एक चींटी होती है जिसे छापामार चींटी (Ooceraea biroi) कहते हैं। इनमें स्पष्ट श्रम विभाजन पाया जाता है। कुछ सदस्य श्रमिक होते हैं और उनका काम होता है अन्य चींटी प्रजातियों की बस्तियों पर छापा मारना और वहां से उनकी शिशु चींटियों को चुराकर अपनी बस्ती में ले आना। ये नन्ही चींटियां भोजन के रूप में काम आती हैं। आम तौर पर श्रमिक चींटियों के पंख नहीं होते। पंख तो सिर्फ रानी चींटी के होते हैं जो अपनी बस्ती से बाहर कदम तक नहीं रखतीं।
लेकिन ऐसी एक बस्ती के अध्ययन में देखा गया कि कुछ श्रमिकों के पंख निकल आए थे और वे बस्ती के बाहर कदम रखने से कतराने लगी थी। कारण एक जेनेटिक उत्परिवर्तन था जिसके चलते वे सुस्त परजीवी बन गई थीं जो अंडे देने और अन्य चींटियों द्वारा लाए गए भोजन को चट करने के अलावा कुछ नहीं कर रही थी।
करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में खोजी गई ये चींटियां शायद इस बात का जीता-जागता प्रमाण हैं कि कैसे किसी सुपरजीन में उत्परिवर्तन एक साथ कई परिवर्तनों को रफ्तार दे सकता है। सुपरजीन ऐसे जीन्स के समूह को कहते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी में एक साथ पहुंचते हैं। जेनेटिक परिवर्तन की वजह से इस तरह के त्वरित विकास की संभावना लगभग एक दशक पूर्व जताई गई थी लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं था।
अब लगता है कि Ooceraea biroi में इसे देख लिया गया है। मिलीमीटर लंबी ये छापामार चींटियां बांग्लादेश की मूल निवासी हैं लेकिन अब ये चीन, भारत व अन्य कई द्वीपों पर पाई जाती हैं। अधिकांश चींटी बस्तियों में एक रानी होती है, जो अंडे देती है और श्रमिक चींटियां उसके लिए, खुद के लिए तथा बस्ती की नन्ही चींटियों के लिए भोजन की व्यवस्था करती हैं। लेकिन इन छापामार चींटियों में रानी नहीं होती। इनमें श्रमिक अंडे देते हैं जिनमें से और श्रमिक पैदा होते हैं। इनकी गंध संवेदना काफी बढ़िया होती है जिसके दम पर ये अन्य बस्तियों पर छापे मारते समय ज़बर्दस्त सहयोग से काम करती हैं।
फिर 2015 में रॉकफेलर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने देखा कि ओकिनावा (जापान) से संग्रहित कुछ छापामार चींटियों में युवावस्था के शुरुआती दिनों में रानी चींटी के समान पंख हैं। और तो और, उनके बच्चों के भी पंख विकसित हुए। यानी यह गुण अगली पीढ़ी को भी हस्तांतरित हो जाता है। यह भी देखा गया कि पंख का उभरना उत्परिवर्तन का एकमात्र प्रभाव नहीं था। तो इसकी खोजबीन एक ज़ोरदार जासूसी कथा बन गई। आगे सात सालों तक कीट वैज्ञानिक वारिंग ‘बक’ ट्राइबल ने इनका अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि पंखदार छापामार चींटियां अपने बाकी साथियों की तुलना में अधिक अंडे देती हैं और अन्य चींटी बस्तियों पर छापे मारने के लिए बाहर भी कम निकलती हैं। एक मायने में ये परजीवी चींटियां हैं।
वैसे परजीवी चींटियां कोई असामान्य बात नहीं है। चींटियों की ऐसी 400 प्रजातियां हैं जो किसी अन्य चींटी (अन्य प्रजाति की चींटी) की बांबी में मज़े से रहती हैं। और तो और, उस बांबी के श्रमिक उन्हें और उनकी संतानों को खिलाते-पिलाते हैं और उनकी सुरक्षा करते हैं। लेकिन ऐसी अधिकांश चींटियां लाखों वर्षों से मुफ्तखोर रही हैं और शायद यह क्षमता विकसित करने में उन्हें हज़ारों साल लगे होंगे। तो पता करना मुश्किल है कि यह सफलता किन चरणों से होकर मिली होगी।
दूसरी ओर छापामार चींटियों में तो यह करिश्मा एक पीढ़ी में हो गया। ट्राइबल मानते हैं कि यह त्वरित संक्रमण एक सुपरजीन में उत्परिवर्तन का परिणाम है। इस सुपरजीन में कई सारे जीन्स हैं जो निर्धारित करते हैं कि श्रमिक कैसे दिखेंगे और कैसे व्यवहार करेंगे। एक खास बात यह है कि छापामार चींटी में सारे श्रमिक जेनेटिक रूप से एक जैसे यानी क्लोन होते हैं। इसलिए यह पता करना मुश्किल है कि इस उत्परिवर्तन के बगैर स्थिति क्या होगी। खैर, ट्राइबल के दल ने पता लगाया है कि अधिकांश अन्य परजीवी और उनकी मेज़बान चींटियों के डीएनए में फर्क इसी सुपरजीन में होता है।
ट्राइबल का तो यहां तक कहना है कि अधिकांश परजीवी चींटियां इसी तरह प्रकट हुईं और फिर कालांतर में वे अलग प्रजातियां बन गईं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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