आपको यह जानकर हैरानी होगी कि रसोई गैस हमारी सेहत के लिए बेहद जोखिमभरी है। यह बात ऑस्ट्रेलिया की न्यू साउथ वेल्स युनिवर्सिटी में हुए एक अध्ययन में सामने आई है। आज अधिकतर घरों में लोग खाना पकाने के लिए एलपीजी यानी लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन शोधकर्ताओं का कहना है कि अब एलपीजी गैस का विकल्प तलाशने का समय आ गया है।
अब तक यही कहा जाता था कि कोयला और लकड़ी को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने पर इनसे निकलने वाला धुआं सांस सम्बंधी बीमारियों को न्यौता है। इसके बनिस्बत एलपीजी धुआं नहीं छोड़ती और हवा को प्रदूषित नहीं करती है। लेकिन अध्ययन के अनुसार एलपीजी गैस पर भी खाना बनाना न सिर्फ हमारी सेहत के लिए बल्कि पर्यावरण के लिए भी हानिकारक है।
जब हम गैस जलाते हैं तो ज़हरीले यौगिक बनते हैं तथा नाइट्रोजन और ऑक्सीजन मिलकर ज़हरीले नाइट्रोजन ऑक्साइड बनते हैं। इससे दमा व अन्य स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। इसके अलावा ये रक्तप्रवाह में भी मिल सकते हैं। जो हृदय रोग, कैंसर और अल्ज़ाइमर वगैरह का खतरा पैदा कर सकते हैं।
जब हम गैस चूल्हा जलाते हैं तो असल में हम जीवाश्म ईंधन ही जला रहे होते हैं जिससे कार्बन मोनोऑक्साइड और फारमेल्डीहाइड भी बन सकते हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड के उत्सर्जन से हवा में ऑक्सीजन कम होती है और खून में भी ऑक्सीजन नष्ट होती है। इससे हमें सिरदर्द और चक्कर आने जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
रसोई गैस हमारी सेहत के लिए कितनी नुकसानदेह है। इसका अंदाज़ा इससे बखूबी लगाया जा सकता है कि एंवायरमेंट साइंस एंड टेक्नॉलॉजी जर्नल में छपे अध्ययन में पाया गया है कि अमेरिका में बच्चों में दमा के 12.7 फीसदी मामले, यानी हर आठ में से एक मामले में वजह रसोई गैस से हुआ उत्सर्जन है। वहीं, 2022 में हुए एक अध्ययन में कहा गया था कि अमेरिका में रसोई गैस से कुल जितना कार्बन उत्सर्जन होता है वह पांच लाख कारों से होने वाले उत्सर्जन के बराबर है।
भारत, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा एलपीजी उपभोक्ता देश है। यहां 2021 तक करीब 28 करोड़ एलपीजी कनेक्शन थे। इनमें हर साल 15 फीसदी की बढ़ोतरी हो रही है। पेट्रोलियम मंत्रालय के अनुमान के मुताबिक, 2040 तक एलपीजी उपभोग बढ़कर 4.06 करोड़ टन हो जाएगा। बता दें कि भारत में एलपीजी में प्रोपेन गैस का प्रयोग होता है। इसके जलने से खतरनाक बेंज़ीन गैस निकलती है। लिहाज़ा, हमें ऐसे विकल्प तलाशने की ज़रूरत है जो अधिक सुरक्षित और पर्यावरण के अनुकूल हों। (स्रोत फीचर्स)
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फिंगरप्रिंट, नाम तो सुना ही होगा। मनुष्यों और पेड़ों पर चढ़ने वाले कुछ जंतुओं की उंगलियों के सिरों पर जो धारियां पाई जाती हैं, उन्हीं के विन्यास को फिंगरप्रिंट कहते हैं। ये फिंगरप्रिंट किसी चीज़ पर पकड़ को बेहतर बनाते हैं और चीज़ों के चिकने-खुरदरेपन को भांपने में भी मदद करते हैं।
यह तो आम जानकारी है कि किन्हीं भी दो व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट एक समान नहीं होते। लेकिन यह बात शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि हूबहू एक-समान जुड़वां व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट भी अलग-अलग होते हैं। तो ऐसा क्यों है? सवाल का जवाब इस सवाल में छिपा है कि फिंगरप्रिंट बनते कैसे हैं।
एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि तीन प्रकार के संकेतक अणु और उंगलियों की आकृतियों में और त्वचा की वृद्धि में बारीक अंतर मिलकर इस विशिष्ट पैटर्न को पैदा करते हैं।
फिंगरप्रिंट का निर्माण भ्रूणावस्था में काफी जल्दी (गर्भ ठहरने के करीब तेरहवें हफ्ते में) शुरू हो जाता है। सबसे पहले उंगली के सिरे पर धसानें बनती हैं। ये धसानें ही आगे चलकर तीन मुख्य पैटर्न का रूप ले लेती हैं – चक्र, शंख, और मेहराब।
वैज्ञानिकों ने कई जीन्स की पहचान की है जो पैटर्न निर्माण को प्रभावित करते हैं। लेकिन यह रहस्य ही रहा है कि ये जीन किसी तरह की जैव-रासायनिक क्रियाओं के ज़रिए इस पैटर्न का निर्धारण करते हैं। और अब इसे समझने की कोशिश में एडिनबरा विश्वविद्यालय के डेनिस हेडन ने मनुष्य की भ्रूणीय उंगली के सिरों की कोशिकाओं के केंद्रकों में उपस्थित आरएनए का अनुक्रमण किया है। वे जानना चाहते थे कि विकास के दौरान वहां कौन-से जीन्स अभिव्यक्त होते हैं। इन जीन्स ने तीन संकेत क्रियापथ उजागर किए। संकेत क्रियापथ उन प्रोटीन्स को कहते हैं जो कोशिकाओं के बीच निर्देशों को लाते-ले जाते हैं। ये तीन क्रियापथ उंगली के छोरों पर त्वचा के विकास का निर्धारण करते हैं।
इनमें से दो संकेत क्रियापथों के लिए ज़िम्मेदार जीन्स – WNT और BMP – विकसित हो रहे उंगली के सिरों पर एकांतर पट्टियों में अभिव्यक्त होते हैं। यही पट्टियां अंतत: धसान और उभार में तबदील हो जाती हैं। तीसरा क्रियापथ – EDAR – विकासमान धसानों में बाकी दो के साथ ही अभिव्यक्त होता है।
उपरोक्त जानकारी तो मानव ऊतकों के अध्ययन से मिली थी। गौरतलब है कि ये ऊतक स्वेच्छा से गर्भपात किए गए भ्रूणों से प्राप्त किए गए थे। लेकिन वैज्ञानिक इस जानकारी की पुष्टि किसी जंतु मॉडल पर करना चाहते थे।
चूहों में भी उंगली के छोरों पर धारियों का सरल पैटर्न पाया जाता है। जब वैज्ञानिकों ने संकेत क्रियापथों का कृत्रिम रूप से दमन किया तो पता चला कि WNT और BMP क्रियापथ परस्पर विपरीत ढंग से काम करते हैं। WNT क्रियापथ कोशिका वृद्धि को बढ़ावा देता है जिसके चलते त्वचा की ऊपरी परत में उभार बनते हैं। दूसरी ओर, BMP कोशिका वृद्धि को रोकता है और इसकी वजह से नालियां बन जाती हैं। तो तीसरा क्रियापथ EDAR क्या करता है? यह क्रियापथ उभारों की साइज़ और उनके बीच की दूरी का निर्धारण करता है।
जब शोधकर्ताओं ने WNT क्रियापथ का दमन कर दिया तो उन चूहों की उंगलियों पर उभार बने ही नहीं जबकि BMP क्रियापथ को दबाने से उभार अधिक चौड़े बने। और जब EDAR को ठप कर दिया गया तो उभार व नालियां तो बनी लेकिन पट्टियों के रूप में नहीं बल्कि थेगलों के रूप में।
तो सवाल वहीं का वहीं है। हूबहू समान जुड़वां में तो जीन्स एक जैसे होते हैं। फिर पैटर्न अलग-अलग क्यों। इस संदर्भ में ट्यूरिंग पैटर्न को समझना ज़रूरी है। उक्त शोध के प्रमुख हेडन का कहना है कि परस्पर व्याप्त (ओवरलैपिंग), अलग-अलग रासायनिक क्रियाएं पेचीदा पैटर्न पैदा करती हैं। इन्हें ट्यूरिग पैटर्न कहते हैं – ऐसे पैटर्न प्रकृति में कई जगह देखने को मिलते हैं। जैसे बाघ के फर पर अलग-अलग रंग की पट्टियां, चीतों के शरीर पर धब्बे वगैरह। फिंगरप्रिंट के पैटर्न भी ट्यूरिंग पैटर्न हैं। गौरतलब है कि इन पैटर्न्स के बनने की क्रियाविधि का प्रस्ताव मशहूर कंप्यूटर वैज्ञानिक एलन ट्यूरिंग द्वारा दिया गया था।
लेकिन फिंगरप्रिंट में एक पेंच और है। हेडन की टीम ने पाया कि धारियों के विशिष्ट पैटर्न उंगलियों के आकारों में बारीक अंतरों पर भी निर्भर करते हैं। मानव भ्रूण के उतकों में उन्होंने देखा कि प्राथमिक उभार तीन स्थलों पर बनना शुरू होते हैं। भ्रूणीय उंगली की उभरी हुई मुलायम गद्दी के केंद्र में, उंगली के नाखून के नीचे वाले सिरे पर और उंगली के जोड़ पर। धारियां इन तीन स्थलों से बाहर की ओर तरंगों के रूप में फैलती हैं। हर धारी अपने से अगली धारी की स्थिति निर्धारित कर देती है।
आगे सब कुछ उंगली की रचना पर निर्भर करता है। यदि गद्दियां चौड़ी और सममित हैं और धारियां वहां पहले बनने लगें तो चक्र प्रकट होता है। लेकिन यदि गद्दियां लंबी और असममित हों, तो शंख बनेगा। तीसरी स्थिति यह हो सकती है कि गद्दी पर धारियां न बनें या देर से बनना शुरू हों तो नाखून वाले सिरे और जोड़ के किनारे से धारियां बढ़ते-बढ़ते गद्दी के मध्य में आकर मिलेंगी और मेहराब का निर्माण हो जाएगा।
फिंगरप्रिंट निर्माण का अध्ययन करते-करते शोधकर्ताओं ने पाया कि यही तीन रासायनिक संकेत – WNT, BMP, EDAR – शरीर के शेष भागों की त्वचा पर विभिन्न रचनाएं बनाने के लिए ज़िम्मेदार हैं, जिनमें बाल वगैरह भी शामिल हैं। (स्रोत फीचर्स) (स्रोत फीचर्स)
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एक अनुमान के मुताबिक 2020 से 2030 के बीच कृषि में एंटीबायोटिक औषधियों का उपयोग 8 प्रतिशत बढ़ जाएगा जबकि इसे कम करने के उपाय जारी हैं। कृषि में एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल मनुष्यों को संक्रमित करने वाले बैक्टीरिया में प्रतिरोध पैदा होने का एक प्रमुख कारण माना जाता है।
यह सही है कि पशुओं में संक्रमण के उपचार के लिए एंटीबायोटिक आवश्यक हैं लेकिन देखा जा रहा है कि इनका उपयोग पशुओं की वृद्धि को तेज़ करने तथा भीड़-भाड़ वाले और अस्वच्छ दड़बों में उन्हें संक्रामक रोगों से बचाने के लिए भी किया जाता है।
इस संदर्भ में कई देशों में सरकारों ने एंटीबायोटिक उपयोग को कम करने के लिए नियम भी बनाए हैं। जैसे यूएस व युरोप में वृद्धि को गति देने के लिए एंटीबायोटिक का उपयोग वर्जित है लेकिन दिक्कत यह है कि कंपनियां इन्हें बीमारियों की रोकथाम के लिए बेचती रह सकती हैं।
शोधकर्ताओं के लिए अलग-अलग देशों में कृषि सम्बंधी एंटीबायोटिक उपयोग का अनुमान लगाना मुश्किल रहा है क्योंकि अधिकांश देश ऐसे आंकड़े सार्वजनिक नहीं करते हैं। कई देश अपने आंकड़े विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (WOAH) को देते हैं। यह संगठन इन आंकड़ों को महाद्वीप के स्तर तक जोड़ देता है। इसके अलावा, 40 प्रतिशत देश तो इस संगठन को भी आंकड़े नहीं देते।
लिहाज़ा 229 देशों के राष्ट्र-स्तरीय अनुमान लगाने के लिए स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के थॉमस फान बेकेल, रान्या मूलचंदानी व अन्य ने अलग-अलग सरकारों, खेत सर्वेक्षणों और वैज्ञानिक प्रकाशनों से आंकड़े जुटाए। इन आंकड़ों के साथ उन्होंने दुनिया भर के खेतिहर पशुओं की संख्या को रखा और 42 देशों के एंटीबोयोटिक बिक्री के आंकड़ों को रखा। इसके आधार पर उन्होंने शेष 187 देशों के आंकड़ों की गणना की।
टीम की गणना बताती है कि अफ्रीका में एंटीबायोटिक का उपयोग WOAH द्वारा दी गई रिपोर्ट से दुगना है और एशिया में 50 प्रतिशत अधिक है। कुल मिलाकर अध्ययन दल का अनुमान है कि वर्ष 2030 तक दुनिया भर में प्रति वर्ष पशुओं के लिए 1 लाख 7 हज़ार 5 सौ टन एंटीबायोटिक्स का उपयोग होगा जबकि 2020 में यह आंकड़ा 1 लाख टन से कम था।
वैसे शोधकर्ताओं ने चेताया है कि जो 42 देश अपने आंकड़े साझा करते हैं, उनमें से अधिकांश उच्च आमदनी वाले देश हैं। लिहाज़ा उनके द्वारा एंटीबायोटिक का उपयोग तथा उपयोग का मकसद दुनिया के सारे देशों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।
पिछले नवंबर में सूक्ष्मजीवी प्रतिरोध को लेकर 39 देशों का एक सम्मेलन ओमान (मस्कट) में आयोजित किया गया था। इसमें रूस और भारत जैसे प्रमुख कृषि उत्पादक शामिल थे। मंत्री स्तर के इस सम्मेलन में उपस्थित देशों ने संकल्प लिया कि वर्ष 2030 तक वे सूक्ष्मजीव-रोधी दवाइयों का खेतिहर उपयोग 30-50 प्रतिशत तक कम करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
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इंडोनेशिया में पाया जाने वाला एक तोता है तनिम्बार कोरेला जिसे गोफिन्स कॉकेटू भी कहते हैं (जीव वैज्ञानिक नाम है Cacatua goffiniana)। एकदम सफेद रंग का यह तोता सचमुच एक कारीगर है। यह अपने पसंदीदा फलों को फोड़कर खाने के लिए तमाम किस्म के औज़ार भी बनाता है। और अब पता चला है कि यह अपने काम की योजना भी बनाता है और उस हिसाब से औज़ार साथ लेकर चलता है। इससे पहले मनुष्य के अलावा मात्र एक और जंतु में ऐसा व्यवहार देखा गया है – कॉन्गो घाटी में चिम्पैंज़ियों की एक आबादी में।
सफेद तोते में यह खोज विएना के पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने की है। उन्होंने इस सफेद तोते को उसके प्रिय भोजन काजू का ललचावा दिया। उन्होंने एक पारदर्शी डिब्बे में एक काजू (साबुत, छिलके सहित) एक प्लेटफॉर्म पर रख दिए। फिर एक पर्दा लगाकर उसे ओझल कर दिया। 10 तोतों को वह डिब्बा दिखाया गया और उन्हें दो में से एक औज़ार चुनने का विकल्प दिया गया – एक छोटी नुकीली छड़ और एक अपेक्षाकृत लंबी लचीली स्ट्रॉ।
15 बार किए गए परीक्षणों में अधिकांश पक्षियों ने दोनों औज़ारों का इस्तेमाल किया। उन्होंने नुकीली छड़ को अपनी चोंच में पकड़ा ओर डिब्बे में उपस्थित एक सुराख में से उसे अंदर डालकर पर्दे में छेद किया। लेकिन वह छड़ छोटी थी और काजू तक नहीं पहुंच सकती थी। तो पक्षियों ने उसे छोड़कर लंबी वाली स्ट्रॉ उठा ली जिसकी मदद से उन्होंने काजू को प्लेटफॉर्म से गिराकर उस ट्रे में लुढ़का दिया जहां से वे उसे पा सकते थे।
अब शोधकर्ता यह देखना चाहते थे कि क्या ये पक्षी समझते हैं कि उन्हें इस काम को अंजाम देने के लिए दोनों औज़ारों की ज़रूरत पड़ेगी। इसके लिए शोधकर्ताओं ने डिब्बे को एक सीढ़ी के ऊपर या एक उठे हुए प्लेटफॉर्म पर रख दिया। अब इस तक पहुंचने के लिए तोतों को वे औज़ार साथ लेकर जाना पड़ता – चाहे तो उड़कर या चाहे तो सीढ़ियां चढ़कर।
तोतों को अपना काम पूरा करने के लिए दो बार सीढ़ी चढ़ना नहीं रास आया। हालांकि कुछ ने ऐसा ही किया लेकिन कई पक्षियों ने अन्य युक्तियां खोज निकालीं। जैसे एक तोते ने जल्दी ही ताड़ लिया कि वह नुकीली छड़ को स्ट्रॉ के अंदर पिरोकर दोनों को एक साथ लेकर जा सकता है और डिब्बे पर पहुंचकर उन्हें वापिस अलग-अलग करके इस्तेमाल कर सकता है। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि अंतत: चार पक्षियों ने यह तरीका खोज निकाला। विभिन्न कारणों से अन्य पक्षी कामयाब नहीं रहे।
कुल मिलाकर इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि ये पक्षी भावी कार्य की एक मानसिक छवि बना लेते हैं जिसके बारे में माना जाता था कि ऐसा करना उनके लिए असंभव है। (स्रोत फीचर्स)
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किलर व्हेल के पुत्र मां के लाड़ले होते हैं। ये पुत्र काफी बड़े होने के बाद भी मां के पिछलग्गू बने रहते हैं जबकि पुत्रियां बड़ी होकर खुद संतानें पैदा करने लगती हैं। ऐसा क्यों है और किलर व्हेल मांएं इसकी क्या कीमत चुकाती हैं?
यह अवलोकन पहली बार किया गया है। यह तो पता रहा है कि किलर व्हेल मांएं अपने पुत्रों की बढ़िया देखभाल करती हैं लेकिन हाल के अध्ययन में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि मां इसकी क्या कीमत चुकाती हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर और सेंटर फॉर व्हेल रिसर्च के पारिस्थितिकीविद माइकल वाइस ने किलर व्हेल में मां-बेटे के सम्बंध के प्रत्यक्ष अवलोकन के आधार पर बताया है कि ये प्राणि दशकों तक जीते हैं लेकिन पूर्ण विकसित नर भी ऐसे व्यवहार करते हैं मानो वे छोटे बच्चे हों।
वाइस जानना चाहते थे कि गहन देखभाल में पल रहे इन बेटों की मां क्या कीमत चुकाती हैं – क्या ये उनकी और संतान पैदा करने की क्षमता को प्रभावित करते हैं? इसके लिए वाइस के दल ने प्रशांत महासागर के तीन व्हेल समूहों के पिछले 40 वर्षों के आंकड़े खंगाले। इन समूहों को पॉड कहते हैं और इनमें प्राय: दो दर्जन तक सदस्य होते हैं। ये सभी मातृवंशीय होते हैं, साथ-साथ घूमते और शिकार करते हैं।
करंट बायोलॉजी में प्रकाशित शोध के मुताबिक इसका गहरा असर होता है। किसी भी वर्ष में बेटों की मांओं द्वारा एक और संतान पैदा करने की संभावना निसंतान मांओं और सिर्फ बेटियों की मांओं की तुलना में आधी होती है। आश्चर्यजनक बात यह रही कि संभावना में यह गिरावट पुत्रों की उम्र से स्वतंत्र थी। कहने का आशय यह है कि तीन साल का बेटा और 18 साल का बेटा मां की आगे संतानोत्पत्ति की संभावना में बराबर कमी लाता है।
शोधकर्ताओं का मत है कि मां द्वारा बेटों को तरजीह दिया जाना इनकी पॉड संरचना से सम्बंधित है। जब कोई मादा किलर व्हेल बच्चे जनती है और अपनी मां के समूह में बनी रहती है, तो वह और उसके बच्चे भोजन और ध्यान के लिए शेष बच्चों से होड़ करते हैं। दूसरी ओर, बेटे उस पॉड में और खाने वाले नहीं लाते। बेटे तो पास से गुज़रते समूहों की मादाओं के साथ समागम करते हैं जिसके फलस्वरूप बच्चे उन समूहों में पैदा होते हैं। यानी बेटों के बच्चे किसी और की ज़िम्मेदारी होते हैं। शोधकर्ताओं का मत है कि यदि मां चाहती है कि उसके अधिक से अधिक पोते-पोतियां हों तो उसके लिए बेटे में निवेश करना ज़्यादा फायदे का सौदा है।
यह अभी एक परिकल्पना है क्योंकि वाइस की टीम ने अभी यह स्पष्ट नहीं किया है कि बेटे मां के प्रजनन में व्यवधान कैसे कैसे डालते हैं। लेकिन उन्हें यदि अपने बच्चों की भोजन की ज़रूरतें पूरी करना पड़े तो उनकी प्रजनन क्षमता कमज़ोर पड़ ही जाएगी। वैसे अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि शायद यह मात्र उन पॉड्स की समस्या हो जिनका अवलोकन वाइस ने किया है। एक मत यह भी है कि व्हेल उन चंद प्रजातियों में से है जिनमें रजोनिवृत्ति (मेनोपॉज़) होती है। यह भी संभव है कि ये बेटे बड़ा शिकार पकड़ने में मदद करते हों। इस संदर्भ में किलर व्हेल की अन्य प्रजातियों का अध्ययन मददगार होगा। (स्रोत फीचर्स)
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विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने हाल ही में एक संधि का मसौदा जारी किया है। इस संधि में ऐसी व्यवस्था की गई है कि यदि भविष्य में कोई महामारी सामने आए तो टीके, दवाइयां, निदान के परीक्षण वगैरह का पूरी दुनिया में समतामूलक वितरण संभव हो सके। उम्मीद की जा रही है कि अनुमोदन के बाद यह संधि कानूनी रूप से बंधनकारी होगी।
मसौदा देखने के बाद कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मत है कि मसौदा अत्यंत महत्वाकांक्षी है और यह कोविड-19 महामारी के दौरान देखे गए असंतुलन को संबोधित करता है। लेकिन विशेषज्ञों को चिंता इस बात की है कि जो देश इसका पालन नहीं करेंगे उन्हें कैसे बाध्य किया जाएगा और दंडित करने की व्यवस्था क्या होगी।
इतना तो सभी मानते हैं कि पिछली महामारी में कई तरह के असंतुलन देखे गए थे। उदाहरण के लिए, उच्च आमदनी वाले देशों में 73 प्रतिशत लोगों को टीके की कम से कम एक खुराक मिली थी लेकिन निम्न आमदनी वाले देशों में मात्र 31 प्रतिशत लोगों को ही एक खुराक मिल पाई थी।
बहरहाल, अब इस मसौदे पर चर्चा शुरू होगी और जैसा कि होता आया है चर्चा के दौरान काफी वाद-विवाद चलेंगे, संशोधन होंगे। कोशिश यह है कि इस संधि को 2024 में पारित करके लागू कर दिया जाए।
मसौदे का प्रमुख सरोकार समता से है। संधि के अनुच्छेदों में व्यवस्था है कि औषधियों के निर्माण में प्रयुक्त होने वाले घटकों की आपूर्ति और वितरण के लिए एक वैश्विक नेटवर्क स्थापित किया जाए। साथ ही यह भी प्रस्ताव है कि टीकों व औषधियों के विकास व अनुसंधान को सुदृढ़ किया जाए और जानकारी को पूरी दुनिया के साथ खुले रूप से साझा किया जाए।
मसौदे में सभी पक्षों से आव्हान है कि वे महामारी के दौरान बौद्धिक संपदा को कुछ समय के लिए मुक्त रखें ताकि टीकों, चिकित्सा उपकरणों, मास्कों, निदान परीक्षणों और दवाइयों का त्वरित उत्पादन हो सके। यदि अगली महामारी से पहले इन शर्तों पर स्वीकृति हो जाती है तो हम कोविड-19 महामारी के दौरान देखी गई कई दिक्कतों से बच सकेंगे। 2020 में दक्षिण अफ्रीका और भारत ने सुझाव दिया था कुछ समय के लिए टीकों, दवाइयों और नैदानिक परीक्षणों से सम्बंधित बौद्धिक संपदा अधिकारों को मुल्तवी रखा जाए, लेकिन इस प्रस्ताव को विश्व व्यापार संगठन ने निरस्त कर दिया था हालांकि 60 देशों ने इसका समर्थन किया था।
संधि में रोगजनकों और जीनोम्स सम्बंधी जानकारी साझा करने पर भी काफी ज़ोर दिया गया है। इस संदर्भ में कम आमदनी वाले देश चाहते हैं कि इस तरह की जीव वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर विकसित उत्पाद उन्हें किफायती दामों पर मिलें। संधि में प्रस्ताव है कि सारे हस्ताक्षरकर्ता पक्ष अपने पास उपलब्ध रोगजनक विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रयोगशाला को उनकी खोज के चंद घंटों के अंदर उपलब्ध कराएंगे। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि जीनोम सम्बंधी जानकारी को सार्वजनिक स्थल पर अपलोड कर दिया जाएगा। दूसरी ओर, देश उनके द्वारा उत्पादित 20 प्रतिशत टीके, नैदानिक परीक्षण और दवाइयां विश्व स्वास्थ्य संगठन को मुहैया करवाएंगे – आधे दान के रूप में और आधे किफायती दामों पर।
संधि के मसौदे की एक शर्त यह है कि सारे पक्षों को अपने सालाना स्वास्थ्य बजट का कम से कम 5 प्रतिशत हिस्सा महामारी की रोकथाम व निपटान के लिए आवंटित करना होगा। इसके अलावा एक निश्चित राशि विकासशील देशों को महामारी की तैयारी में मदद देने के लिए भी रखना होगी।
अलबत्ता, विशेषज्ञों को लगता है कि यदि देश इस संधि पर हस्ताक्षर कर भी देते हैं, तो इसे लागू करवाने की व्यवस्था इस मसौदे में काफी कमज़ोर है। जैसे कानूनी रूप से बंधनकारी संधि में ‘करेंगे’ की बजाय ‘प्रोत्साहित’ किया जाएगा जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। यानी पूरा मामला अभी भी स्वैच्छिक अनुपालन पर टिका है। उम्मीद है कि वार्ताओं में मसले को सुलझा लिया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
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सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर इमोजी का बहुत इस्तेमाल होता है। और तो और, इमोजी का इस्तेमाल विज्ञान संवाद में भी खूब होने लगा है। हर साल 17 जुलाई को विश्व इमोजी दिवस पर नए इमोजी लॉन्च होते हैं। 2018 में, डीएनए, सूक्ष्मजीव, प्रयोगशाला कोट और पेट्री डिश सहित कई विज्ञान इमोजी फोन कीबोर्ड में शामिल हुई थीं। फिर 2019 में स्टेथोस्कोप, खून की बूंद और प्लास्टर की इमोजी शामिल हुई थी। 2020 में हृदय, और 2021 में एक्स-रे स्कैन की इमोजी शामिल हुई थी।
जुलाई 2022 में, रोचेस्टर विश्वविद्यालय के एंड्र्यू व्हाइट ने प्रोटीन इमोजी शामिल करने के लिए प्रस्ताव भेजा था। उनका यह प्रस्ताव तो मंज़ूर नहीं हुआ लेकिन उनके प्रयास से इमोजी के बारे में कुछ रोचक बातें ज़रूर निकलीं।
इमोजी की शुरुआत कब हुई?
पहली बार इमोजी 1990 के दशक के अंत में जापानी मोबाइल फोन पर दिखाई दी थी। 2022 में बांसुरी, जेलीफिश, गधा जैसी 31 नई इमोजी लॉन्च होने के साथ वर्तमान में स्वीकृत इमोजी की संख्या 3600 से अधिक हो गई है। 2015 में, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने ‘फेस विद टीयर्स ऑफ जॉय’ इमोजी को पहली बार एक शब्द के तौर पर शामिल किया था।
इमोजी में रुचि कैसे बनी?
लगभग डेढ़ साल पहले, लोगों को ट्विटर पर इमोजी के साथ अंकगणित करते देखना दिलचस्प लगा था। जैसे, लघुगणक (लॉग) के गुण दर्शाने के लिए इमोजी का इस तरह इस्तेमाल:
log (😅) = 💧log (😄)
लोग सोशल मीडिया पर इमोजी का नए-नए तरह से उपयोग कर रहे थे। फिर एक पेपर आया, जिसमें बताया गया था कि इमोजी को वेक्टर के रूप में कैसे दर्शाएं।
इसके बाद कुछ मज़ेदार समीकरण बनाए गए। जैसे यदि ‘राजा’ की इमोजी से ‘पुरुष’ इमोजी घटा दें और इसमें ‘महिला’ इमोजी को जोड़ दें तो ‘रानी’ इमोजी बनेगी। इमोजी की मदद से तत्वों की एक आवर्त सारणी भी बनाई गई, और फिर एक प्रोग्राम भी लिखा गया जो इमोजी के साथ आणविक संरचनाएं बनाता है।
प्रोटीन की इमोजी क्यों?
हुआ यूं कि करीब एक साल पहले एंड्र्यू व्हाइट की एक सहयोगी क्रिस्टीन लिंडोर्फ-लार्सन ने इस ओर उनका ध्यान दिलाया कि इंटरनेट के प्रमुख सर्च इंजनों पर ‘प्रोटीन’ खोजने पर या तो मांस की या पोषक तत्वों की तस्वीर या चित्र ही मिलते हैं। लेकिन प्रोटीन मात्र इतना तो नहीं है।
डीएनए की पहचान जीवन को कूटबद्ध करने वाली भाषा के रूप में है, लेकिन प्रोटीन जीवन के वास्तविक कार्यकारी हैं। इसलिए लगा कि एक प्रोटीन इमोजी होना विज्ञान संचार के लिए उपयोगी साबित होगा, ठीक डीएनए इमोजी की तरह।
टीम कैसे बनी?
जब एंड्र्यू व्हाइट इमोजी के बारे में पढ़ रहे थे, तब पता चला कि कोई भी एक नई इमोजी के लिए प्रस्ताव भेज सकता है। फिर व्हाइट और क्रिस्टीन ने रोचेस्टर विश्वविद्यालय के ग्राफिक डिज़ाइनर माइकल ओसाडिव को अपनी टीम में शामिल किया, और उन्होंने प्रोटीन इमोजी ग्राफिक डिज़ाइन किया था।
मार्च 2022 में ट्विटर पर एक सर्वेक्षण करके पता किया गया कि प्रोटीन की इमोजी कैसी दिखना चाहिए। सर्वेक्षण में 800 से अधिक लोगों ने प्रतिक्रिया दी; इनमें से 70 प्रतिशत लोगों के सुझावों के आधार पर डिज़ाइन तैयार की गई। अंतत: जुलाई 2022 में प्रस्ताव इमोजी समिति को भेज दिया गया।
प्रक्रिया क्या है?
यूनिकोड कंसॉर्शियम की एक इमोजी उपसमिति है जिसमें ऐप्पल, मेटा और माइक्रोसॉफ्ट जैसी प्रतिनिधि कंपनियां और इमोजीपीडिया शामिल हैं। ये मिलकर तय करते हैं कि कौन से इमोजी प्रस्ताव उपयुक्त हैं। हालांकि, यह बहुत स्पष्ट नहीं है कि प्रस्ताव चुनने के उनके मानदंड क्या हैं।
लेकिन इमोजी के लिए प्रस्ताव भेजने का कोई शुल्क नहीं है। और आम तौर पर पांच से दस पेज लंबा प्रस्ताव भेजना होता है जिसमें यह बताना होता है कि इस इमोजी की ज़रूरत क्यों है, इसके लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द कितना उपयोग होता है, और यह भी बताना होता है कि इसका डिज़ाइन कैसा हो। समिति द्वारा समीक्षा करने में लगभग चार महीने लग जाते हैं।
जब इमोजी का प्रस्ताव स्वीकार हो जाता है तो ऐप्पल और सैमसंग जैसी कंपनियां डिज़ाइनर से इमोजी बनवाती हैं, जिन्हें विश्व इमोजी दिवस पर रिलीज़ किया जाता है। यदि किसी इमोजी का प्रस्ताव अस्वीकृत हो जाता है, तो दोबारा प्रस्ताव भेजने के लिए दो साल का इंतज़ार करना पड़ता है। वैसे, दोबारा प्रस्ताव भेजने पर इसके स्वीकृत होने की संभावना कम ही होती है।
मज़ेदार बात यह है कि प्रोटीन इमोजी का प्रस्ताव स्वीकृत न होने पर व्हाइट की टीम निराश थी, लेकिन उनका कहना है कि इस प्रक्रिया के दौरान बहुत कुछ सीखने को मिला – इमोजी का इतिहास और कई मज़ेदार तथ्य। जैसे एक बात यह पता चली कि इमोजी की शुरुआत जापान से हुई, यही कारण है कि जापानी कांजी लिपि के कई अक्षर इमोजी में दिखते हैं, हालांकि अब नियम है कि इमोजी में शब्द या अक्षर नहीं होंगे।
आप भी चाहें तो इमोजी के लिए प्रस्ताव भेज सकते हैं। युनिकोड वेबसाइट पर नई इमोजी के लिए प्रस्ताव भेजने के निर्देश दिए गए हैं। गैर-लाभकारी संगठन इमोजीनेशन पर मुफ्त प्रस्ताव टेम्पलेट्स भी उपलब्ध हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-023-00674-1/d41586-023-00674-1_24595584.jpg?as=webp
भौंरों के मस्तिष्क भले ही छोटे होते हैं लेकिन आविष्कार करने के मामले में वे किसी से कम नहीं। हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि ये नन्हें कीट जटिल समस्याओं को हल करने के नए-नए तरीके निकाल सकते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि यह क्षमता भौंरों को मानव जनित पर्यावरण परिवर्तनों से निपटने में उपयोगी साबित हो सकती है।
पूर्व अध्ययनों से भौंरों में जटिल दिशाज्ञान कौशल, अल्पविकसित संस्कृति और भावनाओं के संकेत मिल चुके हैं। वे तरह-तरह के औज़ारों का उपयोग करते हैं और दूसरे भौंरों को कोई कार्य करते देखकर सीख जाते हैं। कुछ कार्य ऐसे भी हैं जो वे अमूमन नहीं करते लेकिन इनाम के लालच में सीख लेते हैं।
हाल में क्वींस मैरी युनिवर्सिटी की व्यवहार पारिस्थिकीविद ओली लाउकोला और उनके सहयोगियों ने भौंरों के साथ एक रोचक अध्ययन किया। इसमें वैज्ञानिकों ने सबसे पहले भौंरों को प्रशिक्षित किया जिसमें उन्हें एक गेंद को एक लक्षित स्थान तक पहुंचाना था। जिसके इनामस्वरूप उन्हें मीठा शरबत दिया जाता था। यह काम वे प्राकृतिक परिस्थितियों में नहीं करते हैं। इसके बाद प्रत्येक भौंरे को लक्ष्य से अलग-अलग दूरी पर रखी तीन पीली गेंदें दिखाई गईं। कुछ भौरों ने पहले से प्रशिक्षित भौरों को लक्ष्य से सबसे दूर रखी गेंद को लक्ष्य तक ले जाते देखा जिसके इनाम स्वरूप उन्हें मीठा शरबत मिला। कुछ भौरों को मेज़ के नीचे एक चुंबक की मदद से सबसे दूर रखी गेंद को लक्ष्य तक पहुंचते दिखाया गया। भौंरों के तीसरे समूह को किसी प्रकार का कोई प्रदर्शन नहीं दिखाया गया। उन्होंने तो गेंद को इनाम के साथ लक्ष्य पर देखा।
इसके बाद प्रत्येक भौंरे को पांच मिनट के भीतर गेंद को लक्ष्य तक पहुंचाने का कार्य दिया गया। वे भौंरे सबसे सफल रहे जिन्होंने प्रशिक्षित भौरों को लक्ष्य तक गेंद ले जाते हुए देखा था। इन भौरों के काम करने की गति अन्य दो समूहों से तेज़ थी। जबकि कुछ भौंरे तो कार्य को पूरी तरह अपने दम पर करने में सक्षम पाए गए। इसके अलावा कुछ ही समय में भौंरों ने गेंद को घसीटने का एक बेहतर तरीका खोज निकाला था। जिन भौंरों ने प्रशिक्षित भौंरों को लक्ष्य तक गेंद धकेलते देखा था, वे बाद में गेंद को पीछे की ओर धकेलते हुए ले जा रहे थे। वैज्ञानिकों ने इसे एक अप्रत्याशित और अभिनव परिवर्तन के रूप में देखा और पाया कि वे अपने कार्यों को पूरा करने के लिए नई-नई तकनीक अपनाने में भी माहिर हैं।
अध्ययन में भौंरों ने लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए अलग-अलग गेंदों का चुनाव भी किया। हालांकि प्रशिक्षित भौरों ने सबसे दूर रखी गेंद को लक्ष्य तक पहुंचाया था लेकिन प्रेक्षक भौंरों ने लक्ष्य के निकट रखी गेंदों को भी चुना। गेंदों का रंग बदलने पर भी भौंरों ने इनाम के लालच में काली गेंदों को भी लक्ष्य तक पहुंचाया। इससे यह स्पष्ट होता है कि वे कार्य के सामान्य सिद्धांत को समझने की भी क्षमता रखते हैं और किसी भी समस्या को प्रभावी ढंग से हल करने में माहिर हैं।
भौंरों का यह लचीलापन इनकी आबादी में हो रही कमी की समस्या से निपटने में सहायक हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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घोस्ट कैटफिश या ग्लास कैटफिश (Kryptopterus vitreolus) मूलत: थाइलैंड की नदियों में पाई जाती है। लेकिन ये पिद्दी-सी घोस्ट कैटफिश एक्वैरियम में रखने के लिए लोकप्रिय हैं। कारण है कि इनका शरीर लगभग पारदर्शी होता है। लेकिन जब इनके ऊपर रोशनी पड़ती है तो ये इंद्रधनुषी रंग बिखेरती हैं। अब, शोधकर्ताओं ने इस रंग-बिरंगी चमक के कारण का पता लगा लिया है। उनमें यह चमक उनकी भीतरी संरचना के कारण आती है।
वैसे तो कई जीव ऐसे होते हैं जो हिलने-डुलने या चलने पर अलग रंगों में दिखने लगते हैं। लेकिन आम तौर पर उनमें ये रंग उनकी बाहरी चमकीली त्वचा के कारण दिखाई देते हैं। जैसे हमिंगबर्ड या तितली के पंखों के रंग। लेकिन कैटफिश में शल्क नहीं होते हैं। बल्कि इनकी मांसपेशियों में सघन संरचनाएं होती हैं, जिनसे टकराकर प्रकाश बदलते रंगों में बिखर जाता है।
शंघाई जिआओ टोंग युनिवर्सिटी के भौतिक विज्ञानी किबिन झाओ ने जब प्रयोगशाला में इनके शरीर पर विभिन्न तरह का प्रकाश डाला तो पाया कि तैरते समय घोस्ट कैटफिश की मांसपेशियां क्रमिक रूप से सिकुड़ती और फैलती हैं, जिसकी वजह से चमकीले रंग निकलते हैं। ये नतीजे प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित हुए हैं।
शोधकर्ताओं का कहना है कि इंद्रधनुषी छटा दिखने के लिए उनकी त्वचा पारदर्शी होना आवश्यक है; यह लगभग 90 प्रतिशत प्रकाश को आर-पार गुज़रने देती है। यदि मछली की त्वचा इतनी पारदर्शी नहीं होगी तो रंग नहीं दिखेंगे।
वैसे तो कई जीव अपने टिमटिमाते रंगो का उपयोग अपने साथियों को रिझाने के लिए या शिकारियों को चेतावनी का संकेत देने के लिए करते हैं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि घोस्ट कैटफिश किस उद्देश्य से चमक बिखेरती हैं। (स्रोत फीचर्स)
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आजकल एक गुठली की चर्चा कुछ ज़्यादा ही हो रही है। इसके चमत्कारी प्रभाव का लाभ लेने के लिए इसे अभिमंत्रित कर मुफ्त में बांटा जा रहा है ताकि आमजन को विभिन्न व्याधियों से मुफ्त में मुक्ति दिलाई जा सके। आप समझ गए होंगे कि बात रुद्राक्ष की हो रही है।
इसी संदर्भ में हाल ही में रुद्राक्ष के औषधि महत्व पर आज तक जो शोध विभिन्न लोगों ने किए हैं उसका एक समीक्षा पर्चा मुझे पढ़ने में आया है। यह पंजाब युनिवर्सिटी विज्ञान शोध पत्रिका में 2018 में छपा था। यह महत्वपूर्ण सामयिक कार्य डी. वी. राय, शिव शर्मा और मनीषा रस्तोगी ने किया है। तीनों शोभित युनिवर्सिटी (मेरठ) में कार्यरत हैं।
क्या है रुद्राक्ष?
इसके चमत्कारिक औषधि प्रभाव के बारे में बात करने के पहले जरा यह जान लें कि रुद्राक्ष है क्या। रुद्राक्ष एक पेड़ (विज्ञान की भाषा में एलियोकार्पस गैनिट्र्स) का बीज है। इसके पेड़ 10 से 20 मीटर तक ऊंचे होते हैं और हिमालय की तलहटी में गंगा के मैदानों से लेकर चीन, दक्षिण पूर्वी एशिया, ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्सों और हवाई तक पाए जाते हैं। रुद्राक्ष नेपाल से लेकर जावा और सुमात्रा के पहाड़ी क्षेत्रों में बहुतायत में पाए जाते हैं।
दुनिया भर में एलियोकार्पस की 350 से ज़्यादा प्रजातियां पाई गई हैं। इनमें से 33 भारत में मिलती हैं। भारतीय अध्यात्म में रुद्राक्ष को पृथ्वी और सूर्य के बीच एक कड़ी के रूप में देखा जाता है।
रुद्राक्ष इस पेड़ के पके फलों (जिन्हें ब्लूबेरी कहा जाता है) की गुठली है। बीजों का अध्ययन बताता है कि इसके बीज की मध्य आंतरिक भित्ती नारियल की तरह कठोर होती है। इसके भीतर नारियल जैसा ही एक भ्रूणपोष (खोपरा) होता है जिसमें कैल्शियम ऑक्सलेट के ढेर सारे रवे पाए जाते हैं। रुद्राक्ष का फल बेर जैसा ही होता है। इसका गूदा नरम और उसके अंदर एक गुठली और गुठली के अंदर बीज। जिसे हम रुद्राक्ष का बीज कहते हैं वह तो इसकी गुठली ही है, ठीक वैसे ही जैसे बेर की गुठली।
रुद्राक्ष के फलों से गुठली प्राप्त करने के लिए इसे कई दिनों तक पानी में गला कर रखा जाता है। फिर गूदा साफ करके इन्हें चमका कर रोज़री अर्थात मालाएं बनाई जाती है। इन मनकों पर जो दरारें नजर आती हैं वे इसके अंडाशय में पाए जाने वाले प्रकोष्ठों की संख्या से जुड़ी हुई है। ये सामान्यत: पांच होती हैं परंतु एक से लेकर 21 तक भी देखी गई हैं। इन खड़ी लाइनों को ही मुख कहा जाता है। ज़्यादा मुखी होने पर उसका महत्व/कीमत बढ़ जाती है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि असामान्य गुठलियों में ज़्यादा जादुई शक्ति होती है। इनकी गुठलियों का रंग सफेद, लाल, बादामी, पीला या गहरा काला भी हो सकता है। बादामी रुद्राक्ष सबसे आम है।
रुद्राक्ष के फलों का बाहरी छिलका नीला होता है इसलिए इन्हें ब्लूबेरी कहा जाता है। यह नीला रंग किसी रंजक की वजह से नहीं बल्कि इसके छिलकों की बनावट की वजह से होता। यानी रंग नज़र तो आता है किंतु मसलने पर हाथ नहीं आएगा।
पौराणिक उत्पत्ति
एक पौराणिक कथा के अनुसार रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के आंसुओं से हुई थी। इसलिए इसे पवित्र माना जाता है और शिव भक्तों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। देवी भागवत पुराण के अनुसार त्रिपुरासुर का वध करने के लिए जब देवताओं ने शिव से आग्रह किया तो उन्होंने अपने नेत्र योग मुद्रा में बंद कर लिए और जब थोड़ी देर बाद आंखें खोली तो उनकी आंखों से आंसू टपके। मान्यता है कि जहां-जहां धरती पर उनके आंसू टपके वहां-वहां रुद्राक्ष के पेड़ उत्पन्न हुए।
अब बात करते हैं उस महत्वपूर्ण समीक्षा पर्चे की जिसमें अब तक प्रकाशित विभिन्न शोध पत्रों का पुनरावलोकन किया गया है। इन शोध पत्रों में रुद्राक्ष का उपयोग कई विकारों, जैसे तनाव, चिंता, अवसाद, घबराहट, तंत्रिका विकार, माइग्रेन, एकाग्रता की कमी, दमा, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, गठिया, यकृत रोग और कैंसर आदि तक में करने की बात कही गई है। इन सबका सार पढ़कर तो लगेगा कि लाख दुखों की एक दवा है रुद्राक्ष। तो क्यों न आज़माएं?
इन शोध पत्रों के मुताबिक इन गुठलियों में कई औषधीय महत्व के रसायन भी पाए गए हैं जैसे अल्केलॉइड्स, फ्लेवोनॉइड्स, स्टेराड्स, कार्डिएक ग्लाइकोसाइड्स आदि। कहना न होगा कि किसी भी पेड़, बीज, गुठली का विश्लेषण करने पर कम-ज़्यादा मात्रा में इसी तरह के रसायन मिलने की उम्मीद की जा सकती है। रुद्राक्ष के संघटन की तुलना किसी अन्य से नहीं की गई है।
कुछ शोधार्थियों ने रुद्राक्ष की गुठलियों के विद्युत-चुंबकीय गुणों का अध्ययन किया है और बताया है कि इन मनकों का विद्युत-चुंबकीय गुण कई असाध्य रोगों (जैसे उच्च रक्तचाप, हृदय की गति, मधुमेह, स्त्री रोग, तंत्रिका सम्बंधी गड़बड़ी, नींद ना आना, गठिया) आदि को ठीक करता है। कहा गया है कि ये गुण इसकी माला धारण करने के असर का ‘वैज्ञानिक’ आधार हैं। लेकिन एक अहम बात यह देखने में आती है कि चुंबकीय गुणों के सारे परीक्षण रुद्राक्ष गुठली के चूर्ण पर किए गए हैं, साबुत गुठली पर नहीं।
इस संदर्भ में शिव शर्मा, डी. वी. राय और मनीषा रस्तोगी के एक पर्चे (इंटरनेशन जर्नल ऑफ साइन्टिफिक एंड टेक्नॉलॉजी रिसर्च) में रुद्राक्ष चूर्ण के तमाम मापन के आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं – जैसे कोएर्सिविटी, रिटेंटिविटी, रेमनेंस, मैग्नेटाइज़ेशन और चुंबकीय गुणों की तापमान पर निर्भरता। कई ग्राफ और तालिकाएं भी दी गई हैं। एक्सरे फ्लोरेसेंस के परिणाम प्रस्तुत किए गए हैं। लेकिन आईसर, पुणे के वैज्ञानिक डॉ. भास बापट के अनुसार, “यह तीन नमूनों के साथ विभिन्न तकनीकों से प्राप्त विविध चुंबकीय गुणधर्मों की सूची है और कोई कोशिश नहीं की गई है कि इन गुणों का आकलन जैविक या औषधीय प्रभावों की दृष्टि से किया जाए।” और तो और, जैसा कि ऊपर कहा गया है, ये सारे मापन चूर्ण के साथ किए गए हैं।
एस. त्रिपाठी व अन्य के शोध पत्र (2016) में बताया गया है कि दो तांबे के सिक्कों के बीच रुद्राक्ष का घूमना इसके विद्युत-चुंबकीय गुणों का स्पष्ट प्रमाण है परंतु समीक्षा पर्चे में इस पर सवाल उठाते हुए कहा गया है कि इस क्रिया के सत्यापन की ज़रूरत है; अर्थात यह संदिग्ध है।
इसी तरह एस. प्रजापति और अन्य (2016) के प्रयोगों को भी वनस्पति विज्ञान के शोधकर्ताओं द्वारा परखा जाना चाहिए। उन्होंने ड्रेसिना के कुछ पौधों को रुद्राक्ष माला पहनाकर और कुछ को ऐसी माला पहनाए बगैर उनका विद्युत विभव तने और पत्तियों के बीच नापा। इस प्रयोग के आधार पर उनका निष्कर्ष था कि रुद्राक्ष में केपेसिटिव, रेज़िस्टिव और इंडक्टिव गुण होते हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि शोधकर्ताओं ने यह प्रयोग कोई अन्य माला पहनाकर किया था या नहीं। वैसे भी उन्होंने पौधों को दो भागों में बांट दिया था – धनात्मक तना और ऋणात्मक पत्ती। यह सच है कि तने से पत्ती की ओर कई धनात्मक आयनों का प्रवाह पानी के माध्यम से होता है किंतु इस आधार पर उन्हें धनात्मक और ऋणात्मक क्षेत्रों में बांटने की बात बेमानी है। पत्तियों में तो सबसे ज़्यादा जैव रासायनिक क्रियाएं होती रहती है। अतः उसे ऋणात्मक मानना उचित नहीं होगा।
इसी तरह त्रिपाठी व साथियों (2016) ने रुद्राक्ष के बीजों के इम्यूनिटी सम्बंधी गुणों का अध्ययन किया। उन्होंने 15 लोगों को रुद्राक्ष की माला पहनाई और 15 को नहीं। उन्होंने पाया कि जो लोग नियमित रूप से रुद्राक्ष माला पहनते थे वे स्वस्थ थे। उनका सीबीसी व मूत्र परीक्षण किया गया तो उनका हिमोग्लोबिन, आरबीसी, डीएलसी अधिक था। सवाल यह है कि क्या उन दोनों समूहों का पूर्व परीक्षण किया गया था इन्हीं पैरामीटर्स के लिए। माला कितने दिनों तक पहनाई गई और क्या दोनों समूह को भोजन एक-सा दिया गया था और उनकी दिनचर्या भी क्या एक समान थी। ये सभी सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि छद्म विज्ञान और सच्चे विज्ञान में यही अंतर है। ऐसे ही एक अन्य अध्ययन (कुमावत व अन्य, 2022) में रुद्राक्ष की खुराक के साथ-साथ तमाम परहेज भी करवाए गए थे और तुलना के लिए कोई समूह नहीं था। तुलना का प्रावधान अर्थात कंट्रोल वैज्ञानिक प्रयोगों में एक महत्वपूर्ण घटक होता है जो प्रयोगों की सत्यता को प्रमाणित करता है।
रुद्राक्ष के प्रतिरक्षा तंत्र को प्रभावित करने की क्रिया पर भी कई लोगों ने कार्य किए हैं। यहां जयश्री और अन्य (2016) का ज़िक्र लाज़मी है। उन्होंने पत्ती, छाल तथा बीज के जलीय और एसीटोन निष्कर्ष की जांच की और पाया कि बीजों को पानी में रखकर उसका पानी पीना उतना उपयोगी नहीं है जितना कि अन्य रसायनों में बनाए गए आसव।
कुछ परीक्षण जीवों पर भी किए गए हैं। जैसे चूहों पर उच्च-रक्तचाप रोधी गुणों का पता लगाने के लिए बीजों को पीसकर उनका चूर्ण विभिन्न मात्रा में खिलाया गया। पता चला कि चूहों का रक्तचाप कम हुआ। इसी तरह अल्कोहल निष्कर्षण बीजों में अवसाद रोधी प्रभाव पाए गए हैं। चूहों के अलावा जैन और अन्य द्वारा 2016 एवं 2017 में खरगोश पर भी इसी तरह के प्रयोग किए गए हैं। जिनसे पता चला कि बीजों का अल्कोहल आसव उनके खून में कोलेस्ट्रॉल स्तर कम करने में सहायक पाया गया है। किडनी रोगों में भी प्रभावी पाया गया है।
राय व साथी अपने समीक्षा पर्चे के निष्कर्ष के तौर पर यही कहते हैं कि प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली में विविध विकारों के उपचार में रुद्राक्ष मनकों को जो महत्व दिया गया है, उसे देखते हुए, यही कहा जा सकता है कि मानक पद्धतियों से प्राप्त निष्कर्ष और इसकी कार्यविधि सम्बंधी नतीजे निहायत अपर्याप्त हैं। विभिन्न जीर्ण रोगों के कुप्रभावों से निपटने में एक समग्र तरीके के तौर पर इसकी प्रभाविता, लागत-क्षमता, उपयोगकर्ता के लिए सुविधा, आसानी से उपलब्धता और सुरक्षा को साबित करने के लिए गहन शोध अध्ययनों की ज़रूरत है ताकि सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे भवंतु निरामया के सूत्र के आधार पर समस्त मानव जाति को इसके चमत्कारिक विभिन्न स्वास्थ्य लाभों से वंचित ना रहना पड़े।
ऐसे अनुसंधान से कोई लाभ नहीं होगा जो पहले से मान लिए गए सत्य को प्रमाणित करने के लिए किया जाए। अनुसंधान तो सत्य के अन्वेषण के लिए होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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