शकर का संसार – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

डॉ. उल्बे बोस्मा की पुस्तक दी वर्ल्ड ऑफ शुगर (शकर का संसार) को हाल ही में हारवर्ड युनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित किया है। यह पुस्तक बताती है कि शकर का सामाजिक प्रभुत्व एक हालिया सामाजिक घटना है। भारत में छठी शताब्दी से दानेदार चीनी बनाई और खाई जा रही है। वास्तव में, डॉ. के. टी. अचया अपनी पुस्तक इंडियन फूड – ए हिस्टोरिकल कम्पेनियन (भारतीय भोजन – एक ऐतिहासिक सहचर) में बताते हैं कि भारत में गन्ने के बारे में अथर्ववेद के समय (लगभग 900 ईसा पूर्व) से और गुड़ के बारे में 800 ईसा पूर्व से पता रहा है।

हालांकि, दानेदार शकर के बारे में जानकारी छठवीं शताब्दी से थी, लेकिन परिष्कृत शकर 19वीं शताब्दी में युरोप में व्यापक पैमाने पर फैली। जैसा कि लेखक बताते हैं, शकर का सामाजिक प्रभुत्व प्रगति की कहानी है, और साथ ही शोषण, नस्लवाद, मोटापे और पर्यावरण विनाश की कड़वी-मीठी कहानी है।

गुलामों का व्यापार

दी कनवर्सेशन में एक लेख प्रकाशित हुआ है: ‘ए हिस्ट्री ऑफ शुगर – दी फूड देट नोबडी नीड्स, बट एव्रीवन क्रेव्स फॉर’  (शकर का इतिहास – ऐसा खाद्य जिसकी किसी को ज़रूरत नहीं है, लेकिन हर कोई तरसता है)। इस लेख में बताया गया है कि किस तरह शकर का उत्पादन मध्य पूर्व में, और औपनिवेशिक काल के दौरान गुलामों द्वारा वेस्ट इंडीज़ में, और ब्राज़ील में किया जाता था। ब्राज़ील और कैरेबियाई क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर गन्ना बागानों में काम करने के लिए श्रमिकों की भारी मांग थी। यह मांग अटलांटिक-पार गुलाम व्यापार से पूरी हुई, जिसके परिणामस्वरूप 1501 से 1867 के बीच लगभग 1,25,70,000 लोगों को अफ्रीका से अमेरिका महाद्वीप भेजा गया। प्रत्येक यात्रा में लोगों की मृत्यु दर संभवत: 25 प्रतिशत तक थी, और इसमें 10 लाख से 20 लाख लाशों को समुद्र में फेंका गया था। सौभाग्य से, अब दास व्यापार समाप्त हो गया है। ब्राज़ील और भारत शीर्ष शकर उत्पादक बने हुए हैं, और अब वैश्विक शकर उत्पादन में लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा चुकंदर से आता है।

भारत में हम सभी गन्ने और उससे बनी दानेदार शकर से परिचित हैं। हमारे यहां गुड़ भी है जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। आजकल लोग यह जानना चाहते हैं कि क्या थैलीबंद दानेदार चीनी की अपेक्षा ठेलेवालों द्वारा बेचा जाने वाला ताज़ा गन्ने का रस लेना बेहतर है। इसका जवाब है – हां, क्योंकि इसमें थोड़ी मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट और खनिज होते हैं जो चीनी बनाते समय नष्ट हो जाते हैं। गुड़ को अक्सर अन्य तरह की शकर की तुलना में स्वास्थ्यवर्धक बताया जाता है, क्योंकि इसमें एंटीऑक्सिडेंट, विटामिन और खनिज होते हैं।

स्वास्थ्य जोखिम

वैसे हम सभी जानते हैं कि किसी भी प्रकार की शकर का बहुत अधिक सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इससे मधुमेह हो सकता है, जिसमें शकर का अधिक सेवन रक्तप्रवाह में इंसुलिन स्रवण को शुरू करवाता है जिससे दृष्टि की दिक्कतें, और हृदय और किडनी सम्बंधी समस्याएं हो सकती हैं। यही कारण है कि डॉक्टर बहुत अधिक मीठा न खाने का सुझाव देते हैं। टाइप-1 डायबिटीज़ के रोगियों को इंसुलिन का इंजेक्शन लेना पड़ता है, जबकि टाइप-2 डायबिटीज़ रोगियों को रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर सावधानीपूर्वक नियंत्रित रखना पड़ता है, और शकर के विकल्प (स्टीवियोल ग्लायकोसाइड या सुक्रेलोज़ वगैरह) लेना पड़ता है। हाल ही में जीन क्लीनिक नामक कंपनी ने एक ऐसा उपकरण पेश किया है जो बांह या पेट पर एक पट्टी की तरह चिपक जाता है। हमेशा पहनने योग्य यह उपकरण आपको रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर बताता है, और ज़रूरत पड़ने पर यह भी बताता है कि कब आपको अपने डॉक्टर से परामर्श लेना है।

इन सबके मद्देनज़र शकर का सेवन कम करना सबसे अच्छा है। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या सिर्फ रसायन कृषि उत्पादकता बढ़ाते हैं? – भारत डोगरा

पिछले करीब 50 वर्षों से भारत ने कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद व कीटनाशक, खरपतवारनाशक आदि रसायनों पर अधिकतम ध्यान दिया है। इसके लिए हज़ारों किस्म के पंरपरागत, विविधतापूर्ण बीजों को हटाकर ऐसी नई हरित क्रांति किस्मों (एच.वाई.वी.) को प्राथमिकता दी गई जो रासायनिक उर्वरकों की अधिक मात्रा के अनुकूल हैं व जिनके लिए कीटनाशकों आदि की ज़रूरत ज़्यादा पड़ती है।

इस नीति को अपनाने से मिट्टी, पानी, खाद्यों की गुणवत्ता, परागण करने वाले मित्र कीटों व पक्षियों के साथ पूरे पर्यावरण पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ता है।

लंदन फूड कमीशन की चर्चित रिपोर्ट बताती है कि ब्रिटेन में मान्यता प्राप्त कीटनाशकों व जंतुनाशकों का सम्बंध कैंसर व जन्मजात विकारों से पाया गया है। अमेरिका में नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस की एक रिपोर्ट ने बताया है कि खाद्य में कीटनाशकों की उपस्थिति के कारण कैंसर के दस लाख अतिरिक्त मामले बढ़ने की संभावना है। विश्व संसाधन रिपोर्ट में बताया गया है कि कीटनाशकों का बहुत कम हिस्सा (कुछ कीटनाशकों में मात्र 0.1 प्रतिशत) ही अपने लक्ष्य कीटों को मारता है। शेष कीटनाशक अन्य जीवों को नुकसान पहुंचाते हैं तथा भूमि व जल को प्रदूषित करते हैं। पोषण विशेषज्ञ सी. गोपालन ने बताया है कि रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंन उपयोग से मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की गंभीर कमी हो गई है जो इसमें उगे खाद्यों में भी नज़र आने लगी है।

प्रति हैक्टर उत्पादकता में औसत वार्षिक वृद्धि (प्रतिशत)
फसलहरित क्रांति पूर्व (1951-61)हरित क्रांति पश्चात (1968-81)
गेंहू3.73.3
धान3.22.7
ज्वार3.42.9
बाजरा2.66.3
मक्का4.81.7
मोटे अनाज2.61.5
दालें2.3-0.2
तिलहन1.30.8
कपास3.02.6
गन्ना1.63.1
(स्रोत: 12वीं पंचवर्षीय योजना)

इन प्रभावों के बावजूद कहा जाता है कि एच.वाई.वी. बीजों को अपनाए बिना खाद्य उत्पादन व कृषि उत्पादन बढ़ाना संभव नहीं था। यह एक बहुत बड़ा मिथक है जिसे निहित स्वार्थों ने फैलाया है ताकि वे रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक पर आधारित नीतियों का प्रसार करते रहें जिसके चलते पर्यावरण रक्षा करने वाले विकल्प उपेक्षित रहे हैं।

दूसरी ओर, हरित क्रांति से पहले व बाद के कृषि उत्पादकता के आंकड़ों से यह स्पष्ट पता चलता है कि वास्तव में हरित क्रांति से पहले कृषि उत्पादकता की वृद्धि दर बेहतर थी, जबकि इस दौरान रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं का उपयोग बहुत ही कम था।

12वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज़ में इस बारे में विस्तृत आंकड़े प्रकाशित किए गए हैं कि हरित क्रांति से पहले के 15 वर्षों में उत्पादकता वृद्धि कितनी हुई है तथा उसके बाद उत्पादकता वृद्धि कितनी हुई है? यह जानकारी तालिका में प्रस्तुत है।

तालिका से स्पष्ट है कि हरित क्रांति से उत्पादकता में शीघ्र वृद्धि की बात महज एक मिथक है। दूसरी ओर यह सच है कि हरित क्रांति के दौर में रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक वगैरह पर खर्च बहुत तेज़ी से बढ़ा है। पहले 15 वर्षों की अपेक्षा बाद के 12 वर्षों में रासायनिक उर्वरकों की खपत लगभग छह गुना बढ़ गई व कीटनाशकों में वृद्धि इससे भी कहीं अधिक थी।

यह बहुत ज़रूरी है कि अनुचित मिथकों से छुटकारा पाया जाए व सही तथ्यों को देखा जाए ताकि किसानों के हित व पर्यावरण रक्षा वाली नीतियां अपनाई जाएं तथा किसानों के अनावश्यक खर्चों को कम कर उनके संकट के समाधान की ओर बढ़ा जाए। इस समय देश और दुनिया में सैकड़ों उदाहरण उपलब्ध हैं जहां महंगी रासायनिक खाद व कीटनाशकों के बिना अच्छी कृषि उत्पादकता प्राप्त की गई है। इनसे सीखते हुए आगे बढ़ना चाहिए।

इस संदर्भ में विख्यात कृषि वैज्ञानिक डॉ. आर. एच. रिछारिया के कार्य से भी बहुत सीख मिलती है। 25 वर्ष की उम्र में ही कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि हासिल करने के कुछ वर्षों पश्चात वर्ष 1959 में वे केंद्रीय धान अनुसंधान केंद्र के निदेशक नियुक्त हुए व वर्ष 1967 तक इस पद पर रहे। वर्ष 1971 में वे मध्यप्रदेश के धान अनुसंधान संस्थान के निदेशक नियुक्त हुए तथा 1976 तक इस पद पर रहे।

डॉ. रिछारिया धान विशेषज्ञ थे। इस संदर्भ में उन्होंने हमेशा एक बात कही कि धान की खेती का विकास स्थानीय प्रजातियों के आधार पर ही होना चाहिए। हमारे देश में धान की बहुत समृद्ध जैव-विविधता मौजूद है व किसानों को इस बारे में बहुत परंपरागत ज्ञान है। वे कई पीढ़ियों से इन विविध किस्मों को अपने खेतों पर उगाते आ रहे हैं। पर हाल के वर्षों की अनुचित नीतियों के कारण परंपरागत बीज तेज़ी से लुप्त होते जा रहे हैं। अत: इनका संरक्षण अब बहुत आवश्यक है जो किसानों के खेतों पर ही जीवंत रूप से संभव है।

उन्होंने कीटनाशक त्यागने व रासायनिक खाद के बहुत कम उपयोग पर ज़ोर दिया। उन्होंने रासायनिक खाद व कीटनाशकों के अनुकूल नई किस्में लाने के स्थान पर परंपरागत किस्मों में ही बहुत अच्छी उत्पादकता देने वाली किस्मों की पहचान की। इनकी उत्पादकता तथाकथित हरित क्रांति में उपयोग की गई किस्मों के बराबर या अधिक है।

उन्होंने परंपरागत बीजों व किस्मों सम्बंधी किसानों (विशेषकर आदिवासी किसानों) के ज्ञान की प्रशंसा की तथा इस परंपरागत ज्ञान का भरपूर उपयोग करते हुए कृषि अनुसंधान व प्रसार की एक वैकल्पिक विकेंद्रित व्यवस्था विकसित करने का आग्रह किया। उनका कहना था कि इस व्यवस्था में गांवों में ही अनुभवी किसानों की सहायता से खेती (विशेषकर धान की खेती) के अनुसंधान केंद्र विकसित किए जाने चाहिए। किसानों के परंपरागत ज्ञान का उपयोग करते हुए व उनकी भागीदारी से वैज्ञानिकों को अपना सहयोग देना चाहिए।

डॉ. रिछारिया ने कृषि अनुसंधान की जो सोच रखी थी उसमें स्वाभाविक रूप से किसानों का खर्च कम होता है, उनकी आत्म निर्भरता बढ़ती है व उनके परंपरागत ज्ञान का संरक्षण व प्रसार होता है। साथ में आधुनिक विज्ञान की नई बातों का उपयोग होता है व यह स्पष्ट होता है कि किसानों को आधुनिक विज्ञान से क्या चाहिए व क्या नहीं चाहिए।

जलवायु बदलाव के दौर में डॉ. रिछारिया के इस सोच की उपयोगिता और भी बढ़ गई है क्योंकि इससे खेती में बदलते मौसम के अनुकूल व्यावहारिक बदलाव करने की किसानों की क्षमता निश्चित तौर पर बढ़ जाती है। डॉ. रिछारिया द्वारा बनाई गई व्यवस्था में किसान स्वयं बदलते मौसम के अनुसार अपनी कृषि में ज़रूरी बदलाव कर सकते हैं।

परंपरागत बीजों की उपलब्धता शीघ्र बढ़ाने में उनकी क्नोनल प्रोपेगेशन तकनीक या कृन्तक प्रसार विधि से बहुत मदद मिलती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पसीना बहाकर डिटॉक्स भ्रम मात्र है

वैसे तो लोग पसीने से नाक-भौं सिकोड़ते हैं और इससे निजात पाने के लिए तरह-तरह के डिओ और अन्य उपाय अपनाते हैं। लेकिन आजकल पसीना चलन और स्टाइल में है, खासकर जिम में। इसके अलावा पसीना बहाने के लिए तरह-तरह के विकल्प चलन में हैं, जैसे हॉट योगा, इन्फ्रारेड सौना वगैरह। लोग ये सब इस चाह में अपना रहे हैं कि इस तरह पसीना बहाकर वे अपने शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकाल देंगे, अन्य शब्दों में कहें तो शरीर को डिटॉक्स कर देंगे।

लेकिन वास्तविकता थोड़ी अलग है। पसीना बहाऊ गतिविधियां करके आप शरीर से अधिकतर पानी ही बाहर निकालते हैं और अन्य पदार्थ न के बराबर। पसीना मुख्यत: हमारे शरीर को ठंडा रखने के लिए निकलता है, शरीर से अपशिष्ट या विषाक्त पदार्थ बाहर निकालने के लिए नहीं। इस काम के लिए हमारे शरीर में किडनी और लीवर हैं।

मैकगिल युनिवर्सिटी में विज्ञान और समाज विभाग के निदेशक व रसायन शास्त्री जो श्वार्क्ज़ बताते हैं कि पसीने से शरीर को डिटॉक्स करने की बात एक मिथक है। पसीने में ज़्यादातर पानी होता है, साथ ही इसमें अत्यल्प मात्रा में अन्य सैकड़ों पदार्थ हो सकते हैं जिनमें से कुछ विषैले पदार्थ भी हो सकते हैं। इसलिए जब भी इस तरह डिटॉक्स करने की बात हो तो ये सवाल ज़रूरी है कि पसीना बहाकर कितना डिटॉक्स होगा? और क्या? क्या पसीने के साथ कीटनाशक शरीर से बाहर निकल जाएंगे? धातुएं या कुछ और बाहर निकल जाएगा?

जब आप इस बात पर गौर करेंगे कि वास्तव में हमारे शरीर में विषाक्त पदार्थ कैसे जमा होते हैं, उनके गुण क्या हैं, और शरीर उनसे छुटकारा पाने के क्या तरीके अपनाता है तो आप पाएंगे कि अधिकांश डिटॉक्स योजनाएं बकवास हैं।

जब हमारा शरीर गर्म होता है या हम व्यायाम करते हैं तो हमारे पूरे शरीर में फैली एक्राइन ग्रंथियां पसीना स्रावित करती हैं। हमारे शरीर में इनकी संख्या करीब तीस लाख है। चूंकि हमारा शरीर अपने को ठंडा रखने के लिए पसीना बहाता हैं इसलिए इसमें 99 प्रतिशत से अधिक पानी होता है। इस पानी में बहुत थोड़ी मात्रा में सोडियम और कैल्शियम जैसे खनिज, विभिन्न प्रोटीन, लैक्टिक एसिड और थोड़ा यूरिया होता है।

यूरिया भोजन में प्रोटीन के टूटने से लीवर में बनता है। यह हमारे शरीर में बनने वाला एक अपशिष्ट उत्पाद है। यह कहना तो ठीक है कि पसीने के साथ शरीर से थोड़ा यूरिया भी निकल जाता है लेकिन सच्चाई यह है कि इसका अधिकांश हिस्सा पेशाब के ज़रिए शरीर से बाहर निकलता है और यह काम किडनी करती है।

अब बात करते हैं मानव निर्मित प्रदूषकों की। कार्बनिक प्रदूषक जैसे कीटनाशक, अग्निरोधी और पॉलीक्लोरिनेटेड बाइफिनाइल (पीसीबी) शरीर में प्रवेश करके शरीर की वसा में जाकर जमा हो जाते हैं क्योंकि ये पदार्थ वसा-प्रेमी (या वसा में घुलनशील) होते हैं। पसीने में मुख्यत: पानी होता है, वसा नहीं। नतीजतन, ये वसा-प्रेमी पदार्थ पानी में नहीं घुलते और पसीने के साथ इतनी कम मात्रा में निकलते हैं कि इसे डिटॉक्स कहना व्यर्थ है। ओटावा विश्वविद्यालय के एक्सरसाइज़ फिज़ियोलॉजिस्ट पास्कल इम्बॉल्ट ने 2018 में अपने अध्ययन में पसीने में इन्हीं विषाक्त पदार्थों की मात्रा की गणना की थी। और पाया था कि 45 मिनट का कठोर व्यायाम करके कोई सामान्य व्यक्ति पूरे दिन में कुल दो लीटर पसीना बहा सकता है, और इस पसीने में इन प्रदूषकों की मात्रा एक नैनोग्राम के दसवें हिस्से से भी कम होती है।

इसे इस तरह समझते हैं कि आप दिन भर में जितनी भी मात्रा में विषाक्त पदार्थ का सेवन करते हैं पसीने के साथ उसका महज 0.02 प्रतिशत हिस्सा ही बहाते हैं। और आप कुछ भी करके पूरे दिन में अधिक से अधिक दैनिक सेवन का 0.04 प्रतिशत तक ही प्रदूषक पसीने में बहा सकते हैं।

यह भी बात ध्यान में रखने की है कि अधिकांश लोगों के शरीर में कीटनाशकों और अन्य प्रदूषकों का स्तर बेहद कम होता है। सिर्फ इसलिए कि वे हमारे शरीर में मौजूद हैं इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी इतनी मात्रा हमें कोई नुकसान पहुंचा रही है, या शरीर से इन्हें हटाने से स्वास्थ्य पर कोई प्रभाव पड़ेगा।

चलिए अब इस मिथक की लेशमात्र सच्चाई को देखते हैं। प्लास्टिक में मौजूद सीसा जैसी भारी धातुएं और बीपीए वसा की जगह पानी में आसानी से घुलते हैं। इसलिए ये बहुत थोड़ी मात्रा में पसीने के साथ बाहर निकल जाते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि बीपीए का अधिकांश हिस्सा पेशाब के ज़रिए शरीर से निकलता है।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप पानी पी-पीकर पेशाब करते रहें ताकि शरीर विषमुक्त रहे। इसकी बजाय विशेषज्ञों की सलाह है कि प्लास्टिक की चीज़ों में खाने-पीने से बचें ताकि बीपीए का सेवन कम से कम हो। कोशिश करें कि कीटनाशक या अन्य प्रदूषक रहित खाद्य का सेवन करें और इनके संपर्क में आने से बचें। इसके अलावा शरीर के सफाईकर्मी अंग यानी किडनी को स्वस्थ रखें – इसके लिए आप धूम्रपान से, उच्च रक्तचाप और इबुप्रोफेन जैसी दर्दनिवारक दवाइयों के अत्यधिक उपयोग से बचें। और पर्याप्त पानी पिएं। शरीर में पानी की कमी से किडनी पर दबाव पड़ता है, इसलिए पर्याप्त पानी पिए बिना खूब पसीना बहाने से शरीर की सफाई प्रणाली गड़बड़ा सकती है।

और, बाज़ार के चलन के झांसे में न आएं। बाज़ार जानता है कि हर मनुष्य स्वस्थ रहना चाहता है। और, क्योंकि हम विषाक्त पदार्थों को देख नहीं सकते इसलिए बाज़ार लोगों को बहुत आसानी से यह विश्वास दिला देता है कि इस तरह का उपवास करने से, डाइट प्लान लेने से, या सलाद-सब्ज़ियां खाने या जूस पीने से, या बहुत अधिक पसीना बहाने के उनके विकल्प अपनाकर आप स्वस्थ रहेंगे।

दरअसल, कई मामलों में स्वेट थेरेपी की अति से लोगों की जान तक गई है। अमेरिकन कॉलेज ऑफ स्पोर्ट्स मेडिसिन के अनुसार एक बार में 10 मिनट से अधिक समय तक सौना रूम में नहीं रहना चाहिए। 2011 में, एरिज़ोना में एक स्व-सहायता गुरु द्वारा आयोजित दो घंटे लंबे पसीना समारोह के बाद तीन लोगों की मौत हो गई थी। इसी वर्ष, क्यूबेक में एक 35 वर्षीय महिला की मृत्यु हो गई थी। इस महिला के शरीर पर डिटॉक्स स्पा उपचार के तहत मिट्टी का लेप किया गया था, फिर उसे प्लास्टिक में लपेटकर सिर पर एक कार्डबोर्ड का बक्सा रख दिया गया। और ऊपर से कंबल ओढ़ाकर उसे नौ घंटे तक रखा गया। इस तरह वह पसीना तो बहाती रही लेकिन उपचार के कुछ घंटों बाद ही अत्यधिक गर्मी के कारण उसकी मृत्यु हो गई।

यह तो जानी-मानी बात है कि बाज़ार आपकी स्वस्थ रहने और अन्य हसरतों को जानता है। इसका फायदा उठाकर वह दावे करता है कि कोई उत्पाद या विकल्प अपनाकर आप तुरंत वैसे हो सकते हैं जैसे आप होना चाहते हैं। बाज़ार को रोकना मुश्किल है, लेकिन आप बाज़ार के झांसे में न आएं और समझदारी से काम लें। (स्रोत फीचर्स)

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विलुप्ति की कगार पर थार रेगिस्तान

ई सदियों से दक्षिण एशियाई मानसून ने भारत में जीवन को लयबद्ध किया है। इसके प्रभाव से हमेशा से पूर्वी क्षेत्र हरा-भरा रहा है जबकि पश्चिम में स्थित विशाल थार रेगिस्तान सूखा रहा है। इस जलवायु ने अनेकों सभ्यताओं और संस्कृतियों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन अब इस जलवायु पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। हालिया अध्ययन के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के कारण वर्तमान मौसम के पैटर्न में परिवर्तन की संभावना है जिससे मानसून पश्चिम की ओर सरक रहा है। ऐसा ही चलता रहा तो मात्र एक सदी की अवधि में यह विशाल थार रेगिस्तान पूरी तरह से गायब हो सकता है।

इस परिवर्तन से एक अरब से अधिक लोग प्रभावित हो सकते हैं। स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशिएनोग्राफी के जलवायु वैज्ञानिक शांग-पिंग झी का विचार है कि इस अध्ययन का निहितार्थ है कि थार रेगिस्तान में बाढ़ें आएंगी जो पिछले वर्ष पाकिस्तान में आई भयंकर बाढ़ जैसी हो सकती हैं जिसमें 80 लाख लोग बेघर हो गए थे और लगभग 15 अरब डॉलर की संपत्ति का नुकसान हुआ था।

आम तौर पर ऐसा कहा जाता है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण रेगिस्तान फैलेंगे, लेकिन इसके विपरीत थार रेगिस्तान के हरियाने संभावना है। इस पैटर्न को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने दक्षिण एशिया के आधी सदी के मौसमी आंकड़ों का अध्ययन किया। एकत्रित डैटा में उन्होंने मानसूनी वर्षा को पश्चिम की ओर खिसकते पाया, इससे कुछ शुष्क उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में वर्षा में 50 प्रतिशत तक वृद्धि हुई है जबकि आर्द्र पूर्वी क्षेत्र में वर्षा में कमी आई है। अर्थ्स फ्यूचर में प्रकाशित भूपेंद्र यादव व साथियों के इस जलवायु मॉडल का अनुमान है कि मानसून के पश्चिम की ओर 500 किलोमीटर से अधिक खिसकने के कारण अगली सदी तक थार में लगभग दुगनी वर्षा होने लगेगी।

इसका मुख्य कारण हिंद महासागर का असमान रूप से गर्म होना है, जिससे कम दबाव का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र पश्चिम की ओर खिसकेगा जिससे बरसात में परिवर्तन होगा। परिणामस्वरूप भारत में शुष्क मौसम का प्रतीक थार रेगिस्तान सदी के अंत तक हरा-भरा हो सकता है। और तो और, यह वर्षा रिमझिम नहीं होगी बल्कि काफी तेज़ होगी जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा। अलबत्ता, इस बदलाव का सदुपयोग भी किया जा सकता है। वर्षा जल का संचयन और भूजल भंडार रणनीतियों को मज़बूत करके थार के कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित किया जा सकता है। यह उस काल जैसा हो सकता है जब 5000 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता विकसित हुई थी। साथ ही, भारी बारिश से जुड़े कई खतरे भी होंगे। पाकिस्तान में हाल ही में आई विनाशकारी बाढ़ संभावित तबाही के संकेत देती है।

स्पष्ट है कि बदलते जलवायु क्षेत्रों की बारीकी से निगरानी करना होगी और घनी आबादी वाले क्षेत्रों में विशेष निगरानी ज़रूरी है जहां मामूली जलवायु परिवर्तन भी विनाशकारी परिणाम ला सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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एक अजूबा है चूहा हिरण – प्रमोद भार्गव

चूहा, हिरण और खरगोश – तीन प्राणि एक ही प्राणि में शामिल हैं? एकाएक यह बात विश्वसनीय नहीं लगती। परंतु दुनिया का यह सबसे छोटा हिरण प्रकृति का एक अजूबा है। बताते हैं कि विलुप्ति की कगार पर खड़े ये हिरण छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जि़ले में स्थित अचानकमार अभयारण्य और कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में पाए जाते हैं। कांगेर घाटी अभयारण्य में इस दुर्लभ प्रजाति के हिरण का चित्र अचानक ही कैमरा में कैद हुआ है।

भारत में पाए जाने वाले हिरणों की 12 प्रजातियों में से एक प्रजाति चूहा-हिरण (Moschiola indica) की भी है। इसे विश्व का सबसे छोटा हिरण माना जाता है। इन अभयारण्यों के वन प्रांतरों में भारी-भरकम, खतरनाक और मांसाहारी वन्य प्राणियों के बीच यह छोटा एवं अत्यंत चंचल जीव कब तक बचा रहेगा, यह तो वक्त ही तय करेगा। हिरण और चूहे की शारीरिक बनावट व आदतों वाले इस नन्हे जंतु को हिंदी में ‘चूहा-हिरण’ संस्कृत में ‘मूषक-मृग’ और अंग्रेज़ी में माउस डियर कहते हैं। यह ट्रेगुलिडी कुल में आता है। वैसे बिलासपुर क्षेत्र के स्थानीय लोग इसे खरगोश की एक प्रजाति मानते आए हैं। इसलिए वे इसे ‘खरहा’ कहकर पुकारते हैं।

यहां के आदिवासी इसे घेरकर लाठियों से आसानी से मार लेते हैं। यदि यह लाठी की मार में नहीं आता तो वे इसे विष बुझे तीरों से निशाना भी बनाते हैं। दुर्लभ प्राणियों की श्रेणी में सूचीबद्ध होने के कारण इसके शिकार पर पूरी तरह प्रतिबंध है, संभवत: इसीलिए इसका अस्तित्व अभी तक बचा हुआ है। अब जागरूकता के चलते आदिवासी भी इसका शिकार नहीं करते हैं।

कुदरत का यह अजीब नमूना शक्ल-सूरत में खरगोश की तरह दिखता है, पर इसका मुंह एकदम चूहे से मिलता-जुलता है। इसकी त्वचा गहरा हरापन लिए भूरी-सी होती है। इससे इसे हरियाली के बीच छिपने में मदद मिलती है। अन्य हिरणों की तरह इसकी सूंघने व सुनने शक्ति तेज़ होती है। इससे यह दुश्मन को दूर से ही ताड़ लेता है और भागकर हरी घास अथवा झाड़ियों में छिप जाता है। इस तरह यह प्राणि हिंसक जीवों से अपनी रक्षा स्वयं कर लेता है।

इसकी त्वचा पर पेट के दोनों तरफ दो-दो चकत्तों में सफेद धारियां होती हैं। यही धारियां इसकी खास पहचान हैं तथा खरगोश व इसमें भेद करती हैं। इसका मुंह कुछ लंबा और कान छोटे होते हैं। इसके सिर पर सींग नहीं पाए जाते हैं, इसलिए यह एंटिलोप समूह का हिरण नहीं है। सींग की बजाय इसके मुंह पर ऊपरी जबड़े में दो कैनाइन दांत होते हैं। ये दांत कस्तूरी मृग में भी पाए जाते हैं। इन्हीं दांतों की सहायता से यह आहार को तोड़ता व चबाता है। इसके पैर गोल होने के साथ खुरों से युक्त होते हैं। खुर दो हिस्सों में विभाजित रहते हैं।

इनका रहवास विशेष रूप से घनी झाड़ियों और नमी वाले नमक्षेत्र होते हैं। अधिकतर ज़्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। शरीर की लंबाई 57.5 सेंटीमीटर तक होती है और पूंछ करीब 2.5 से.मी. लंबी होती है। इस तरह से यह कुल लगभग 61 से.मी. लंबा होता है। इसकी ऊंचाई 35 से.मी. तक होती है और वज़न तीन से सात किलोग्राम तक होता है। यह जंगलों में आठ से बारह वर्ष तक जीवित रह सकता है। यह पूरी तरह शाकाहारी प्राणि है और हिरण की अन्य प्रजातियों की तरह घास और फूल-पत्तियां ही खाता है।

भारत, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत अन्य दक्षिण एशियाई और पूर्व एशियाई देशों के उष्णकटिबंधीय नमी वाले क्षेत्रों में भी ये पाए जाते हैं। बिना सींगों वाले हिरणों का यह एकमात्र समूह है। शर्मीले और निशाचर होने के कारण इन पर भारत में ज़्यादा अध्ययन नहीं हुए हैं, इसीलिए इनके बारे में विशेष जानकारी भारतीय प्राणि विशेषज्ञों के पास भी नहीं है।

इनका प्रजनन काल पूरे साल चलता है। मादा साल में दो मर्तबा बच्चे जनती है। आम तौर पर एक बार में एक ही बच्चा जनती है, पर कभी-कभार दो बच्चे भी जनती है। ये बच्चे पैदा होने के 24 घंटे बाद चलने-फिरने व दौड़ने लगते हैं। चूहा हिरण की रफ्तार खरगोश से बहुत तेज़ होती है। अन्य हिरणों की भांति यह कुलांचे भरने में भी निपुण होता है। चूहा हिरण से कुछ बड़ा चिलियन हिरण पुडू पुडा (Pudu puda) होता है जो हमारे देश में नहीं पाया जाता। चिलियन पुडू पुडा की लंबाई 85 सेंटीमीटर और ऊंचाई 45 सेंटीमीटर तक होती है। शोरगुल, यांत्रिक कोलाहल व मानवीय हलचल से दूर ये हिरण नितांत एकांत पसंद करते हैं। मनुष्य का हस्तक्षेप, भले ही वह इसके संरक्षण के लिए ही क्यों न हो, इसके प्रजनन पर प्रतिकूल असर डालता है। इसलिए चिड़ियाघरों में यह हिरण ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहता। लिहाज़ा, अब बड़े चिड़ियाघरों ने इसे पालना बंद कर दिया है।

छत्तीसगढ़ में चूहा हिरण को पहली बार 1905 में एक अंग्रेज़ नागरिक ने रायपुर में देखा था। इसके संरक्षण के बेहतर प्रयास छत्तीसगढ़ से अधिक तेलंगाना प्रांत में हो रहे हैं। तेलंगाना के जंगलों में अब तक चूहा हिरण के 17 जोड़े छोड़े गए हैं। लेकिन इस हिरण के उचित संरक्षण हेतु इसकी आदतों और नैसर्गिक प्रक्रियाओं का विस्तृत अध्ययन करने की आवश्यकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रहस्यमय भारतीय चील-उल्लू – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारतीय चील-उल्लू (Bubo bengalensis) को कुछ वर्षों पूर्व ही एक अलग प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था और इसे युरेशियन चील-उल्लू (Bubo bubo) से अलग पहचान मिली थी। भारतीय प्रजाति सचमुच एक शानदार पक्षी है। मादा नर से थोड़ी बड़ी होती है और ढाई फीट तक लंबी हो सकती है, और उसके डैनों का फैलाव छह फीट तक हो सकता है। इनके विशिष्ट कान सिर पर सींग की तरह उभरे हुए दिखाई देते हैं। इस बनावट के पीछे एक तर्क यह दिया जाता है कि ये इन्हें डरावना रूप देने के लिए विकसित हुए हैं ताकि शिकारी दूर रहें। यदि यह सही है, तो ये सींग वास्तव में अपना काम करते हैं और डरावना आभास देते हैं।

निशाचर होने के कारण इस पक्षी के बारे में बहुत कम मालूमात हैं। इनके विस्तृत फैलाव (संपूर्ण भारतीय प्रायद्वीप) से लगता है कि इनकी आबादी काफी स्थिर है। लेकिन पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता क्योंकि ये बहुत आम पक्षी नहीं हैं। इनकी कुल संख्या की कभी गणना नहीं की गई है। हमारे देश में वन क्षेत्र में कमी होते जाने से आज कई पक्षी प्रजातियों की संख्या कम हो रही है। लेकिन भारतीय चील-उल्लू वनों पर निर्भर नहीं है। उनका सामान्य भोजन, जैसे चूहे, बैंडिकूट और यहां तक कि चमगादड़ और कबूतर तो झाड़-झंखाड़ और खेतों में आसानी से मिल जाते हैं। आसपास की चट्टानी जगहें इनके घोंसले बनाने के लिए आदर्श स्थान हैं।

मिथक, अंधविश्वास

मानव बस्तियों के पास ये आम के पेड़ पर रहना पसंद करते हैं। ग्रामीण भारत में, इस पक्षी और इसकी तेज़ आवाज़ को लेकर कई अंधविश्वास हैं। इनका आना या इनकी आवाज़ अपशकुन मानी जाती है। प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली ने लोककथाओं का दस्तावेज़ीकरण किया है जो यह कहती हैं कि चील-उल्लू को पकड़कर उसे पिंजरे में कैद कर भूखा रखा जाए तो यह मनुष्य की आवाज़ में बोलता है और लोगों का भविष्य बताता है।

उल्लू द्वारा भविष्यवाणी करने सम्बंधी ऐसे ही मिथक यूनानी से लेकर एज़्टेक तक कई संस्कृतियों में व्याप्त हैं। कहीं माना जाता है कि वे भविष्यवाणी कर सकते हैं कि युद्ध में कौन जीतेगा, तो कहीं माना जाता है कि आने वाले खतरों की चेतावनी दे सकते हैं। लेकिन हम उन्हें ज्ञान से भी जोड़ते हैं। देवी लक्ष्मी का वाहन उल्लू (उलूक) ज्ञान और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

भारतीय चील-उल्लू से जुड़े नकारात्मक अंधविश्वास हमें इनके घोंसले वाली जगहों पर इनकी उग्र सुरक्षात्मक रणनीति पर विचार करने को मजबूर करते हैं। इनके घोंसले चट्टान पर खरोंचकर बनाए गोल कटोरेनुमा संरचना से अधिक कुछ नहीं होते, जिसमें ये चार तक अंडे देते हैं। इनके खुले घोंसले किसी नेवले या इंसान की आसान पहुंच में होते हैं। यदि कोई इनके घोंसले की ओर कूच करता है तो ये उल्लू खूब शोर मचाकर उपद्रवी व्यवहार करते हैं, और घुसपैठिये के सिर पर पीछे की ओर से अपने पंजे से झपट्टा मारकर वार करते हैं।

खेती में लाभकारी

इन उल्लुओं की मौजूदगी से किसानों को निश्चित ही लाभ होता है। एला फाउंडेशन और भारतीय प्राणि वैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा किए गए शोध से पता चलता है कि झाड़-झंखाड़ के पास घोंसले बनाने वाले भारतीय चील-उल्लुओं की तुलना में खेतों के पास घोंसले बनाने वाले भारतीय चील-उल्लू संख्या में अधिक और स्वस्थ होते हैं। ज़ाहिर है, उन्हें चूहे वगैरह कृंतक जीव बड़ी संख्या में मिलते होंगे। और उल्लुओं के होने से किसानों को भी राहत मिलती होगी।

इन उल्लुओं का भविष्य क्या है? भारत में पक्षियों के प्रति रुचि बढ़ती दिख रही है। पक्षी निरीक्षण (बर्ड वॉचिंग),  जिसे एक शौक कहा जाता है, अधिकाधिक उत्साही लोगों को लुभा रहा है। ये लोग पक्षियों की गणना, सर्वेक्षण और प्रवासन क्षेत्रों का डैटा जुटाने में योगदान दे रहे हैं। लेकिन यह काम अधिकतर दिन के उजाले में किया जाता है जिसमें उल्लुओं के दर्शन प्राय: कम होते हैं। उम्मीद है कि भारतीय चील-उल्लू जैसे निशाचर पक्षियों के भी दिन (रात) फिरेंगे।(स्रोत फीचर्स)

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शुक्र पर जीवन की तलाश – प्रदीप

पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर जीवन की संभावना का विचार हमेशा से सभी को आकर्षित करता रहा है। जीवन की संभावना वाले ग्रहों की सूची में मंगल के अलावा शुक्र भी शामिल हो चुका है। इसका कारण पिछले डेढ़-दो दशक में शुक्र के वातावरण में घटित हो रही रासायनिक प्रक्रियाओं को लेकर हमारी समझ में हुई वृद्धि है। हाल ही में कार्डिफ युनिवर्सिटी के जेन ग्रीव्स की टीम ने खगोल विज्ञान की एक राष्ट्रीय गोष्ठी में शुक्र पर जीवन योग्य परिस्थितियों की मौजूदगी को लेकर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया है। इस शोध पत्र का निष्कर्ष है कि शुक्र के तपते और विषैले वायुमंडल में फॉस्फीन नामक एक गैस है जो वहां जीवन की उपस्थिति का संकेत हो सकती है।

पूर्व में कार्डिफ युनिवर्सिटी के ही शोधकर्ताओं ने शुक्र के वातावरण में फॉस्फीन के स्रोतों का पता लगाकर हलचल मचा दी थी। हालांकि तब कई प्रतिष्ठित विशेषज्ञों ने शुक्र के घने कार्बन डाईऑक्साइड युक्त वातावरण, सतह के अत्यधिक तापमान व दाब और सल्फ्यूरिक अम्ल के बादलों जैसी बिलकुल प्रतिकूल परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस शोध को खारिज कर दिया था। लेकिन अब हवाई स्थित जेम्स क्लार्क मैक्सवेल टेलीस्कोप (जेसीएमटी) और चिली स्थित एटाकामा लार्ज मिलीमीटर ऐरे रेडियो टेलीस्कोप की सहायता से ग्रीव्‍स को शुक्र के वायुमंडल के निचले क्षेत्र में फॉस्फीन की मौजूदगी के सशक्त प्रमाण मिले हैं। इससे शुक्र के अम्लीय बादलों में सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी की उम्मीदें पुनर्जीवित हो गई हैं।

वैज्ञानिकों के मुताबिक शुक्र के वातावरण में 96 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड है, लेकिन फॉस्फीन का मिलना अपने आप में बेहद असाधारण बात है क्योंकि यह एक सशक्त बायो सिग्नेचर (जैव-चिन्ह) है। फॉस्फीन को एक बायो सिग्नेचर मानने का एक बड़ा कारण है पृथ्वी पर फॉस्फीन का सम्बंध जीवन से है। फॉस्फीन गैस के एक अणु में तीन हाइड्रोजन परमाणुओं से घिरे फॉस्फोरस परमाणु होते हैं, जैसे अमोनिया में तीन हाइड्रोजन परमाणुओं से घिरे नाइट्रोजन परमाणु होते हैं। पृथ्वी पर यह गैस औद्योगिक प्रक्रियाओं से बनती है। यह कुछ अनॉक्सी जीवाणुओं द्वारा भी निर्मित होती है जो ऑक्सीजन-विरल वातावरण में रहते हैं, जैसे सीवर, भराव क्षेत्र या दलदल में। सूक्ष्मजीव यह गैस ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में उत्सर्जित करते हैं। 

शुक्र पर फॉस्फीन की खोज के दो मायने हैं। एक, शुक्र पर जीवित सूक्ष्मजीव हो सकते हैं – शुक्र की सतह पर नहीं बल्कि उसके बादलों में, क्योंकि शुक्र की सतह किसी भी प्रकार के जीवन के अनुकूल नहीं है। उल्लेखनीय है कि फॉस्फीन या उसके स्रोत जिन बादलों में मिले हैं वहां तापमान 30 डिग्री सेल्सियस था। दूसरा, यह उन भूगर्भीय या रासायनिक प्रक्रियाओं से निर्मित हो सकती है, जो हमें पृथ्वी पर नहीं दिखती। ऐसे में इस खोज से यह दावा नहीं किया जा सकता कि हमने वहां जीवन खोज लिया है। लेकिन यह भी नहीं कह सकते कि वहां जीवन नहीं है। यह खोज अंतरिक्ष-अन्वेषण के लिए नए द्वार खोलती है।(स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन संस्कृति के राज़ उजागर करती माला

स्पैनिश नेशनल रिसर्च काउंसिल की पुरातत्वविद हाला अलाराशी और उनकी टीम को वर्ष 2018 में पेट्रा (जॉर्डन) से उत्तर में कई मील दूर बाजा नामक एक प्राचीन बस्ती में लगभग 9000 साल पुरानी एक छोटी, पत्थर से बनी कब्र के अंदर एक बच्चे का कंकाल भ्रूण जैसी मुद्रा में दफन मिला था। इसी के साथ दफन थी मनकों से बनी एक माला जो इस कंकाल की गर्दन पर पहनाई गई थी। हालांकि यह माला बिखरे हुए मनकों के ढेर के रूप में मिली थी लेकिन वैज्ञानिकों ने इन्हें सावधानी से समेटा और वैसा का वैसा पुनर्निर्मित किया। अब, प्लॉस वन में प्रकाशित विश्लेषण बताता है कि प्राचीन लोग किस तरह अपने मृतकों की परवाह करते थे। इसके अलावा यह खेती और बड़े समाजों में बसने से समुदायों में उस समय उभर रहे कुलीन वर्ग के बारे में भी बताता है। फिलहाल यह माला पेट्रा संग्रहालय में रखी गई है।

शोधकर्ताओं ने इस स्थल पर पाई गई कलाकृतियों की तुलना अन्य नवपाषाण स्थलों पर खोजी गई कलाकृतियों से करके यह पता लगाया था कि यह स्थल कितना पुराना है। फिर ल्यूमिनेसेंस डेटिंग तकनीक से इसके काल की पुष्टि की। ल्यूमिनेसेंस डेटिंग यह मापता है कि कोई तलछट कितने समय पहले आखिरी बार प्रकाश के संपर्क में आई थी। पाया गया कि यह कंकाल लगभग 7000 ईसा पूर्व नवपाषाण काल का था। इसी समय कई संस्कृतियां खेती करना, मवेशी-जानवर पालना और बड़े व जटिल समाजों में बसना शुरू कर रही थीं। इस गांव के निवासी भी गेहूं की खेती करते थे और भेड़-बकरियां पालते थे। हालांकि शोधकर्ता पुख्ता तौर पर माला पहने कंकाल के लिंग का पता तो नहीं कर पाए हैं, लेकिन कुछ हड्डियों के आकार को देखकर अनुमान है कि वह एक लड़की थी। शोधकर्ताओं ने उसका नाम जमीला रखा है, जिसका अर्थ है ‘सुंदर’।

अलाराशी बताती हैं कि हालांकि अन्य भूमध्यसागरीय खुदाई स्थलों पर भी नवपाषाण काल और उससे पूर्व के आभूषण (जैसे पत्थर की अंगूठियां व कंगन) मिलते हैं लेकिन ये आभूषण बाजा में मिली माला जितने बड़े नहीं हैं। अब तक खोजे गए नवपाषाणकालीन आभूषणों में सबसे प्राचीन और सबसे प्रभावशाली आभूषणों में से एक इस माला में 2500 मनके थे जो पत्थर, सीप और अश्मीभूत गोंद (एम्बर) के थे। ये मनके नौ लड़ियों में पिरोए हुए थे जो माला के ऊपरी ओर हेमेटाइट के पेंडल से बंधी थीं। नीचे की ओर, बाहरी सात लड़ियां एक छल्ले जैसे नक्काशीदार पेंडल से जुड़ी थीं और अंदरूनी दो लड़ियां बिना पेंडल के थीं।

वे आगे बताती हैं कि खुदाई से जब माला के सभी हिस्सों को खोदकर निकाल लिया गया तो उसे वापस बनाना एक कठिन काम था। अधिकांश मनके जमीला की गर्दन और कंधों के पास मिले थे, और कुछ मनके लड़ी की तरह कतार में पड़े थे, जिससे लगता था कि वे एक बड़ी माला के हिस्से थे। मनकों की कुछ अक्षुण्ण कतारों की सावधानीपूर्वक जांच करके अलाराशी ने इसके समग्र पैटर्न का अनुमान लगाया। और थोड़ा अपने हिसाब से अंदाज़ा लगाया कि माला कैसी रही होगी: उनका तर्क है कि हेमेटाइट पेंडेंट और छल्ले को माला में प्रमुख स्थान पर रखा गया होगा।

माला के अधिकांश मनके बलुआ पत्थर से बने थे, जो बाजा में आसानी से उपलब्ध थे। लेकिन अन्य मनके जैसे फिरोज़ा और एम्बर दूर से मंगाए गए थे। माला का केन्द्रीय हिस्सा यानी छल्ला एक विशाल मोती सीप से बनाया गया था, जो कई किलोमीटर दूर लाल सागर से आई थी।

अलाराशी का कहना है कि समुदायों के खेती करने और बड़े समाज में बसना शुरू करने से उन समुदायों में विशेष स्थिति वाले लोग उभरे। माला से पता चलता है कि जमीला को उच्च दर्जा प्राप्त था – हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि उसे यह विशेषाधिकार क्यों प्राप्त था। और, उसको दफनाना एक सामुदायिक कार्यक्रम रहा होगा जिसने सामुदायिक बंधनों को मज़बूत किया होगा।(स्रोत फीचर्स)

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घर बन जाएंगे असीम बैटरियां

हाल ही में शोधकर्ताओं ने ऊर्जा संग्रहण के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी खोज की है। इस नई खोज में सीमेंट में उच्च चालकता वाले कार्बन (ग्रैफीन या कार्बन नैनोनलिकाओं) का उपयोग करके सीमेंट रचनाओं में सुपरकैपेसिटर बनाने का एक किफायती तरीका विकसित किया गया है। इन विद्युतीकृत सीमेंट संरचनाओं में पर्याप्त ऊर्जा संचित की जा सकती है जिससे घर और सड़कें बैटरियों की तरह काम कर पाएंगे।

गौरतलब है कि सुपरकैपेसिटर  में दो चालक प्लेट्स का उपयोग किया जाता है जिसके बीच में एक इलेक्ट्रोलाइट और एक पतली झिल्ली होती है। जब यह उपकरण चार्ज होता है, विपरीत आवेश वाले आयन अलग-अलग प्लेट्स पर जमा होने लगते हैं। इन उपकरणों में ऊर्जा संचयन की क्षमता प्लेट्स की सतह के क्षेत्रफल पर निर्भर करती है। पिछले कई वर्षों से वैज्ञानिकों ने कॉन्क्रीट और कार्बन सम्मिश्र जैसी सामग्रियों में सुपरकैपेसिटर बनाने के प्रयास किए हैं। चूंकि सुपरकैपेसिटर में गैर-ज्वलनशील इलेक्ट्रोलाइट का उपयोग होता है इसलिए ये पारंपरिक बैटरियों की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं।

सामान्य सीमेंट विद्युत का एक खराब चालक होता है। इस समस्या के समाधान के लिए शोधकर्ताओं ने अत्यधिक सुचालक कार्बन रूपों (ग्रैफीन या कार्बन नैनोट्यूब्स) को सीमेंट में मिलाया। यह तकनीक काफी प्रभावी साबित हुई लेकिन बड़े पैमाने पर इनका उत्पादन काफी खर्चीला और कठिन होता है। इसके किफायती विकल्प की तलाश में एमआईटी के फ्रांज़-जोसेफ उल्म और उनकी टीम ने ब्लैक कार्बन का उपयोग किया जो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है और किफायती भी है। इस मिश्रण के कठोर होने पर सीमेंट के भीतर सुचालक तंतुओं का एक समन्वित जाल बन गया। इस सीमेंट को छोटे सुपरकैपेसिटर प्लेट्स के रूप में तैयार करने के बाद इसमें इलेक्ट्रोलाइट के रूप में पोटैशियम क्लोराइड और पानी का उपयोग किया गया। इसके बाद शोधकर्ताओं ने इस उपकरण से एलईडी बल्ब जलाया।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यदि कार्बन ब्लैक सीमेंट का उपयोग 45 घनमीटर कॉन्क्रीट (यानी एक सामान्य घर की नींव के बराबर) बनाने के लिए किया जाता है तो यह 10 किलोवॉट-घंटा ऊर्जा संचित कर सकता है जो एक औसत घर की एक दिन की ऊर्जा आवश्यकता को पूरा कर सकती है। बड़े पैमाने पर इस बिजली का उपयोग पार्किंग स्थलों, सड़कों और इलेक्ट्रिक वाहनों की चार्जिंग में किया जा सकता है। इसके अलावा यह महंगी बैटरियों का प्रभावी विकल्प पेश करके विकासशील देशों में ऊर्जा भंडारण की समस्या को भी हल कर सकता है।

हालांकि बड़े पैमाने पर इस तकनीक का उपयोग चुनौतीपूर्ण है। जैसे-जैसे सुपरकैपेसिटर बड़े होते हैं, उनकी चालकता कम हो जाती है। इसका एक समाधान सीमेंट में ज़्यादा ब्लैक कार्बन का उपयोग हो सकता है लेकिन ऐसा करने पर सीमेंट की मज़बूती कम होने की संभावना है। फिलहाल शोधकर्ताओं ने इस तकनीक को पेटेंट कर लिया है और वाहनों में उपयोग होने वाली 12-वोल्ट बैटरी जैसा आउटपुट प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

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मलेरिया के विरुद्ध नई रणनीति

लेरिया आज भी एक बड़ी वैश्विक स्वास्थ्य चुनौती है। इससे हर वर्ष पांच लाख से अधिक मौतें होती हैं जिसमें अधिकांश 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे होते हैं। मच्छरों में कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध पैदा हो जाता है और टीकाकरण आंशिक सुरक्षा ही प्रदान करता है। इनके चलते नियंत्रण के प्रयास विफल रहे हैं। अब, वैज्ञानिकों ने मलेरिया की रोकथाम के लिए एक नया तरीका खोज निकाला है। यदि मच्छरों को एक कुदरती बैक्टीरिया खिलाया जाए तो उनकी आंतों में मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम) के विकास को रोका जा सकता है।

वैज्ञानिकों ने पहले भी मच्छर जनित बीमारियों से निपटने के लिए रोगाणुओं की क्षमता पर प्रयोग किए हैं। इस दौरान वोल्बाचिया पिपिएंटिस बैक्टीरिया ने डेंगू बुखार के विरुद्ध सकारात्मक परिणाम दिए हैं। मलेरिया परजीवी प्लाज़्मोडियम को रोकने के लिए अक्सर आनुवंशिक रूप से संशोधित बैक्टीरिया पर काम हुआ है। लेकिन नियामक अनुमोदन की अड़चनें और पारिस्थितिक प्रभाव इस प्रकार के संशोधन के मार्ग में बाधा बन जाते हैं।

हाल ही में साइंस में प्रकाशित अध्ययन ने आशाजनक विकल्प प्रस्तुत किया है। शोधकर्ताओं को संयोगवश एक प्राकृतिक बैक्टीरिया डेल्फ्टिया सुरुहेटेंसिस टीसी1 का पता चला जो मच्छरों में मलेरिया परजीवी के विकास को रोकता है। गौरतलब है कि इस बैक्टीरिया का प्रभाव जेनेटिक परिवर्तन के बिना होता है। मच्छरों की आंत में उपस्थित डी. सुरुहेटेंसिस टीसी1 बैक्टीरिया प्लाज़्मोडियम का विकास रोकता है और इसके अंडों की संख्या को 75 प्रतिशत तक कम कर देता है। इसका परीक्षण करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि डी. सुरुहेटेंसिस टीसी1 बैक्टीरियम संक्रमित मच्छरों के दंश से ग्रस्त चूहों में सिर्फ तिहाई ही मलेरिया से पीड़ित हुए जबकि सामान्य मच्छरों द्वारा काटे गए सभी चूहे मलेरिया से संक्रमित हुए।

चूंकि यह बैक्टीरिया मच्छर या उसकी संतानों के जीवित रहने पर प्रभाव नहीं डालता इसलिए मच्छरों में इसके खिलाफ प्रतिरोध विकसित होने की संभावना कम है। इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने यह भी पता लगाया है कि यह बैक्टीरिया हारमैन नामक एक अणु भी मुक्त करता है। यह अणु पौधों में भी पाया जाता है जिसका उपयोग कहीं-कहीं परंपरागत चिकित्सा में होता है। यह अणु प्लाज़्मोडियम की विकास प्रक्रिया को रोकता है।

मच्छरों के शरीर में हारमैन किसी सतह से भी आ सकता है। इसका एक मतलब यह भी है कि हारमैन का उपयोग मच्छरों में प्लाज़्मोडियम का विकास रोकने में किया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने बुर्किना फासो में इसका परीक्षण भी किया। उन्होंने पहले तो मच्छरों को डी. सुरुहेटेंसिस टीसी1 खाने पर मजबूर किया। इन मच्छरों ने संक्रमित व्यक्तियों का खून पीया तो इनके शरीर में परजीवी का विकास प्रभावी ढंग से अवरुद्ध हो गया।

शोधकर्ताओं ने एक महत्वपूर्ण बात यह बताई है कि यह बैक्टीरिया एक से दूसरे मच्छर में नहीं पहुंचता जो एक अच्छी बात है। संभवत: जल्द ही हमारे पास बैक्टीरिया के चूर्ण या हारमैन के रूप में कोई मलेरिया-रोधी उत्पाद होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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