विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने हाल ही में एक संधि का मसौदा जारी किया है। इस संधि में ऐसी व्यवस्था की गई है कि यदि भविष्य में कोई महामारी सामने आए तो टीके, दवाइयां, निदान के परीक्षण वगैरह का पूरी दुनिया में समतामूलक वितरण संभव हो सके। उम्मीद की जा रही है कि अनुमोदन के बाद यह संधि कानूनी रूप से बंधनकारी होगी।
मसौदा देखने के बाद कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मत है कि मसौदा अत्यंत महत्वाकांक्षी है और यह कोविड-19 महामारी के दौरान देखे गए असंतुलन को संबोधित करता है। लेकिन विशेषज्ञों को चिंता इस बात की है कि जो देश इसका पालन नहीं करेंगे उन्हें कैसे बाध्य किया जाएगा और दंडित करने की व्यवस्था क्या होगी।
इतना तो सभी मानते हैं कि पिछली महामारी में कई तरह के असंतुलन देखे गए थे। उदाहरण के लिए, उच्च आमदनी वाले देशों में 73 प्रतिशत लोगों को टीके की कम से कम एक खुराक मिली थी लेकिन निम्न आमदनी वाले देशों में मात्र 31 प्रतिशत लोगों को ही एक खुराक मिल पाई थी।
बहरहाल, अब इस मसौदे पर चर्चा शुरू होगी और जैसा कि होता आया है चर्चा के दौरान काफी वाद-विवाद चलेंगे, संशोधन होंगे। कोशिश यह है कि इस संधि को 2024 में पारित करके लागू कर दिया जाए।
मसौदे का प्रमुख सरोकार समता से है। संधि के अनुच्छेदों में व्यवस्था है कि औषधियों के निर्माण में प्रयुक्त होने वाले घटकों की आपूर्ति और वितरण के लिए एक वैश्विक नेटवर्क स्थापित किया जाए। साथ ही यह भी प्रस्ताव है कि टीकों व औषधियों के विकास व अनुसंधान को सुदृढ़ किया जाए और जानकारी को पूरी दुनिया के साथ खुले रूप से साझा किया जाए।
मसौदे में सभी पक्षों से आव्हान है कि वे महामारी के दौरान बौद्धिक संपदा को कुछ समय के लिए मुक्त रखें ताकि टीकों, चिकित्सा उपकरणों, मास्कों, निदान परीक्षणों और दवाइयों का त्वरित उत्पादन हो सके। यदि अगली महामारी से पहले इन शर्तों पर स्वीकृति हो जाती है तो हम कोविड-19 महामारी के दौरान देखी गई कई दिक्कतों से बच सकेंगे। 2020 में दक्षिण अफ्रीका और भारत ने सुझाव दिया था कुछ समय के लिए टीकों, दवाइयों और नैदानिक परीक्षणों से सम्बंधित बौद्धिक संपदा अधिकारों को मुल्तवी रखा जाए, लेकिन इस प्रस्ताव को विश्व व्यापार संगठन ने निरस्त कर दिया था हालांकि 60 देशों ने इसका समर्थन किया था।
संधि में रोगजनकों और जीनोम्स सम्बंधी जानकारी साझा करने पर भी काफी ज़ोर दिया गया है। इस संदर्भ में कम आमदनी वाले देश चाहते हैं कि इस तरह की जीव वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर विकसित उत्पाद उन्हें किफायती दामों पर मिलें। संधि में प्रस्ताव है कि सारे हस्ताक्षरकर्ता पक्ष अपने पास उपलब्ध रोगजनक विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रयोगशाला को उनकी खोज के चंद घंटों के अंदर उपलब्ध कराएंगे। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि जीनोम सम्बंधी जानकारी को सार्वजनिक स्थल पर अपलोड कर दिया जाएगा। दूसरी ओर, देश उनके द्वारा उत्पादित 20 प्रतिशत टीके, नैदानिक परीक्षण और दवाइयां विश्व स्वास्थ्य संगठन को मुहैया करवाएंगे – आधे दान के रूप में और आधे किफायती दामों पर।
संधि के मसौदे की एक शर्त यह है कि सारे पक्षों को अपने सालाना स्वास्थ्य बजट का कम से कम 5 प्रतिशत हिस्सा महामारी की रोकथाम व निपटान के लिए आवंटित करना होगा। इसके अलावा एक निश्चित राशि विकासशील देशों को महामारी की तैयारी में मदद देने के लिए भी रखना होगी।
अलबत्ता, विशेषज्ञों को लगता है कि यदि देश इस संधि पर हस्ताक्षर कर भी देते हैं, तो इसे लागू करवाने की व्यवस्था इस मसौदे में काफी कमज़ोर है। जैसे कानूनी रूप से बंधनकारी संधि में ‘करेंगे’ की बजाय ‘प्रोत्साहित’ किया जाएगा जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। यानी पूरा मामला अभी भी स्वैच्छिक अनुपालन पर टिका है। उम्मीद है कि वार्ताओं में मसले को सुलझा लिया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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