फल मक्खियां क्षारीय स्वाद पहचानती हैं

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हाल ही में शोधकर्ताओं ने फल मक्खियों (ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर) में एक नए प्रकार का स्वाद ग्राही खोज निकाला है जिससे वे क्षारीय पदार्थों का पता लगा सकती हैं। इस अद्भुत क्षमता से वे उच्च क्षारीयता वाले ज़हरीले भोजन और सतहों से स्वयं को बचा सकती हैं। इतने भलीभांति अध्ययन किए गए जंतु में एक नए स्वाद ग्राही का पता चलना आश्चर्यजनक है। नेचर मेटाबोलिज़्म में प्रकाशित रिपोर्ट अन्य जीवों में भी क्षारीय स्वाद ग्राही का पता लगाने की संभावना खोलती है।

अधिकांश जीव अम्ल और क्षार के एक संकीर्ण परास में कार्य करते हैं जो उनके अस्तित्व के लिए ज़रूरी है। पिछले कुछ दशकों में खट्टे और अम्लीय स्वाद का पता लगाने वाले ग्राहियों, कोशिकाओं और तंत्रिका मार्गों का विस्तृत अध्ययन किया गया है लेकिन क्षारीय पदार्थों को लेकर समझ उतनी पुख्ता नहीं है।   

इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मक्खियों में उच्च क्षारीयता के लिए विशिष्ट ग्राहियों का पता लगाने का प्रयास किया। अम्लीयता-क्षारीयता को पीएच नामक एक पैमाने पर नापा जाता है – पीएच कम होने से अम्लीयता बढ़ती है और पीएच बढ़ने पर क्षारीयता।

मक्खियों की पसंद को जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने उन्हें पेट्री डिश में मीठा जेल पेश किया। इसमें आधे जेल को उदासीन (पीएच 7) रखा गया जबकि बाकी आधे को क्षारीय (पीएच >7) बनाया गया था। प्रत्येक आधे जेल को लाल या नीले रंग से रंगा गया। पसंदीदा जेल का सेवन करने के बाद मक्खियों का पारभासी पेट लाल, नीला या बैंगनी रंग (यदि दोनों हिस्से खाएं) का हो जाएगा।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मक्खियों ने अधिक क्षारीय भोजन से परहेज़ किया। अलबत्ता मक्खियों का एक समूह ऐसा भी था जो दो प्रकार के भोजन के बीच अंतर करने में उतना अच्छा नहीं था। इन मक्खियों का अध्ययन करने से पता चला कि उनके जीन में एक उत्परिवर्तन हुआ था। यह जीन मक्खियों की सूंड के सिरे पर उपस्थित स्वाद तंत्रिकाओं के साथ-साथ उनके पैरों और एंटीना की कोशिकाओं में सक्रिय पाया गया।  

कोशिकाओं का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हुआ कि यह जीन एक ऐसा ग्राही प्रोटीन बनाता है जो क्षारीय घोल से संपर्क में आने पर सक्रिय होकर एक चैनल खोल देता है। इससे मक्खी के मस्तिष्क को तुरंत उस भोजन से बचने का संकेत मिलता है।  

शोधकर्ताओं के अनुसार अधिकांश संवेदना ग्राहियों में चैनल धनायन प्रवाहित करते हैं लेकिन इस मामले में ऋणायनों का प्रवाह देखा गया।

ऑप्टोजेनेटिक्स नामक तकनीक से इस जीन से सम्बंधित कोशिकाओं को सक्रिय करने पर मक्खियों ने सूंड को पीछे खींच लिया यानी वह भोजन बहुत क्षारीय है। 

शोधकर्ताओं के अनुसार इन परिणामों को कशेरुकी जीवों पर लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि उनमें यह जीन उपस्थित नहीं होता है। इस अध्ययन से यह भी समझा जा सकता है कि मक्खियां अंडे देने का स्थान कैसे चुनती हैं या कीट नियंत्रण के उपायों पर किस तरह से प्रतिक्रिया देंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रेल पटरियों के बीच बनेगी बिजली – मनीष श्रीवास्तव

ज पूरी दुनिया ऊर्जा संकट के दौर से गुजर रही है। परंपरागत ऊर्जा स्रोत और गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को लेकर समय-समय पर विश्व स्तर पर ज़रूरी नियम बनाए जाते रहते हैं और उनका पालन कराने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास भी होता रहता है। इसी संदर्भ में एक महत्वपूर्ण खबर आई है कि अब रेलवे पटरियों के बीच सोलर पैनल लगाकर सौर ऊर्जा उत्पन्न करने की तैयारी की जा रही है ताकि बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा उत्पन्न की जा सके और इस परियोजना को पूरे विश्व में लागू किया जा सके। इस नवोन्मेषी परियोजना का संचालन स्विट्ज़रलैण्ड की कंपनी सन-वेज़ द्वारा किया जा रहा है। कंपनी ने एक ऐसा डिवाइस तैयार किया है जिसके माध्यम से पटरियों के बीच निश्चित आकार के सोलर पैनल लगाने का काम किया जाएगा। पटरियों के बीच की चौड़ाई के हिसाब से एक मीटर चौड़े पैनल को पिस्टन तंत्र का उपयोग कर लगाया जाएगा।

कंपनी का दावा है कि पैनल को पटरियों के बीच लगाने से रेल गाड़ियों के संचालन में भी किसी प्रकार की परेशानी नहीं होगी। इनमें विशेष प्रकार के एंटी-रिफ्लेक्शन फिल्टर का प्रयोग होगा ताकि ट्रेन चलाने वाले ड्राइवरों को पैनल के रिफ्लेक्शन की वजह से किसी प्रकार की परेशानी न हो।

वर्तमान में स्विटज़रलैण्ड के बट्स रेलवे स्टेशन की पटरियों के बीच सोलर पैनल लगाए जा रहे हैं। इसकी सफलता के बाद, स्विट्ज़रलैण्ड के कुल 5317 किलोमीटर लंबे रेलवे नेटवर्क में इसे बिछाने की योजना है। कंपनी का अनुमान है कि इन सोलर पैनलों के द्वारा वार्षिक तौर पर 1 टेरावॉट प्रति घंटा सौर ऊर्जा उत्पन्न की जा सकेगी और स्विट्ज़रलैण्ड की वार्षिक ऊर्जा खपत का 2 प्रतिशत उत्पन्न किया जा सकेगा।

आवश्यकता होने पर सोलर पैनल को वापस बिना किसी असुविधा के निकाला जा सकेगा।

सन-वेज़ कंपनी ने आगामी सालों में जर्मनी, ऑस्ट्रिया, इटली, अमेरिका और एशियाई देशों में परियोजना को संचालित करने का लक्ष्य रखा है। भारत सहित जिन देशों में बड़े स्तर पर रेलवे नेटवर्क हैं, उनके लिए यह परियोजना बहुत फायदेमंद साबित हो सकती है, क्योंकि अब तक रेलवे ट्रैक के बीच खाली पड़ी जगह का कोई उपयोग नहीं हो रहा था। इस परियोजना की सफलता के बाद सौर ऊर्जा के क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर सकारात्मक परिवर्तन आने की उम्मीद है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घुड़सवारी के प्रथम प्रमाण

नुष्य ने सबसे पहले घुड़सवारी कब की थी? इस सवाल के जवाब कई तरह से खोजने की कोशिश हुई है क्योंकि घोड़े पर सवारी करना मानव इतिहास का एक अहम पड़ाव माना जाता है।

ऐसा माना जाता है कि आजकल के रूस और यूक्रेन के घास के मैदानों (स्टेपीज़) से निकलकर लोग तेज़ी से युरेशिया में फैल गए थे। यह कोई 5300 वर्ष पहले की बात है। जल्दी ही इन यामानाया लोगों के जेनेटिक चिंह मध्य युरोप से लेकर कैस्पियन सागर के लोगों तक में दिखने लगे थे। आजकल के पुरावेत्ता इन लोगों को ‘पूर्वी चरवाहे’ कहते हैं।

लेकिन इनमें घुड़सवारी के कोई लक्षण नज़र नहीं आते थे। इसके अलावा, यामानाया स्थलों पर मवेशियों की हड्डियां भी मिली हैं और मज़बूत गाड़ियों के अवशेष भी। लेकिन घोड़ों की हड्डियां बहुत कम मिली हैं। इस सबके आधार पर पुरावेत्ताओं ने मान लिया था कि लोगों ने घोड़ों पर सवारी 1000 साल से पहले शुरू नहीं की होगी।

अब अमेरिकन एसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ साइन्सेज़ (AAAS) के सम्मेलन में प्रस्तुत एक अध्ययन में दावा किया गया है कि घुड़सवारी के प्रमाण प्राचीन घोड़ों की हड्डियों में नहीं, बल्कि यामानाया सवारों की हड्डियों में मिले हैं। हेलसिंकी विश्वविद्यालय के वोल्कर हेड का कहना है कि सब लोग घोड़ों को देख रहे थे और हमने मनुष्यों को देखा।

आनुवंशिक व अन्य प्रमाण बताते हैं कि घोड़ों को 3500 ईसा पूर्व में पालतू बना लिया गया था। लेकिन ऐतिहासिक स्रोतों या चित्रों में घुड़सवारी के प्रमाण इसके लगभग 2000 वर्षों बाद मिलने लगते हैं। तो कई पुरावेत्ता मानने लगे थे कि पूर्वी चरवाहे घोड़ों पर सवारी करने की बजाय अपने पशुधन के साथ पैदल ही चलते रहे होंगे।

अब यामानाया फैलाव को समझने के उद्देश्य से हेलसिंकी के मानव वैज्ञानिक मार्टिन ट्रॉटमैन और उनके साथियों ने रोमानिया, हंगरी और बुल्गारिया की कब्रों से खोदे गए डेढ़ सौ से ज़्यादा मानव कंकालों का विश्लेषण किया है। यह क्षेत्र यामानाया लोगों के फैलाव की पूर्वी सीमा पर है। विश्लेषण से पता चला कि ये लोग सुपोषित, तंदुरुस्त और अच्छे कद वाले थे। उनकी हड्डियों के रासायनिक विश्लेषण से यह भी लगता है कि इनका भोजन प्रोटीन प्रचुर था। लेकिन एक दिक्कत थी – इनके कंकालों में विशिष्ट किस्म की क्षतियां और विकृतियां नज़र आईं।

कई कंकालों में रीढ़ की हड्डियां दबी हुई थीं। ऐसा तब हो सकता है जब बैठी स्थिति में व्यक्ति को दचके लग रहे हों। कंकालों की जांघ की हड्डियों में कुछ मोटे स्थान भी नज़र आए जो टांगें मोड़कर लंबे समय तक बैठक का परिणाम हो सकते हैं। और तो और, टूटी हुई कंधे की हड्डियां, पैरों की हड्डियों में फ्रेक्चर और कशेरुकों में दरारें ऐसी चोटों से मेल खाती थीं जो या तो घोड़े द्वारा मारी गई लातों से हो सकती थीं या वैसी हो सकती थीं जो आजकल घुड़सवारों को घोड़ों पर से गिरने के कारण होती हैं।

इन लक्षणों की तुलना उन्होंने बाद के समय के ऐसे कंकालों से की जिन्हें घुड़सवारी के उपकरणों और घोड़ों के साथ दफनाया गया था जो इस बात का परिस्थितिजन्य प्रमाण है कि ये पक्के तौर पर घुड़सवार रहे होंगे। और इन लक्षणों में समानता देखी गई। लेकिन अन्य पुरावेत्ता अभी अपने विचारों को लगाम दे रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि जब तक घोड़ों की हड्डियां न मिल जाएं, जिन पर सवारी के चिंह हों, तब तक निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।

एक समस्या यह भी है कि पुरावेत्ताओं को यामानाया स्थलों से गाड़ियां, बैल और जुएं तो मिले हैं लेकिन लगाम और ज़ीन जैसे घुड़सवारी के साधन नहीं मिले हैं। तो मामला अभी खुला है कि मनुष्यों ने घुड़सवारी कब शुरू की थी। (स्रोत फीचर्स)  

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एक सुपरजीन में परिवर्तन के व्यापक असर होते हैं

क चींटी होती है जिसे छापामार चींटी (Ooceraea biroi) कहते हैं। इनमें स्पष्ट श्रम विभाजन पाया जाता है। कुछ सदस्य श्रमिक होते हैं और उनका काम होता है अन्य चींटी प्रजातियों की बस्तियों पर छापा मारना और वहां से उनकी शिशु चींटियों को चुराकर अपनी बस्ती में ले आना। ये नन्ही चींटियां भोजन के रूप में काम आती हैं। आम तौर पर श्रमिक चींटियों के पंख नहीं होते। पंख तो सिर्फ रानी चींटी के होते हैं जो अपनी बस्ती से बाहर कदम तक नहीं रखतीं।

लेकिन ऐसी एक बस्ती के अध्ययन में देखा गया कि कुछ श्रमिकों के पंख निकल आए थे और वे बस्ती के बाहर कदम रखने से कतराने लगी थी। कारण एक जेनेटिक उत्परिवर्तन था जिसके चलते वे सुस्त परजीवी बन गई थीं जो अंडे देने और अन्य चींटियों द्वारा लाए गए भोजन को चट करने के अलावा कुछ नहीं कर रही थी।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक हाल ही में खोजी गई ये चींटियां शायद इस बात का जीता-जागता प्रमाण हैं कि कैसे किसी सुपरजीन में उत्परिवर्तन एक साथ कई परिवर्तनों को रफ्तार दे सकता है। सुपरजीन ऐसे जीन्स के समूह को कहते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी में एक साथ पहुंचते हैं। जेनेटिक परिवर्तन की वजह से इस तरह के त्वरित विकास की संभावना लगभग एक दशक पूर्व जताई गई थी लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं था।  

अब लगता है कि Ooceraea biroi में इसे देख लिया गया है। मिलीमीटर लंबी ये छापामार चींटियां बांग्लादेश की मूल निवासी हैं लेकिन अब ये चीन, भारत व अन्य कई द्वीपों पर पाई जाती हैं। अधिकांश चींटी बस्तियों में एक रानी होती है, जो अंडे देती है और श्रमिक चींटियां उसके लिए, खुद के लिए तथा बस्ती की नन्ही चींटियों के लिए भोजन की व्यवस्था करती हैं। लेकिन इन छापामार चींटियों में रानी नहीं होती। इनमें श्रमिक अंडे देते हैं जिनमें से और श्रमिक पैदा होते हैं। इनकी गंध संवेदना काफी बढ़िया होती है जिसके दम पर ये अन्य बस्तियों पर छापे मारते समय ज़बर्दस्त सहयोग से काम करती हैं।

फिर 2015 में रॉकफेलर विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने देखा कि ओकिनावा (जापान) से संग्रहित कुछ छापामार चींटियों में युवावस्था के शुरुआती दिनों में रानी चींटी के समान पंख हैं। और तो और, उनके बच्चों के भी पंख विकसित हुए। यानी यह गुण अगली पीढ़ी को भी हस्तांतरित हो जाता है। यह भी देखा गया कि पंख का उभरना उत्परिवर्तन का एकमात्र प्रभाव नहीं था। तो इसकी खोजबीन एक ज़ोरदार जासूसी कथा बन गई। आगे सात सालों तक कीट वैज्ञानिक वारिंग ‘बक’ ट्राइबल ने इनका अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि पंखदार छापामार चींटियां अपने बाकी साथियों की तुलना में अधिक अंडे देती हैं और अन्य चींटी बस्तियों पर छापे मारने के लिए बाहर भी कम निकलती हैं। एक मायने में ये परजीवी चींटियां हैं।

वैसे परजीवी चींटियां कोई असामान्य बात नहीं है। चींटियों की ऐसी 400 प्रजातियां हैं जो किसी अन्य चींटी (अन्य प्रजाति की चींटी) की बांबी में मज़े से रहती हैं। और तो और, उस बांबी के श्रमिक उन्हें और उनकी संतानों को खिलाते-पिलाते हैं और उनकी सुरक्षा करते हैं। लेकिन ऐसी अधिकांश चींटियां लाखों वर्षों से मुफ्तखोर रही हैं और शायद यह क्षमता विकसित करने में उन्हें हज़ारों साल लगे होंगे। तो पता करना मुश्किल है कि यह सफलता किन चरणों से होकर मिली होगी।

दूसरी ओर छापामार चींटियों में तो यह करिश्मा एक पीढ़ी में हो गया। ट्राइबल मानते हैं कि यह त्वरित संक्रमण एक सुपरजीन में उत्परिवर्तन का परिणाम है। इस सुपरजीन में कई सारे जीन्स हैं जो निर्धारित करते हैं कि श्रमिक कैसे दिखेंगे और कैसे व्यवहार करेंगे। एक खास बात यह है कि छापामार चींटी में सारे श्रमिक जेनेटिक रूप से एक जैसे यानी क्लोन होते हैं। इसलिए यह पता करना मुश्किल है कि इस उत्परिवर्तन के बगैर स्थिति क्या होगी। खैर, ट्राइबल के दल ने पता लगाया है कि अधिकांश अन्य परजीवी और उनकी मेज़बान चींटियों के डीएनए में फर्क इसी सुपरजीन में होता है।

ट्राइबल का तो यहां तक कहना है कि अधिकांश परजीवी चींटियां इसी तरह प्रकट हुईं और फिर कालांतर में वे अलग प्रजातियां बन गईं। (स्रोत फीचर्स)

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कृत्रिम बुद्धि बता देगी कि आपने क्या देखा था

कृत्रिम बुद्धि (एआई) का एक नया करिश्मा सामने आया है और यह बहुत हैरतअंगेज़ है। इस बार एआई ने व्यक्ति के ब्रेन स्कैन का विश्लेषण करके इस बात का खुलासा कर दिया कि उस व्यक्ति ने क्या देखा था। एकदम साफ चित्र तो नहीं बना लेकिन मोटा-मोटा खाका तो सामने आ ही गया।

एक ओर तो तंत्रिका वैज्ञानिक यह समझने की जद्दोजहद में हैं कि हमारी आंखों से जो इनपुट प्राप्त होता है, उसे दिमाग मानसिक छवियों का रूप कैसे देता है, वहीं एआई ने दिमाग की इस काबिलियत की नकल कर ली है। हाल ही में एक कंप्यूटर दृष्टि सम्मेलन में यह बताया गया कि ब्रेन स्कैन को देखकर एआई उस छवि का काफी यथार्थ चित्रण कर देती है जो उस व्यक्ति ने हाल में देखी थी।

दिमाग में बनी तस्वीर को पढ़ने का यह करिश्मा एआई की एक एल्गोरिद्म की मदद से किया गया – स्टेबल डिफ्यूज़न। इस एल्गोरिद्म का विकास जर्मनी के एक दल ने 2022 में जारी किया था। स्टेबल डिफ्यूज़न दरअसल पूर्व में विकसित DALL-E 2 और Midjourney जैसे कुछ एल्गोरिद्म के समान है लेकिन वे एल्गोरिद्म किसी पाठ्य वस्तु द्वारा दिए गए उद्दीपन के आधार पर तस्वीर बनाते हैं। इन्हें पाठ्य वस्तुओं से जुड़ी करोड़ों तस्वीरों की मदद से ऐसा करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।

ताज़ा अध्ययन के लिए जापान के एक दल ने स्टेबल डिफ्यूज़न के मानक प्रशिक्षण में कुछ आयाम और जोड़े। इनमें खास तौर से ब्रेन स्कैन के दौरान व्यक्ति को दिखाए चित्र के ब्रेन स्कैन में दिख रहे पैटर्न को लेकर विवरण शामिल किए गए थे। यानी व्यक्ति को कोई चित्र दिखाया, ब्रेन स्कैन में उसका पैटर्न देखा और उस पैटर्न को चित्र से जोड़कर विवरण बनाया और यह सारी जानकारी कंप्यूटर में डाल दी।

इसके बाद एल्गोरिद्म इस जानकारी का उपयोग चित्रों के प्रोसेसिंग में शामिल दिमाग के विभिन्न हिस्सों (जैसे ऑक्सीपीटल व टेम्पोरल लोब्स) से प्राप्त जानकारी को जोड़कर तस्वीर का निर्माण करता है। ओसाका विश्वविद्यालय के यू तगाकी का कहना है कि यह एल्गोरिद्म फंक्शनल एमआरआई (fMRI) से प्राप्त ब्रेन स्कैन की जानकारी की व्याख्या करता है। यह रिकॉर्ड करता है कि किसी भी क्षण दिमाग के विभिन्न हिस्सों में रक्त के प्रवाह में किस तरह के परिवर्तन हो रहे हैं, जिसके आधार पर यह पता चलता है कि कौन से हिस्से सक्रिय हैं।

जब व्यक्ति फोटो देखता है तो टेम्पोरल लोब मूलत: तस्वीर की विषयवस्तु (व्यक्ति, वस्तु अथवा सीनरी) पर ध्यान देता है जबकि ऑक्सीपीटल लोब उसके विन्यास और परिप्रेक्ष्य (जैसे वस्तुओं की साइज़ और स्थिति) रिकॉर्ड करता है। यह सारी जानकारी fMRI में दिमाग के हिस्सों की सक्रियता के रूप में रिकॉर्ड हो जाती है। इसी जानकारी का उपयोग एआई द्वारा करके तस्वीर को पुन: निर्मित किया जाता है।

इस अध्ययन में जानकारी का एक स्रोत यह था कि मिनेसोटा विश्वविद्यालय में 4 व्यक्तियों के ब्रेन स्कैन की सूचना थी जो प्रत्येक व्यक्ति द्वारा 10,000 फोटो देखते हुए लिए गए थे। इनमें से प्रत्येक के कुछ ब्रेन स्कैन्स का उपयोग एल्गोरिद्म के प्रशिक्षण में नहीं किया गया था, लेकिन उनका उपयोग एल्गोरिद्म की जांच में किया गया।

एआई द्वारा जनित प्रत्येक तस्वीर शोरगुल के रूप में शुरू होती है जैसा टीवी पर भी देखा जाता है। फिर धीरे-धीरे जब स्टेबल डिफ्यूज़न व्यक्ति की दिमागी सक्रियता की जानकारी की तुलना उसे प्रशिक्षण के दौरान दिखाई गई तस्वीरों से करता है, तो कुछ पैटर्न उभरने लगते हैं। अंतत: एक तस्वीर उभर आती है। इसमें विषयवस्तु, चीज़ों की जमावट, और परिप्रेक्ष्य काफी अच्छे से नज़र आते हैं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मूलत: ऑक्सीपीटल लोब में सक्रियता से विन्यास और परिप्रेक्ष्य सम्बंधी जानकारी तो पर्याप्त थी लेकिन वस्तुओं को पहचानने के लिए पर्याप्त जानकारी नहीं थी। लिहाज़ा जहां घंटाघर था, वहां एल्गोरिद्म ने एक अमूर्त सा चित्र बना दिया। बहरहाल, शोधकर्ताओं का मत है कि प्रशिक्षण के लिए ज़्यादा डैटा का उपयोग करने से ये बारीकियां भी पकड़ी जा सकेंगी। फिलहाल शोधकर्ताओं ने इस समस्या से निपटने के लिए प्रशिक्षण के लिए प्रयुक्त छवियों के साथ नाम भी चस्पा कर दिए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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किसी अन्य तारे से आया पहला मेहमान

पको याद होगा 2017 में आकाश में एक रहस्यमय वस्तु गुज़री थी। इसके आकार वगैरह को देखकर बताना मुश्किल था कि यह एक क्षुद्रग्रह है या धूमकेतु है (कुछ ने तो इसे एलियन्स द्वारा भेजा गया यान भी कहा था)। इस अत्यंत तेज़ रफ्तार पिंड को ओमुआमुआ नाम दिया गया था।

हाल ही में बर्कले स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के रसायनज्ञ जेनिफर बर्गनर और उनकी टीम ने विश्लेषण के आधार पर इसे धूमकेतु घोषित किया है। गौरतलब है कि ओमुआमुआ को सबसे पहले सूर्य के नज़दीक से 87 किलोमीटर प्रति सेकंड की अधिकतम गति से गुज़रते देखा गया था जो सौर मंडल में बनने वाली किसी वस्तु के लिए बहुत अधिक है। अवलोकनों के अनुसार यह 100 से 400 मीटर लंबा और सिगार के आकार का था। सौर मंडल से निकलने के बाद इसकी रफ्तार थोड़ी बढ़ गई थी। हालांकि अन्य धूमकेतुओं के समान ओमुआमुआ के पीछे कोई पूंछ नहीं दिखाई दी थी और न ही उसके आसपास धूल या गैस का कोई गोला था।

शोधकर्ताओं के अनुसार ओमुआमुआ के जीवन की शुरुआत किसी तारे से निकले जल-समृद्ध धूमकेतु के रूप में हुई। इसके बाद ब्रह्मांड में सुपरनोवा और अन्य ऊर्जावान घटनाओं द्वारा उत्सर्जित उच्च ऊर्जा किरणों ने इसकी लगभग 30 प्रतिशत बर्फ को हाइड्रोजन में परिवर्तित किया और यात्रा के दौरान यह ओमुआमुआ की बर्फ में फंसी रही। सूर्य के निकट पहुंचने पर बर्फ के पिघलने से फंसी हुई हाइड्रोजन निकलने से इसकी गति में वृद्धि हुई। चूंकि आणविक हाइड्रोजन सामान्य धूमकेतुओं से उत्सर्जित कार्बन मोनोऑक्साइड या कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में कम भारी होती है इसलिए वह अपने साथ अंतरिक्ष में उपस्थित धूल के कणों को इतना अधिक नहीं खींच पाई। इसी वजह से पूंछ नहीं बन पाई होगी।       

पूर्व में शोधकर्ताओं का मानना था कि ओमुआमुआ धूल और गैस के ठंडे अंतरतारकीय बादल से बनने वाला एक क्षुद्रग्रह या जमी हुई हाइड्रोजन का टुकड़ा हो सकता है। बहरहाल हालिया विश्लेषण के बाद सभी सहमत हैं कि यह एक धूमकेतु ही था।

अब ओमुआमुआ नेप्च्यून की कक्षा से आगे निकल चुका है और सौर मंडल से बाहर भी निकल जाएगा। हम इसे फिर कभी नहीं देखेंगे। लेकिन संभावना है कि इस तरह के और पिंड भविष्य में हमारे सौर मंडल में प्रवेश करेंगे। इसलिए कॉमेट इंटरसेप्टर नामक एक युरोपीय मिशन तैयार किया जा रहा है जो इस तरह के पिंडों का अध्ययन करने के लिए चंद्रमा से आगे की एक कक्षा में स्थापित किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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भारत की सूखती नदियां – प्रमोद भार्गव

मेरिका के न्यूयॉर्क में पांच दशकों के बाद शुद्ध और मीठे (ताज़े) पानी के लिए जल सम्मेलन संपन्न हुआ है। इस सम्मेलन में हिमालय से निकलने वाली गंगा समेत दस प्रमुख नदियों के भविष्य में सूख जाने की गंभीर चिंता जताई गई है। सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने आगाह किया कि ‘आने वाले दशकों में जलवायु संकट के कारण हिमनदों (ग्लेशियर) का आकार घटने से भारत की सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां जल-प्रवाह घट जाने से सूख सकती हैं।

हिमनद पृथ्वी पर जीवन के लिए आवश्यक हैं। दुनिया के 10 प्रतिशत हिस्से में हिमनद हैं, जो दुनिया के लिए शुद्ध जल का बड़ा स्रोत हैं। यह चिंता इसलिए है, क्योंकि मानवीय गतिविधियां पृथ्वी के तापमान को खतरनाक स्तर तक ले जा रही हैं, जो हिमनदों के निरंतर पिघलने का कारण बन रहा है। गुतारेस ने यह वक्तव्य इंटरनेशनल ईयर ऑफ ग्लेशियर प्रिज़र्वेशन विषय पर आयोजित कार्यक्रम में दिया। इस आयोजन में जारी रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक आने वाले जल संकट से प्रभावित होने वाले देशों में भारत प्रमुख होगा।   

गंगा, ब्रह्मपुत्र समेत एशिया की दस नदियों का उद्गम हिमालय से ही होता है। अन्य नदियां झेलम, चिनाब, व्यास, रावी, सरस्वती और यमुना हैं। ये नदियां सामूहिक रूप से 1.3 अरब लोगों को ताज़ा (मीठा) पानी उपलब्ध कराती हैं।

पानी की समस्या से प्रभावित लोगों में से अस्सी प्रतिशत एशिया में हैं। यह समस्या भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन में सबसे ज़्यादा है। सीएसई की पर्यावरण स्थिति रिपोर्ट 2023 के अनुसार देश में 2031 में पानी की प्रति व्यक्ति वार्षिक औसत उपलब्धता 1367 घन मीटर रह जाएगी जो 1950 में 3000-4000 घन मीटर थी। विडंबना है कि जहां पानी की उपलब्धता घट रही है, वहीं पानी की खपत बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार 2017 में पानी की ज़रूरत जहां 1100 अरब घन मीटर थी, वह बढ़कर 2050 में 1447 घन मीटर हो जाएगी। खेती के लिए 200 घन मीटर अतिरिक्त पानी की ज़रूरत होगी। सीएसई रिपोर्ट के मुताबिक गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी प्रणाली का जलग्रहण क्षेत्र कुल नदी जलग्रहण क्षेत्र का 43 प्रतिशत है। इनमें पानी का कम होना देश में बड़ा जल संकट पैदा कर सकता है। भारत में दुनिया की 17.74 प्रतिशत आबादी है, जबकि उसके पास मीठे पानी के स्रोत केवल 4.5 प्रतिशत ही हैं। तो, नदियां सूखने के संकेत चिंताजनक हैं। 

हिमालयी नदियों के सूखने की चेतावनी इसलिए सच लगती है, क्योंकि कनाडा की स्लिम्स नदी के सूखने का घटनाक्रम एवं नाटकीय बदलाव एक ठोस सच्चाई के रूप में छह साल पहले सामने आ चुका है। इस घटना को भू-विज्ञानियों ने ‘नदी के चोरी हो जाने’ की उपमा दी थी। ऐसा इसलिए कहा गया, क्योंकि नदियों के सूखने अथवा मार्ग बदलने में हज़ारों साल लगते हैं, जबकि यह नदी चार दिन के भीतर ही सूख गई थी। नदी के विलुप्त हो जाने का कारण जलवायु परिवर्तन माना गया था। तापमान बढ़ा और कास्कावुल्श नामक हिमनद जो इस नदी का उद्गम स्रोत है, वह तेज़ी से पिघलने लगा। नतीजतन सदियों पुरानी स्लिम्स नदी 26 से 29 मई 2016 के बीच सूख गई। जबकि इस नदी का जलभराव क्षेत्र 150 मीटर चौड़ा था।

आधुनिक इतिहास में इस तरह से नदी का सूखना विश्व में पहला मामला था। प्राकृतिक संपदा के दोहन के बूते औद्योगिक विकास में लगे मनुष्य को यह चेतावनी भी है कि यदि विकास का स्वरूप नहीं बदला गया तो मनुष्य समेत संपूर्ण जीव जगत का संकट में आना तय है।

वाशिंगटन विश्वविद्यालय के भू-गर्भशास्त्री डेनियल शुगर के नेतृत्व में शोधकर्ताओं का एक दल स्लिम्स नदी की पड़ताल करने मौके पर पहुंचा था। लेकिन उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अब वहां कोई नदी रह ही नहीं गई थी। न केवल नदी का पानी गायब हुआ था, बल्कि भौगोलिक परिस्थिति भी पूरी तरह बदल गई थी। इन विशेषज्ञों ने नदी के विलुप्त होने की यह रिपोर्ट ‘रिवर पायरेसी’ शीर्षक से नेचर में प्रकाशित की है। रिपोर्ट के मुताबिक ज़्यादा गर्मी की वजह से कास्कावुल्श हिमनद की बर्फ तेज़ी से पिघलने लगी और इस कारण पानी का बहाव काफी तेज़ हो गया। जल के इस तेज़ प्रवाह ने हज़ारों साल से बह रही स्लिम्स नदी के पारंपरिक रास्तों से दूर अपना अलग रास्ता बना लिया। अब नई स्लिम्स नदी विपरीत दिशा में अलास्का की खाड़ी की ओर बह रही है जबकि पहले यह नदी प्रशांत महासागर में जाकर गिरती थी।

जिस तरह से स्लिम्स नदी सूखी है, उसी तरह से हमारे यहां सरस्वती नदी के विलुप्त होने की कहानी संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में दर्ज है। गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के द्वार खुलने के बाद जो ताज़ा रिपोर्ट सामने आई है, उससे पता चला है कि गंगोत्री का जिस हिमखंड से उद्गम स्रोत है, उसका आगे का 50 मीटर व्यास का हिस्सा भागीरथी के मुहाने पर गिरा हुआ है। हालांकि गोमुख पर तापमान कम होने के कारण यह हिमखंड अभी पिघलना शुरू नहीं हुआ है। यही वह गंगोत्री का गोमुख है, जहां से गंगा निकलती है। 2526 कि.मी. लंबी गंगा नदी देश की सबसे प्रमुख नदियों में से एक है। अनेक राज्यों के करीब 40 करोड़ लोग इस पर निर्भर हैं। इसे गंगोत्री हिमनद से पानी मिलता है। परंतु 87 साल से 30 कि.मी. लंबे हिमखंड से पौने दो कि.मी. हिस्सा पिघल चुका है।

भारतीय हिमालय क्षेत्र में 9575 हिमनद हैं। इनमें से 968 हिमनद सिर्फ उत्तराखंड में हैं। यदि ये हिमनद तेज़ी से पिघलते हैं तो भारत, पाकिस्तान और चीन में भयावह बाढ़ की स्थिति पैदा हो सकती है।

इसी तरह अंटार्कटिका में हर साल औसतन 150 अरब टन बर्फ पिघल रही है, जबकि ग्रीनलैंड की बर्फ और भी तेज़ी से पिघल रही है। वहां हर साल 270 अरब टन बर्फ पिघलने के आंकड़े दर्ज किए गए हैं। यदि यही हालात बने रहे तो समुद्र में बढ़ता जलस्तर और खारे पानी का नदियों के जलभराव क्षेत्र में प्रवेश इन विशाल डेल्टाओं के बड़े हिस्से को नष्ट कर देगा।                                         

अल्मोड़ा स्थित पंडित गोविंद वल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान के वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमखंड का जो अगला हिस्सा टूटकर गिरा है, उसमें 2014 से बदलाव नज़र आ रहे थे। वैज्ञानिक इसका मुख्य कारण चतुरंगी और रक्तवर्ण हिमखंड का गोमुख हिमखंड पर बढ़ता दबाव मान रहे हैं। यह संस्था वर्ष 2000 से गोमुख हिमखंड का अध्ययन कर रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार 28 कि.मी. लंबा और 2 से 4 कि.मी. चौड़ा गोमुख हिमखंड 3 अन्य हिमखंडों से घिरा है। इसके दाईं ओर कीर्ति तथा बाईं ओर चतुरंगी व रक्तवर्णी हिमखंड हैं। इस संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. कीर्ति कुमार ने बताया है कि हिमखंड की जो ताज़ा तस्वीरें और वीडियो देखने में आए हैं, उनसे पता चलता है कि गोमुख हिमखंड के दाईं ओर का हिस्सा आगे से टूटकर गिर पड़ा है। इसके कारण गोमुख की आकृति वाला हिस्सा दब गया है। यह बदलाव जलवायु परिवर्तन के कारण भी हो सकता है, लेकिन सामान्य तौर से भी हिमखंड टूटकर गिरते रहते हैं।

साफ है, इस तरह से यदि गंगा के उद्गम स्रोतों के हिमखंडों के टूटने का सिलसिला बना रहता है तो कालांतर में गंगा की अविरलता तो प्रभावित होगी ही, गंगा की विलुप्ति का खतरा भी बढ़ता चला जाएगा।

गंगा का संकट टूटते हिमखंड का ही नहीं हैं, बल्कि औद्योगिक विकास का भी है। कुछ समय पूर्व अखिल भारतीय किसान मज़दूर संगठन की तरफ से बुलाई गई जल संसद में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ज़रिए जलस्रोतों के दुरूपयोग और इसकी छूट दिए जाने का भी विरोध किया था। कानपुर में गंगा के लिए चमड़ा, जूट और निजी बॉटलिंग प्लांट संकट बने हुए हैं। टिहरी बांध बना तो सिंचाई के लिए था, लेकिन इसका पानी दिल्ली जैसे महानगरों में पेयजल आपूर्ति के लिए कंपनियों को दिया जा रहा है। गंगा के जलभराव क्षेत्र में खेतों के बीचों-बीच पेप्सी व कोक जैसी निजी कंपनियां बोतलबंद पानी के लिए बड़े-बड़े नलकूपों से पानी खींचकर एक ओर तो मोटा मुनाफा कमा रही हैं, वहीं खेतों में खड़ी फसल सुखाने का काम कर रही हैं। यमुना नदी से जेपी समूह के दो ताप बिजली घर प्रति घंटा 97 लाख लीटर पानी खींच रहे है। इससे जहां दिल्ली में जमुना पार इलाके के 10 लाख लोगों का जीवन प्रभावित होने का अंदेशा है, वहीं यमुना का जलभराव क्षेत्र तेज़ी से छीज रहा है।

ब्रिटिश अर्थशास्त्री ई.एफ. शुमाकर की किताब स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल 1973 में प्रकाशित हुई थी। इसमें उन्होंने बड़े उद्योगों की बजाय छोटे उद्योग लगाने की तरफ दुनिया का ध्यान खींचा था। उनका सुझाव था कि प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम उपयोग और ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन होना चाहिए। शुमाकर का मानना था कि प्रदूषण को झेलने की प्रकृति की भी एक सीमा होती है। सत्तर के दशक में उनकी इस चेतावनी का मज़ाक उड़ाया गया था। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले सरकारी और गैर-सरकारी संगठन शुमाकर की चेतावनी को स्वीकार रहे हैं। वैश्विक मौसम जिस तरह से करवट ले रहा है, उसका असर अब पूरी दुनिया पर दिखाई देने लगा है। भविष्य में इसका सबसे ज़्यादा खतरा एशियाई देशों पर पड़ेगा। एशिया में गरम दिन बढ़ सकते हैं या फिर सर्दी के दिनों की संख्या बढ़ सकती है। एकाएक भारी बारिश की घटनाएं हो सकती हैं या फिर अचानक बादल फटने की घटनाएं घट सकती हैं। न्यूनतम और अधिकतम दोनों तरह के तापमानों में खासा परिवर्तन देखने में आ सकता है। इसका असर परिस्थितिक तंत्र पर तो पड़ेगा ही, मानव समेत तमाम जंतुओं और पेड़-पौधों की ज़िंदगी पर भी पड़ेगा। लिहाज़ा, समय रहते चेतने की ज़रूरत है। स्लिम्स नदी का लुप्त होना और 10 हिमालयी नदियों के सूखने की चेतावनी को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दर्पण में कौन है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

बंदरों को जब पहली बार दर्पण दिखाया जाता है तो वे उसमें दिख रहे प्रतिबिंब को देखकर ऐसी मुद्रा बनाते हैं जैसे किसी के प्रति शत्रुता दिखा रहे हों – वे अपने दांत दिखाते हैं और लड़ने जैसी मुद्रा बना लेते हैं। हम मनुष्य दर्पण में अपने प्रतिबंब को इस रूप में पहचानते हैं कि यह तो ‘मैं’ ही हूं। वैसे, यह क्षमता सिर्फ मनुष्यों का विशिष्ट गुण नहीं है। चिम्पैंज़ी, डॉल्फिन, हाथी, कुछ पक्षी और यहां तक कि कुछ मछलियां भी ‘मिरर टेस्ट’ (दर्पण परीक्षण) में उत्तीर्ण रही हैं।

छवि (या प्रतिबिंब) को स्वयं के रूप में पहचानने का परीक्षण काफी सरल है। चुपके से व्यक्ति (या जंतु) के चेहरे पर किसी ऐसी जगह एक चिन्ह (मसलन, एक बड़ा लाल बिंदु) बना दिया जाता है कि वह चिन्ह उसे दिखाई न दे। जब किसी शिशु या छोटे बच्चे के माथे पर लाल बिंदी बनाई जाती है तो दर्पण में यह बच्चे का ध्यान खींचती ही है। लगभग 18 महीने तक की उम्र तक बच्चे आईने के प्रतिबिंब में इस अपरिचित बिंदी को दर्पण में छूने की कोशिश करते हैं। 18 महीने की उम्र के बाद बच्चों की दर्पण प्रतिबिंब पर प्रतिक्रिया यह होती है कि वे खुद अपने माथे पर उस बिंदी को छूने की कोशिश करते हैं। लगता है कि जैसे वे खुद से पूछ रहे हों, “यह बिंदी मेरे चेहरे पर कैसे आ गई?”

बड़े बच्चों की हरकत यकीनन स्वयं को पहचानने का संकेत है। लेकिन क्या यह आत्म-भान होने का भी संकेत है? आखिरकार, वयस्क लोग तक दर्पण के प्रति तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं देते हैं। कुछ लोग दर्पण दिखने पर उसके सामने ठहरे बिना मानते नहीं, और कुछ लोग उस पर ध्यान दिए बिना सामने से गुज़र जाते हैं।

आत्म-पहचान

हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में जापानी शोधकर्ताओं ने दर्पण में स्वयं को पहचानने को लेकर कुछ नए निष्कर्ष प्रकाशित किए हैं। उन्होंने ये नतीजे ब्लूस्ट्रीक क्लीनर रासे मछली पर अध्ययन कर निकाले हैं; यह दर्पण में स्वयं को पहचानने के लिए जानी जाती है। उष्णकटिबंधीय महासागरों में इस छोटी मछली का बड़ी मछलियों से एक परस्पर सम्बंध होता है। इनका भोजन बड़ी मछली के शरीर पर चिपके परजीवी होते हैं। क्लीनर मछलियां नियत स्थानों पर बड़ी मछलियों का इंतज़ार करती हैं, और परजीवी-ग्रस्त मछलियां परजीवियों को हटवाने के लिए उनके पास जाती हैं। यहां तक कि परजीवी-ग्रस्त मछलियां अपने शरीर की अजीब-अजीब मुद्राएं बनाती हैं ताकि क्लीनर मछलियां परजीवियों तक पहुंच सकें। यह कुछ वैसे ही दिखता है जैसे किसी हज्जाम की दुकान पर दाढ़ी या बगलों की हजामत करवाने बैठा व्यक्ति ठोढ़ी या बांह ऊपर करके बैठा होता है ताकि हज्जाम अपना काम कर सके।

अध्ययन में एक्वैरियम में, एक बार में एक क्लीनर मछली के साथ प्रयोग किए गए। पहले पानी में एक दर्पण रखा गया, या स्क्रीन पर मछली की तस्वीर दिखाई गई। शुरुआती कुछ दफा जब मछली ने दर्पण में अपनी छवि या तस्वीर देखी तो उनकी प्रतिक्रिया आक्रामक रही। लेकिन समय के साथ उनमें स्वयं की छवि की पहचान आ गई, और इन मछलियों ने दर्पण-टेस्ट पास कर लिया। अब वे केवल अजनबी की छवियों के प्रति आक्रामक थीं। और तो और, वे अपने शरीर पर बनाए गए चमकीले निशानों को भी पहचानने लगीं और पास की किसी भी सतह पर रगड़कर उन्हें मिटाने की कोशिश करने लगीं।

और जब तस्वीर में फेरबदल करके, उनका चेहरा किसी अन्य मछली के शरीर पर लगाकर, तस्वीर दिखाई गई तो भी मछलियों ने आक्रामक व्यवहार नहीं दर्शाया। लेकिन जब मछली के स्वयं के शरीर पर किसी अजनबी मछली के चेहरे वाली तस्वीर दिखाई गई तो उन्होंने शत्रुता का व्यवहार दर्शाया। इससे ऐसा लगता है कि क्लीनर मछली अपने चेहरे की याद रखती है।

मनुष्यों के बच्चों की बात पर वापिस आते हैं, हमने देखा है कि बच्चे जैसे-जैसे बड़े होने लगते हैं उनमें आत्म-भान आने लगता है। दर्पण में प्रतिबिंब को देखकर पूरी तरह से ये ‘मैं’ हूं की समझ 18 महीने की उम्र में आती है। यह वह उम्र भी है जिस पर बच्चे अपने बारे में बात करना शुरू करते हैं, और पिछली घटनाओं को याद करते हैं, जैसे “मैंने इसे खा लिया”)। क्या इसे आत्म-भान कहा जा सकता है? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सामान्य स्वीटनर प्रतिरक्षा प्रणाली में टांग अड़ाता है

म तौर पर मधुमेह के रोगियों को चीनी की बजाय सुक्रेलोज़ जैसे कृत्रिम स्वीटनर का उपयोग करते देखा जाता है। इनके बारे में आम मान्यता है कि ये केवल जीभ को मिठास का एहसास कराते हैं, परन्तु शरीर पर इनका कोई अन्य प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन एक हालिया अध्ययन ने दर्शाया है कि स्वीटनर का स्वाद से परे जैविक प्रभाव होता है।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में सुक्रेलोज़ की उच्च खुराक से चूहों की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पर गंभीर प्रभाव देखे गए हैं। सुक्रेलोज़ सामान्य शकर (सुक्रोज़) से 600 गुना अधिक मीठा होता है। वैसे शोधकर्ताओं ने मनुष्यों पर इसके प्रभावों का अध्ययन नहीं किया है लेकिन लगता है कि सुक्रेलोज़ की सामान्य खपत शरीर के लिए हानिकारक नहीं होगी।

गौरतलब है कि शकर के विकल्पों (शुगर सब्स्टिट्यूट) को आंत के सूक्ष्मजीवों में परिवर्तन जैसे जैविक प्रभाव दिखने के बाद इन पर विशेष अध्ययन किए जा रहे हैं। प्रतिरक्षा प्रणाली पर सुक्रेलोज़ के प्रभाव को समझने के लिए लंदन स्थित फ्रांसिस क्रिक इंस्टीट्यूट के आणविक जीवविज्ञानी फैबियो ज़ानी और साथियों ने मनुष्यों और चूहों से प्राप्त टी-कोशिकाओं (एक प्रकार की प्रतिरक्षा कोशिका) का संपर्क कृत्रिम स्वीटनर से करवाकर जांच की। उन्होंने पाया कि सुक्रेलोज़ ने टी-कोशिकाओं की प्रतिलिपि बनाने और विशिष्टिकरण की क्षमता को कम कर दिया था।

इसके बाद चूहों को सुक्रेलोज़ की निर्धारित अधिकतम सुरक्षित मात्रा दी गई। इन सभी चूहों में पहले से ही कोई संक्रमण या ट्यूमर था जिससे प्रतिरक्षा प्रणाली की सक्रियता को आंका जा सकता था। पाया गया कि कंट्रोल समूह के चूहों की तुलना में सुक्रेलोज़ का सेवन करने वाले चूहों में टी-कोशिका प्रतिक्रिया कमज़ोर रही। सुक्रेलोज़ देना बंद करने पर उनकी टी-कोशिका प्रतिक्रियाएं बहाल होने लगीं।    

हालांकि सुक्रेलोज़ की कम खुराक का परीक्षण नहीं किया लेकिन लगता है कि खुराक कम करने पर प्रभाव जाता रहेगा। इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि स्वीटनर अन्य प्रतिरक्षा कोशिकाओं को प्रभावित नहीं करता। एक पिछले अध्ययन में यह भी बताया गया था कि सुक्रेलोज़ कोशिका झिल्ली की तरलता को प्रभावित करता है जिससे टी-कोशिकाओं की परस्पर संवाद क्षमता प्रभावित हो सकती है।

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सुक्रेलोज़ का प्रभाव पूरी तरह नकारात्मक नहीं है। उनका मत है कि निकट भविष्य में सुक्रेलोज़ का उपयोग ऑटो-इम्यून समस्याओं के इलाज के लिए किया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने टाइप-1 मधुमेह से ग्रसित चूहों पर परीक्षण किया। यह एक ऑटो-इम्यून समस्या है जिसमें टी-कोशिकाएं इंसुलिन निर्माता पैंक्रियास कोशिकाओं पर हमला करती हैं। लगभग 30 सप्ताह बाद स्वीटनर दिए गए मात्र एक-तिहाई चूहों में मधुमेह विकसित हुआ जबकि सामान्य पानी पीने वाले सारे चूहों में मधुमेह विकसित हो गया। मनुष्यों में यदि ऐसा ही प्रभाव देखा जाता है तो इसका उपयोग अन्य प्रतिरक्षा दमन करने वाली औषधियों के साथ करके उनकी खुराक कम की जा सकेगी। (स्रोत फीचर्स)

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रोगाणुओं के अध्ययन की उच्च-सुरक्षा प्रयोगशालाओं में वृद्धि

पिछले कुछ वर्षों में घातक रोगाणुओं का अध्ययन करने वाली प्रयोगशालाओं की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है। ऐसे में इबोला और निपाह जैसे जानलेवा रोगाणुओं के लैब से लीक होने या दुरूपयोग का जोखिम बढ़ गया है। ग्लोबल बायोलैब्स प्रोजेक्ट की संस्थापक किंग्स कॉलेज लंदन की जैव सुरक्षा विशेषज्ञ फिलिपा लेंटज़ोस ने बढ़ते जोखिम पर चिंता व्यक्त की है। सबसे अधिक जैव-सुरक्षा प्रयोगशालाएं अकेले युरोप में हैं जिनमें से तीन-चैथाई तो शहरी क्षेत्रों में हैं।

ग्लोबल बायोलैब्स रिपोर्ट 2023 के अनुसार विश्व स्तर पर 27 देशों में 51 बीएसएल-4 प्रयोगशालाएं हैं। इन सभी प्रयोगशालाओं में उच्च स्तरीय सुरक्षा मानकों का पालन किया जाता है। एक दशक पूर्व इन प्रयोगशालाओं की संख्या लगभग आधी थी। बीएसएल-4 प्रयोगशालाएं 2001 में एंथ्रेक्स और 2003 में सार्स के प्रकोप के बाद स्थापित की गई थीं। तीन-चौथाई बीएसएल-4 प्रयोगशालाओं का शहरी क्षेत्रों में होने का मतलब है कि ये एक बड़ी आबादी के लिए जोखिम पैदा कर सकती हैं। निकट भविष्य में 18 नई बीएसएल-4 प्रयोगशालाएं शुरू होने की संभावना है जो अधिकांशत: भारत, फिलीपींस वगैरह अधिकांश एशियाई देशों में होंगी। इस रिपोर्ट में 57 बीएसएल-3 प्लस अन्य प्रयोगशालाओं का भी ज़िक्र है जिनमें बीएसएल-3 से अधिक सुरक्षा उपायों का पालन किया जाता है। इनमें से अधिकांश युरोप में हैं जहां एच5एन1 इन्फ्लुएंज़ा जैसे रोगाणुओं का अध्ययन किया जा रहा है। एशिया में भी कई ऐसी प्रयोगशालाएं हैं जहां खतरनाक रोगाणुओं का अध्ययन किया जा रहा है। हालिया सार्स-कोव-2 के बाद से तो बीएसएल-4 प्रयोगशालाओं में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है और ऐसी संभावना है कि जल्द ही यह संख्या दुगनी हो जाएगी। ऐसे में वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने की आशंका बनी रहती है।

गौरतलब है कि कई देशों में बीएसएल-4 प्रयोगशालाओं की निगरानी के लिए पर्याप्त नीतियों और तरीकों का हमेशा से अभाव रहा है। केवल कनाडा ही एक ऐसा देश है जहां रोगाणुओं पर होने वाले गैर-सरकारी अनुसंधान की निगरानी के लिए भी कानून बनाए गए हैं। इनमें विशेष रूप से उन प्रयोगों को शामिल किया गया है जिनके दोहरे उपयोग की संभावना हो सकती है। उक्त रिपोर्ट में आग्रह किया गया है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सशक्त मार्गदर्शन और बाहरी विशेषज्ञों द्वारा ऑडिट के लिए सभी देशों की सहमति बनवाने की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रयोगशालाएं अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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