जीवन की उत्पत्ति समंदर में हुई थी। यह अकेला सबसे प्रमुख कारण है कि क्यों समुद्री पर्यावरण की रक्षा की जानी चाहिए। समंदर हमें भोजन, ऊर्जा, खनिज संसाधन तो प्रदान करते ही हैं साथ ही ये जैव विविधता के भंडार भी हैं। ये मौसम और जलवायु को प्रभावित करते हैं और पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने के लिए एक पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करते हैं। इसके अलावा यही समंदर जीवाश्म-ईंधन आधारित ऊर्जा के मुख्य स्रोत हैं और विश्व की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करते हैं। इस मायने में इनका रणनीतिक महत्व है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखते हुए यह कहना गलत न होगा कि भविष्य में हमारा विकास और समृद्धि समंदरों पर निर्भर रहेगी। इनके महत्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2012 में टिकाऊ विकास सम्बंधी सम्मेलन में हरित अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाकर नीली अर्थव्यवस्था तक ले जाने पर ज़ोर दिया था। संयुक्त राष्ट्र ने महासागरों, सागरों और समुद्री संसाधनों के संरक्षण को निर्वहनीय विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में शामिल किया है। समंदरों के विकास के महत्व को ध्यान में रखते हुए युनेस्को की संस्था इंटरनेशनल ओशियन कमीशन (आईओसी) ने वर्तमान दशक को ‘समुद्र विज्ञान दशक’ घोषित किया है ताकि उपरोक्त लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज़रूरी विज्ञान उपलब्ध हो सके। भारत ने भी समुद्र-निर्भर अर्थव्यवस्था की महत्ता को स्वीकार किया है। नीली अर्थव्यवस्था के विकास के लिए जिन प्रमुख मुद्दों को संबोधित करने की ज़रूरत है वे निम्नानुसार हैं।
टिकाऊ मत्स्य भंडार: 2050 तक वैश्विक जनसंख्या लगभग 9 अरब तक पहुंचने की संभावना है। इस स्थिति में पोषण के लिए समुद्री मत्स्य भंडार पर निर्भरता भी निश्चित रूप से बढ़ेगी। प्राथमिक और माध्यमिक उत्पादन में परिवर्तनों के कारण मछलियों के स्टॉक में कमी आ रही है जिससे तटीय समुदायों की आजीविका भी प्रभावित हुई है। इसके अलवा वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि से मछलियों की कई प्रजातियां ध्रुवों की ओर पलायन कर रही हैं। इस परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए भौतिक, जैविक और रासायनिक प्रक्रियाओं की समझ विकसित करना और आने वाले निकट भविष्य तथा दूरस्थ भविष्य में मछलियों के स्टॉक का पूर्वानुमान करने हेतु मॉडल विकसित करना अत्यंत आवश्यक है। इन मॉडलों की मदद से मत्स्याखेट को जैविक रूप से निर्वहनीय सीमाओं के भीतर रखा जा सकेगा।
तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण: मूंगा चट्टानें (कोरल रीफ), मैंग्रोव और समुद्री घास महत्वपूर्ण परितंत्र हैं और मत्स्य भंडार एवं अन्य बायोटा को बनाए रखने के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। जलवायु परिवर्तन और इन्सानी गतिविधियों के कारण उनकी संरचना, कार्यों और दुर्बलताओं को समझना आवश्यक है। कोप-27 सम्मलेन के दौरान यूएई और इंडोनेशिया द्वारा शुरू किया गया मैंग्रोव एलायंस फॉर क्लाइमेट इस दिशा में एक सराहनीय प्रयास है। समुद्री जीवन की जनगणना कार्यक्रम और उसके परिणामस्वरूप उभरे अंतर्राष्ट्रीय महासागर जैव-भौगोलिक सूचना तंत्र ने समुद्री जीवन की भरपूर जानकारी प्रदान की है। इस तरह के सर्वे समय-समय पर होते रहना ज़रूरी है।
हानिकारक शैवाल: लंबे समय से अत्यधिक भारी वर्षा से नदियों से बहकर आने वाले पानी में वृद्धि हुई है। इसके साथ आए पोषक तत्वों ने तटीय जल को संदूूषित किया है जिसकी वजह से हानिकारक शैवाल काफी तेज़ी से बढ़ गए हैं। परिणामस्वरूप व्यापक स्तर पर समुद्री जीवों की मृत्यु और रुग्णता में वृद्धि हुई है। ऐसे क्षेत्रों में मत्स्याखेट से बचने और पोषक तत्वों के प्रदूषण को नियंत्रित करने हेतु एक चेतावनी प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है।
तटीय प्रदूषण: तटीय क्षेत्रों के बढ़ते हुए विकास के मद्देनज़र तटीय और समुद्री परितंत्र, पारिस्थितिकीय वस्तुओं एवं सेवाओं और मत्स्य पालन पर समुद्री कचरे (माइक्रोप्लास्टिक सहित) के वितरण के प्रभाव का आकलन किया जाना चाहिए। एक समग्र मॉडल विकसित किया जाना चाहिए जिसमें जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभाव, भूमि उपयोग नीति और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को शामिल किया गया हो। विश्व की विकसित अर्थव्यवस्थाओं को प्लास्टिक कचरे के उत्पादन, तट तक उनके पहुंचने और समंदरों में प्रवाह को लेकर अधिक समझ बनाने के लिए निवेश करना ज़रूरी होगा।
समंदरों से खनिज और मीठा पानी: तटीय और अपतटीय खनिज भंडार औद्योगिक और आर्थिक विकास के लिए आवश्यक टाइटेनियम, दुर्लभ मृदा धातु, थोरियम, निकल और कोबाल्ट जैसे कई महत्वपूर्ण खनिज प्रदान करते हैं। हालिया ‘हाई सी ट्रीटी’ के तहत इन संसाधनों का टिकाऊ उपयोग सुनिश्चित करने के उद्देश्य से इन्सानी गतिविधियों के नियमन का निर्णय लिया गया है। इसका लाभ सभी देशों के बीच समान रूप से साझा किया जाएगा। जैसे-जैसे तटीय क्षेत्रों की गतिविधियों में वृद्धि होगी वैसे-वैसे मीठे पानी की मांग भी बढ़ेगी। लक्षद्वीप में कई वर्षों से लो टेम्परेचर थर्मल डिसेलिनेशन (एलटीटीडी) तकनीक का उपयोग किया जा रहा है। तटीय आबादी और विकास गतिविधियों के लिए एक करोड़ लीटर प्रतिदिन मीठे पानी का उत्पादन करने में सक्षम अलवणीकरण संयंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है। इसके लिए तकनीकी विशेषज्ञता के साथ-साथ वित्त और मानव संसाधनों में सामूहिक निवेश की ज़रूरत होगी।
समुद्री ऊर्जा: पिछले कुछ वर्षों से वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे में वैकल्पिक और नए ऊर्जा स्रोत के रूप में समुद्री ऊर्जा पर विचार किया जा सकता है। गैस हाइड्रेट्स (बर्फ के समान मीथेन और पानी का क्रिस्टलीय रूप) की हालिया खोज आशाजनक रही है जिसके उपयोग के लिए उपयुक्त तकनीकों का विकास किया जा सकता है। इसके अलावा अपतटीय पवन फार्मों को बढ़ावा देते हुए बंदरगाहों पर आवश्यक अधोसंरचना स्थापित करने के प्रयास किए जाना चाहिए। इसके साथ ही समुद्री तापीय ऊर्जा और महासागरीय धाराओं के उचित उपयोग के लिए किए जाने वाले प्रयोगों को पर्याप्त समर्थन दिया जाना चाहिए।
तटीय पर्यटन: पिछले कुछ समय से सभी जी20 देशों के समुद्र तटों पर पर्यटन में काफी वृद्धि हुई है। इसको बढ़ावा देने के लिए भारत ‘ब्लू फ्लैग’ समुद्र तटों के प्रमाणन लिए सक्रिय प्रयास कर रहा है। ब्लू फ्लैग प्रमाणन फाउंडेशन फॉर एनवायर्नमेंटल एजुकेशन, कोपेनहेगन द्वारा उन तटों को दिया जाता है जहां सुंदर परिदृश्य, स्वच्छ जल, सुरक्षा और पर्यावरण के अनुकूल बुनियादी ढांचा उपस्थित है। इस प्रमाणन प्रक्रिया में पर्यावरण शिक्षा के साथ-साथ विकास को भी सुनिश्चित किया जाता है। अत: इस प्रमाणन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
खतरे की पहचान और प्रतिक्रिया तंत्र: जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण चक्रवात, तटीय शहरों में बाढ़, तटीय कटाव जैसी चरम घटनाओं में वृद्धि हुई है। चेतावनी प्रणाली और प्रतिक्रिया तंत्र में सुधार एक प्रमुख आवश्यकता है। औद्योगिक और बुनियादी ढांचे की रक्षा को ध्यान में रखते हुए आकस्मिक घटनाओं के प्रति कमज़ोर क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए।
छोटे द्वीपों का विकास: मीठे पानी की उपलब्धता छोटे द्वीपों की एक प्रमुख आवश्यकता है। लक्षद्वीप के छह द्वीपों पर पानी उपलब्ध कराने के लिए एलटीटीडी तकनीक का उपयोग किया गया है। इसके अलावा इन द्वीपों पर स्थानीय लोगों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए समुद्री खेती (मैरीकल्चर) और सजावटी मत्स्य पालन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
नौपरिवहन, उद्योग, बुनियादी ढांचा: बढ़ते व्यापार, नौपरिवहन और बुनियादी ढांचे के विकास को देखते हुए समुद्री परितंत्र पर दबाव बढ़ने की संभावना है। इसके लिए बंदरगाहों के विकास और नौपरिवहन (विद्युत चालित) के लिए सतत प्रौद्योगिकीय विकास को बढ़ावा देने की ज़रूरत है।
समुद्री प्रक्रियाओं को समझने, उनकी मॉडलिंग करने तथा मौसम, समुद्र की अवस्था और खतरों का पूर्वानुमान करने हेतु समुद्रों का अवलोकन (उपग्रह व अन्य साधनों से) बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसे पूर्वानुमान मानव जीवन की सुरक्षा तथा इन्सानी गतिविधियों को सुगम बनाने के लिए ज़रूरी हैं। महासागरों के निरंतर अवलोकन के लिए क्षमता निर्माण महत्वपूर्ण है।
ओशिएनोग्राफिक रिसर्च एंड इंडियन ओशियन ग्लोबल ओशिएन ऑबसर्विंग सिस्टम ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को हिंद महासागर का अध्ययन करने और समाज के भले के लिए नवीन ज्ञान प्राप्त करने का मंच प्रदान किया है।
पिछले एक दशक के दौरान जी20 फोरम में समुद्र से जुड़े मुद्दों पर चर्चा होती रही है। पूर्व में महासागरों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए जी20 एक्शन प्लान ऑन मरीन लिटर (जर्मनी, 2017), ओसाका ब्लू ओशन विज़न (जापान, 2019), कोरल रिसर्च एंड डेवलपमेंट एक्सलरेटर प्लेटफॉर्म (सऊदी अरब, 2020) और कंज़रवेशन, प्रोटेक्शन, रिस्टोरेशन एंड सस्टेनेबल यूज़ ऑफ बायोडायवर्सिटी (इटली, 2021) के माध्यम से महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं। इसके अलावा 2022 में इंडोनेशियाई अध्यक्षता के तहत ब्लू इकॉनॉमी पर चर्चा की शुरुआत भी की गई थी।
गौरतलब है कि नीली अर्थव्यवस्था को अपनाने में भारत अग्रणी रहा है। यह उचित ही है कि भारत की अध्यक्षता में जी20 ने एक स्थायी और जलवायु-अनुकूल नीली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने, पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली में तेज़ी लाने और जैव विविधता की समृद्धि को प्राथमिकता दी है। विचार यह है कि महासागरों के स्वस्थ पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को संबोधित करते हुए समुद्री संसाधनों के टिकाऊ और समतामूलक आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले। यह संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास लक्ष्य-14 और भारत के नेतृत्व में पर्यावरण संरक्षण के वैश्विक अभियान ‘मिशन LiFE’ (लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट) के अनुरूप ही है।
समुद्री अर्थव्यवस्था के विकास को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है – जैसे प्राकृतिक खतरे, जलवायु-प्रेरित मौसमी घटनाएं, समुद्र स्तर में वृद्धि, समुद्र का अम्लीकरण और इन्सानी गतिविधियों के प्रभाव। विकास के साथ-साथ पारिस्थितिक और आजीविका सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तटीय क्षेत्रों का प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है। इन जोखिमों को समझने के लिए तटीय और समुद्री मानचित्रण करके उसके आधार पर विकास कार्यों की योजना बनाई जानी चाहिए।
नीली अर्थव्यवस्था के तहत व्यापक आर्थिक निर्णयों के लिए पर्यावरणीय डैटा आवश्यक है। वर्ष 2030 के बाद समुद्री पर्यावरण को सहारा देने के लिए बड़ा निवेश किए बिना महासागरों से आर्थिक विकास की संभावना काफी कम है। हमें महासागरों के लिए एक लेखा प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है ताकि विभिन्न डैटा स्रोतों को एक साथ लाया जा सके।
वर्ष 2030 के बाद जब जलवायु परिवर्तन के प्रभाव ज़्यादा नज़र आने लगेंगे तब अर्थव्यवस्था को संभालने और आजीविका सुनिश्चित करने के लिए समुद्र पर निर्भरता और अधिक बढ़ जाएगी। महासागरों का स्वास्थ्य सुनिश्चित करने और नीली अर्थव्यवस्था की शुरुआत करने के लिए पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक डैटा सहित वैज्ञानिक डैटा को एकीकृत करके ‘डिजिटल महासागर’ को बढ़ावा देना आवश्यक है। जी20 देशों के लिए समुद्र विज्ञान और प्रौद्योगिकी का ज्ञान, साझेदारी की सर्वोत्तम प्रथाओं, वित्तीय संसाधनों को हासिल करने आदि के बारे में जानकारियां साझा करना काफी उपयोगी होगा। संसाधनों के टिकाऊ उपयोग के लिए एक संस्थागत ढांचा और संचालन व्यवस्था विकसित की जानी चाहिए।
सभी हितधारकों, शोधकर्ताओं, उद्योगों, गैर-सरकारी संगठनों और नीति निर्माताओं सहित सरकारों के साथ प्रभावी संचार आवश्यक है ताकि इस तरह का विकास समाज के लिए प्रासंगिक बन सके। महासागरों का दायित्वपूर्ण प्रबंधन एक ऐसा निवेश है जिसका लाभ आने वाली पीढ़ियों को मिलेगा। यह मानव जाति के लाभ के लिए महासागरों और हमारे ग्रह के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को दोहराने का एक अवसर है। वैश्विक समुदाय को ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ के सिद्धांत के साथ ‘एक महासागर’ के लाभों को साझा करने के साथ ही पर्यावरण का संरक्षण भी सुनिश्चित करना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
इस आलेख का मूल अंग्रेज़ी संस्करण 10 मई 2023 को करंट साइंस में प्रकाशित हुआ है और इसका हिंदी अनुवाद लेखक की अनुमति के साथ यहां प्रकशित किया गया है।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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