-आधारित भेदभाव के जीव वैज्ञानिक आधार की धारणा को झुठलाता है और शायद ऐसे भेदभाव के उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त करेगा।
लेकिन यह तथ्य कि काफी सारी जेनेटिक विविधता आबादी के अंदर ही होती है, निजीकृत उपचारों के विकास को चुनौतीपूर्ण बना देता है। विभिन्न रोगों (संक्रामक और जीवन शैली से सम्बंधित) के प्रति संवेदनशीलता के मामले में व्यक्ति-व्यक्ति में काफी अंतर हो सकते हैं और इस बात में भी अंतर हो सकते हैं कि उनके शरीर दवाइयों के प्रति कैसा प्रत्युत्तर देंगे।
वैकासिक परिप्रेक्ष्य इस बात को भी रेखांकित करता है कि मानव जीवन चक्र के लक्षणों का स्वास्थ्य व रोगों पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है; जैसे, जन्म के समय वज़न-कद, यौन परिपक्वता की उम्र और वज़न-कद, पोषण व अन्य पर्यावरणीय कारकों के प्रति संवेदनशीलता। और ये बातें व्यक्ति-व्यक्ति के बीच अंतर करती हैं और डॉक्टर का काम मुश्किल बना देती हैं।
वैकासिक चिकित्सा बीमारियों के इलाज में ठोस लाभ देने लगे, उससे भी पहले, यह दर्शा सकती है कि क्यों हमारे वर्तमान चिकित्सकीय हस्तक्षेप अपेक्षा के अनुरूप कारगर नहीं हैं। यदि उनकी प्रभावहीनता कुछ हद तक मरीज़ों के बीच जेनेटिक विविधता की वजह से है, तो चिकित्सा अनुसंधान के लिए बहुत अलग मार्ग का संकेत मिलता है बनिस्बत उस स्थिति के जब कोई हस्तक्षेप सबके लिए प्रभावी या निष्प्रभावी साबित हो।
वैकासिक चिकित्सा, यानी स्वास्थ्य व बीमारियों के प्रति एक जैव विकास आधारित नज़रिया, जैव विकास के शोधकर्ताओं के लिए एक विस्तृत कार्यक्षेत्र में अनुसंधान की रोमांचक संभावनाएं प्रस्तुत करता है जिसमें नए सवाल, नई समस्याएं और नए मॉडल तंत्र होंगे। दरअसल, वैकासिक जीव विज्ञान परक वैकासिक चिकित्सा का सकारात्मक असर दिखने भी लगा है। इस संदर्भ में शोध पत्रों, पुस्तकों और मोनोग्राफ्स वगैरह में काफी वृद्धि हुई है और आगे भी जारी रहेगी। इसके अलावा विश्वविद्यालयीन विभागों, पाठ्यक्रमों, फैकल्टी, सम्मेलनों, पीएच.डी. आदि में काफी वृद्धि हुई है। अगले लेख में हम कुछ अन्य मुद्दों को समझने में वैकासिक चिकित्सा के अनुभवों पर विचार करेंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://iiif.elifesciences.org/journal-cms/collection%2F2021-07%2Felife-evolutionary-medicine-2.jpg/0,1,10738,3576/2000,/0/default.jpg
किलर व्हेल की तेज़ गति, बुद्धिमत्ता और पैने दांत उन्हें समुद्र का सबसे ताकतवर शिकारी बनाते हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि मुठभेड़ों के दौरान किलर व्हेल माताएं अपने पुत्रों की रक्षा करती हैं और उनका विशेष ख्याल रखती हैं। शोधकर्ताओं का मत है कि ऐसा करते हुए वे अपने जीन्स के अगली पीढ़ियों में हस्तांतरित होने की संभावना बढ़ाती हैं।
प्रशांत महासागर के उत्तर-पश्चिमी तट की किलर व्हेल जटिल सामाजिक विविधता के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका प्रत्येक पॉड (समूह) मातृप्रधान व्यवस्था में गुंथा होता है जिसमें एक बुज़ुर्ग (प्रधान) मादा, उसकी संतानें और उसकी पुत्रियों की संतानें शामिल होती हैं। नर अन्य समूह की मादाओं के साथ संभोग करते हैं लेकिन नर-मादा दोनों ही जीवन भर अपनी मां के साथ रहते हैं।
मनुष्यों के अलावा इनका कोई प्राकृतिक शिकारी नहीं है, इसलिए इनके शरीर पर दांतों के निशान अन्य व्हेल के हमलों का संकेत देते हैं। एक्सेटर विश्वविद्यालय की चार्ली ग्रिम्स इन हमलों के पैटर्न को समझना चाहती थीं। इसके लिए उन्होंने सेंटर फॉर व्हेल रिसर्च की फोटोग्राफिक जनगणना डैटा की मदद से 1976 से लेकर अब तक किलर व्हेल के शरीर पर निशानों के साक्ष्य एकत्रित किए।
उन्हें मादा व्हेल की तुलना में नर व्हेल पर अधिक घाव दिखे। कई नर ऐसे भी थे जिन्हें अन्य की तुलना में कम चोटें आई थीं। ग्रिम्स को लगा कि इसका सम्बंध 2012 के एक अध्ययन के नतीजों से हो सकता है जिसमें पाया गया था कि एक बुज़ुर्ग मादा व्हेल की उपस्थिति मात्र से उसकी नर संतानों के जीवित रहने की संभावना में वृद्धि होती है। इसे देखने के लिए टीम ने किलर व्हेल के पिछले 47 वर्षों के रिकॉर्ड का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि उन नर व्हेलों के शरीर पर दांतों के निशान कम थे जिनकी मां जीवित थी और प्रजनन उम्र पार कर चुकी थी, जबकि अनाथ और प्रजनन आयु की माताओं के साथ रहने वाले नरों को सबसे अधिक चोटें आईं थीं। इन परिणामों से पता चलता है कि प्रजनन आयु की व्हेल की अपेक्षा रजोनिवृत्त व्हेल अपने पुत्रों को सामाजिक संघर्ष से बचाती हैं। शोधकर्ताओं का यह भी मानना है कि माताएं झगड़ों में शारीरिक रूप से हस्तक्षेप नहीं करती बल्कि वे अपने प्रभाव का उपयोग करके हिंसा शुरू ही नहीं होने देतीं। रजोनिवृत्त मां की पुत्रियों और प्रजनन करती मां की पुत्रियों के बीच कोई अंतर नहीं दिखता है।
पुत्र-रक्षा का कारण जैव विकास से सम्बंधित हो सकता हैं – समूह की मादाओं के शिशुओं के पालन की ज़िम्मेदारी मादा का पूरा समूह उठाता है। नर अपने समूह के बाहर संभोग करते हैं और अपनी संतानों के पालन-पोषण का बोझ दूसरे समूह को सौंप देते हैं। अपने पुत्रों को प्राथमिकता देकर प्रधान मादा अपने समूह के संसाधनों को खर्च किए बिना अपने जीन्स को अगली पीढ़ी में पहुंचा सकती है।
इस डैटा से रजोनिवृत्ति के काफी समय बाद तक मादाओं के जीवित रहने के कारण भी स्पष्ट होते हैं: ऐसी मादाएं समूह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ग्रिम्स इन पर और अध्ययन करना चाहती हैं। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में दक्षिणी वियतनाम स्थित ओसीरियो नामक प्राचीन गांव से प्राप्त 2000 वर्ष पुरानी एक सिल (सिल-लोढ़ा वाली) ने कई रहस्यों को उजागर किया है। लगता है कि इस सिल का उपयोग मसाले पीसने के लिए किया जाता था; इस पर आज भी जायफल की गंध महसूस की जा सकती है। साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह दक्षिण पूर्व एशिया में मसाले पीसने का ज्ञात सबसे पहला उदाहरण है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारत और इंडोनेशिया से आए लोगों ने हज़ारों वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में अपनी व्यंजन परंपराओं को प्रचलित किया होगा।
ओसीरियो में सबसे पहली खुदाई 1940 के दशक में हुई थी। खुदाई से प्राप्त सामग्री से मालूम चलता है कि यह शहर एक समय में विशाल व्यापार नेटवर्क का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा होगा जो भूमध्य सागर तक फैला हुआ था। वियतनामी पुरातत्वविद कान ट्रंग किएन नुयेन को हालिया खुदाई में ऐसे उपकरण मिले हैं जिनका उपयोग आज भी मसाले पीसने के लिए किया जाता है। भारत के प्राचीन स्थलों में भी इसी तरह की वस्तुएं पाई गई थीं।
सूक्ष्मदर्शी से जांच और 200 से अधिक प्रजातियों के नमूनों से तुलना करने के बाद टीम ने सिल पर हल्दी, अदरक, लौंग, दालचीनी और जायफल सहित आठ अलग-अलग मसालों की पहचान की है। सिल पर मसालों के अवशेष जिस तरह से संरक्षित थे उससे हैरानी होती थी और कहना मुश्किल था कि ये 2000 वर्ष पुराने हैं। विशेषज्ञों के अनुसार वियतनाम की जलवायु ने इन्हें संरक्षित रखा होगा। ये मसाले आज भी दक्षिण पूर्वी एशिया में उपयोग किए जाते हैं।
वास्तव में लौंग और जायफल जैसे कई मसाले मात्र दक्षिण एशिया और पूर्वी इंडोनेशिया में पाए जाते हैं। इस प्राचीन वियतनामी शहर में इन अवशेषों के मिलने से यह स्पष्ट होता है कि पहली शताब्दी के दौरान भारत और इंडोनेशिया से आए यात्रियों के साथ से ये मसाले यहां पहुंचे होंगे। इन निष्कर्षों से कुछ हद तक दक्षिण एशिया और फुनान के बीच प्रारंभिक व्यापार की भी पुष्टि होती है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि व्यापारियों द्वारा लाए गए व्यंजनों पर स्थानीय लोगों ने अपने मसालों के साथ एक अनूठी पाक परंपरा विकसित की है। ओसीरियो में पाए जाने वाले कई मसाले संभवत: आयात किए गए थे। अदरक की किस्में अभी भी कुछ थाई और अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई व्यंजनों में उपयोग की जाती हैं लेकिन भारत में उन्हीं व्यंजनों में नहीं डाली जातीं। नुयेन की टीम को सिल पर नारियल भी मिला है जिससे पता चलता है कि ओसीरियो में मसालों को नारियल के दूध से गाढ़ा किया जाता था। इसी तकनीक को वर्तमान दक्षिण पूर्व एशिया में सालन बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। यानी 2000 वर्ष पुरानी परंपराएं आज भी जारी हैं। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में भारत सरकार ने राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एनआरएफ) की स्थापना का प्रस्ताव दिया है। इसके तहत अगले 5 वर्षों में अनुसंधान के लिए 6 अरब डॉलर खर्च करने की योजना है। अनुसंधान में इतना बड़ा निवेश एक अच्छी पहल है लेकिन इस निर्णय को लेकर वैज्ञानिकों के बीच काफी मतभेद है। समर्थकों का दावा है कि इस निर्णय से बुनियादी और व्यावहारिक विज्ञान में निवेश को बढ़ावा मिलेगा। दूसरी ओर, अन्य ने इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप की आशंका ज़ाहिर की है। 70 प्रतिशत फंडिंग तो निजी उद्योग से आएगा, इसलिए फंडिंग में वैसा रुझान भी दिख सकता है।
फिलहाल भारत में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का काफी कम प्रतिशत अनुसंधान पर खर्च किया जाता है। शोध पत्रों और पेटेंट की गुणवत्ता में भी हम काफी पीछे हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए एक शक्तिशाली शोध एजेंसी की मांग की गई थी ताकि विज्ञान नीति के समन्वय और शोध फंडिंग बढ़ाने में मदद मिले। 2020 में पेश प्रारंभिक प्रस्ताव में एजेंसी का वार्षिक बजट जीडीपी का 0.1 प्रतिशत से अधिक रखने का विचार था। संस्था को राजनीतिक दबाव और नौकरशाही से बचाने के लिए प्रमुख वैज्ञानिकों के एक स्वतंत्र बोर्ड को नेतृत्व को चुनने और पूर्ण-स्वायत्तता की बात थी।
नया प्रस्ताव इस सोच से काफी अलग है। नए प्रस्ताव में प्रधानमंत्री को बोर्ड का अध्यक्ष तथा विज्ञान और शिक्षा मंत्रियों को दो अन्य शीर्ष पदों पर रखने की व्यवस्था है। साथ ही विज्ञान मंत्रालय और भारत के विज्ञान सलाहकार को व्यापक अधिकार दिए गए हैं। इस सम्बंध में वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों का मानना है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता अनुसंधान एवं विकास के प्रति गंभीरता दर्शाता है।
अलबत्ता, इस व्यवस्था में राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावना लगती है। एक मत है कि वर्तमान सरकार ने पहले भी छद्म वैज्ञानिक विचारों को बढ़ावा दिया है। कई पूर्व अधिकारियों को आशंका है कि नौकरशाही भी नई एजेंसी के काम में बाधक बन सकती है।
नए प्रस्ताव में विज्ञान एवं इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (एसईआरबी) को एनआरएफ में शामिल करने की बात कही गई है। यानी फाउंडेशन को एसईआरबी की तुलना में अधिक धन प्राप्त होगा। लेकिन सरकार एनआरएफ की शुरुआती फंडिंग के लिए निजी क्षेत्र पर भरोसा कर रही है जो काफी मुश्किल है।
फिलहाल इस विधेयक को संसद में पारित होने के बाद ही सार्वजनिक किया जाएगा। तब तक इस प्रस्ताव का ठीक तरह से सार्वजनिक आकलन करना मुश्किल है। (स्रोत फीचर्स)
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प्राकृतिक वरण हमें कम फिट बना सकता है, इसका एक कारण और है – वह है जिस पर्यावरण में हमारा विकास हुआ था और आज जिस पर्यावरण का हम अनुभव करते हैं, उनके बीच असामंजस्य।
यह अक्सर कहा जाता है कि हमारी वर्तमान सभ्यता हमारी पाषाण-युगीन जैविकी से मेल नहीं खाती। बदकिस्मती से, इस तरह मान लिए गए असामंजस्य का वैकासिक जीव विज्ञान के क्षेत्र में सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है। इसका उपयोग हमारी हर समस्या की ‘व्याख्या’ के लिए किया जाता है। इससे भी बुरी बात यह है कि कुछ लोग कहते हैं कि इसलिए हमें अपनी आधुनिक जीवन शैली को पूरी तरह त्यागकर उस तरह जीना चाहिए जिस तरह हम कथित तौर पर स्वर्णिम पाषाण युग में जीते थे। वैकासिक जीव विज्ञान का ऐसा लापरवाह और बगैर सोचे-समझे उपयोग उसे बदनाम करता है और काफी हानि पहुंचाता है।
यह समझ लेने के बाद, यह कहा जा सकता है कि असामंजस्य की यह अवधारणा, यदि गहनता और पर्याप्त प्रमाणों के साथ लागू की जाए तो, हमारी चंद वर्तमान तकलीफों को समझने व उनसे निपटने में काफी उपयोगी व सही हो सकती है। पीटर ग्लकनैन और मार्क हैंसन ने अपनी पुस्तक मिसमैच (2008) में इस पर विचार करते हुए दर्शाया है कि हमारी उद्विकसित जैविकी और हमारे वर्तमान पर्यावरण के बीच असामंजस्य कई कारणों से हो सकता है।
उदाहरण के लिए, आधुनिक पाश्चात्य समाजों में, बेहतर पोषण व स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध होने के चलते, मनोवैज्ञानिक व यौनिक परिपक्वता का समय बदला है। ये दोनों परिपक्वताएं अतीत में लगभग साथ-साथ आती थीं लेकिन अब इनकी कड़ी टूट गई है। आजकल बच्चे यौन परिपक्वता जल्दी और मनोवैज्ञानिक परिपक्वता से पहले हासिल कर लेते हैं। यह मनोवैज्ञानिक परिपक्वता यौन परिपक्वता की मांगों से निपटने लिए ज़रूरी होती है। ऐसा न होने पर आजकल के किशोर कई समस्याओं का सामना करते हैं।
हमारी जैविकी और भोजन, ऊर्जा के उपभोग व खर्च की आधुनिक जीवन शैली के बीच असामंजस्य एक और उदाहरण है। कृषि तथा आधुनिक टेक्नॉलॉजी के प्रादुर्भाव के साथ हमारा भोजन नाटकीय रूप से बदल गया है। वसा, नमक और शकर, जो पहले मुश्किल से मिलते थे, आज प्रचुर मात्रा में और नियमित रूप से उपलब्ध हो गए हैं। यह तो कृषि व टेक्नॉलॉजी में तरक्की के फलस्वरूप हुआ है। इसके अलावा, मार्केटिंग की रणनीतियों व व्यापारिक हितों के चलते लोगों को उनकी ज़रूरत से ज़्यादा उपभोग को प्रेरित किया जाता है और इसने समस्या को और विकट बनाया है। कुल मिलाकर इनका परिणाम तथाकथित जीवन शैली रोगों के रूप में सामने आया है – टाइप-2 मधुमेह, मोटापा, उच्च रक्तचाप और हृदय-रक्तसंचार सम्बंधी बीमारियां।
लेकिन भोजन और स्वास्थ्य के बीच सम्बंध बहुत स्पष्ट नहीं हैं। लाल मांस, अंडे, वसाएं और शकर के उपभोग को लेकर दी गई सिफारिशों में उलटफेर काफी जानी-पहचाने हैं। ऐसे उलटफेर के चलते अक्सर विज्ञान के प्रति विश्वास कम हो जाता है – आम लोगों में भी और अन्य विषयों के वैज्ञानिकों में भी। तथ्य यह है कि ये कड़ियां निहायत पेचीदा हैं तथा और अनुसंधान की ज़रूरत है, खास तौर से वैकासिक नज़रिए को ध्यान में रखते हुए।
दरअसल, चूंकि विभिन्न खाद्य पदार्थों के उपयोग के पक्ष और विपक्ष में की गई सिफारिशों पर काफी सशक्त व्यावसायिक हित हावी होते हैं, इसलिए वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रकृति और उसका मूल्यांकन दांव पर लगा है। नेचर पत्रिका में एक हालिया संपादकीय (शीर्षक ‘स्टडीज़ लिंकिंग डाएट विद हेल्थ मस्ट गेट एक होल लॉट बेटर’) में इस बात को रेखांकित किया गया है कि “अधिकांश पोषण सम्बंधी और स्वास्थ्य सम्बंधी सलाहों के पीछे प्रमाणों का आधार…. विवादित है।” संपादकीय में चेतावनी दी गई थी:
“यदि वित्तदाता अपने प्रयासों को अच्छी गुणवत्ता के आंकड़े उत्पन्न करने में नहीं लगाएंगे, तो आम लोग भ्रमित, शंकालु, अनाश्वस्त रहेंगे और उस जानकारी से वंचित रहेंगे जिसकी ज़रूरत स्वास्थ्य व जीवन शैली सम्बंधी निर्णयों के लिए है।”
एक और असामंजस्य होता है क्योंकि लोगों की प्रजनन-काल के बाद की जीवन अवधि लंबी होती जा रही है जिसकी वजह से बढ़ती उम्र की तमाम दिक्कतें सामने आ रही हैं – स्मृतिभ्रंश, पार्किंसन व अल्ज़ाइमर रोग और मेनोपॉज़ से जुड़ी दिक्कतें। हम इनके प्रति अनुकूलित नहीं हैं क्योंकि ये अपेक्षाकृत नई हैं क्योंकि बुढ़ापा स्वयं ही अब पहले की तुलना में ज़्यादा सामान्य बात हो गई है।
और तो और, चूंकि ये बीमारियां बढ़ती उम्र में होती हैं, इसलिए प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया इनके विरुद्ध चयन भी नहीं कर सकती क्योंकि ये हमारी प्रजनन सफलता को प्रभावित नहीं करतीं। इस संदर्भ में एक वैकासिक नज़रिया और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
जैसा कि हमने पहले कहा था, असामंजस्य के कई मामले इसलिए उभरते हैं क्योंकि प्राकृतिक वरण हमारी आधुनिक सभ्यता के साथ कदम नहीं मिला पाया है। विडंबना देखिए कि जिस प्राकृतिक वरण ने हमारे बड़े दिमागों को उत्पन्न किया और हमें भाषा की कुशलता प्रदान की और तदानुसार संस्कृति के विकास को संभव बनाया, उसी ने हमें खुद प्राकृतिक वरण की शक्ति से बच निकलने की गुंजाइश भी दी है। स्वाभाविक सवाल है कि क्या वह कभी कदम मिला पाएगा। सिद्धांतत: तो जवाब ‘हां’ लगता है लेकिन व्यावहारिक तौर पर लगता है कि ‘शायद नहीं’ या ‘कभी-कभार ही’।
दूध की अच्छाई?
हमारी जैविकी और पर्यावरण के बीच सभ्यता-प्रेरित असामंजस्य के जिस उदाहरण का सबसे ज़्यादा अध्ययन किया गया है, और जहां दोनों के बीच की खाई अंतत: पट जाएगी, वह है लैक्टोस सहनशीलता/असहनशीलता का। चूंकि सारे स्तनधारी जीव अपने शिशुओं को स्तनपान कराते हैं, इसलिए शिशुओं में लैक्टेज़ नामक एक एंज़ाइम पाया जाता है, जो दूध में पाई जाने वाली लैक्टोस शर्करा को पचाता है।
जब शिशुओं को दूध छुड़ाकर अन्य भोजन दिया जाने लगता है, तब वे लैक्टेज़ बनाना बंद कर देते हैं क्योंकि अब उसकी ज़रूरत नहीं होती। मनुष्यों में भी ऐसा ही होता है। इसलिए वयस्कों को ‘लैक्टेज़ नॉन-पर्सिस्टेंट’ अर्थात ‘लैक्टोस-असहनशील’ कहा जाता है। लेकिन दुनिया के कुछ हिस्सों में पशुपालन के प्रादुर्भाव के साथ यह काफी फायदेमंद हो गया कि वयस्क आहार में पशुओं के दूध को जगह दी जाए।
इस बात के काफी पुख्ता प्रमाण हैं कि प्राकृतिक वरण ने उन बिरले उत्परिवर्तनों को वरीयता दी जो किसी व्यक्ति को लैक्टेज़ नामक एंज़ाइम वयस्कपन में भी बनाते रहने की क्षमता देते थे। ये लोग ‘लैक्टेज़ पर्सिस्टेंट’ और ‘लैक्टोस सहनशील’ हो गए। इस बात के भी प्रमाण हैं कि दुनिया के अलग-अलग इलाकों उत्परिवर्तन अलग-अलग हैं। आज युरोप के कई हिस्सों तथा अफ्रीका व मध्य-पूर्व के कुछ इलाकों में ‘लैक्टेज़ पर्सिस्टेंट’ और ‘लैक्टोस सहनशीलता’ काफी आम है।
अलबत्ता, इसकी उपस्थिति में काफी विविधता है – स्कैंडिनेविया में 95-97 प्रतिशत, जहां दूध का सेवन सामान्य बात है, से लेकर पूर्वी एशिया में 0-10 प्रतिशत जहां दूध का सेवन काफी कम होता है।
कुल मिलाकर, लैक्टोस असहनशीलता दुनिया में सबसे आम स्थिति है। और वास्तव में यह मनुष्यों की प्राचीन स्थिति है। लेकिन वैकासिक नज़रिए के अभाव में और जाने-पहचाने पाश्चात्य पूर्वाग्रह के चलते, हम अक्सर सोचते हैं कि ‘लैक्टोस असहनशीलता’ एक बीमारी है।
वैकासिक परिप्रेक्ष्य हमें एक सर्वथा अलग तस्वीर प्रदान करता है। लैक्टोस असहनशीलता की प्राचीन स्थिति, जब दूध का सेवन नदारद था, से लेकर वर्तमान तक, जब कम से कम कुछ इलाकों में दूध का सेवन सामान्य बात है, लैक्टोस सहनशीलता का विकास हुआ है और इसने जैविकी और संस्कृति के बीच असामंजस्य को पलट दिया है। यह अपेक्षा उचित ही होगी कि यदि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी दूध का सेवन बढ़ता गया तो लैक्टोस सहनशीलता विकसित होती जाएगी। लेकिन प्राकृतिक वरण एक धीमी प्रक्रिया है और ऐसे असामंजस्य सैकड़ों-हज़ारों सालों तक बने रहने की अपेक्षा की जानी चाहिए।
जीन्स का दोष
हमारे शरीर के कई गुणों की तरह हमारी कई बीमारियों का दोष भी जीन्स को दिया जा सकता है। लेकिन यह सहजबोध के थोड़ा उल्टा लगता है क्योंकि ऐसे जीन्स का सफाया करना ही तो प्राकृतिक वरण का काम है। दिक्कत यह है कि प्राकृतिक वरण कई बार ऐसा करने में अशक्त होता है। उदाहरण के लिए, वह कुछ ऐसे खराब जीन्स को नहीं हटा सकता जिनके कुछ अच्छे प्रभाव भी होते हैं।
ऐसा सबसे बेहतरीन उदाहरण है वह जीन जो सिकल सेल एनीमिया का कारण है। यह जीन अफ्रीका के कुछ हिस्सों में काफी आम है। यह एक असामान्य हीमोग्लोबीन का निर्माण करता है जिसकी वजह से लाल रक्त कोशिकाएं विकृत हो जाती हैं और हंसिए की आकृति ग्रहण कर लेती हैं। ऐसी हंसियाकार कोशिकाएं रक्त के साथ आसानी से प्रवाहित नहीं हो पातीं, जिसकी वजह से रक्तस्राव, एनीमिया और कई अन्य दिक्कतें होती हैं।
जिन व्यक्तियों में दोषपूर्ण जीन की दो प्रतियां (माता और पिता दोनों से प्राप्त) होती हैं, उनमें सारी लाल रक्त कोशिकाएं हंसियाकार हो जाती हैं। ऐसे व्यक्ति गंभीर रोगग्रस्त होते हैं (इन्हें उस जीन के लिहाज़ से होमोज़ायगस कहा जाता है)। ऐसे व्यक्ति अक्सर प्रजनन की दृष्टि से परिपक्व होने से पहले ही मौत के शिकार हो जाते हैं। यदि कहानी सिर्फ इतनी होती तो प्राकृतिक वरण शायद पूरी आबादी से सिकल सेल जीन का सफाया कर चुका होता। लेकिन कहानी में एक पेंच है।
जिन लोगों को किसी एक पालक से दोषपूर्ण जीन विरासत में मिलता है और दूसरे पालक से सामान्य जीन मिलता है वे हेटेरोज़ायगस होते हैं; उनमें एक जीन दोषपूर्ण और एक जीन सामान्य होता है। ऐसे व्यक्तियों में सामान्य जीन सामान्य हीमोग्लोबीन और सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनाता है। और उनका काम इन सामान्य कोशिकाओं से चल जाता है। दोषपूर्ण जीन द्वारा बनाई गई असामान्य लाल रक्त कोशिकाओं को रक्त प्रवाह से हटा दिया जाता है। लिहाज़ा, शरीर में रोग के लक्षण प्रकट होने के लिए दोनों सिकल कोशिका जीन्स दोषपूर्ण होने चाहिए। ऐसे जीन्स को रेसेसिव कहा जाता है।
किसी रेसेसिव घातक जीन का सफाया करना प्राकृतिक वरण के लिए काफी मुश्किल होता है क्योंकि हेटेरोज़ायगस व्यक्तियों में ये जीन प्राकृतिक वरण के लिए ओझल होते हैं और दोषपूर्ण होने के बावजूद ये व्यक्ति जीवित रह पाते हैं और उस जीन को अगली पीढ़ी में प्रेषित कर देते हैं। यदि किसी आबादी में वह जीन काफी कम पाया जाता है, तो संभावना यह होती है कि उस जीन वाले अधिकांश लोग हेटेरोज़ायगस होंगे और प्राकृतिक वरण कम प्रभावी रह जाएगा। इसलिए, रेसेसिव घातक जीन्स किसी आबादी में कम संख्या में लंबे समय तक बने रह सकते हैं।
अब ज़रा कल्पना कीजिए कि हेटेरोज़ायगस लोग वास्तव में सामान्य जीन के होमोज़ायगस लोगों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। क्या यह संभव है? अवश्य संभव है, और कई मामलों में ऐसा होता भी है। उदाहरण के लिए, सिकल कोशिका जीन को ही लीजिए।
यह तो हम देख ही चुके हैं कि हेटेरोज़ायगस व्यक्ति दोषपूर्ण लाल रक्त कोशिकाओं को हटाकर काम चला लेते हैं। इसके चलते मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम फाल्सिपैरम) के लिए मुश्किल पैदा हो जाती है क्योंकि जिन कोशिकाओं में परजीवी बैठा होता है, उन्हें प्राय: हटा दिया जाता है। अर्थात सिकल कोशिका जीन के संदर्भ में हेटेरोज़ायगस व्यक्तियों को मलेरिया से मृत्यु के खिलाफ काफी सुरक्षा मिल जाती है।
तो, हेटेरोज़ायगस व्यक्ति के शरीर में सिकल कोशिका के जीन को न सिर्फ सुरक्षा मिलती है बल्कि प्राकृतिक वरण द्वारा चुना भी जाता है। जैसी कि अपेक्षा होगी, सिकल कोशिका जीन उन इलाकों में ज़्यादा आम होता है जो मलेरिया ग्रस्त हैं चाहे उस जीन के होमोज़ायगस व्यक्ति सिकल कोशिका रोग से पीड़ित होते रहें। यह एक ऐसी स्थिति है जहां जब तक मलेरिया का प्रकोप बना हुआ है, प्राकृतिक वरण मरम्मत करने में अक्षम रहता है।
शरीर में लेन–देन
जीवों को उनके पर्यावरण के अनुकूल बनाने में प्राकृतिक वरण के मार्ग में अड़चन का एक कारण और भी है। हमारे शरीर को दोषरहित बनाने के मार्ग में प्राय: यह अड़चन आती है कि उस अनुकूलन को अपनाने का असर किसी अन्य गुणधर्म पर पड़ता है। दोनों हाथों में लड्डू मुश्किल है। विलियम्स और नेसे कहते हैं,
“सीधे खड़े होकर चलने की कीमत पीठ-दर्द की समस्याएं हैं। ऊतकों की मरम्मत करने की क्षमता की कीमत कैंसर के रूप में सामने आती है। प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया की कीमत प्रतिरक्षा विकारों के रूप में दिखती है। दुश्चिंता की कीमत पैनिक डिसऑर्डर होती है। प्रत्येक मामले में, प्राकृतिक वरण ने यथासंभव सर्वोत्तम प्रदर्शन किया है – लाभों को लागतों के साथ संतुलित करके। जहां भी संतुलन बिंदु होगा, बीमारी अवश्यंभावी है।
अनुकूलनवादी वैज्ञानिक शरीर को एक दोषमुक्त पर्फेक्ट रचना के रूप में नहीं बल्कि समझौतों के एक पुंज के रूप में देखते हैं। उन्हें समझकर हम बीमारियों को बेहतर समझ पाएंगे।”
आगामी लेखों में हम ऐसे समझौतों का और अन्वेषण करेंगे और खास तौर से यह देखेंगे कि ये यौवन और बुढ़ापे के बीच तथा पुरुषों और महिलाओं के बीच किस तरह सामने आते हैं।
सार रूप में, हमारे शरीर कमज़ोर और दोषपूर्ण हैं और बीमारियों के प्रति संवेदनशील हैं क्योंकि प्राकृतिक वरण ने कतिपय ऐतिहासिक मार्ग अपनाए होंगे, क्योंकि प्राकृतिक वरण रोगजनक जीवों के पक्ष में भी काम करता है, क्योंकि हमारी जैविकी और हमारी संस्कृति के बीच असामंजस्य है, क्योंकि बुरे जीन्स के कुछ अच्छे असर भी हो सकते हैं और प्राय: लाभ-लागत के बीच ऐसे लेन-देन होते हैं कि कई सारे कार्यों को एक साथ पर्फेक्ट बनाने की प्राकृतिक वरण की क्षमता बाधित होती है।
किसी वैकासिक जीव वैज्ञानिक के लिए यह रोमांचक बुनियादी विज्ञान है जो सौंदर्य और तर्क से लबरेज़ है। साथ ही, वैकासिक चिकित्सा का वायदा है कि यदि हम स्वास्थ्य व बीमारियों को एक वैकासिक नज़रिए से समझने की कोशिश करें, तो इससे चिकित्सा विज्ञान समृद्ध होगा।
अगले लेख में हम वैकासिक चिकित्सा की वर्तमान स्थिति – नेसे व विलियम्स की पुस्तक के प्रकाशन के 30-35 साल बाद – पर विचार करेंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.thewire.in/wp-content/uploads/2022/11/28200347/Image-1-PSM_V57_D097_Hms_beagle_in_the_straits_of_magellan-1536×991.png