जिस ओर देखो पर्यावरण प्रदूषण की कोई न कोई समस्या सिर उठाए खड़ी है। ताज़ा अध्ययन में जापान के शोधकर्ताओं ने एक साथ दो पर्यावरणीय समस्याओं – डायपर का बढ़ता कचरा और बढ़ता रेत खनन – को हल करने की कोशिश की है। उन्होंने रेत-सीमेंट-गिट्टी के गारे में फेंके गए डायपर्स की कतरन मिलाकर एक भवन तैयार किया। इसमें रेत की 9 से 40 प्रतिशत तक बचत हुई, और भवन की मज़बूती भी अप्रभावित रही।
विश्व में भवन निर्माण में सालाना 50 अरब टन रेत की खपत होती है। रेत खनन कई पर्यावरणीय चिंताओं का कारण है – जैसे इसके कारण जलजीवन और पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है, भूस्खलन और बाढ़ जैसी समस्याएं पैदा होती हैं।
दूसरी ओर, हर जगह डायपर का चलन तेज़ी से बढ़ा है। मैकऑर्थर फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल लगभग 3.8 करोड़ टन डायपर फेंके जाते हैं। नतीजतन डायपर का कचरा बढ़ता जा रहा है। यह कचरा अधिक चिंता की बात इसलिए भी है क्योंकि एक तो यह सड़ता नहीं है, दूसरा इसे रीसायकल भी नहीं किया जा सकता।
कितक्युशु विश्वविद्यालय की सिविल इंजीनियर सिसवंती ज़ुरैदा और उनकी टीम ने सोचा कि क्या भवन निर्माण में रेत की जगह कुछ मात्रा में डायपर का कचरा मिलाया जा सकता है।
शोधकर्ताओं ने डायपर इकट्ठे करके धोए, सुखाए और उनकी बारीक कतरन बनाई। फिर उन्होंने सीमेंट, गिट्टी और पानी में रेत और डायपर को विभिन्न अनुपात में मिलाकर गारा तैयार किया और इससे कॉन्क्रीट की सिल्लियां तैयार कीं। दल ने रेत को 40 प्रतिशत तक कम करके उसकी जगह उतने डायपर की कतरन मिलाई थी।
सिल्लियां बनने के एक महीने बाद शोधकर्ताओं ने प्रत्येक अनुपात के मिश्रण वाली सिल्लियों की मज़बूती परखी और पता लगाया कि अधिकतम कितनी रेत का स्थान डायपर ले सकते हैं।
उन्होंने पाया कि कॉन्क्रीट में जितना अधिक डायपर कचरा होगा, कॉन्क्रीट उतना कम मज़बूत होगा। इसलिए भवनों के कॉलम और बीम जैसे ढांचागत हिस्सों को बनाने के लिए कम डायपर कचरा मिलाना ठीक होगा जबकि दीवारों जैसे आर्किटेक्चरल हिस्सों में अधिक डायपर का मिश्रण चल जाएगा। उनकी गणना के अनुसार एक-मंज़िला मकान बनाने के लिए गारे में लगभग 27 प्रतिशत रेत की जगह डायपर कचरा और तीन मंज़िला मकान में सिर्फ 10 प्रतिशत रेत की जगह डायपर मिलाए जा सकते हैं।
जहां दीवार वगैरह के गारे में 40 प्रतिशत रेत का स्थान डायपर का कचरे ले सकता है वहीं फर्श में केवल 9 प्रतिशत रेत की जगह डायपर मिलाया जा सकता है क्योंकि वहां मज़बूती ज़रूरी है।
कॉन्क्रीट सिल्लियों की मज़बूती परखने के बाद शोधकर्ताओं ने इससे 36 वर्ग मीटर का प्रायोगिक घर भी बनाया। यह घर बनाने में उन्होंने तकरीबन 1.7 घन मीटर डायपर का कचरा ठिकाने लगा दिया और लगभग 27 प्रतिशत रेत बचा ली।
प्रायोगिक तौर पर तो यह ठीक है लेकिन वास्तव में डायपर कचरे को कचरे के ढेर से निकाल कर उपयोग करने लायक बनाने और फिर चलन में लाने के लिए काफी लंबा रास्ता तय करना पड़ेगा क्योंकि अधिकतर जगहों पर अपशिष्ट प्रबंधन व पृथक्करण बहुत कारगर तरीके से काम नहीं करता है। रीसायकल होने वाली कुछ चीज़ों को तो छांट लिया जाता है लेकिन चूंकि डायपर रीसायकल नहीं होते तो उनकी छंटाई नहीं होती और इन्हें जला दिया जाता है। फिर भी इनकी उपयोगिता के मद्देनज़र कचरे से डायपर की छंटनी कर भी ली जाती है, तो क्या आम लोग डायपर वेस्ट से घर बनवाने को राज़ी होंगे या ऐसे लंगोट/पोतड़ों से बने मकान खरीदने या उनमें रहने को तैयार होंगे? यह भी देखना होगा कि ये मकान कितने टिकाऊ होंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.theprint.in/wp-content/uploads/2023/05/Diaper-house-1.jpg?compress=true&quality=80&w=376&dpr=2.6