बढ़ते तापमान से प्रजातियों की विलुप्ति का खतरा – अली खान

दुनिया में इस सदी के आखिर तक तापमान बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के प्रयास चल रहे हैं, वहीं एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ती गर्मी से प्रजातियों के विलुप्त होने का जोखिम पैदा होगा। बता दें कि युनिवर्सिटी ऑफ केपटाउन के शोधकर्ताओं ने 35 हज़ार प्रजातियों पर चरम तापमान के बढ़ते प्रभाव का अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष हासिल किया है।

नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ताओं का दावा है कि यदि तापमान 2.5 डिग्री तक बढ़ा तो बढ़ती गर्मी को सहन न कर पाने की वजह से 30 फीसदी प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर पहुंच जाएंगी। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि तापमान बढ़ोतरी 1.5 डिग्री होने पर भी 30 फीसदी प्रजातियां अपनी भौगोलिक सीमा में बेहद अधिक तापमान अनुभव करेंगी। 2.5 डिग्री की बढ़ोतरी पर यह खतरा दुगना हो जाएगा और प्रजातियों के लिए अपने अस्तित्व को बचाए रखना मुश्किल हो जाएगा।‌ 

ऐसे में यह आवश्यक है कि जानवरों और पौधों पर जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभावों को कम करने के लिए त्वरित प्रभाव वाले कदम उठाए जाएं।‌

गौरतलब है कि भारत में मौजूद जीव-जंतुओं की 29 प्रजातियां खतरे में आ गई हैं। इनका नाम इंटरनेशनल युनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की लाल सूची में शामिल हो गया है। यह सूची कनाडा में जैव विविधता सम्मेलन (कोप-15) के दौरान जारी की गई थी। सूची के इन नवीनतम आंकड़ों में चेतावनी दी गई थी कि अवैध और गैर-टिकाऊ ढंग से मछली पकड़ने, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और बीमारियों सहित कई खतरों की वजह से जीव-जंतुओं के अस्तित्व पर प्रश्न चिंह लग गया है। बताते चलें कि आईयूसीएन की लाल सूची दुनिया की जैव विविधता की हालत का एक महत्वपूर्ण संकेतक है। यह प्रजातियों की वैश्विक विलुप्ति के जोखिम की स्थिति के बारे में जानकारी देती है और संरक्षण लक्ष्यों को परिभाषित करने में मदद करती है। दुनिया भर के 15,000 से अधिक वैज्ञानिक और विशेषज्ञ आईयूसीएन के इस आयोग का हिस्सा हैं।

उन्होंने पाया कि भारत में पौधों, जानवरों और कवकों की 9472 से अधिक प्रजातियों में से 1355 लुप्तप्राय या विलुप्त होने की श्रेणी में है। भारत की 239 नई प्रजातियों को आईयूसीएन की लाल सूची में शामिल किया गया है। इनमें से 29 प्रजातियां गंभीर खतरे में हैं। इससे वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों में चिंता व्याप्त हो गई है। अगर समय रहते इस खतरे को नहीं रोका गया तो कई प्रजातियां इतिहास का हिस्सा बन जाएंगी। इस पर आईयूसीएन के डायरेक्टर ब्रूनो ओबेर्ल का कहना है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से जीव-जंतुओं की हालत खस्ता है। ऐसा ही चलता रहा तो कई जीव-जंतु खत्म हो जाएंगे।

लिहाजा, हमें जैव विविधता और जलवायु के सम्बंधों को सुधारने के प्रयास तत्काल करना होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पिघलते हिमनदों से निकलते हानिकारक प्रदूषक – डॉ. तम्बान मेलत, रूना एंटनी

पृथ्वी का लगभग 70 प्रतिशत मीठा पानी अंटार्कटिक एवं आर्कटिक और हिमालय, एंडीज़ तथा ऐल्प्स जैसे ऊंचे पर्वतों पर हिमनदों, हिमाच्छदों व पर्माफ्रॉस्ट के बर्फ के रूप में है। पर्वतीय नदियों के जल प्रवाह में ऊंचे पर्वतीय हिमनदों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। ये नदियां पर्वतीय राज्यों और नीचे के मैदानी क्षेत्रों के लाखों लोगों की आजीविका का सहारा हैं। पिछले कुछ दशकों से ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण हिमनद खामोशी से धीरे-धीरे सिकुड़ रहे हैं। हिमनदों के पतला पड़ने और सिकुड़ने से उनके हाइड्रोलॉजिकल गुणों में परिवर्तन होता है जिसका प्रभाव घाटी क्षेत्र में मीठे पानी के प्रवाह और पानी की उपलब्धता पर पड़ रहा है। जलवायु की स्थिति में बदलाव के चलते ऊंचे पर्वतीय हिमनदों से बहकर आने वाले पानी की मात्रा में कमी-बेशी की संभावना है। इसकी वजह से इन क्षेत्रों में जल संसाधन पर असर पड़ेगा, विशेष रूप से शुष्क मौसम या सूखे वर्षों के दौरान। विश्व भर के पिघलते हिमनदों और हिमाच्छदों से बहने वाला जल नदियों से होते हुए अंतत: समुद्र में पहुंचेगा जिससे समुद्रों के जल स्तर में वृद्धि होगी और तटीय क्षेत्रों तथा टापुओं के जलमग्न होने की संभावना बनी रहेगी। इससे आबादी वाले कई तटीय क्षेत्र डूब जाएंगे।               

बर्फीले तथा हिमनदीय क्षेत्रों को आम तौर पर अछूता पर्यावरण माना जाता रहा है लेकिन हाल ही में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि ऐसे क्षेत्रों में भी पर्यावरण प्रदूषकों के भंडार हो सकते हैं। ये प्रदूषक या तो हिमपात के साथ या सीधे बर्फ की सतह पर पहुंच सकते हैं। हिमनदों का पिघला हुआ बर्फ हिमनद-जनित पर्यावरण को संदूषित करने में द्वितीयक स्रोत के रूप में काम करता है; मूल स्रोत के चुक जाने के वर्षों बाद तक। अध्ययनों से पता चलता है कि आर्कटिक और अंटार्कटिक की बर्फीली परतों में प्रदूषकों का उच्च स्तर है जो हज़ारों किलोमीटर का सफर तय करने के बाद हिमनदों में समाहित हो गया है। आर्कटिक क्षेत्र में पाए गए ज़हरीले कार्बनिक यौगिक, अम्ल, धातु तथा रेडियोन्यूक्लाइड्स के चिंह युरोप, उत्तरी अमेरिका और पूर्व-सोवियत संघ में उस दशक में किए गए मानवजनित उत्सर्जन से मेल खाते हैं जब ऐसा उत्सर्जन अधिकतम था। मध्य हिमालय से प्राप्त आइस कोर रिकॉर्ड के अनुसार युरोप की औद्योगिक क्रांति के दौरान उत्सर्जित ज़हरीली धातुएं ही हिमालय के शिखरों के वायुमंडल पर हावी थीं। बढ़ती आबादी और तेज़ी से औद्योगीकृत होते एशियाई देशों से निकटता के कारण, विश्व के अन्य पर्वतीय हिमनदों की तुलना में, हिमालय के हिमनदों तक ज़्यादा वायुमंडलीय प्रदूषक पहुंचते हैं। इसके परिणामस्वरूप जल प्रवाह का संतुलन प्रभावित होने के अलावा हिमनदों का पिघलना हिमालयी पर्वतीय राज्यों के लिए एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक मुद्दा है।          

वास्तव में हिमनद सिर्फ बर्फ के विशाल खंड नहीं होते, बल्कि ये जीवन से परिपूर्ण हैं – वायरस, बैक्टीरिया, कवक, शैवाल जैसे विभिन्न सूक्ष्मजीवों और अकशेरुकीय जीवों का भंडार हैं। इनमें हवा के माध्यम से आसपास तथा दूर-दराज़ क्षेत्रों के प्राकृतिक मलबे और मानवजनित दूषित पदार्थ भी कैद हो जाते हैं।

हिमनद और इनके आसपास के पर्यावरण में देखे गए मानवजनित संदूषक पदार्थों में ब्लैक कार्बन, रेडियोन्यूक्लाइड्स, ज़हरीले तत्व, माइक्रोप्लास्टिक, नाइट्रोजन आधारित प्रदूषक और दीर्घस्थायी कार्बनिक प्रदूषक हैं। औद्योगीकरण, खनन और कृषि कार्यों जैसी इंसानी गतिविधियों से पर्यावरण में प्रदूषक तत्व उत्सर्जित होते हैं जो दूर-दूर तक व्याप्त वायुमंडलीय परिवहन प्रणाली के माध्यम से उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में पहुंच जाते हैं। जैसे-जैसे हिमनद पिघलते हैं, वैसे-वैसे इनमें कई दशकों से संचित पोषक तत्व और प्रदूषक पदार्थ जल राशियों में पहुंच जाते हैं जो नीचे के पारिस्थितिकी तंत्रों को भी प्रभावित कर सकते हैं।          

प्रदूषकों की सबसे अधिक मात्रा क्रायोकोनाइट रंध्रों में पाई जाती है। क्रायोकोनाइट रंध्र हिमनद की सतह पर पानी से भरे छिद्र होते हैं जो हिमनद में फंसी हुई तलछट के आसपास की बर्फ ज़्यादा पिघलने के कारण बनते हैं। क्रायोकोनाइट महीन चट्टानी कणों, कालिख (soot) और सूक्ष्मजीवों से निर्मित एक गहरे रंग की भुरभुरी धूल है जो बर्फ, हिमनदों या हिमाच्छदों पर जमा हो जाती है। ये कार्बनिक पदार्थ, पोषक तत्वों एवं अन्य तत्वों को चक्रित करने के गतिशील स्थल हैं जो हिमनद की सतह के अन्यथा शुष्क और सुखाने वाले वातावरण में संभव नहीं हो सकता है। क्रायोकोनाइट्स तब बनते हैं जब प्रकाश संश्लेषक सायनोबैक्टीरिया पर्यावरण में चिपचिपे पदार्थ छोड़ते हैं। ये खनिज धूल, सूक्ष्मजीव और कार्बनिक पदार्थों को एकत्रित कर कणिकाओं का रूप देते हैं। परोपजीवी बैक्टीरिया इन कणिकाओं में बस जाते हैं। इन बैक्टीरिया द्वारा जैविक पदार्थों के अपघटन से ह्यूमिक पदार्थों का निर्माण होता है जिससे कणिकाओं का रंग गहरा हो जाता है। गहरे रंग के कारण क्रायोकोनाइट कणिकाएं और अधिक धूप सोखती हैं जिससे बर्फ पिघलता है और सतह पर छिद्र बन जाते हैं। समय के साथ इन क्रायोकोनाइट रंध्रों की गहराई बढ़ती जाती है और पानी के छोटे-छोटे पोखर बन जाते हैं। ये पोखर मानवजनित संदूषकों के भंडार के रूप में कार्य करते हैं।

क्रायोकोनाइट रंध्रों में जमा होने वाले प्राथमिक प्रदूषकों में ब्लैक कार्बन तथा ब्राउन कार्बन एयरोसोल हैं। ब्लैक कार्बन वाहनों में ईंधन के अधूरे दहन का परिणाम होता है और ब्राउन कार्बन एयरोसोल फसलों के जलने और जंगल की आग से उत्पन्न होता है। ब्लैक कार्बन बर्फ को काला और मटमैला रंग प्रदान करता है जो आसपास की सफेद या नीली बर्फ की तुलना में सूर्य के प्रकाश को अधिक सोखता है। नतीजतन, बर्फ अपेक्षाकृत तेज़ी से पिघलता है और हिमनदों के सिकुड़ने की दर में वृद्धि होती है। पिघलने की दर में वृद्धि से बर्फ में फंसे पुराने प्रदूषक, बैक्टीरिया और वायरस मुक्त हो जाते हैं जिससे पर्यावरण पर मानवजनित गतिविधि का प्रभाव और तेज़ हो जाता है।

वर्तमान में माइक्रोप्लास्टिक्स महासागरों, नदियों और हवा सहित पृथ्वी के लगभग हर  पर्यावरण में पाए जाते हैं। हाल के अध्ययनों से हिमालय के हिमनदों में माइक्रोप्लास्टिक्स की उपस्थिति के साक्ष्य मिले हैं। संभावना है कि ये माइक्रोप्लास्टिक पिघले पानी के माध्यम से नदियों और तालों में मिल सकते हैं जो लाखों लोगों की जल आपूर्ति को दूषित कर सकते हैं। क्रायोकोनाइट छिद्रों में कीटनाशकों सहित पॉलीक्लोरीनेटेड बाइफिनाइल और पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसे लंबे समय तक टिकाऊ कार्बनिक प्रदूषकों की काफी मात्रा जमा हो सकती है। मानव बस्तियों, पर्यटक पड़ावों और कृषि गतिविधियों के नज़दीकी हिमालयी हिमनदों में इनका उच्च स्तर पाया गया है। इन प्रदूषकों की उपस्थिति के चलते ऐसे बैक्टीरिया का प्राकृतिक चयन हुआ है जो इनको पचाने में सक्षम हैं। मानवजनित  एंटीबायोटिक दवाओं के संदूषण के परिणामस्वरूप क्रायोकोनाइट रंध्रों में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया की तादाद भी बढ़ी है। हाल के वर्षों में बर्फ पिघलने की दर में वृद्धि के चलते गर्मियों में ये सूक्ष्मजीव काफी बड़ी संख्या में क्रायोस्फेरिक वातावरण से निकलकर मानव बस्तियों के नज़दीकी पारिस्थितिक तंत्रों में पहुंच जाते हैं। चूंकि इनमें से कुछ सूक्ष्मजीव और वायरस रोगजनक भी हो सकते हैं इसलिए बर्फ में उपस्थित सूक्ष्मजीवों से स्थानीय महामारी की चिंता पैदा हुई है।

कार्बनिक प्रदूषकों के अलावा, क्रायोकोनाइट रंध्रों में आर्सेनिक, सीसा, कैडमियम और पारा जैसी भारी धातुएं भी हो सकती हैं जिनकी उच्च मात्रा विषैली होती है। हालांकि, हो सकता है कि ये हानिकारक तत्व चट्टानों के क्षरण और ज्वालामुखी विस्फोट जैसी प्राकृतिक घटनाओं से उत्पन्न हुए हों, लेकिन खनन और औद्योगिक प्रक्रियाओं जैसी मानव गतिविधियां संभवत: इनके मुख्य स्रोत हैं।

क्रायोकोनाइट कणिकाओं में प्राकृतिक और कृत्रिम स्रोतों से उत्पन्न फालआउट रेडियोन्यूक्लाइड्स (एफआरएन) भी जमा हो सकते हैं; इन स्रोतों में ब्रह्मांडीय विकिरण, परमाणु हथियार परीक्षण और चेरनोबिल एवं फुकुशिमा जैसी परमाणु दुर्घटनाएं शामिल हैं। दुनिया भर में कई क्रायोस्फीयर्स में फालआउट रेडियोन्यूक्लाइड्स का पता चला है। इनमें विशेष रूप से सीज़ियम-137, एमेरिशियम-241  और लेड-201 शामिल हैं। इन रेडियोन्यूक्लाइड्स की मात्रा किसी परमाणु दुर्घटना वाले अत्यधिक दूषित स्थल के बराबर हो सकती है। युरोपीय हिमनदों के क्रायोकोनाइट में सीज़ियम-137 का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित सुरक्षित स्तर से अधिक पाया गया है। सीज़ियम-137 तो अपनी 30 साल की अल्प अर्धायु के कारण पर्यावरण में घट रहा है, लेकिन मूल रेडियोन्यूक्लाइड्स के विघटन से बनने वाले रेडियोन्यूक्लाइड्स बढ़ भी रहे हैं। इस तरह फॉलआउट रेडियोन्यूक्लाइड्स कई पीढ़ियों तक पर्यावरण में बने रहेंगे जिससे पारिस्थितिक तंत्र और आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्यों और अन्य जीवों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। डब्ल्यूएचओ ने पीने के पानी में फालआउट रेडियोन्यूक्लाइड्स के निम्न व मध्यम स्तर पर भी कैंसर और आनुवंशिक विकृतियों की संभावना जताई है।

इन रंध्रों में संदूषकों के जमा होने का कारण क्रायोकोनाइट द्वारा पिघले बर्फ में से कोलाइडीय और अन्य घुले पदार्थों को इकट्ठा करना है। क्रायोकोनाइट में महीन कण (जैसे मिट्टी और गाद) और कार्बनिक पदार्थ (विभिन्न कोशिकीय बहुलक पदार्थों सहित) होते हैं जिनमें फॉलआउट रेडियोन्यूक्लाइड्स,  ट्रेस धातुओं और पोषक तत्वों के लिए उच्च बंधन क्षमता होती है। चूंकि अधिकांश हिमालयी झीलों का विस्तार हिमनदों के सिकुड़ने के कारण हो रहा है, ऐसे में यह संभव है कि इन झीलों में जमा होने वाली तलछट में प्रदूषकों का स्तर काफी अधिक होगा। ये प्रदूषक इन झीलों के पारिस्थितिक तंत्रों के जलीय जीवन और मानव स्वास्थ्य के लिए जोखिम पैदा कर सकते हैं। इससे उन समुदायों का सबसे अधिक नुकसान होगा जो पीने के पानी के लिए हिमनद पोषित नदियों पर निर्भर हैं। ऐसे प्रदूषक पदार्थों के निरंतर संपर्क से कैंसर, प्रजनन सम्बंधी विकार और विकास सम्बंधी समस्याओं सहित विभिन्न स्वास्थ्य जोखिम हो सकते हैं। लिहाज़ा, जलवायु परिवर्तन और हिमनदों के सिकुड़ने के संदर्भ में क्रायोस्फीयर में जमा दूषित पदार्थों के संभावित स्वास्थ्य प्रभाव चिंता का विषय हैं। जैसे-जैसे हिमनद पिघलेंगे, हिमालय की नदियों में बहने वाले पानी की मात्रा में वृद्धि होगी और संभव है कि इससे विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में संदूषण सम्बंधी जोखिमों में भी वृद्धि होगी। जैसा कि शुरू में बताया गया था, हिमनदों के सिकुड़ने से पूर्व में संग्रहित दूषित पदार्थ भी उजागर हो सकते हैं जिससे स्वच्छ जल आपूर्ति में अतिरिक्त प्रदूषक मिल सकते हैं। गर्माती दुनिया में हिमनदों का निरंतर पिघलना और क्रायोस्फीयर सिस्टम में उभरते हुए घुलनशील प्रदूषकों की उच्च मात्रा को ध्यान में रखते हुए मीठे पानी के स्रोतों में प्रदूषक पदार्थों का जोखिम बढ़ जाएगा। यह एक बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए। ऐसे में हिमालय में क्रायोकोनाइट रंध्रों और हिमनदों के आसपास की झीलों में जैव-रासायनिक चक्र, पारिस्थितिकी और दूषित पदार्थों के संचय को समझना डाउनस्ट्रीम पर्यावरण में मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में इन संदूषक पदार्थों के प्रभाव को समझने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है। इस समस्या की गंभीरता का आकलन करने के लिए हिमनदों और क्रायोकोनाइट रंध्रों में प्रदूषकों के स्तर की निगरानी करने के साथ पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य पर इन प्रदूषकों के प्रभाव को कम करने के लिए रणनीति विकसित करना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मां का दूध हृदय को स्वस्थ रखता है

हृदय की मांसपेशियां विशिष्ट कोशिकाओं (हृदयपेशीय कोशिकाओं) से बनी होती है, जिनके सिकुड़ने से दिल धड़कता है। भ्रूण अवस्था में हृदयपेशीय कोशिकाएं अधिकतर ग्लूकोज़ और लैक्टिक एसिड से ऊर्जा प्राप्त करती हैं। लेकिन परिपक्व होने पर ये कोशिकाएं वसा अम्लों से ऊर्जा लेने लगती हैं। अब तक यह बात अनसुलझी थी कि यह परिवर्तन कैसे होता है।

अब, चूहों पर अध्ययन कर वैज्ञानिकों ने बताया है कि मां के दूध में मौजूद एक अणु इस परिवर्तन को अंजाम देता है। देखा गया कि यह परिवर्तन जन्म के 24 घंटों के भीतर हो जाता है।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित इन नतीजों तक पहुंचने में स्पैनिश नेशनल सेंटर फॉर कॉर्डियोवेस्कुलर रिसर्च की जीवविज्ञानी मर्सीडीज़ रिकोट और उनके साथियों को सात साल लगे हैं।

पहले उन्होंने कुछ शिशु चूहों की मांओं को वसायुक्त भोजन और कुछ चूहों की मांओं को वसा रहित भोजन खिलाया। उन्होंने देखा कि जिन शिशु चूहों ने वसा रहित आहार पाने वाली मांओं का दूध पिया था उनके हृदय असामान्य थे, और उनमें से अधिकांश शिशु चूहे जन्म के दो दिनों के भीतर मर गए थे।

फिर उन्होंने मां चूहों के दूध के घटकों का विश्लेषण किया ताकि पता चल सके कि कौन-सा अणु इसके लिए ज़िम्मेदार है। उन्होंने पाया कि इसमें गामा-लिनोलेनिक अम्ल नामक वसा अम्ल की भूमिका है; यह अणु इन्सानी मां के दूध में भी पाया जाता है। गौरतलब है कि न तो चूहों का और न ही मनुष्य का शरीर इसे बना सकता है और इसलिए इसका (GLA का) सेवन भोजन के साथ ज़रूरी है।

इसके बाद जब शोधकर्ताओं ने वसा-विहीन आहार वाली मां चूहों को GLA दिया और फिर उनका दूध शिशुओं को पिलाया तो वे ठीक होने लगे। और इन शिशु चूहों में वसा से ऊर्जा बनाने में शामिल जीन्स की गतिविधि में भी वृद्धि देखी गई।

उन्होंने वह रिसेप्टर, RXR, भी खोज लिया है जिससे हृदयपेशीय कोशिकाओं में GLA जुड़ता है। जीएलए और RXR के बीच का सम्बंध ही इन कोशिकाओं को ग्लूकोज़ की जगह वसा अम्लों से ऊर्जा बनाने की क्षमता देता है। टीम ने उन जीन्स को भी पहचाना है जो रिसेप्टर (RXR) के GLA से जुड़ने के बाद सक्रिय हो जाते हैं।

अभी यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि यही प्रक्रिया मनुष्यों में भी होती होगी या क्या इस परिवर्तन में GLA के अलावा विटामिन ‘ए’ जैसे किसी अन्य अणु की भी भूमिका हो सकती है।

शोधकर्ताओं ने RXR रिसेप्टर रहित चूहे भी विकसित किए हैं। ये चूहे अन्य शोध समूहों को हृदय रोग सम्बंधी अध्ययन करने में मदद कर सकते हैं। बहरहाल, शोधकर्ता नवजात चूहों के साथ काम करना चाहते हैं, लेकिन वह थोड़ा मुश्किल है क्योंकि एक तो वे साइज़ में बहुत छोटे होते हैं, दूसरा उनके जन्म का समय अनिश्चित होता है। (स्रोत फीचर्स)

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मैनीक्योर से एलर्जी

न दिनों बाज़ार में कई सौंदर्य उत्पाद और मेकअप तकनीकें आ गई हैं। इसमें हाथों और नाखूनों को सुंदर बनाने के लिए जेल मैनीक्योर काफी प्रचलन में है। आम तौर पर जेल मैनीक्योर से कोई बड़ी स्वास्थ्य समस्या नहीं होती है, लेकिन कुछ लोगों को जीवनभर के लिए विभिन्न चिकित्सीय उपकरणों से या दांतों के मसाले वगैरह से एलर्जी हो सकती है। जेल मैनीक्योर या पेडीक्योर से होने वाली एलर्जी हाथों, उंगलियों या कलाई पर अधिक होती है। त्वचा लाल पड़ सकती है, लोंदे बन सकते हैं, पपड़ियां बन सकती हैं और खुजली हो सकती है। चेहरा, गर्दन और पलकें भी प्रभावित होती हैं जिन्हें हम अक्सर छूते हैं। एलर्जी पैर की उंगलियों या पैरों पर भी हो सकती है। एलर्जी के चलते नाखून टूटकर गिर भी सकते हैं। गंभीर मामलों में उच्च मात्रा में इसके उपयोग से व्यक्तियों को सांस लेने में समस्या हो सकती है। ऐसे में मैनीक्योर का काम करने वाले लोगों को श्वसन सम्बंधी प्रभावों का अधिक जोखिम रहता है।

मैनीक्योर में उपयोग की जाने वाली जेल को सुखाने व कठोर बनाने के लिए पराबैंगनी या एलईडी प्रकाश से संपर्क ज़रूरी होता है। नेल पॉलिश के मुकाबले यह जल्दी सूखती है और लंबे समय तक टिकती है। हालिया अध्ययन बताता है कि नेल ड्रायर्स का पराबैंगनी प्रकाश जेनेटिक उत्परिवर्तन का कारण बन सकता है और कैंसर का जोखिम बढ़ा सकता है।

दरअसल, इस प्रक्रिया में नाखूनों पर एक्रिलेट पाउडर का लेप लगाया जाता है और फिर नाखूनों को प्रकाश स्रोत के नीचे रखते हैं। ये एक्रिलेट्स एलर्जी शुरू कर सकते हैं। अमेरिकी खाद्य व औषधि प्रशासन ने कई एक्रिलेट्स पर प्रतिबंध लगाया है लेकिन कई अभी भी नाखून सम्बंधित सौंदर्य उत्पादों में उपयोग होते हैं।

यह तो पता नहीं है कि ऐसी एलर्जी कितने लोगों को होती है लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि अधिक बार मैनीक्योर करवाने से एलर्जी की संभावना बढ़ती है। इसके उपचार के रूप में विशेषज्ञ नाखूनों को हटाने के अलावा स्थानीय स्टेरॉयड से इलाज करने की सलाह देते हैं।

कई मामलों में तो यह एक जीवनभर की समस्या भी बन सकती है। यह मुख्य रूप से बड़ी समस्या इसलिए भी है कि इसमें उपयोग किया जाने वाला रसायन दंत चिकित्सा, प्रोस्थेटिक्स और मधुमेह सम्बंधी उपकरणों में भी उपयोग होता है। कुछ सावधानी बरतकर इस समस्या को कम किया जा सकता है। इसके लिए विशेषज्ञ घर पर जेल नेल किट के इस्तेमाल की मनाही करते हैं और प्रशिक्षित पेशेवरों द्वारा ही इस प्रक्रिया को कराने का सुझाव देते हैं। और तकनीशियनों को नाइट्राइल दस्ताने पहनने की सलाह दी जाती है। (स्रोत फीचर्स)  

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डायपर मिश्रित कॉन्क्रीट से बना पहला घर

जिस ओर देखो पर्यावरण प्रदूषण की कोई न कोई समस्या सिर उठाए खड़ी है। ताज़ा अध्ययन में जापान के शोधकर्ताओं ने एक साथ दो पर्यावरणीय समस्याओं  – डायपर का बढ़ता कचरा और बढ़ता रेत खनन – को हल करने की कोशिश की है। उन्होंने रेत-सीमेंट-गिट्टी के गारे में फेंके गए डायपर्स की कतरन मिलाकर एक भवन तैयार किया। इसमें रेत की 9 से 40 प्रतिशत तक बचत हुई, और भवन की मज़बूती भी अप्रभावित रही।

विश्व में भवन निर्माण में सालाना 50 अरब टन रेत की खपत होती है। रेत खनन कई पर्यावरणीय चिंताओं का कारण है – जैसे इसके कारण जलजीवन और पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है, भूस्खलन और बाढ़ जैसी समस्याएं पैदा होती हैं।

दूसरी ओर, हर जगह डायपर का चलन तेज़ी से बढ़ा है। मैकऑर्थर फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल लगभग 3.8 करोड़ टन डायपर फेंके जाते हैं। नतीजतन डायपर का कचरा बढ़ता जा रहा है। यह कचरा अधिक चिंता की बात इसलिए भी है क्योंकि एक तो यह सड़ता नहीं है, दूसरा इसे रीसायकल भी नहीं किया जा सकता।

कितक्युशु विश्वविद्यालय की सिविल इंजीनियर सिसवंती ज़ुरैदा और उनकी टीम ने सोचा कि क्या भवन निर्माण में रेत की जगह कुछ मात्रा में डायपर का कचरा मिलाया जा सकता है।

शोधकर्ताओं ने डायपर इकट्ठे करके धोए, सुखाए और उनकी बारीक कतरन बनाई। फिर उन्होंने सीमेंट, गिट्टी और पानी में रेत और डायपर को विभिन्न अनुपात में मिलाकर गारा तैयार किया और इससे कॉन्क्रीट की सिल्लियां तैयार कीं। दल ने रेत को 40 प्रतिशत तक कम करके उसकी जगह उतने डायपर की कतरन मिलाई थी।

सिल्लियां बनने के एक महीने बाद शोधकर्ताओं ने प्रत्येक अनुपात के मिश्रण वाली सिल्लियों की मज़बूती परखी और पता लगाया कि अधिकतम कितनी रेत का स्थान डायपर ले सकते हैं।

उन्होंने पाया कि कॉन्क्रीट में जितना अधिक डायपर कचरा होगा, कॉन्क्रीट उतना कम मज़बूत होगा। इसलिए भवनों के कॉलम और बीम जैसे ढांचागत हिस्सों को बनाने के लिए कम डायपर कचरा मिलाना ठीक होगा जबकि दीवारों जैसे आर्किटेक्चरल हिस्सों में अधिक डायपर का मिश्रण चल जाएगा। उनकी गणना के अनुसार एक-मंज़िला मकान बनाने के लिए गारे में लगभग 27 प्रतिशत रेत की जगह डायपर कचरा और तीन मंज़िला मकान में सिर्फ 10 प्रतिशत रेत की जगह डायपर मिलाए जा सकते हैं।

जहां दीवार वगैरह के गारे में 40 प्रतिशत रेत का स्थान डायपर का कचरे ले सकता है वहीं फर्श में केवल 9 प्रतिशत रेत की जगह डायपर मिलाया जा सकता है क्योंकि वहां मज़बूती ज़रूरी है।

कॉन्क्रीट सिल्लियों की मज़बूती परखने के बाद शोधकर्ताओं ने इससे 36 वर्ग मीटर का प्रायोगिक घर भी बनाया। यह घर बनाने में उन्होंने तकरीबन 1.7 घन मीटर डायपर का कचरा ठिकाने लगा दिया और लगभग 27 प्रतिशत रेत बचा ली।

प्रायोगिक तौर पर तो यह ठीक है लेकिन वास्तव में डायपर कचरे को कचरे के ढेर से निकाल कर उपयोग करने लायक बनाने और फिर चलन में लाने के लिए काफी लंबा रास्ता तय करना पड़ेगा क्योंकि अधिकतर जगहों पर अपशिष्ट प्रबंधन व पृथक्करण बहुत कारगर तरीके से काम नहीं करता है। रीसायकल होने वाली कुछ चीज़ों को तो छांट लिया जाता है लेकिन चूंकि डायपर रीसायकल नहीं होते तो उनकी छंटाई नहीं होती और इन्हें जला दिया जाता है। फिर भी इनकी उपयोगिता के मद्देनज़र कचरे से डायपर की छंटनी कर भी ली जाती है, तो क्या आम लोग डायपर वेस्ट से घर बनवाने को राज़ी होंगे या ऐसे लंगोट/पोतड़ों से बने मकान खरीदने या उनमें रहने को तैयार होंगे? यह भी देखना होगा कि ये मकान कितने टिकाऊ होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चूहों को गंध से भटकाकर फसलों की सुरक्षा

ह तो सब जानते हैं कि चूहे घर के सामान का कितना नुकसान करते हैं। चूहों जैसे कृंतकों के कारण हर साल लगभग 7 करोड़ टन अनाज की भी बर्बादी होती है। वे खेतों में बोए बीजों को खोद-खोदकर खा जाते हैं और फसल बर्बाद कर देते हैं।

चूहों से निजात के लिए खेतों में बिल्लियां छोड़ने से लेकर ज़हर देने तक के कई तरीके आज़माए गए हैं। लेकिन ये सब महंगे हैं। ज़हर या कीटनाशक का छिड़काव सिर्फ एक बार करने से काम नहीं बनता। ऊपर से ये ज़हर चूहों के अलावा अन्य जीवों को भी मार देते हैं।

इसलिए शोधकर्ता कुछ ऐसे विकल्प की तलाश में थे जो जेब पर भारी न पड़े, अन्य जीवों को नुकसान न पहुंचाए और चूहों से होने वाला नुकसान कम से कम हो जाए। पूर्व अध्ययन में देखा गया था कि पक्षियों की गंध का ‘छद्मावरण’ देने से शिकारी भटक जाते हैं। शोधकर्ताओं ने पक्षियों की गंध को कुछ ऐसी जगहों पर बिखेर दिया जहां ये पक्षी वास्तव में कभी नहीं जाते थे। शुरू-शुरू में बिल्ली व इनके अन्य शिकारी जीव गंध का पीछा करते हुए अपने शिकार को ढूंढने उन जगहों पर पहुंचे थे, लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने इस गंध को ‘धोखा’ मान लिया और गंध का पीछा करना छोड़ा दिया। फिर जब घोंसला बनाने के मौसम में ये पक्षी वास्तव में वहां आए तो गंध को छलावा मानकर इनके शिकारियों ने इन तक पहुंचने की चेष्टा नहीं की।

चूहे भी भोजन ढूंढने के लिए गंध पर निर्भर होते हैं। गेहूं के मामले वे गेहूं के भ्रूण से आने वाली गंध सूंघते हुए पहुंचते हैं। तो युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के जीव वैज्ञानिक पीटर बैंक और उनके दल ने सोचा कि क्या इसी तरह चूहों को भी भटकाया जा सकता है। यह जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने ऑस्ट्रेलिया के ग्रामीण इलाके के गेहूं के एक खेत को 10×10 मीटर के 60 भूखंडों में बांटा। कुछ भूखंडों पर सिर्फ गेहूं के भ्रूण की गंध छिड़की गेहूं नहीं बोए। कुछ भूखंडों में बीज भी बोए और गंध भी छिड़की। और कुछ भूखंडों में सिर्फ बीज बोकर छोड़ दिया।

पूर्व अध्ययन के हिसाब से शोधकर्ताओं को उम्मीद थी कि स्थानीय चूहे खाली खेतों के छलावे से समझ जाएंगे कि गंध के पीछे भागकर बीज ढूंढना ऊर्जा और समय की बर्बादी है, पर ऐसा नहीं हुआ। लेकिन गेहूं बोने के साथ गंध का छिड़काव करने का तरीका काम कर गया। जिन खेतों में गेहूं की बहुत अधिक गंध आ रही थी वहां चूहे यह पता ही नहीं कर पाए कि वास्तव में बीज हैं कहां। नेचर सस्टेनेबिलिटी की रिपोर्ट के मुताबिक गंध रहित बुवाई वाले खेतों की तुलना में गंध सहित बुवाई वाले खेतों में फसल को 74 प्रतिशत कम नुकसान हुआ।

अच्छी बात यह है कि गेहूं की गंध का छिड़काव करने के लिए आम तौर पर किसानी में उपयोग किए जाने वाले उपकरणों से काम चल जाएगा। गंध के लिए गेहूं का तेल मिलों का सह-उत्पाद होता है, इसलिए इसमें कोई अतिरिक्त खर्चा भी नहीं आएगा। तो किसानों के लिए यह उपाय अपनाना अपेक्षाकृत आसान हो सकता है। बहरहाल, यह जानना बाकी है कि कितनी मात्रा में और कितनी बार गंध छिड़काव पर्याप्त होगा, इसे हर साल छिड़कना होगा या मात्र तब छिड़कने से काम चल जाएगा जब चूहे ज़्यादा हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खानपान पर ध्यान, सूक्ष्मजीवों को भुलाया

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र्ष 1826 में एक फ्रांसीसी वकील ऐंथेल्मे ब्रिलैट-सैवरीन का यह कथन खानपान के बारे में हमारी समझ को बखूबी व्यक्त करता है, “मुझे बताइए कि आप क्या खाते हैं, मैं आपको बता दूंगा कि आप क्या हैं।” कुछ ऐसी ही बात जर्मन दार्शनिक लुडविग एंड्रियास फॉयरबैक ने 1863 में कही थी, “आप वही हैं जो आप खाते हैं।” आगे चलकर 1942 में एक अमेरिकी स्वस्थ-खाद्य लेखक विक्टर लिंडलार ने तो स्वस्थ और संतुलित आहार पर एक किताब ही लिख डाली: यू आर व्हाट यू ईट: हाउ टू विन एंड कीप हेल्थ विद डाएट

विभिन्न संस्कृतियों में खान-पान की पसंद-नापसंद और उसकी गुणवत्ता के बारे में समझ अलग-अलग रही है। खाद्य के वैश्वीकरण ने प्राचीन काल से अब तक भोजन के विकल्पों को काफी सीमित कर दिया है। जनसंख्या बढ़ने के साथ भोजन की मांग में वृद्धि हुई है। 1998 में एस. बेंगमार्क और उनके दल द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति औसत जीवनकाल में करीबन 60 टन भोजन खा डालता है। आधुनिक खाद्य विकल्पों की मांग की आपूर्ति के लिए सघन उत्पादन ने मनुष्यों को कई जोखिमों में डाल दिया है, जिनमें खाद्य गुणवत्ता से लेकर बिगड़ते अर्थशास्त्र, ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन तथा जलवायु परिवर्तन की घटनाएं शामिल हैं।

खाद्य गुणवत्ता सम्बंधी नज़रिए खाद्य अर्थशास्त्र और स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण कसौटियां हैं। गुणवत्ता मूल्यांकन तो एक व्यक्तिपरक मामला है। आम तौर पर उपभोक्ता किसी खाद्य सामग्री को खरीदते समय उसकी ताज़गी, स्वाद, रंग-रूप और कीमत जैसे प्रत्यक्ष सूचकों को देखते हैं। दूसरी ओर, प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों के लिए रासायनिक अवयव, पोषण सम्बंधी तथ्य, कुल सामग्री, ऐडिटिव्स और बेस्ट बिफोर डेट जैसे विशिष्ट संकेतक महत्वपूर्ण होते हैं।

सूक्ष्मजीवी गुणवत्ता एवं सुरक्षा के बारे में उपभोक्ताओं की जागरूकता और नियामक दिशानिर्देश फिलहाल सिर्फ भोजन को खराब करने वाले सूक्ष्मजीवों और खाद्य वाहित रोगजनकों तक ही सीमित हैं। आजकल खाद्य सुरक्षा और स्वच्छता सर्वेक्षणों में सूक्ष्मजीवी संकेतकों का उपयोग किया जाने लगा है।

लेकिन जिस चीज़ को अनदेखा किया गया है, वह है भोजन से जुड़ा लाभकारी सूक्ष्मजीव संसार जो मानव पोषण में महत्वपूर्ण योगदान देता है। किसी भी स्वस्थ प्राणि या पौधे में लाभकारी और संभावित रूप से हानिकारक सूक्ष्मजीव सह-अस्तित्व में रहते हैं। सहजीवी (पारस्परिक रूप से लाभकारी), सहभोजी और रोगजनक सूक्ष्मजीवों के बीच संतुलन बाधित होने पर सूक्ष्मजीव असंतुलन की समस्या पैदा होती है। यहां भोजन का माइक्रोबायोम (सूक्ष्मजीवों का समग्र जीनोम) गुणवत्ता निर्धारित करता है जबकि उपभोक्ता का माइक्रोबायोम स्वास्थ्य का निर्धारण करता है, जिसमें भोजन का पाचन भी शामिल है।             

मनुष्यों की आंत में खरबों सूक्ष्मजीव होते हैं। बैक्टीरिया, आर्किया और यूकेरियोट जैसे सूक्ष्मजीवों के इस समुदाय में 98 लाख जीन होते हैं जो चयापचयी पदार्थ पैदा करते हैं। ये पदार्थ मेज़बान के चयापचय, प्रतिरक्षा, स्वास्थ्य और फीनोटाइप (यानी प्रकट रूप) को प्रभावित करते हैं। सूक्ष्मजीवी विविधता एक ‘स्वस्थ आंत’ की सूचक है।

मनुष्य की आंत का माइक्रोबायोम व्यक्ति के आनुवंशिकी और पर्यावरणीय कारकों पर निर्भर होता है जिसमें आहार और दवाएं भी शामिल हैं। आंत के सूक्ष्मजीव शरीर को कई पोषक तत्व, अमीनो एसिड और बी विटामिन प्रदान करते हैं। आहार से प्राप्त बी विटामिन्स का अवशोषण छोटी आंत में होता है जबकि आंत के सूक्ष्मजीव से उत्पन्न बी विटामिन्स का उत्पादन और अवशोषण बड़ी आंत में होता है। ये बी विटामिन शरीर के प्रतिरक्षा संतुलन को बनाए रखते हैं। आंत के सूक्ष्मजीव डोपामाइन, सेरेटोनिन, गामा-एमीनोब्यूटरिक अम्ल और नॉरएपिनेफ्रीन जैसे न्यूरोट्रांसमीटरों का उत्पादन या उपयोग भी करते हैं और उनके न्यूरोट्रांसमीटर में उतार-चढ़ाव आंत-मस्तिष्क कड़ी के लिए एक आवश्यक संचार मार्ग प्रदान करता है।

स्वस्थ लोगों के मल के सूक्ष्मजीव जगत को चपापचयी दिक्कतों वाले रोगियों में प्रत्यारोपित करने (स्वस्थ व्यक्ति के मल के तनु घोल को रोगी व्यक्ति की आंत में पहुंचाने) के प्रयासों ने आंत के सूक्ष्मजीव जीनोम की भूमिका के बारे में हमारी समझ बढ़ाई है।

आंत में माइक्रोबायोम की स्थापना जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है और गर्भनाल के ज़रिए बैक्टीरिया का संचरण या गर्भाशय में मां की आंतों के बैक्टीरिया का भ्रूण में स्थानांतरण संभव है। शिशु विकास के शुरुआती चरण में आंत के सूक्ष्मजीव जगत की विविधता कम होती है और इसमें बाइफिडोबैक्टीरियम प्रजातियों और बैक्टीरॉइड्स प्रजातियों की संख्या अधिक होती है। यह माइक्रोबायोटा के स्थानांतरण और मां के दूध के माध्यम से प्राप्त होता है (लगभग 8 लाख बैक्टीरिया प्रतिदिन)। अधिक मात्रा में आंत के रोगजनकों की उपस्थिति की वजह से सूक्ष्मजीव असंतुलन कुपोषित बच्चों में आम तौर पर देखा जाता है। पहले साल में, मां के दूध से ठोस आहार पर जाने से सूक्ष्मजीव विविधता में वृद्धि होती है। तीन वर्ष की आयु तक सूक्ष्मजीव संघटन की संरचना, विविधता और कार्यात्मक क्षमताएं एक वयस्क की तरह होने लगती हैं। वयस्क अवस्था में आंत की सूक्ष्मजीव संरचना अपेक्षाकृत स्थिर रहती है। दूसरी ओर, बुज़ुर्गों में शॉर्ट-चेन फैटी एसिड उत्पादन और एमायलोलायसिस की क्षमता कम हो जाती है। इस तरह लंबे समय तक सूक्ष्मजीवों का सक्रिय या निष्क्रिय स्थानांतरण व्यक्ति की आंत के सूक्ष्मजीव संघटन में योगदान देता है।

लंबे समय का आहार पैटर्न आंत के माइक्रोबायोम के लचीलेपन का निर्धारण करता है जो अपने तईं जीवन की गुणवत्ता या आहार-सम्बंधी बीमारियों का नियंत्रण करता है। आंत के माइक्रोबायोम में गुणात्मक परिवर्तन या तो स्वयं माइक्रोबायोम की अपरिपक्वता (यानी एक ही उम्र के स्वस्थ व अस्वस्थ व्यक्ति के माइक्रोबायोम में अंतर) या माक्रोबायोम असंतुलन (सूक्ष्मजीवों की स्थायी हानि) के कारण होते हैं।

बांग्लादेश में जीनेट एल. गेहरिग और उनके दल द्वारा किए गए एक परीक्षण में पाया गया कि माइक्रोबायोम-लक्षित पूरक आहार गंभीर कुपोषण से ग्रस्त बच्चों की माइक्रोबायोम अपरिपक्वता को ठीक करता है। इस पूरक आहार में विभिन्न मात्रा में चना, सोयाबीन, मूंगफली और केले वगैरह शामिल थे। यह अध्ययन 2019 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।

किण्वित खाद्य पदार्थ महत्वपूर्ण विकल्प रहे हैं, खासकर शिकारी-संग्रहकर्ता जीवन शैली से कृषि आधारित जीवन शैली की ओर बदलाव के दौरान। लेकिन आज किण्वित पेय अधिक लोकप्रिय हो गए हैं। किण्वित खाद्य बनाने की पारिवारिक परंपराएं लगभग खत्म हो चुकी हैं। आज की बाज़ारू खाद्य सामग्री और फास्ट फूड ने लगभग 5000 किण्वित खाद्य सामग्री को गायब कर दिया है। ताज़ा खाद्य सामग्री को प्राकृतिक सूक्ष्मजीवों से किण्वित करके कच्ची सामग्री से पौष्टिक या नशीले उत्पाद बनाए जाते थे। ब्रेड और बीयर का खमीर (सैकरोमायसीज़ सेरेवीसिए) से घनिष्ठ सम्बंध तो जाना-माना है। इस खमीर ने 14,000 से अधिक वर्षों में मनुष्यों के साथ हज़ारों जीन साझा किए हैं। चावल और उड़द के घोल से लोकप्रिय इडली बनाई जाती है। इसमें किण्वन प्राकृतिक सूक्ष्मजीवों द्वारा होता है। दही, केफिर, टेम्पे, मीसो और कोम्बुचाज़ जैसे कई किण्वित खाद्य पदार्थों में जीवित सूक्ष्मजीव होते हैं जबकि कई अन्य में नहीं होते। लिहाज़ा, किण्वन की जैव रासायनिक परिभाषा केवल कुछ खाद्य किण्वनों पर ही लागू की जा सकती है। हाल ही में इंटरनेशनल साइंटिफिक एसोसिएशन फॉर प्रोबायोटिक्स एंड प्रीबायोटिक्स ने किण्वित खाद्य और पेय पदार्थों को निम्नानुसार परिभाषित किया है: ‘वांछित सूक्ष्मजीव वृद्धि और खाद्य घटकों के एंज़ाइम आधारित रूपांतरण’ द्वारा निर्मित खाद्य पदार्थ। इसमें ‘वांछित सूक्ष्मजीव वृद्धि’ पर काफी ज़ोर दिया गया है, इसलिए किण्वित खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता और सुरक्षा काफी हद तक खाद्य पदार्थों और कच्ची सामग्री के माइक्रोबायोम पर निर्भर करती है। खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता में सुधार के अलावा, किण्वित खाद्य पदार्थ शर्करा के स्तर, भूख, तंत्रिका सम्बंधी विकारों और चिंता को भी नियंत्रित कर सकते हैं।

खानपान के प्रति जागरूकता भोजन और कच्चे माल के उत्पादन तथा प्रसंस्करण से शुरू होनी चाहिए न कि थाली में भोजन परोसे जाने के बाद। मिट्टी, पानी, ऊर्जा और पादप विविधता जैसे प्राकृतिक संसाधनों के वर्तमान उपयोग का पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सघन औद्योगिक कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर अत्यधिक निर्भरता के चलते रासायनिक रूप से संदूषित, कम पौष्टिक और जैव-सक्रिय यौगिकों तथा संशोधित माइक्रोबायोम वाली खाद्य सामग्री और कच्चे माल का उत्पादन होता है। मसलन एक कुदरती सेब में 10 करोड़ बैक्टीरिया होते हैं। रासायनिक उर्वरकों से उत्पादित फलों की तुलना में जैविक खेती से प्राप्त फलों में समृद्ध माइक्रोबायोम विविधता होती है। इसलिए आजकल का सेब डॉक्टर को दूर नहीं बल्कि व्यस्त रख सकता है।

आजकल की कृषि पद्धतियों और भोजन विकल्पों के चलते ‘आहार और दवा’ का मिला-जुला सेवन आम बात हो चली है। मल प्रत्यारोपण अब संभव दिख रहा है। पिछले वर्ष अमेरिका के खाद्य व औषधि प्रशासन ने क्लॉस्ट्रीडियम डिफिसाइल जनित जीर्ण दस्त के इलाज के लिए मल प्रत्यारोपण को मंज़ूरी दी है। वनस्पति, जीव-जगत, मनुष्य और पर्यावरणीय सूक्ष्मजीवों के परस्पर प्रभावों को देखते हुए भोजन के विकल्पों के साथ-साथ खाद्य उत्पादन शृंखला पर पुनर्विचार आवश्यक है।

कृषि क्षेत्र में नवीन प्रबंधन पद्धतियों का उद्देश्य पोषक तत्व और ऊर्जा के साथ एक स्वस्थ माइक्रोबायोम होना चाहिए। मिट्टी से लेकर उपभोक्ताओं के दस्तरखान तक माइक्रोबायोम मानक और निगरानी तकनीकों की मदद से खाद्य सुरक्षा में सुधार किया जा सकता है।

राष्ट्रीय खाद्य आधारित आहार दिशानिर्देश (एफबीडीजी) मानव पोषण और उर्जा आवश्यकताओं पर समग्र दृष्टिकोण प्रदान करते हैं तथा स्वस्थ आहार चुनने और अपनाने के लिए संस्कृति-विशिष्ट सलाह देते हैं (https://www.fao.org/nutrition/education/food-based-dietary-guidelines)। इन एफबीडीजी का मुख्य लक्ष्य विभिन्न प्रकार के कुपोषण (यानी अल्पपोषण, सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी और मोटापा, मधुमेह, हृदय रोग एवं कतिपय कैंसर जैसी आहार सम्बंधी बीमारियों) का मुकाबला करना है।

इस तरह, मानव पोषण के लिए माइक्रोबायोम के योगदान और खेत से प्लेट तक भोजन एवं कच्चे माल से सम्बंधित माइक्रोबायोम के लिए नियामक दिशानिर्देशों पर विचार करते हुए नए दिशानिर्देश स्थापित करना फायदेमंद हो सकता है। माइक्रोबायोम अनुसंधान, मानकों और नवाचारों के साथ किण्वित खाद्य पदार्थों को पुनर्जीवित करने से स्वास्थ्य में सुधार, भोजन की बर्बादी में कमी और भोजन उत्पादन एवं प्रबंधन के लिए ऊर्जा के बेहतर उपयोग का रास्ता खुल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दक्षिण भारत की फिल्टर कॉफी – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

वेबसाइट स्टेटिस्टा (Statista) बताती है कि ब्राज़ील, वियतनाम, कोलंबिया, इंडोनेशिया, इथियोपिया और होंडुरास के बाद भारत दुनिया का छठवां सबसे बड़ा कॉफी उत्पादक देश है। 2022-23 में भारत में करीब 4 लाख टन कॉफी का उत्पादन हुआ है।

डॉ. के. टी. अचया अपनी पुस्तक इंडियन फूड: ए हिस्टोरिकल कम्पेनियन में लिखते हैं कि 14वीं-15वीं शताब्दी में कॉफी मध्य पूर्व से ‘कोहा’ नाम से भारत आई, और बाद में कॉफी कहलाने लगी। कुछ ब्लॉगर्स लिखते हैं कि औपनिवेशिक अंग्रेजों ने मैसूर से युरोप तक भारतीय कॉफी का व्यावसायीकरण किया था।

स्रोत के फरवरी 2020 के अंक में प्रकाशित अपने एक लेख में मैंने लिखा था कि कॉफी एक स्वास्थ्यवर्धक पेय है। मेटा-विश्लेषण से पता चलता है कि कॉफी में कई विटामिन और एंटीऑक्सीडेंट्स होते हैं। इस तरह, यह एक ऐसा स्वास्थ्यकारी पेय है जो हमारे आमाशय की कोशिकाओं को ऑक्सीकारक क्षति से बचाता है, और टाइप-2 डायबिटीज़ और बढ़ती उम्र से जुड़ी कई बीमारियों के जोखिम को कम करता है। लेकिन इसकी अति से बचना चाहिए; एक दिन में पांच कप से ज़्यादा नहीं।

दक्षिण भारतीय कॉफी वास्तव में भुने हुए कॉफी के बीज और भुनी हुई चिकरी की जड़ों के पावडरों का मिश्रण होती है। चिकरी की यह मिलावट ही दक्षिण भारतीय कॉफी को खास बनाती है।

लेकिन चिकरी है क्या? यह मूलत: युरोप और एशिया में पाई जाने वाली एक वनस्पति है। इसकी जड़ में इनुलिन नामक एक स्टार्ची पदार्थ होता है। यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। यह गेहूं, प्याज़, केले, लीक (हरी प्याज़ सरीखी सब्ज़ी), आर्टिचोक (हाथी चक) और सतावरी सहित विभिन्न फलों, सब्ज़ियों और जड़ी-बूटियों में पाया जाता है।

चिकरी की जड़ हल्का-सा विरेचक (दस्तावर) असर देती है और सूजन कम करती है। यह बीटा कैरोटीन का भी एक समृद्ध स्रोत है। यह कॉफी के मुकाबले कोशिकाओं को ऑक्सीकारक क्षति से बेहतर बचाता है। इसके अलावा, चिकरी में कैफीन भी नहीं होता, जिसके कारण बेचैनी और अनिद्रा की शिकायत होती है। दूसरी ओर, कॉफी में कैफीन होता है। यही कारण है कि दक्षिण भारतीय तरीके से (कॉफी और चिकरी पाउडर मिलाकर) कॉफी बनाना एक अच्छी परम्परा लगती है: इस मिश्रण में 70 प्रतिशत कॉफी और 30 प्रतिशत चिकरी पावडर मिलाते हैं। स्वादानुसार ये प्रतिशत अलग भी हो सकते हैं।

भारत में कॉफी बागान कहां-कहां हैं? इसके अधिकतर बागान कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के पहाड़ी क्षेत्रों में हैं। फिर आंध्र प्रदेश (अरकू घाटी) और ओडिशा, मणिपुर, मिज़ोरम के पहाड़ी क्षेत्रों में और पूर्वोत्तर भारत के ‘सेवन सिस्टर्स’ पहाड़ों में कॉफी के बागान हैं। चिकरी मुख्यत: उत्तर प्रदेश और गुजरात में उगाई जाती है। दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों राज्यों में ज़्यादातर लोग चाय पीते हैं, कॉफी नहीं। अच्छी बात यह है कि तुलनात्मक रूप से प्रति कप चाय में भी कम कैफीन होता है।

दुनिया के कई हिस्सों में लोग बिना दूध वाली ब्लैक कॉफी पीते हैं। इतालवी लोग कॉफी को कई तरह से बनाते हैं। मसलन एस्प्रेसो कॉफी में, उच्च दाब पर कॉफी पावडर से गर्मा-गरम पानी गुज़ारा जाता है। दक्षिण भारतीय फिल्टर कॉफी आम तौर पर गर्म दूध डाल कर पी जाती है। कॉफी में दूध मिलाने से उसका स्वाद और महक बढ़ जाते हैं।

दरअसल, जर्नल ऑफ एग्रीकल्चर एंड फूड केमिस्ट्री के जनवरी 2023 के अंक में युनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन, डेनमार्क के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित एक पेपर बताता है कि दूध वाली कॉफी पीना शोथ-रोधी असर दे सकता है। दूध में प्रोटीन और एंटीऑक्सीडेंट की उपस्थिति रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा करने वाली कोशिकाओं को सक्रिय करने में मदद करती है।

दूध वाली कॉफी के स्वास्थ्य पर प्रभावों का अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने मनुष्यों पर परीक्षण शुरू कर दिए है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कॉफी के शौकीन भारतीय लोग इस ट्रायल में ज़रूर शामिल होना चाहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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गर्म रहने के लिए अपनी सांस रोकती शार्क

पने पसंदीदा स्क्विड जैसे भोजन के लिए स्कैलोप्ड हैमरहेड शार्क (Sphyrna lewini) समुद्र में 800 मीटर से भी अधिक गहराई तक गोता लगाती हैं। ऊष्णकटिबंध क्षेत्र में रहने वाली इस असमतापी शार्क के लिए 5 डिग्री सेल्सियस ठंडे पानी में गोता लगाना काफी जोखिम भरा हो सकता है। फिर भी ये बिना किसी समस्या के रात में कई बार ठंडे समुद्र गोता लगाती हैं।

साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शार्क अपनी सांस थामकर इस जोखिम भरे काम को अंजाम देती हैं। टीम का अनुमान है कि यह शार्क गोता लगाते हुए अपने गलफड़ों और मुंह को बंद कर लेती है। ऐसा करते हुए ऑक्सीजन की आपूर्ति तो रुक जाती है लेकिन शरीर की गर्मी समुद्र में जाने से भी बच जाती है।

गौरतलब है कि ट्यूना और लैमनिड शार्क जैसे गहराई में रहने वाले समुद्री जंतु कुछ हद तक शरीर का तापमान संतुलित रख सकते हैं। ये बर्फीले तापमान में ऊष्मा को शरीर के विशिष्ट अंगों की ओर भेज देते हैं। लेकिन स्कैलोप्ड हैमरहेड शार्क में ऐसी कोई विशेषता नहीं है। जिस गहराई में ये गोता लगाती हैं वहां का तापमान मात्र 5 डिग्री सेल्सियस होता है। तापमान में इतनी गिरावट से उनकी दृष्टि और मस्तिष्क के कार्य प्रभावित हो सकते हैं। मांसपेशियों में जकड़न के चलते तैरने और पानी को गलफड़ों में खींचने में परेशानी हो सकती है और मृत्यु तक हो सकती है।

शार्क की इस अनोखी विशेषता का पता लगाने के लिए मनोआ स्थित हवाई विश्वविद्यालय के जीवविज्ञानी मार्क रॉयर और उनके दल ने हवाई द्वीप ओहू के तट पर इन जीवों पर कई सेंसर लगाए। इनमें एक त्वरणमापी था जो उनकी गति, पूंछ के हिलने की गति और शरीर की स्थिति की निगरानी करता है। इन सेंसरों ने गहराई और वहां पानी के तापमान के साथ-साथ शार्क के शरीर के आंतरिक तापमान को भी दर्ज किया। लगभग 23 दिन बाद आंकड़े काफी चौंकाने वाले थे। गोता लगाने के बाद शार्क ने पूरे समय शरीर के तापमान को सामान्य से 0.1 डिग्री सेल्सियस के भीतर बनाए रखा। ऊपर लौटते समय अंतिम 300 मीटर में शार्क के शरीर के तापमान में लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की गिरावट आई। टीम के अनुसार सबसे सशक्त व्याख्या यह है कि नीचे जाते समय शार्क मुक्त रूप से गिरी होगी और अपने गलफड़े और मुंह दोनों ही बंद रखे होंगे। इस तकनीक से वे खुद को गर्म रख पाई होंगी। ऊपर पहुंचने के अंतिम चरण के दौरान तापमान में गिरावट का कारण शार्क द्वारा अपने गलफड़ों को फिर से सांस लेने के लिए खोलना रहा होगा। शार्क ने प्रति गोता औसतन 17 मिनट अपनी सांस रोके रखी।

गहरी गोताखोरी के दौरान अपनी सांस रोककर रखने का यह प्रथम उदाहरण है। हालांकि कुछ अन्य वैज्ञानिक इन निष्कर्षों से पूरी तरह सहमत नहीं है। गोता लगाने के दौरान शार्क के वीडियो फुटेज में गलफड़ों और मुंह बंद होने के प्रमाण देखना ज़रूरी है। फिलहाल शोधकर्ता शार्क के चयापचय की जांच करना चाहते हैं ताकि गहरी गोताखोरी को और बेहतर ढंग से समझा जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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वायुमंडल में ज़मीनी विस्फोटों पर निगरानी

हाल ही में वैज्ञानिकों ने वायुमंडल में 100 किलोमीटर ऊपर स्थित आयनमंडल में भूमि पर होने वाले हल्के धमाके महसूस भी कर लिए हैं। इससे लगता है कि अब रिमोट सेंसिंग तकनीक की मदद से हल्की विस्फोटक (प्राकृतिक हों या मानवजनित) घटनाओं पर भी नज़र रखी जा सकेगी।

वायुमंडल का आयनमंडल औरोरा (मेरुज्योति) का गढ़ है। यह तब बनता है जब सूर्य से आने वाले आवेशित कण परमाणुओं से टकराते हैं और उन्हें आलोकित करते हैं। लेकिन भूमि पर होने वाले विस्फोट भी आयनमंडल में खलल डाल सकते हैं। 2022 में, दक्षिण प्रशांत महासागर में स्थित हुंगा टोंगा-हुंगा हाआपाई ज्वालामुखी विस्फोट ने आयनमंडल में हिलोरें पैदा कर दी थीं। 1979 में, आयनमंडल में पैदा हुई हलचल इस्राइली-दक्षिण अफ्रीकी परमाणु परीक्षण से जुड़ी हुई पाई गई थी।

दोनों धमाकों से इन्फ्रासाउंड तरंगें निकली थीं, जो काफी दूर तक जाती हैं और आयनमंडल में कंपन पैदा कर सकती हैं। आयनमंडल के आवेशित कणों से टकराकर वापिस लौटने वाली तरंगों की मदद से इन विस्फोटों को रिकॉर्ड किया गया था। लेकिन इस तकनीक से एक किलोटन टीएनटी से अधिक शक्तिशाली विस्फोट ही पहचाने जा सकते थे, इससे हल्के विस्फोट नहीं। (हिरोशिमा पर गिराया गया परमाणु बम 15 किलोटन का था।)

अर्थ एंड साइंस पत्रिका में प्रकाशित हालिया शोध में शोधकर्ताओं ने 1 टन टीएनटी के प्रायोगिक विस्फोटों का सफलतापूर्वक पता लगा लिया है। इसके लिए वायु सेना अनुसंधान प्रयोगशाला के केनेथ ओबेनबर्गर और उनके साथियों ने 2022 में 1-1 टन के दो विस्फोटों के प्रभावों का निरीक्षण करने के लिए राडार डिटेक्टरों को आयनमंडल में हलचल के कारण पैदा होने वाली तरंगों को मापने के लिए डिज़ाइन किया। इस डिज़ाइन से उन्हें विस्फोट होने के 6 मिनट के भीतर विस्फोट के संकेत मिल गए थे।

उम्मीद है कि इसकी मदद से छोटे मानव जनित विस्फोटों या प्रशांत महासागर के सुदूर क्षेत्र में स्थित ज्वालामुखी विस्फोटों की निगरानी की जा सकेगी, जो अन्यथा मुश्किल होता है। इसके अलावा, इसकी मदद से भूकंपों का पता भी लगा सकते हैं जिनके कारण सुनामी, भूस्खलन और अन्य आपदाएं हो सकती हैं।

इसका एक अन्य संभावित उपयोग ग्रह विज्ञान में हो सकता है। शुक्र जैसे ग्रह, जहां घने बादलों के कारण सतह को स्पष्ट देखना मुश्किल है, की कक्षा में आयनमंडल राडार स्थापित कर विस्फोटों और भूकंपों का पता लगाया जा सकता है।

फिलहाल, ओबेनबर्गर शोध को पृथ्वी आधारित ही रखना चाहते हैं। वे विभिन्न मौसमों में इस तकनीक के परीक्षण की योजना बना रहे हैं, क्योंकि साल भर में आयनमंडल बदलता रहता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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