भारत और कई विकासशील देशों के गांवों में पालतू बकरी (कैपरा हिर्कस) मिलना आम है। पालतू बनाए जाने के समय (लगभग 10,000 साल पहले) से ही बकरियों ने मानव समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण आर्थिक भूमिका निभाई है। यह भी कहा गया है कि मनुष्यों का शिकारी-संग्राहक जीवन शैली से कृषि आधारित बस्तियों में बसने में बकरियों का पालतूकरण एक महत्वपूर्ण कदम था।
खाद्य और कृषि संगठन (FAO) का अनुमान है कि दुनिया में लगभग 1000 नस्लों की 83 करोड़ बकरियां हैं। भारत में 20 से अधिक प्रमुख नस्लों की 15 करोड़ बकरियां हैं। राजस्थान में बकरियों की संख्या सबसे अधिक है – यहां पाई जाने वाली मारवाड़ी बकरी सख्तजान है और रेगिस्तानी जलवायु के अनुकूल है। एक और सख्तजान नस्ल है उस्मानाबादी जो महाराष्ट्र, तेलंगाना और उत्तरी कर्नाटक के शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती है।
उत्तरी केरल की मलाबारी बकरी (जिसे टेलिचेरी भी कहा जाता है) एक ऐसी नस्ल है जिसके मांस में वसा कम होती है और वह खूब संतानें पैदा करती है। ऐसे ही गुण पंजाब की बीटल बकरी में भी होते हैं। पूर्वी भारतीय ब्लैक बंगाल बकरी बांग्लादेश के ग्रामीण गरीबों की आजीविका में महत्वपूर्ण योगदान देती है। ये 2 करोड़ वर्ग फुट से अधिक चमड़ा प्रदान करती हैं जिसका उपयोग अग्निशामकों के लिए दस्ताने बनाने से लेकर फैशनेबल हैंडबैग और चमड़े के अन्य सामान बनाने में होता है। चूंकि कई किसानों के पास मवेशी पालने के लिए जगह या धन की कमी है, इसलिए बकरियों को ‘गरीब आदमी की गाय’ उचित ही कहा जाता है।
भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में जंगली बकरियों की बहुत कम आबादी है, जिनसे पालतू बकरियां या भेड़ें विकसित हुई हैं। इनमें मार्खोर और हिमालयी और नीलगिरी ताहर शामिल हैं।
समुद्री यात्राओं के स्वर्ण युग में इन यात्राओं के ज़रिए भारतीय बकरियों के जीन दुनिया के सभी इलाकों में फैले। भारत से युरोप जाने वाले जहाजों पर लदी बकरियां महीने भर लंबी यात्रा के दौरान लोगों के लिए दूध और मांस उपलब्ध कराती थीं। उत्तर प्रदेश की जमुनापारी बकरियों को पसंद किया गया क्योंकि वे आठ महीने के स्तनपान काल के दौरान 300 किलोग्राम दूध देती हैं। इंग्लैंड में कभी, उच्च वसा वाला दूध देने वाली बकरियों की नस्ल, एंग्लो-न्युबियन, विकसित करने के लिए जमुनापारी बकरियों का वहां की स्थानीय नस्ल के साथ संकरण कराया गया था।
औषधि का निर्माण
बकरियां लगभग दो साल में प्रजनन शुरू कर देती हैं और भरपूर दूध देती हैं। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि बकरियों ने चिकित्सकीय प्रोटीन उत्पादन के लिए जैव प्रोद्योगिकी कंपनियों का ध्यान आकर्षित किया है।
इसमें पहली सफलता एट्रीन (ATryn) के साथ मिली है – यह बकरी से उत्पादित एंटीथ्रॉम्बिन-III अणु का व्यावसायिक नाम है। एंटीथ्रॉम्बिन रक्त को थक्का बनने से मुक्त रखता है, और इस प्रोटीन की कमी (जो आम तौर पर वंशानुगत होती है) से पल्मोनरी एम्बोलिज़्म जैसी गंभीर समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इससे पीड़ित व्यक्तियों को सप्ताह में दो बार एंटीथ्रॉम्बिन इंजेक्शन की आवश्यकता होती है, जो आम तौर पर दान किए गए रक्त से निकाला जाता है।
ट्रांसजेनिक बकरियों, जिनमें मानव एंटीथ्रॉम्बिन जीन की एक प्रति रोपी जाती है, की स्तन ग्रंथियों की कोशिकाएं दूध में यह प्रोटीन स्रावित करती हैं। ऐसा दावा है कि एक बकरी उतना एंटीथ्रॉम्बिन बना सकती है जितना 90,000 युनिट मानव रक्त से प्राप्त होता है।
हाल ही में एफडीए द्वारा अनुमोदित सेटुक्सिमैब नामक मोनोक्लोनल एंटीबॉडी औषधि का निर्माण क्लोन बकरियों में किया गया है। इसे बड़ी मात्रा में (प्रति लीटर दूध से 10 ग्राम) बनाया जा सकता है। फिलहाल यह मालूम नहीं है कि यह ‘औषधि’ सुरक्षा और प्रभावकारिता सम्बंधी नियामक बाधाओं को पार कर पाएगी या नहीं। अब देखना यह है कि क्या अन्य मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के अधिक मात्रा में उत्पादन के लिए बकरियों का इस्तेमाल दवा कारखानों के रूप में किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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