ई-कचरे का वैज्ञानिक निपटान – सुदर्शन सोलंकी

कंप्यूटर, टी.वी., वाशिंग मशीन, फ्रिज, कैमरा, मोबाइल फोन जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण या इनके पुर्ज़े जब उपयोग योग्य नहीं रह जाते तो इन्हें ई-कचरे की संज्ञा दी जाती है।

भारत ई-कचरा पैदा करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है। ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर, 2017 के अनुसार, भारत प्रति वर्ष लगभग 20 लाख टन ई-कचरा उत्पन्न करता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, भारत में वर्ष 2019-20 में 10 लाख टन से अधिक ई-कचरा उत्पन्न हुआ था। वर्ष 2017-18 के मुकाबले वर्ष 2019-20 में ई-कचरे में 7 लाख टन की बढ़ोतरी हुई थी। किंतु ई-कचरे के निपटान की क्षमता में बढ़ोतरी नहीं हुई है।

युनाइटेड नेशंस युनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट ‘ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर 2020′ में बताया गया है विश्व में वर्ष 2019 में 5.36 करोड़ मीट्रिक टन कचरा पैदा हुआ था जो पिछले पांच सालों में 21 फीसदी बढ़ गया है। अनुमान है कि 2030 तक इलेक्ट्रॉनिक कचरे की मात्रा 7.4 करोड़ मीट्रिक टन हो जाएगी।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम 2019 के अनुसार दुनिया में प्रति वर्ष लगभग 5 करोड़ टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा होता है, जो वजन में अब तक निर्मित सभी वाणिज्यिक विमानों से अधिक है। संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय की रिपोर्ट के मुताबिक ई-कचरे की मात्रा लगभग 4500 एफिल टावरों के बराबर है। हाल के एक शोध के अनुसार वर्ष 2025 तक सौ करोड़ से भी अधिक कंप्यूटरों की रिसायक्लिंग की व्यवस्था की आवश्यकता होगी।

वर्तमान समय में हम तेज़ी से इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों को उपयोग में लाते जा रहे हैं। इन उत्पादों का जीवन काल छोटा होता है जिस वजह से कुछ ही समय में ये कचरे के रूप में फेंक दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त जब भी कोई नई टेक्नोलॉजी आती है, हम पुराने उपकरणों को आसानी से फेंक देते हैं क्योंकि कई देशों में पुराने उत्पादों की मरम्मत की सीमित व्यवस्था होती है, और जहां संभव है तो बहुत महंगी। ऐसे में जब कोई इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद खराब होता है तब लोग उसे ठीक कराने की जगह बदलना ज़्यादा पसंद करते हैं।

ई-कचरा ज़हरीला और जटिल किस्म का कचरा है। इसमें पारा, सीसा, क्रोमियम, कैडमियम जैसी भारी धातुएं, पोलीक्लोरिनेटेड बायफिनाइल आदि और लंबे समय तक टिकाऊ कार्बनिक प्रदूषक होते हैं। ये मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक होते हैं। ई-कचरा खतरनाक रसायन ही नहीं, बल्कि सोना, चांदी, पैलेडियम, तांबा जैसी बहुमूल्य धातुओं का समृद्ध स्रोत भी है। ज़हरीली और मूल्यवान दोनों धातुओं की मौजूदगी ई-कचरे को अपशिष्टों का एक ऐसा जटिल मिश्रण बना देती है, जिसके लिए एक सजग प्रबंधन प्रणाली ज़रूरी है।

हमारे देश में ई–कचरे के 312 अधिकृत रिसायक्लर हैं, जिनकी सालाना क्षमता लगभग 800 किलोटन है। लिहाज़ा, 95% से अधिक ई–कचरा अब भी अनौपचारिक क्षेत्र ही संभालता है। अधिकांश स्क्रैप डीलरों द्वारा इसका निपटान अवैज्ञानिक तरीके से (जलाकर या एसिड में गलाकर) किया जाता है।

दुनिया के विकसित देश अपना ई-कचरा जहाज़ों में लादकर हमारे बंदरगाहों के निकट छोड़ जाते हैं। इससे भारतीय तटवर्ती समुद्रों में इस कचरे का ढेर लग गया है। इस ई-कचरे में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के उपकरण भी हैं इसलिए इसे जैविक तरीके से नष्ट करना अत्यधिक कठिन हो गया है।

देश में बढ़ते ई–कचरे से निपटने के लिए भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ई–कचरा प्रबंधन नियम, 2016 लागू किया है। 2018 में इस नियम में संशोधन किया गया, ताकि देश में ई–कचरे के निस्तारण को सही दिशा मिल सके तथा निर्धारित तरीके से ई–कचरे को नष्ट अथवा पुनर्चक्रित किया जा सके।

किंतु आंकड़े बताते हैं कि ई-कचरे की री-साइकलिंग नहीं हो पा रही है और अनुपयोगी वस्तुएं समुचित निस्तारण के अभाव में आज एक बड़ी समस्या  बन गई हैं। भारत के कुल ई-कचरे का केवल पांच फीसदी ही री-सायकल हो पाता है, जिसका सीधा प्रभाव पर्यावरण में क्षति और उद्योग में काम करने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने चेतावनी दी है कि भारत और चीन जैसे विकासशील देशों ने ई-कचरे को ठीक से री-साइकिल नहीं किया तो यह किसी बड़ी घातक महामारी को जन्म दे सकता है।

ई-कचरे का सुरक्षित उपचार एवं निस्तारण 

1. सुरक्षित तरीके से दफन

प्लास्टिक की मोटी शीट के अस्तर वाले गड्ढे में ई-कचरा भरकर मिट्टी से ढंक दिया जाता है।

2. भस्मीकरण

ई-कचरे को 900 से 1000 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर भट्टी के अंदर एक बंद चैम्बर में जला दिया जाता है। इससे ई-कचरा लगभग नष्ट हो जाता है तथा कार्बनिक पदार्थ की विषाक्तता भी लगभग समाप्त हो जाती है। राख में से विभिन्न धातुओं को रासायनिक क्रिया से पृथक कर लिया जाता है तथा भट्टी से निकलने वाले धुएं को प्रदूषण नियंत्रण व्यवस्था की मदद से उपचारित किया जाता है।

3. पुनर्चक्रण

लैपटॉप, मॉनिटर, टेलीफोन, पिक्चर ट्यूब, हार्ड ड्राइव, कीबोर्ड, सीडी ड्राइव, फैक्स मशीन, सीपीयू, प्रिंटर, मोडेम इत्यादि उपकरणों का पुनर्चक्रण किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में विभिन्न धातुओं एवं प्लास्टिक को अलग-अलग करके पुन: उपयोग में लाने हेतु तैयार कर लिया जाता है।

4. धातुओं की पुन:प्राप्ति

इस विधि में सोना, चांदी, सीसा, तांबा, एल्युमिनियम, प्लेटिनम आदि धातुओं को लिए सान्द्र अम्ल का प्रयोग करके पृथक कर लिया जाता है।

5. पुनरुपयोग

इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को सुधार या मरम्मत करके पुन: उपयोग करने योग्य बना लिया जाता है।

ई-कचरे के खतरे को कम करने के उपाय

इलेक्ट्रॉनिक कचरा प्रबंधन नियमों के अनुपालन में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने आदेश दिया है कि नियमानुसार ई-कचरे का वैज्ञानिक निपटान सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

1. बिजली एवं इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के निर्माण में खतरनाक पदार्थों के उपयोग में कमी।

2. ई-कचरे का वैज्ञानिक रूप से नियंत्रण। इसके लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा ई-कचरे से सम्बंधी मानदंड अपनाना होगा।

3. निराकरण और पुनर्चक्रण कार्यों में शामिल श्रमिकों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास सुनिश्चित किया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खाद्य सुरक्षा के लिए विविधता ज़रूरी – एस. अनंतनारायणन

अंग्रेज़ी में एक कहावत है, जिसका अर्थ है: अपने सारे अंडे एक ही टोकरी में मत रखो। यह कहावत भोजन के संदर्भ में एकदम मुनासिब लगती है। खाद्य आपूर्ति शृंखला में विविधता रखना खाद्य भंडार में कमी का संकट रोकने में प्रभावी है।

पेनसिल्वेनिया स्टेट युनिवर्सिटी के माइकल गोमेज़ और उनके साथियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के 300 से अधिक शहरों और केंद्रों का अध्ययन किया और देखा कि चार साल की अवधि में इनमें से कुछ स्थान खाद्य आपूर्ति के संकट से सुरक्षित रहे। उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि वे क्या खासियतें हैं जिन्होंने इन स्थानों को सुरक्षित रखा। नेचर पत्रिका में उन्होंने बताया है कि साल 2012 से 2015 के दौरान यूएसए के अधिकांश इलाकों ने विभिन्न स्तर पर सूखे का सामना किया था। लेकिन जिन स्थानों पर खाद्य आपूर्ति विविध स्रोतों से थी वहां की खाद्य आपूर्ति सबसे अधिक अप्रभावित रही।

ऐसा लगता है कि सेवा या आपूर्ति के कई महत्वपूर्ण नेटवर्क विविधता पर निर्भर होते हैं। इसका सबसे उम्दा उदाहरण है इंटरनेट, जो अत्यधिक और परिवर्तनशील डैटा ट्रैफिक संभालता है, लेकिन हमने शायद ही कभी सुना हो कि यह पूरी तरह ठप हो गया या इसकी स्पीड गंभीर स्तर तक कम हो गई। इसका कारण यह है कि इंटरनेट कभी एक पूरे संदेश को एक निश्चित रास्ते से नहीं भेजता। यह संदेश को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटता है और हर टुकड़ा उस समय उपलब्ध सर्वोत्तम रास्ता अख्तियार करता है। इस तरह किसी संदेश को गंतव्य पर पहुंचाने के लिए विविध सर्वोत्तम मार्गों का उपयोग किया जाता है और यातायात सुचारू बना रहता है। यदि किसी मार्ग पर भीड़भाड़ है तो वैकल्पिक रास्ता अपना लिया जाता है।

एक और प्रसिद्ध उदाहरण है पारिस्थितिक तंत्र (इकोसिस्टम) की स्थिरता। विशाल जंगल सूखा, भयानक गर्मी या जाड़ा, कवक या टिड्डियों के हमले झेलते हैं। लेकिन ये ऐसी जगह हैं जहां काफी सारी विविध प्रजातियां एक साथ फलती-फूलती हैं। कीटों और जानवरों की विविधता के महत्व को स्वीकारा जा चुका है और दुनिया भर में हो रहे संरक्षण के अधिकांश प्रयास विविधता के संरक्षण के लिए किए जा रहे हैं।

किसी गैस के दिए गए आयतन के दाब की स्थिरता को गैस के अणुओं की गतियों में विविधता के परिणाम के रूप में देखा जाता है। किसी एक तापमान गतियों का एक परास होता है। लेकिन चूंकि अणुओं की संख्या बहुत ज़्यादा है, गतियों का वितरण अपरिवर्तित रहता है, और इसीलिए गैस का दाब भी स्थिर रहता है। भौतिक तंत्रों में विविधता का अध्ययन गणित की मदद से किया जाता है। इसमें अनिश्चितता के स्तर का एक पैमाना है, जिसे एन्ट्रॉपी कहा जाता है, और यह तंत्र में विविधता को दर्शाती है। वैज्ञानिक क्लॉड शैनन टेलीग्राफ तारों से भेजी जाने वाली सूचनाओं पर आकस्मिक ‘शोर’ के प्रभाव सम्बंधी शोध कार्य के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने संदेश की एक लड़ी में उपस्थित विविधता पर काम करते हुए बताया था कि संदेश में जितने विविध अक्षर होंगे उतना ही अधिक मुश्किल यह पता करना होगा कि उसमें एक अक्षर के बाद अगला अक्षर क्या होगा। इस विचार को पारिस्थितिक प्रणालियों तक विस्तारित किया गया, और विविधता को मापने का यह तरीका शैनन सूचकांक कहलाया। संयुक्त राज्य अमेरिका में खाद्य आपूर्ति शृंखला सम्बंधी काम में शोधकर्ताओं ने खाद्य नेटवर्क के लिए इसी सूचकांक की गणना की है।

अध्ययन का संदर्भ भोजन की आपूर्ति शृंखला – अनाज, सब्ज़ियों, दूध, मांस उत्पादों – पर मनुष्यों की कई आबादियों की बढ़ती निर्भरता है। शोध पत्र बताता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली मौसम की चरम घटनाओं, जिनके भविष्य में बढ़ने की अपेक्षा है, के कारण खाद्य आपूर्ति में अचानक कमी होती है – जिसके कारण बड़े शहरों के भंडार अचानक खाली हो जाते हैं। भू-राजनीतिक व नीतिगत परिवर्तन, और महामारी जैसी घटनाएं भी स्रोतों और आपूर्ति मार्गों को प्रभावित कर सकती हैं। शोध पत्र में कहा गया है कि विश्व स्तर पर अनाज भंडार पर संकट का खतरा बढ़ रहा है। चूंकि अब किसी स्थान पर खाद्य आपूर्ति के स्रोत स्थानीय की बजाय दूर-दूर तक फैले हैं, यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय भी हैं, संकट के परिणाम भी दूर-दूर तक नज़र आ सकते हैं। यह उन घटनाओं को बढ़ा देगा जो आपूर्ति को प्रभावित कर सकती हैं। अलबत्ता, आपूर्ति के स्रोतों में विविधता होने से लचीलापन मिलेगा।

उपरोक्त अध्ययन में संयुक्त राज्य अमेरिका के 284 शहरों और 45 अन्य केंद्रों में खाद्य आपूर्ति और खाद्य आपूर्ति प्रणाली – यानी फसलों के स्रोत, जीवित पशु या पशु आहार और मांस – की स्थिरता को देखा गया। खपत केंद्रों को ‘खाद्य में कमी पड़ने’ की आवृत्ति के अनुसार या खाद्य आपूर्ति किसी वर्ष में चार वर्षों के औसत से एक हद से कम (3 से 15 प्रतिशत कम) होने के आधार पर वर्गीकृत किया गया। चार वर्षों की अवधि में सैकड़ों शहरों में पड़े हज़ारों खाद्य संकटों के आधार पर टीम ने यह गणना की कि ‘कमी की तीव्रता’ की संभाविता कब एक हद से ज़्यादा हो जाएगी। इसके साथ उन्होंने यह भी आकलन किया कि शहरों के आपूर्ति के स्रोतों में विविधता कितनी है।

स्रोतों की विविधता का आकलन करने के लिए उन्होंने प्रत्येक शहर के विभिन्न तरह के खाद्य के व्यापारिक भागीदारों या पड़ोसियों, खाद्य व्यापारियों-आपूर्तिकर्ताओं को सूचीबद्ध किया। फिर इन्हें भौतिक दूरी, जलवायु सहसम्बंध, शहरी वर्गीकरण, आर्थिक विशेषज्ञता और संकुल शहर के तहत वर्गीकृत किया गया। और ‘शैनन सूचकांक’ के ज़रिए आपूर्ति स्रोतों की विविधता की गणना की गई।

विविधता में स्थिरता है

इसके बाद, विभिन्न शहरों में खाद्य आपूर्ति कमी की संभाविता और शहरों में खाद्य आपूर्ति के स्रोतों में विविधता के स्तर के बीच सम्बंध की खोज की गई। देखा गया कि आपूर्ति शृंखला में विविधता बढ़ने पर खाद्य आपूर्ति संकट की संभावना कम होती जाती है। अध्ययन कहता है कि खाद्य आपूर्तिकर्ताओं के अधिक विविधता वाले शहरों में किसी भी कारण से खाद्य आपूर्ति में कमी की संभावना कम है। ठीक वैसे ही जैसे इकोसिस्टम में विविधता उसे बाहरी झटकों के खिलाफ सुरक्षित रखती है।

दुनिया की आधी से अधिक आबादी शहरों में रहती है, और यह संख्या बढ़ रही है। इसलिए जलवायु परिवर्तन के चलते खाद्य सामग्री की आपूर्ति को प्रभावित करने वाले कारकों की सावधानीपूर्वक निगरानी की आवश्यकता है। आज कृषि उपज की खरीद और वितरण की स्थापित प्रणालियों में संशोधन और ‘दक्षता लाने’ के प्रयास नज़र आ रहे हैं। चूंकि विविधता आपूर्ति शृंखलाओं में विफलता के विरुद्ध एक शक्तिशाली निरोधक साबित होती है, इसलिए यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि क्या ये परिवर्तन विविधता के स्तर को प्रभावित करेंगे।

इंटरनेट, इकोसिस्टम, या सामाजिक नेटवर्क डिज़ाइन और निर्मित नहीं किए गए हैं, बल्कि वे वे धीरे-धीरे विकसित हुए हैं, और स्थिरता की दृष्टि से अत्यधिक अनुकूलित हैं। उनमें संरक्षण के लिए अतिरिक्त चीज़ें और सुरक्षा उपाय होते हैं। इनकी पहचान जानी-मानी अर्थव्यवस्था नहीं बल्कि स्थिरता है।

और यही बात आपूर्ति शृंखलाओं पर भी लागू होती है, जो कृषि वाणिज्य के सामाजिक नेटवर्क हैं। वे सदियों से शहरों, व्यापार मार्गों, उत्पादन क्षेत्रों और बाज़ारों के विकास से बने हैं। कई परिवर्तनों और सुधारों के बाद इस में तंत्र की कड़ियां टूटने, या उत्पादन या मांग में घट-बढ़, यहां तक कि फसल हानि के लिए भी कुशल और किफायती विकल्प उपलब्ध हैं। और तंत्र विकसित होने के साथ भौगोलिक, वाणिज्यिक, भंडारण, ढुलाई और व्यक्तिगत कारक जुड़ गए हैं।

तेज़ी से बदलती परिस्थितियों में खामियां आसानी से देखी जा सकती हैं। लेकिन ये बड़े-बड़े व्यापक परिवर्तनों का आधार नहीं हो सकती हैं क्योंकि कई खामियां को दूर किया जा सकता है। लेकिन एक ऐसी प्रणाली को छोड़ देना अनुचित होगा जो परस्पर निर्भर एजेंटों के एक जीवंत नेटवर्क पर आधारित है। (स्रोत फीचर्स)

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सीपियों की विष्ठा सूक्ष्म प्लास्टिक कणों को हटा सकती है

माइक्रोप्लास्टिक एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या बन गए हैं। प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण समुद्री जीवों के शरीर में पहुंच कर उनके ऊतकों को नष्ट कर सकते हैं और उनकी जान के लिए खतरा हो सकते हैं। ये कण इतने छोटे होते हैं कि पर्यावरण से इनको हटाना मुश्किल होता है।

अब, प्लायमाउथ मरीन लेबोरेटरी की पारिस्थितिकी विज्ञानी पेनलोप लिंडिकी को एक ऐसे समुद्री जीव – नीले घोंघे (मायटिलस एडुलिस) – के बारे में पता चला है जो न सिर्फ माइक्रोप्लास्टिक्स से अप्रभावित रहते हैं बल्कि उन्हें पर्यावरण से हटाने में मदद कर सकते हैं। काली-नीली खोल वाली ये सीपियां भोजन के साथ माइक्रोप्लास्टिक भी निगल लेती हैं और अपनी विष्ठा के साथ इसे शरीर से बाहर निकाल देती हैं।

शोधकर्ता जानते थे कि नीली सीपियां ठहरे हुए पानी में से माइक्रोप्लास्टिक्स को छान सकती हैं। लिहाज़ा वे कुदरती परिस्थितियों में इस बात को जांचना चाह रहे थे।

उन्होंने सीपियों को एक स्टील की टंकी में रखा और उसमें माइक्रोप्लास्टिक युक्त पानी में भर दिया। जैसी कि उम्मीद थी सीपियों ने टंकी का लगभग दो-तिहाई माइक्रोप्लास्टिक्स निगला और उसे अपने मल के साथ त्याग दिया।

यही परीक्षण उन्होंने वास्तविक परिस्थितियों में भी दोहराया। उन्होंने तकरीबन 300 सीपियों को टोकरियों में भरकर पास के समंदर में डाल दिया। विष्ठा इकट्ठा करने के लिए उन्होंने हर टोकरी के नीचे एक जाली लगाई।

जर्नल ऑफ हेज़ार्डस मटेरियल्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस व्यवस्था में सीपियों ने प्रतिदिन लगभग 240 माइक्रोप्लास्टिक कण फिल्टर किए। प्रयोगशाला का काम बताता है कि पानी में अत्यधिक माइक्रोप्लास्टिक्स होने पर सीपियां प्रति घंटे लगभग एक लाख कण तक हटा सकती हैं। माइक्रोप्लास्टिक युक्त विष्ठा समुद्री जल में गहराई में बैठ जाती है जहां ये समुद्री जीवन के लिए कम हानिकारक होती हैं। और तली में बैठे प्लास्टिक कणों को उठाना आसान हो जाता है।

लेकिन इकट्ठा करने के बाद इसके निस्तारण की समस्या उभरती है। शोधकर्ता यह संभावना तलाशना चाहती हैं कि क्या माइक्रोप्लास्टिक युक्त विष्ठा से उपयोगी बायोफिल्म बनाई जा सकती है?

लेकिन उल्लखेनीय प्रभाव देखने के लिए बहुत अधिक संख्या में नीली सीपियों की ज़रूरत होगी। सिर्फ न्यू जर्सी खाड़ी के पानी को ‘माइक्रोप्लास्टि रहित’ बनाने के लिए हर रोज़ करीबन 20 लाख से अधिक नीली सीपियों को लगातार 24 घंटे प्रति फिल्टर करने का काम करना पड़ेगा।

बहरहाल यह समाधान बड़े पैमाने पर कुछ माइक्रोप्लास्टिक्स कम करने में तो मदद करेगा लेकिन मूल समस्या को पूरी तरह हल नहीं करेगा। इतनी सीपियां छोड़ने के अपने पारिस्थितिक असर भी होंगे। इसके अलावा, ये सीपियां एक विशेष आकार के कणों का उपभोग करती हैं। इसलिए शोधकर्ताओं का भी ज़ोर है कि वास्तविक समाधान तो प्लास्टिक उपयोग को कम करना ही है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या वाकई भलाई का ज़माना नहीं रहा?

ह काफी सुनने में आता है कि अब लोग पहले जैसे भले नहीं रहे, ज़माना खराब हो गया है, भलाई का ज़माना नहीं रहा, लोग विश्वास के काबिल नहीं रहे वगैरह-वगैरह। तो क्या वाकई ये बातें सच हैं? अपने अध्ययन में कोलंबिया युनिवर्सिटी के मनोविज्ञानी एडम मेस्ट्रोइनी और उनके दल ने इसी सवाल के जवाब की तलाश की है।

उन्होंने दशकों के दौरान किए गए विभिन्न सर्वेक्षणों के नतीजों और विभिन्न अध्ययनों के डैटा का विश्लेषण किया और पाया कि पिछले सत्तर सालों में पूरी दुनिया के लोगों ने नैतिकता के पतन की बात कही है। लेकिन इन्हीं आंकड़ों में यह भी दिखता है कि नैतिकता के व्यक्तिगत मूल्यांकन के मुताबिक तब से अब तक उनके समकालीन लोगों की नैतिकता वैसी ही है। और नेचर पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि लोगों का यह मानना कि लोगों में नैतिकता में गिरावट आई है, महज एक भ्रम है।

इन नतीजों पर पहुंचने के लिए शोधकर्ताओं ने 1949-2019 के बीच अमेरिका में नैतिक मूल्यों पर किए गए सर्वेक्षण खंगाले। और पाया कि 84 प्रतिशत सवालों के जवाब में अधिकतर लोगों ने कहा कि नैतिकता का पतन हुआ है। 59 अन्य देशों में किए गए अन्य सर्वेक्षणों में भी कुछ ऐसे ही नतीजे देखने को मिले।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने अमेरिका के प्रतिभागियों के साथ 2020 में स्वयं कई अध्ययन किए। अध्ययन में विभिन्न राजनीतिक विचारों, नस्ल, लिंग, उम्र और शैक्षणिक योग्यता के लोग शामिल थे। इसमें भी लोगों ने कहा कि उनके बचपन के समय की तुलना में लोग अब कम दयालु, ईमानदार और भले रह गए हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने उन सवालों को भी देखा जिनमें लोगों से अपने और अपने साथियों की वर्तमान नैतिकता का हाल बताने को कहा गया था। शोधकर्ताओं ने विश्लेषण के लिए उन अध्ययनों को चुना जो कम से कम दस साल के अंतराल में दोहराए गए हों ताकि एक अवधि में प्रतिभागियों के जवाबों की तुलना की जा सके।

यदि वास्तव में समय के साथ लोगों की नैतिकता का पतन हुआ होता तो प्रतिभागी पहले की तुलना में बाद वाले सर्वेक्षण में अपने साथियों के बारे में अधिक नकारात्मक कहते। लेकिन उनके जवाब बताते थे कि अपने साथियों के बारे में प्रतिभागियों के विचार समय के साथ नहीं बदले। इस आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि नैतिक पतन के बारे में लोगों की धारणा मिथ्या है।

भला लोग ऐसा क्यों सोचते हैं कि ज़माना खराब हो रहा है? शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इसका ताल्लुक चुनिंदा स्मृति जैसे कारकों से है; अक्सर अच्छी यादों की तुलना में बुरी यादें जल्दी धुंधला जाती हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि नैतिक पतन की भ्रामक धारणा के व्यापक सामाजिक और राजनीतिक अंजाम हो सकते हैं। मसलन 2015 के एक सर्वेक्षण में अमेरिका के 76 प्रतिशत लोगों ने कहा कि सरकार की प्राथमिकता देश को नैतिक पतन की ओर जाने से बचाने की होनी चाहिए।

बड़ी चुनौती लोगों को यह स्वीकार कराने की है कि यह भ्रम है जो सर्वव्याप्त है। (स्रोत फीचर्स)

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अनंत तक गैर-दोहराव देने वाली टाइल खोजी गई

गैर-दोहराव वाली पच्चीकारी

टाइलिंग या पच्चीकारी उसे कहते हैं जब एक आकृति या आकृतियों के एक समूह को किसी समतल सतह पर इस तरीके से दोहराया या बिछाया जा सके कि कहीं खाली जगह न बचे और न ही आकृतियां एक के ऊपर चढ़ें, और इस बिसात को उस समतल सतह की चारों दिशाओं में अनंत तक आगे बढ़ाया जा सके। आम तौर पर इस तरह की पच्चीकारी में किसी पैटर्न का दोहराव होता है। जैसे कि आपको फुटपाथ पर बिछाई गई फर्शियों, इमारतों की नक्काशियों/जालियों, कपड़ों, मधुमक्खी के छत्ते वगैरह में दिखता है।

लेकिन वर्षों से वैज्ञानिक ऐसी आकृति की तलाश में थे जिससे अनंत तक टाइलिंग की जा सके और उसमें कोई दोहराव वाला पैटर्न न मिले। अब गणितज्ञों को एक ऐसी ही एक वास्तविक आकृति मिल गई है जो बिना दोहराव वाला पैटर्न (एपीरियोडिक टाइलिंग) दे सकती है।

1960 के दशक में पहली बार 20,426 तरह की टाइल इस्तेमाल करके एपीरियोडिक टाइलिंग की गई थी। तब से लगातार इस दिशा में काम होता रहा और एपीरियोडिक टाइलिंग देने वाली एकल आकृति खोजने की कोशिश जारी रही।

एपीरियोडिक आकृति

इसी प्रयास में नोबेल विजेता गणितज्ञ रॉजर पेनरोज़ ने दो ऐसी अलग-अलग आकृतियां तलाश ली थीं जो मिलकर एपीरियोडिक टाइलिंग कर सकती थीं।

हाल में, ब्रिडलिंगटन (यू.के) के एक शौकिया गणितज्ञ डेविड स्मिथ ने ऐसी ही आकृति की खोज की है। तीन पेशेवर गणितज्ञों के साथ मिलकर उन्होंने दिखाया कि यह आकृति और इसका दर्पण प्रतिबिम्ब अनंत तक एपीरियोडिक टाइलिंग दे सकती है (अभी प्रमाण की समकक्ष समीक्षा बाकी है।)

अब, गणितज्ञों के इसी समूह ने अपनी मूल टाइल में कुछ संशोधन करके एक ऐसी आकृति हासिल कर ली है जो अकेली ही अनंत तक एपीरियोडिक टाइलिंग कर सकती है। इसके प्रमाण आर्काईव प्रीप्रिंट सर्वर पर उपलब्ध हैं और फिलहाल समकक्ष समीक्षा के मुंतज़िर हैं। (स्रोत फीचर्स)

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ऊंचे पहाड़ों पर जीवन के लिए अनुकूलन – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मुद्र तल से 4570 मीटर की ऊंचाई पर बसा लद्दाख का कर्ज़ोक गांव हमारे देश की सबसे ऊंची बस्ती है। आबादी है तकरीबन 1300। हिमाचल प्रदेश के कोमिक और हानले गांव भी समुद्र तल से 4500 मीटर से अधिक की ऊंचाई बसे हैं।

अनुमान है कि पूरी दुनिया में लगभग 64 लाख लोग (विश्व जनसंख्या के लगभग 0.1 प्रतिशत) समुद्र तल से 4000 मीटर या अधिक की ऊंचाई पर रहते हैं। इनमें से अधिकतर लोग 10,000 से अधिक वर्षों से दक्षिणी अमेरिका के एंडीज़ और एशिया के तिब्बत के ऊंचे मैदानी इलाकों में रहते आए हैं। कम ऊंचाई पर रहने वाले लोग जब अधिक ऊंचाई पर पहुंचते हैं तो वहां की अधिक ठंड और कम वायुमंडलीय दाब, जिसके कारण यहां ऑक्सीजन कम होती है, से तालमेल बनाने में कठिनाई होती है। तो सवाल यह है कि वहां रहने वाले लोग इसके प्रति कैसे अनुकूलित हैं और उन्हें क्या मुश्किलें पेश आती हैं?

उसमें जाने से पहले आर्थिक हालात पर एक नज़र डालते हैं। हिमालय जैसी जगहों पर बहुत कम लोगों के बसने का एक मुख्य कारण है अवसरों की कमी। अव्वल तो खेती के लिए खड़ी पहाड़ी ढलानों को सपाट या सीढ़ीदार आकार देने की आवश्यकता होती है। फिर, सिंचाई के लिए पानी एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा, जैसे-जैसे आप ऊंचाई पर जाते हैं तो मिट्टी को पोषण प्रदान करने वाले जीव (जैसे कवक और कृमि) कम होते जाते हैं।

ऊंचे इलाकों में मवेशियों, जैसे हिमालय में याक और एंडीज़ में लामा, अलपाका और विकुना, की चराई साल के केवल गर्म महीनों में संभव है। जहां संसाधन मिलते हैं वहां खनन किया जाता है। दुनिया की सबसे ऊंची बस्ती पेरु स्थित ला रिकोनेडा (ऊंचाई समुद्र तल से 5100 मीटर) में सोने की खान पता चलने के बाद हज़ारों लोग वहां बसना चाहते हैं। आजकल एडवेंचरस पर्यटन भी जीविका प्रदान करता है – समुद्र तल से 4950 मीटर की ऊंचाई पर स्थित नेपाल का लोबुचे गांव माउंट एवरेस्ट फतह करने की कोशिश करने वाले पर्वतारोहियों को आश्रय देता है।

फेफड़ों की क्षमता

कम ऊंचाई पर रहने वाले लोग जब अधिक ऊंचाई पर जाते हैं तो उनकी आधारभूत चयापचय दर 25-30 प्रतिशत बढ़ जाती है। आधारभूत चयापचय दर कैलोरी की वह मात्रा है जो तब खर्च होती है जब आप कुछ ना करें, पूरे दिन बिस्तर पर पड़े रहें। उच्च आधारभूत चयापचय का मतलब है कि शरीर को अधिक ऑक्सीजन चाहिए होती है जबकि हवा कम है और ऑक्सीजन भी कम है। ऐसे कम ऑक्सीजन वाले माहौल में अनुकूलित होने में कुछ हफ्ते लगते हैं।

दिलचस्प बात यह है कि अधिक ऊंचाई के लिए अनुकूलित तिब्बतियों और एंडियन्स की आधारभूत चयापचय दर मैदानों में रहने वाले लोगों के बराबर ही होती है। फोर्स्ड वाइटल केपेसिटी (FVC) श्वसन सम्बंधी एक आंकड़ा होता है। यह हवा की वह अधिकतम मात्रा है जिसे आप गहरी सांस खींचने (फेफड़ों में भरने) के बाद ज़ोर लगाकर बाहर छोड़ सकते हैं। ऊंचाई पर रहने के लिए अनुकूलित पुरुषों में यह फोर्स्ड वाइटल कैपेसिटी 15 प्रतिशत अधिक और महिलाओं में 9 प्रतिशत अधिक होती है। और प्रति सेंकड श्वास के साथ छोड़ी गई हवा भी अधिक होती है।

दक्षिण अमेरिका के मूल निवासी केचुआ जाति (इन्का लोग इसी समूह के हैं) के लोगों का सीना गहरा होता है। अधिक ऊंचाई पर पैदा हुए और पले-बढ़े इन लोगों की फोर्स्ड वाइटल कैपेसिटी समुद्र के करीब रहने वाले इनके वंश के लोगों और रिश्तेदारों की तुलना में अधिक होती है।

लगता है कि जीवन की कठिन परिस्थितियां फिटनेस सुनिश्चित करती हैं। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जि़ले में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि 70-74 वर्ष की आयु में भी औसत रक्तचाप 120/80 बना रहता है।

अधिक ऊंचाई पर रहने से जुड़ी कठिनाइयों के साथ कुछ फायदे भी हो सकते हैं। मई 2023 में प्लॉस वन बायोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन में मूलत: कम जीवनकाल वाले चूहों की एक नस्ल के साथ काम करते हुए शोधकर्ताओं ने पाया कि एवरेस्ट बेस कैंप जैसी कम ऑक्सीजन वाली आबोहवा में ये चूहे 50 प्रतिशत ज़्यादा जीवित रहे! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान समाचार संकलन: मई-जून 2023

अमेरिका में नमभूमियों की सुरक्षा में ढील

मेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के एक हालिया फैसले ने क्लीन वॉटर एक्ट के अंतर्गत शामिल दलदली क्षेत्रों की परिभाषा को संकीर्ण कर दिया है। इस फैसले से नमभूमियों को प्राप्त संघीय सुरक्षा कम हो गई है। बहुमत द्वारा दिया गया यह फैसला कहता है कि क्लीन वॉटर एक्ट सिर्फ उन नमभूमियों पर लागू होगा जिनका आसपास के विनियमित जल के साथ निरंतर सतही जुड़ाव है जबकि फिलहाल एंजेंसियों का दृष्टिकोण रहा है कि नमभूमि की परिभाषा में वे क्षेत्र भी शामिल हैं जिनका किसी तरह का जुड़ाव आसपास के सतही पानी से है। इस निर्णय से मतभेद रखने वाले न्यायाधीशों का मानना है कि यह नया कानून जलमार्गों के आसपास की नमभूमियों की सुरक्षा को कम करेगा और साथ ही प्रदूषण तथा प्राकृतवासों के विनाश को रोकने के प्रयासों को भी कमज़ोर करेगा। वर्तमान मानकों के पक्ष में जो याचिका दायर की गई थी उसके समर्थकों ने कहा है कि इस फैसले से 180 करोड़ हैक्टर नमभूमि यानी पहले से संरक्षित क्षेत्र के लगभग आधे हिस्से से संघीय नियंत्रण समाप्त हो जाएगा। कई वैज्ञानिकों ने फैसले का विरोध करते हुए कहा है कि इस फैसले में नमभूमि जल विज्ञान की जटिलता को नज़रअंदाज़ किया गया है। (स्रोत फीचर्स)

दीर्घ-कोविड को परिभाषित करने के प्रयास

कोविड-19 से पीड़ित कई लोगों में लंबे समय तक विभिन्न तकलीफें जारी रही हैं। इसे दीर्घ-कोविड कहा गया है। इसने लाखों लोगों को कोविड-19 से उबरने के बाद भी लंबे समय तक बीमार या अक्षम रखा। अब वैज्ञानिकों का दावा है कि उन्होंने दीर्घ-कोविड के प्रमुख लक्षणों की पहचान कर ली है। दीर्घ-कोविड से पीड़ित लगभग 2000 और पूर्व में कोरोना-संक्रमित 7000 से अधिक लोगों की रिपोर्ट का विश्लेषण कर शोधकर्ताओं ने 12 प्रमुख लक्षणों की पहचान की है। इनमें ब्रेन फॉग (भ्रम, भूलना, एकाग्रता की कमी वगैरह), व्यायाम के बाद थकान, सीने में दर्द और चक्कर आने जैसे लक्षण शामिल हैं। अन्य अध्ययनों ने भी इसी तरह के लक्षण पहचाने हैं। दी जर्नल ऑफ दी अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाशित इस अध्ययन का उद्देश्य एक मानकीकृत परिभाषा और दस पॉइन्ट का एक पैमाना विकसित करना है जिसकी मदद से इस सिंड्रोम का सटीक निदान किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

निजी चंद्र-अभियान खराब सॉफ्टवेयर से विफल हुआ

त 25 अप्रैल को जापानी चंद्र-लैंडर की दुर्घटना के लिए सॉफ्टवेयर गड़बड़ी को दोषी बताया जा रहा है। सॉफ्टवेयर द्वारा यान की चंद्रमा की धरती से ऊंचाई का गलत अनुमान लगाया गया और यान ने अपना ईंधन खर्च कर दिया। तब वह चंद्रमा की सतह से लगभग 5 किलोमीटर ऊंचाई से नीचे टपक गया। यदि सफल रहता तो हकोतो-आर मिशन-1 चंद्रमा पर उतरने वाला पहला निजी व्यावसायिक यान होता। कंपनी अब 2024 व 2025 के अभियानों की तैयारी कर रही है, जिनमें इस समस्या के समाधान पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

यूएई द्वारा क्षुद्रग्रह पर उतरने योजना

संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की स्पेस एजेंसी मंगल और बृहस्पति के बीच स्थित सात क्षुद्रग्रहों के अध्ययन के लिए एक अंतरिक्ष यान का निर्माण करने की योजना बना रही है। 2028 में प्रक्षेपित किया जाने वाला यान यूएई का दूसरा खगोलीय मिशन होगा। इससे पहले होप अंतरिक्ष यान लॉन्च किया गया था जो वर्तमान में मंगल ग्रह की कक्षा में है। इस नए यान को दुबई के शासक शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम के नाम पर एमबीआर एक्सप्लोरर नाम दिया जाएगा।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यान 2034 में जस्टिशिया नामक लाल रंग के क्षुद्रग्रह पर एक छोटे से लैंडर को उतारेगा। इस क्षुद्रग्रह पर कार्बनिक पदार्थों के उपस्थित होने की संभावना है।

एमबीआर एक्सप्लोरर का निर्माण संयुक्त अरब अमीरात द्वारा युनिवर्सिटी ऑफ कोलोरेडो बोल्डर के वैज्ञानिकों के सहयोग से किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

डब्ल्यूएचओ द्वारा फोलिक एसिड फोर्टिफिकेशन का आग्रह

त 29 मई को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने एक प्रस्ताव पारित करके सदस्य देशों से खाद्य पदार्थों में फोलिक एसिड मिलाने का आग्रह किया है। यह प्रस्ताव स्पाइना बाईफिडा जैसी दिक्कतों की रोकथाम के लिए दिया गया है जो गर्भावस्था के शुरुआती हफ्तों में एक प्रमुख विटामिन की कमी से होती हैं। फोलिक एसिड फोर्टिफिकेशन के प्रमाणित लाभों को देखते हुए इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से अपनाया गया। वर्तमान में डब्ल्यूएचओ के 194 सदस्य देशों में से केवल 69 देशों में फोलिक एसिड फोर्टिफिकेशन अनिवार्य किया गया है जिसमें ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, यूएसए और कोलंबिया शामिल हैं। इस प्रस्ताव में खाद्य पदार्थों को आयोडीन, जस्ता, कैल्शियम, लौह और विटामिन ए और डी से साथ फोर्टिफाई करने का भी आह्वान किया गया है ताकि एनीमिया, अंधत्व और रिकेट्स जैसी तकलीफों की रोकथाम की जा सके। (स्रोत फीचर्स)

एक्स-रे द्वारा एकल परमाणुओं की जांच की गई

क्स-रे अवशोषण की मदद से पदार्थों का अध्ययन तो वैज्ञानिक करते आए हैं। लेकिन हाल ही में अवशोषण स्पेक्ट्रोस्कोपी को एकल परमाणुओं पर आज़माया गया है। नेचर में प्रकाशित इस रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने लोहे और टर्बियम परमाणुओं वाले कार्बनिक अणुओं के ऊपर धातु की नोक रखी। यह नोक कुछ परमाणुओं जितनी चौड़ी थी और कार्बनिक पदार्थ से मात्र चंद नैनोमीटर ऊपर थी। फिर इस सैम्पल को एक्स-रे से नहला दिया गया जिससे धातुओं के इलेक्ट्रॉन उत्तेजित हुए। जब नोक सीधे धातु के परमाणु पर मंडरा रही थी तब उत्तेजित इलेक्ट्रॉन परमाणु से नोक की ओर बढ़े जबकि नीचे लगे सोने के वर्क से परमाणु उनकी जगह लेने को प्रवाहित हुए। एक्स-रे की ऊर्जा के साथ इलेक्ट्रॉनों के प्रवाह में परिवर्तन को ट्रैक करके धातु के परमाणुओं के आयनीकरण की अवस्था को निर्धारित करने के अलावा यह पता लगाया गया कि ये परमाणु अणु के अन्य परमाणुओं से कैसे जुड़े थे। (स्रोत फीचर्स)

कोविड-19 अध्ययन संदेहों के घेरे में

कोविड-19 महामारी के दौरान विवादास्पद फ्रांसीसी सूक्ष्मजीव विज्ञानी डिडिएर राउल्ट ने कोविड  रोगियों पर मलेरिया की दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन और एंटीबायोटिक एज़िथ्रोमाइसिन के प्रभावों का अध्ययन किया था। 28 मई को ले मॉन्ड में प्रकाशित एक खुले पत्र में 16 फ्रांसीसी चिकित्सा समूहों और अनुसंधान संगठनों ने इस अध्ययन की आलोचना करते हुए कहा है कि यह अब तक का सबसे बड़ा ज्ञात अनाधिकृत क्लीनिकल परीक्षण था। उन्होंने कार्रवाई की गुहार लगाई है। खुले पत्र के अनुसार उक्त दवाओं के अप्रभावी साबित होने के लंबे समय बाद भी 30,000 रोगियों को ये दी जाती रहीं और क्लीनिकल परीक्षण सम्बंधी नियमों का पालन नहीं किया गया। फ्रांसीसी अधिकारियों के अनुसार इस क्लीनिकल परीक्षण को युनिवर्सिटी हॉस्पिटल इंस्टीट्यूट मेडिटेरेनी इंफेक्शन (जहां राउल्ट निदेशक रहे हैं) द्वारा की जा रही तहकीकात में शामिल किया जाएगा। राउल्ट का कहना है कि अध्ययन में न तो नियमों का उल्लंघन हुआ और न ही यह कोई क्लीनिकल परीक्षण था। यह तो रोगियों के पूर्व डैटा का विश्लेषण था। (स्रोत फीचर्स)

बढ़ता समुद्री खनन और जैव विविधता

पूर्वी प्रशांत महासागर में एक गहरा समुद्र क्षेत्र है जिसे क्लेरियन-क्लिपर्टन ज़ोन कहा जाता है। यह आकार में अर्जेंटीना से दुगना बड़ा है। वर्तमान में इस क्षेत्र में व्यापक स्तर पर वाणिज्यिक खनन जारी है जो इस क्षेत्र में रहने वाली प्रजातियों के लिए खतरा है।

इस क्षेत्र में पेंदे पर रहने वाली (बेन्थिक) 5000 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से मात्र 436 को पूरी तरह से वर्णित किया गया है। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में शोध यात्राओं के दौरान एकत्र किए गए लगभग 1,00,000 नमूनों का विश्लेषण करने के बाद वैज्ञानिकों ने ये आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। बेनाम प्रजातियों में बड़ी संख्या क्रस्टेशियन्स (झींगे, केंकड़े आदि) और समुद्री कृमियों की है।

यह क्षेत्र प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले बहु-धातुई पिंडों से भरा पड़ा है जिनमें निकल, कोबाल्ट और ऐसे तत्व मौजूद हैं जिनकी विद्युत वाहनों के लिए उच्च मांग है। इन्हीं के खनन के चलते पारिस्थितिक संकट पैदा हो रहा है। इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी ने इस क्षेत्र में 17 खनन अनुबंधों को मंज़ूरी दी है और उम्मीद की जा रही है कि अथॉरिटी जल्द ही गहरे समुद्र में खनन के लिए नियम जारी कर देगी। (स्रोत फीचर्स)

जीन-संपादित फसलें निगरानी के दायरे में

मेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी की हालिया घोषणा के अनुसार अब कंपनियों को बाज़ार में उतारने से पहले उन फसलों का भी डैटा जमा करना आवश्यक होगा जिन्हें कीटों से सुरक्षा हेतु जेनेटिक रूप से संपादित किया गया है। पूर्व में यह शर्त केवल ट्रांसजेनिक फसलों पर लागू होती थी। ट्रांसजेनिक फसल का मतलब उन फसलों से है जिनमें अन्य जीवों के जीन जोड़े जाते हैं। अलबत्ता, जेनेटिक रूप से संपादित उन फसलों को इस नियम से छूट रहेगी जिनमें किए गए जेनेटिक परिवर्तन पारंपरिक प्रजनन के माध्यम से भी किए जा सकते हों। लेकिन अमेरिकन सीड ट्रेड एसोसिएशन का मानना है कि इस छूट के बावजूद कागज़ी कार्रवाई तो बढ़ेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीन का दोबारा उपयोगी अंतरिक्ष यान पृथ्वी पर उतरा

हाल ही में चीन का एक अंतरिक्ष यान पृथ्वी की कक्षा में नौ महीने बिताने के बाद धरती पर लौट आया है। इसके साथ ही चीन उन चुनिंदा राष्ट्रों की श्रेणी में भी शामिल हो गया है जिसने अंतरिक्ष यान का पुन: उपयोग करने में सफलता हासिल की है। हालांकि चीन ने अंतरिक्ष यान के डिज़ाइन और संचालन के बारे में ज़्यादा जानकारी तो नहीं दी है लेकिन उपलब्ध जानकारी के आधार पर अनुमान है कि इसका उपयोग अनुसंधान और सैन्य कार्यों के लिए किया जा रहा था।

इस मिशन से यह स्पष्ट है कि चीन ने अंतरिक्ष यान को पुन: उपयोग करने के लिए हीट शील्ड और लैंडिंग उपकरण जैसी तकनीकें विकसित कर ली हैं। इससे पहले अमेरिकी कंपनी बोइंग, स्पेसएक्स और नासा ने अंतरिक्ष यानों को धरती पर उतार लिया था। गौरतलब है कि अंतरिक्ष यान का एक बार उपयोग करने की अपेक्षा बार-बार उपयोग करने से पूंजीगत लागत काफी कम हो जाती है। इससे पहले, सितंबर 2020 में चीन का इसी तरह का एक प्रायोगिक अंतरिक्ष यान कक्षा में दो दिन बिताने के बाद पृथ्वी पर लौट आया था।

कई वैज्ञानिकों का विचार है कि चीनी यान संभवत: अमेरिकी अंतरिक्ष यान बोइंग एक्स-37बी के समान है। वैसे एक्स-37बी को बनाने का उद्देश्य तो अज्ञात है लेकिन 2010 में इसका खुलासा होने के बाद से ही चीनी सरकार इस यान की सैन्य क्षमताओं को लेकर चिंतित थी। ऐसी संभावना है कि इस यान को एक्स-37बी के जवाब में तैयार किया गया है।

इस यान की उड़ान और लॉप नूर सैन्य अड्डे पर उतरने के पैटर्न को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक विमान है। जबकि स्पेसएक्स ड्रैगन कैप्सूल जैसे अन्य पुन: उपयोग किए जाने वाले अंतरिक्ष यान लॉन्च रॉकेट से जुड़े मॉड्यूल हैं जो ज़मीन पर उतरने के लिए पैराशूट का उपयोग करते हैं।

एक्स-37बी की तरह चीनी यान भी आकार में काफी छोटा है। लॉन्च वाहन की 8.4 टन की पेलोड क्षमता से स्पष्ट है कि इसका वज़न 5 से 8 टन के बीच रहा होगा। यह नासा के सेवानिवृत्त अंतरिक्ष शटल कोलंबिया और चैलेंजर से बहुत छोटा है जिनको चालक दल सहित कई मिशनों के लिए उपयोग किया गया था। वर्तमान चीनी यान चालक दल को ले जाने के लिए बहुत छोटा है लेकिन अमेरिकी वैज्ञानिकों के अनुसार भविष्य में इसे चालक दल ले जाने वाला बड़ा अंतरिक्ष यान भी बनाया जा सकता है।

निकट भविष्य में चीन अन्य तकनीकों का परीक्षण कर सकता है। कक्षीय पथ में परिवर्तन या सौर पैनल का खुलना ऐसी दो तकनीकें हैं जो भविष्य में काफी उपयोगी होंगी। इसके अलावा कक्षा में रहते हुए उपग्रहों को छोड़ने और उठाने का भी परीक्षण किया गया होगा। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष अक्टूबर में अंतरिक्ष यान द्वारा एक वस्तु को कक्षा में छोड़ने का पता चला था। यह वस्तु जनवरी में कक्षा से गायब हो गई थी और मार्च में फिर से प्रकट हुई थी। संभवत: अंतरिक्ष यान ने वस्तु को पकड़ा और दोबारा कक्षा में छोड़ दिया। यानी अंतरिक्ष यान का उपयोग उपकरणों और उपग्रहों को ले जाने के लिए भी किया गया होगा। (स्रोत फीचर्स)

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क्यों मच्छर कुछ लोगों को ज़्यादा काटते हैं?

ह तो जानी-मानी बात है कि मच्छर हमारे शरीर से निकलने वाली गंध सूंघकर हमें खोजते हैं। काश, यह पता चल जाए कि वह कौन-सी गंध है जो इन्हें कुछ मनुष्यों की ओर अधिक आकर्षित करती है। इस सवाल के जवाब का महत्व यह है कि मच्छर डेंगू, मलेरिया और पीत ज्वर जैसी बीमारियां फैलाते हैं जो प्रति वर्ष 7 लाख लोगों की जान लेती हैं।

हाल ही में जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी के जीव विज्ञानी कोनोर मैकमेनीमैन ने खेल के एक खुले मैदान में विशाल टेंट लगाकर इसका जवाब तलाशने के प्रयास किए।

मच्छरों को किसी व्यक्ति की उपस्थिति का पता उसके शरीर की गंध, श्वसन से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड और शरीर के तापमान से लगता है। मच्छर अपने एंटीना पर उपस्थित गंध तंत्रिकाओं के माध्यम से लगभग 60 मीटर की दूरी से गंध का पता लगाते हैं और शरीर की गर्मी की मदद से अपने लक्ष्य पर सटीकता से पहुंच जाते हैं।

मच्छरों की शिकारी रणनीतियों को जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने कुछ प्रतिभागियों को खेल मैदान की परिधि पर लगे 8 तंबुओं में सोने के लिए कहा। वैज्ञानिकों ने प्रत्येक तंबू से शरीर की गंध और कार्बन डाईऑक्साइड युक्त हवा को नलियों के माध्यम से मैदान के भीतर निर्धारित लैंडिंग प्लेटफॉर्मों तक पहुंचाया। इन जगहों को मनुष्यों के शरीर के सामान्य तापमान (35 डिग्री सेल्सियस) पर रखा गया था।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने इंफ्रारेड सेंसर की मदद से देखा कि भूखे मच्छर कहां जाते हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक विशाल क्षेत्र में विभिन्न गंध और ध्वनियां तथा मौसमी परिस्थितियां होने के बावजूद मच्छर कुछ मनुष्यों की गंध वाले प्लेटफॉर्म की ओर अधिक आकर्षित हुए।

विभिन्न मनुष्यों के शरीर से निकलने वाली विशिष्ट गंध का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों की त्वचा की रासायनिक बनावट का अध्ययन किया। जैसा कि पूर्व अध्ययनों में पाया गया था मच्छर ऐसे लोगों को अधिक पसंद करते हैं जिनकी त्वचा के स्राव में विभिन्न कार्बोक्सिलिक अम्लों का मिश्रण होता है। यह एक प्रकार का तैलीय स्राव होता है जो हमारी त्वचा में नमी बनाए रखता है और उसकी रक्षा करता है। इनमें से दो कार्बोक्सिलिक अम्ल लिम्बर्गर चीज़ में भी पाए जाते हैं जो मच्छरों को आकर्षित करने के लिए मशहूर है। दूसरी ओर, मच्छर सेज और नीलगिरी जैसे पेड़-पौधों में पाए जाने वाले रसायन युकेलिप्टॉल के नज़दीक कम जाते हैं।

टीम ने मच्छर-आकर्षक के रूप में कार्बन डाईऑक्साइड और शरीर की गंध की तुलना की और पाया कि मच्छर गंध को अधिक प्राथमिकता देते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि इस विषय में और अधिक काम करने की दरकार है। इसमें आर्द्रता जैसे पहलुओं को भी जोड़ना चाहिए ताकि सटीक निष्कर्ष मिल सकें।

आशा है कि मच्छरों की पसंद-नापसंद गंध का पता लगने से नई तरह की मच्छरदानी तथा मच्छर विकर्षक विकसित करने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

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कीटों को खत्म कर कर रहा कृत्रिम प्रकाश – सुदर्शन सोलंकी

जंतु जगत के संघ आर्थोपोडा के वर्ग इंसेक्टा में विचित्र प्रकार के कीट शामिल हैं और उनके क्रियाकलाप भी विचित्र होते हैं। इसलिए इन कीटों का अध्ययन, शोध और इनके रहस्यमय जीवन की जानकारियां पाना अत्यधिक रुचिकर व मज़ेदार होता है।

सामान्यतः जंतु और पौधे प्रकाश के प्रति प्रतिक्रिया देते हैं। पौधों में प्रकाशानुवर्तन और गुरुत्वानुवर्तन के गुण विद्यमान हैं। कीटों में भी प्रकाशानुवर्तन होता है। प्रकाशानुवर्तन में कीट प्रकाश स्रोत की ओर गमन करते है। यह प्रवृत्ति धनात्मक प्रकाशानुवर्तन कहलाती है। कीटों का प्रकाश के प्रति आकर्षण भिन्न-भिन्न होता है। कॉकरोच (Periplaneta americana) रोशनी से दूर अंधेरे की तरफ भागते हैं; इस प्रवृत्ति को ऋणात्मक प्रकाशानुवर्तन कहते हैं। कई कीट-पतंगे प्रकाश स्रोत से आकर्षित होकर इनके करीब आते हैं। उदाहरण के लिए, बारिश के मौसम में जलते हुए बल्ब के चारों तरफ हमें ढेरों कीट-पतंगों के झुण्ड देखने को मिलते हैं। कीट-पतंगे रोशनी के स्रोत के इर्द-गिर्द भिनभिनाते रहते हैं, और अंत में प्रकाश स्रोत से टकराकर उसकी गर्मी से मर जाते हैं।

वैज्ञानिकों ने इनकी इस प्रवृत्ति पर कई शोध किए हैं और तर्क, अवधारणाएं व सिद्धांत दिए हैं किंतु पूरी तरह से सटीक रूप से आज भी इसका जवाब विवादास्पद है।

बायोलोजिकल कंज़र्वेशन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 30 में से 10 कीट बल्ब को चांद समझकर रात भर बल्ब के चक्कर लगाते हैं व सुबह तक मर जाते हैं। एक प्रसिद्ध परिकल्पना के अनुसार जब पूर्व में कृत्रिम प्रकाश स्रोत नहीं थे, तब कीट पतंगे चांद का अनुगमन किया करते होंगे ताकि वे अपनी दिशा का निर्धारण कर सकें। चूंकि चांद से इनकी दूरी बहुत अधिक है इसलिए इनके द्वारा गति करने पर बनाया गया कोण हमेशा ही एक समान बना रहेगा। लेकिन अब कृत्रिम प्रकाश स्रोत के होने से उन्हें यह आभास होने लगा कि चांद धरती पर आ गया है। इस परिकल्पना के मुताबिक वे अपने और कृत्रिम प्रकाश स्रोत (जिसे वे चांद समझ रहे हैं) के बीच समान कोण बनाए रखना चाहते हैं, किंतु प्रकाश स्रोत करीब होने से ऐसा संभव नहीं हो पाता और वे उसी से टकराकर मर जाते हैं।

वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि केवल नर कीट ही प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं जबकि मादा नहीं। ज्ञात हुआ है कि नर कीट-पतंगों को अपनी ओर आ‍कर्षित करने के लिए मादा कीट-पतंगे विशेष प्रकार की गंध छोड़़ते हैं। यह गंध वैसी ही होती है जैसी गंध जलते हुए प्रकाश स्रोत से निकलती है। इस कारण से नर कीट को आभास होता है कि वहां कोई मादा है और वह उसकी खोज में प्रकाश के करीब पहुंच जाते हैं एवं प्रकाश स्रोत से टकराकर मर जाते हैं।

बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार 60 प्रतिशत कीटों को कृत्रिम प्रकाश में दिखना भी बंद हो जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि कीट-पतंगे रोशनी के संपर्क में आने के बाद जब उससे दूर होते हैं तब इन्हें करीब आधे घंटे तक कुछ भी दिखाई नहीं देता है। इस वजह से अंधेपन से बचने के लिए वे प्रकाश स्रोत के चारों ओर मंडराते रहते हैं। जब अचानक से ये स्रोत के बहुत करीब पहुंचकर उससे टकराते हैं तब उसकी गर्मी से इनकी मौत हो जाती है।

परीक्षणों द्वारा यह भी पता चला है कि कुछ मादा पतंगे अपने शरीर से अवरक्त प्रकाश (इंफ्रारेड) उत्पन्न करती हैं जिससे नर पतंगे आकर्षित होते हैं। ठीक उसी तरह का अवरक्त प्रकाश आग या जलती हुई चीजों से उत्पन्न होता है जिससे नर पतंगे आकर्षित होते हैं। यही कारण है की कीट-पतंगे प्रकाश स्रोत के आसपास मंडराते रहते हैं।

एक अनुमान के मुताबिक जर्मनी में गाड़ियों की हेडलाइट से सालाना करीब 120 करोड़ से ज़्यादा कीट मारे जाते हैं।

रात में कीट सफेद व पीले रंग के कपड़ों में चिपकने लगते हैं क्योंकि इन्हें पराबैंगनी प्रकाश और कम तरंग दैर्घ्य के रंग अत्यधिक आकर्षित करते हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ये प्रकाश के प्रति अत्यधिक संवेदी होते हैं।

स्पष्ट है कि अब तक कीटों के प्रकाश के प्रति आकर्षण के बारे में वैज्ञानिकों द्वारा कोई ठोस व एकमेव सिद्धांत नहीं दिया गया है। यानी कीटों का प्रकाश की ओर आकर्षण अब तक एक रहस्य है। किंतु हमें समझना होगा कि कीट-पतंगे मिट्टी को उपजाऊ बनाने में, परागण में व खाद्य उद्योग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मल एवं लाशों का सफाया करने में भी कीटों का बड़ा योगदान है। हम कई मामलों में इनकी 9 लाख प्रजातियों पर निर्भर हैं। इसलिए इन्हें बचाने के लिए हमें कृत्रिम प्रकाश का उपयोग कम करके अन्य विकल्प खोजने होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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