एक दशक पूर्व जापान के क्योटो विश्वविद्यालय के शिन्या यामानाका को ऐसे प्रोटीन्स की खोज के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था जिनकी मदद से वयस्क कोशिकाओं को वापिस उनकी प्रारंभिक स्थिति (स्टेम कोशिकाओं) में तबदील किया जा सकता है। अब दो शोधकर्ता दलों ने दावा किया है कि ये प्रोटीन्स सिर्फ कोशिकाओं को नहीं बल्कि पूरे जीव को उसकी प्रारंभिक स्थिति में ला सकते हैं – यानी बुढ़ापे को पलट सकते हैं। .
इनमें से एक दल एक बायोटेक कंपनी में कार्यरत है और उसने तथाकथित यामानाका फैक्टर को जीन-उपचार की तकनीक से बूढ़े चूहों में प्रविष्ट कराया और उनके जीवनकाल को थोड़ा लंबा करने में सफलता पाई। दूसरे दल ने जेनेटिक इंजीनियरिग की मदद से चूहे विकसित किए और बुढ़ापे के लक्षणों को पलटा।
दोनों ही मामलों में लगता है कि यामानाका फैक्टर्स ने चूहों के एपिजीनोम को बदल दिया। एपिजीनोम डीएनए और प्रोटीन्स में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों को कहते हैं जो जीन्स की अभिव्यक्ति को बदल देते हैं – उसे ज़्यादा युवावस्था जैसा बना देते हैं। गौरतलब है कि इस प्रक्रिया में डीएनए के क्षारों में या उनके क्रम में परिवर्तन नहीं होता।
इससे पहले भी कई समूहों ने जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे चूहे तैयार किए हैं जो वयस्क होने पर खुद यामानाका फैक्टर्स बनाने लगते हैं और बुढ़ापे के कुछ लक्षणों को पलटने में सक्षम होते हैं। अब जो प्रयोग किए गए हैं उनका मकसद मनुष्यों के लिए कुछ उपचार खोजना है।
इसी संदर्भ में रीजुविनेट बायो नामक कंपनी के शोधकर्ताओं ने उक्त यामानाका फैक्टर्स के जीन्स से युक्त एक वायरस को चूहों में इंजेक्ट किया। देखा गया कि इसके बाद ये चूहे 18 सप्ताह तक जीवित रहे जबकि शेष चूहे मात्र 9 सप्ताह। शोधकर्ताओं ने बायोआर्काइव्स में बताया है कि इन चूहों में डीएनए मिथायलेशन का पैटर्न अपेक्षाकृत युवा चूहों जैसा हो गया था। डीएनए मिथायलेशन एपिजेनेटिक परिवर्तन का एक प्रकार है। वैसे कुछ अन्य अध्ययनों में पाया गया था कि यामानाका फैक्टर्स कैंसर को बढ़ावा देते हैं लेकिन इस अध्ययन में ऐसा कुछ नहीं देखा गया।
दूसरा अध्ययन हारवर्ड मेडिकल स्कूल के डेविड सिन्क्लेयर के दल द्वारा सेल में प्रकाशित किया गया है। कहते हैं कि सिन्क्लेयर पिछले दो दशकों में कई वृद्धावस्था रोधी विवादास्पद हस्तक्षेपों के प्रणेता रहे हैं। सिन्क्लेयर का दल वृद्धावस्था के सूचना सिद्धांत के आधार पर काम कर रहा था। इस सिद्धांत में कहा जाता है कि हम बूढ़े इसलिए होते हैं क्योंकि समय के साथ एपिजेनेटिक चिंह खत्म होते जाते हैं। सिन्क्लेयर का मत है कि हमारी कोशिकाओं में डीएनए मरम्मत की व्यवस्था ही इसके लिए ज़िम्मेदार होती है।
तो इस दल ने जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे चूहे विकसित किए जिनमें यह गुण था कि उन्हें एक विशिष्ट औषधि देने पर वे एक एंज़ाइम बनाते थे जो उनके जीनोम को 20 जगह काट देता है। इन्हें फिर उक्त व्यवस्था द्वारा निष्ठापूर्वक दुरुस्त कर दिया जाता है। परिणाम यह होता है कि कोशिका के डीएनए मिथायलेशन और जीन अभिव्यक्ति में व्यापक परिवर्तन होते हैं। इन चूहों में जो एपिजेनेटिक पैटर्न था वह अपेक्षाकृत बुज़ुर्ग चूहों का था और उनकी सेहत भी बिगड़ गई – उनके बाल झड़ गए, रंग उड़ गया और उनमें दुर्बलता के कई लक्षण नज़र आने लगे।
अब शोधकर्ता देखना चाहते थे कि क्या एपिजेनेटिक बदहाली के इन लक्षणों को पलटाया जा सकता है। उन्होंने एक वायरस के साथ यामानाका फैक्टर्स दिए और देखा कि बुढ़ाते चूहों की दृष्टि सुधर गई थी। कई अन्य मामलों में यामानाका फैक्टर्स ने एपिजेनेटिक सुधार किए थे। इसके आधार पर सिन्क्लेयर का मत है कि बुढ़ापे को आगे-पीछे कर सकते हैं और कुछ इलाज उभर सकता है।
बहरहाल, जैसा कि हमेशा होता है, पूरे मामले में कई अगर-मगर हैं। एक तो यही कि जो एपिजेनेटिक परिवर्तन किए गए थे वे कुदरती नहीं थे। पता नहीं कुदरती परिवर्तन किस तरह होते हैं और उनका क्या असर होता है। दूसरा कि चूहे और मनुष्य बहुत अलग-अलग हैं। तीसरा कि बुढ़ाना एक पेचीदा प्रक्रिया है और ये प्रयोग उसका सरलीकरण करते हैं। इन सारे अगर-मगर के बावजूद शोधकर्ता आगे बढ़कर मनुष्यों पर प्रयोग करने को उत्सुक हैं। बंदरों पर जांच तो शुरू भी हो चुकी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg6801/abs/_20230112_on_aging_mice.jpg