वन सृजन व हरियाली बढ़ाने के सार्थक प्रयास – भारत डोगरा

ध्य प्रदेश के टीकमगढ़ ज़िले के मरखेड़ा गांव में हाल ही में नया वन तैयार करने का एक ऐसा प्रयास गांववासियों ने किया है जिसे देखने के लिए आसपास के क्षेत्रों से अनेक लोग यहां आ रहे हैं। यहां लगभग 36 स्थानीय प्रजातियों के 1800 पेड़ इस तरह सघनता से पास-पास लगाए गए हैं कि कम क्षेत्र में अधिक पेड़ पनप सकें व एक तरह का पेड़ दूसरी प्रजाति के वृक्ष का पूरक हो। वृक्ष लगाने से पहले भूमि को एक मीटर खोदा गया, इसमें भरपूर गोबर, पत्तियों व भूसे की खाद परतों में डाली गई, फिर मिट्टी की तह वापस बिछाई गई।

इससे पहले जल-संरक्षण का कार्य किया गया था, जिससे पानी की कमी नहीं हुई। सृजन संस्था द्वारा आरंभ किया गया यह कार्य सभी स्तरों पर गांववासियों की भागीदारी व परामर्श से हुआ, जिससे उनका उत्साह और बढ़ गया। गांववासियों ने बताया कि जिस तरह अपनी फसल की सिंचाई और रख-रखाव वे बहुत निष्ठा से करते हैं, वैसे ही उन्होंने इन पौधों की देखभाल की है।

परिणाम यह है कि 1800 में से एक भी पौधा नहीं सूखा व सभी के पनपने की दर इतनी अच्छी रही कि आठ-नौ महीने बाद 6 से 14 फीट ऊंचे पौधे ललहाते नज़र आने लगे। इसके साथ ही मोर, तोते आदि पक्षी भी यहां अधिक नज़र आने लगे।

इस तरह के वन-प्रयासों को तपोवन का नाम दिया गया है व इन्हें पहले टीकमगढ़ ज़िले में स्थापित करने के बाद कई अन्य ज़िलों में भी फैलाया जा रहा है। पर साथ ही इसमें कुछ सावधानियों को ध्यान में रखना भी ज़रूरी है ताकि पेड़ों का घनत्व बहुत अधिक न हो जाए। पेड़ों की धरती के ऊपर की बढ़त के साथ उनकी जड़ों पर भी पर्याप्त ध्यान देना चाहिए।

इस ‘तपोवन’ प्रयास की मुख्य विशेषता यह है कि यह पूरी तरह स्थानीय प्रजातियों पर ही आधारित है व बहुत जैव-विविधता को पनपाने वाला है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि पेड़ लगाने में बहुत मेहनत और निष्ठा से प्राकृतिक खाद का पोषण मिट्टी में दिया जाता है व इस आधार पर वृक्षों की बहुत स्वस्थ प्रगति प्राप्त हो रही है।

‘तपोवन’ वन पद्धति की सोच जापान के एक विख्यात वनस्पति वैज्ञानिक अकीरा मियावाकी की सोच से जुड़ी हुई है व इसके भारत सहित अनेक देशों में बहुत सार्थक परिणाम प्राप्त हो चुके हैं। एक सघन वन व जैव विविधता भरपूर वन को अपेक्षाकृत कम समय में इस विधि द्वारा पनपाया जा सकता है। जलवायु बदलाव के इस दौर में हरियाली व वन बढ़ाने के बेहतर तौर-तरीकों के बारे में बहुत सोचा जा रहा है व इस संदर्भ में यह सोच बहुत सार्थक हो सकती है।

लगभग दो-तीन वर्षों में यह वन स्वयं पनपने लगता है, और इसे बाहरी सिंचाई आदि की आवश्यकता नहीं रह जाती है।

वैसे मियावाकी की इस सोच के अतिरिक्त कुछ अन्य तरह की सोच भी हरियाली को तेज़ी से बढ़ाने में सहायक है। इसमें एक सोच यह है कि जो स्थानीय प्राकृतिक वन अच्छी स्थिति में बचे हैं उनका गहन अध्ययन स्थानीय लोगों के सहयोग से किया जाए व इस आधार पर स्थानीय स्थितियों के अनुकूल जो सोच बने उसी का अनुकरण नए वनीकरण प्रयास में किया जाए। दूसरे शब्दों में, विभिन्न स्थानीय परिस्थितियों (मिट्टी, जलवायु, वर्षा) आदि के अनुकूल प्रकृति जैसा वन स्वयं तैयार करती है, मनुष्य सृजित वन भी उसके अधिक से अधिक नज़दीक बने रहने का प्रयास करना चाहिए व इस तरह के मार्ग को अपनाते हुए अपने आप उस दिशा में बढ़ सकेंगे जहां वनीकरण प्रयास टिकाऊ तौर पर सफल होने की अधिक संभावना है।

इस तरह की विभिन्न सार्थक सोच के आधार पर प्रयोग करने चाहिए। ये प्रयास वनीकरण की हमारी समझ बढ़ाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सौर जल अपघटन से हरित ऊर्जा

काफी लंबे समय से वैज्ञानिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए सूरज की ऊर्जा और पानी का उपयोग करने का प्रयास कर रहे हैं; लगभग उसी तरह जैसे पौधे प्रकाश संश्लेषण के दौरान करते हैं। सूर्य के प्रकाश का उपयोग करते हुए पानी के अणुओं को तोड़ने की वर्तमान तकनीक इतनी कार्यक्षम नहीं है कि इसे व्यवसायिक रूप से अपनाया जा सके। अलबत्ता, हालिया शोध से कुछ उम्मीद जगी है।

पूर्व में सूर्य की ऊर्जा से पानी के अणुओं को विभाजित करने के प्रयासों में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा है। इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन अणुओं के बंधन को तोड़ने के लिए ऊर्जावान फोटॉन की आवश्यकता होती है। इसके लिए कम तरंग लंबाई यानी अधिक ऊर्जावान (पराबैंगनी और दृश्य प्रकाश के कम) फोटॉन यह काम कर सकते हैं। लेकिन सूर्य से जो रोशनी पृथ्वी तक पहुंचती है उसमें 50 प्रतिशत तो इन्फ्रारेड (अवरक्त) फोटॉन होते हैं जिनमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं होती। 

हालिया नई तकनीक में ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के बंधन को तोड़ने के लिए दो रणनीतियां आज़माई गई हैं।

पहली तकनीक में प्रकाश-विद्युत-रासायनिक सेल (फोटोइलेक्ट्रोकेमिकल सेल, पीईसी) का उपयोग किया जाता है। यह उपकरण एक बैटरी के समान होता है। इसके दो इलेक्ट्रोड एक तरल इलेक्ट्रोलाइट में डूबे रहते हैं। इनमें से एक इलेक्ट्रोड एक छोटे सौर सेल की तरह काम करता हैं – सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करके उसकी ऊर्जा को विद्युत आवेश में बदल देता है। ये आवेश इलेक्ट्रोड पर उपस्थित उत्प्रेरकों को मिलते हैं और वे पानी के अणु विभाजित कर देते हैं। एक इलेक्ट्रोड पर हाइड्रोजन गैस और दूसरे पर ऑक्सीजन गैस उत्पन्न होती है।

सर्वोत्तम पीईसी सूर्य के प्रकाश की लगभग एक-चौथाई ऊर्जा को हाइड्रोजन ईंधन में परिवर्तित करता है। लेकिन इसके लिए संक्षारक इलेक्ट्रोड की आवश्यकता होती है जो काफी तेज़ी से प्रकाश-अवशोषक अर्धचालक को नष्ट करता है।  

मोनोलिथिक फोटोकैटेलिटिक सेल नामक दूसरी रणनीति में बैटरी जैसा उपकरण उपयोग न करके प्रकाश-अवशोषक अर्धचालक को सीधे पानी में डुबाकर रखा जाता है। यह अर्धचालक सूर्य के प्रकाश का अवशोेषण करके विद्युत आवेश उत्पन्न करता है जो इसकी सतह पर उपस्थित उत्प्रेरक धातुओं को मिलता और वे पानी के अणु विभाजित कर देती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन पास-पास उत्पन्न होते हैं और फिर से जुड़कर पानी बना देते हैं।    

फोटोकैटेलिटिक सेल की दक्षता काफी कम है और सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का केवल 3 प्रतिशत ही हाइड्रोजन में परिवर्तित होता है। इसका एक समाधान अर्धचालकों के आकार को पारंपरिक सौर पैनलों के बराबर करना है। लेकिन पानी को विभाजित करने वाले अर्धचालक पारंपरिक सिलिकॉन सौर पैनलों की तुलना में काफी महंगे होते हैं जिसके कारण इनका उपयोग घाटे का सौदा है।

इस नए अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के रसायनज्ञ ज़ेटियन मी ने फोटोकैटेलिटिक उपकरण में एक बड़े-से लेंस का उपयोग किया। लेंस ने सूर्य के प्रकाश को एक छोटे-से क्षेत्र पर केंद्रित कर दिया जिससे पानी के अणुओं को तोड़ने वाले अर्धचालक के आकार और लागत को कम किया जा सका। मी ने एक परिवर्तन यह भी किया कि पानी के तापमान को 70 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा दिया जिससे अधिकांश हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसों को पुन: पानी में परिवर्तित होने से रोका जा सका।

मी द्वारा बनाया गया नवीनतम उपकरण न केवल पराबैंगनी और दृश्य प्रकाश का उपयोग करता है बल्कि कम ऊर्जावान इन्फ्रारेड फोटोन के साथ भी काम करता है। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इन परिवर्तनों की मदद से वैज्ञानिक सूर्य की 9.2 प्रतिशत ऊर्जा को हाइड्रोजन ईंधन में परिवर्तित कर पाए।

मी के अनुसार पीईसी की तुलना में फोटोकैटेलिटिक सेल का डिज़ाइन काफी आसान है और बड़े पैमाने पर उत्पादन से इसकी लागत में और कमी आएगी। इसके अलावा नया सेटअप थोड़ी कम कुशलता से ही सही लेकिन समुद्री जल जैसे सस्ते संसाधन के साथ भी काम करता है। समुद्री जल को कार्बन-मुक्त ईंधन में परिवर्तित करना हरित ऊर्जा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान होगा। बहरहाल, इस तरह के उपकरण के व्यावसायिक उपयोग में कई समस्याएं आएंगी। जैसे एक समस्या तो यह होगी कि हाइड्रोजन व ऑक्सीजन गैसों को दूर-दूर कैसे रखा जाए क्योंकि अन्यथा उनकी अभिक्रिया क्रिया काफी विस्फोटक हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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राजहंस कैसे कीचड़ से भोजन छान लेता है

गुलाबी पंखों और लंबे डग भरने वाले फ्लेमिंगो (राजहंस) अन्य मामलों में भी बाकियों से अलग हैं। वे कीचड़ में से छोटे-छोटे झींगों, कीड़े-मकोड़ों और अन्य जीवों को छानने (या चुनने) में इतने माहिर हैं कि वे कम भोजन वाले उन इलाकों, जिनमें नमक के मैदान, क्षारीय झीलें और गर्म पानी के झरने शामिल हैं, में भी जीवित रहते हैं, जहां से अधिकांश पक्षी पलायन कर जाते हैं।

पिछले हफ्ते सोसाइटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की वार्षिक बैठक में फ्लेमिंगो की खानपान की आदतों पर प्रस्तुत एक नवीन अध्ययन में बताया गया कि इस सफलता का कारण तरल यांत्रिकी में उनकी महारत है। वे पानी की भौतिकी की मदद से भोजन मुंह तक पहुंचाते हैं।

जॉर्जिया युनिवर्सिटी के विक्टर ओर्टेगा-जिमेनेज़ और उनके साथियों ने नैशविले चिड़ियाघर में चिली फ्लेमिंगो के पानी में चलने और खाने के व्यवहार का अध्ययन परिष्कृत इमेजिंग तकनीकों और कंप्यूटर प्रोग्राम की मदद से किया। फिर अपने अनुमानों की जांच उन्होंने फ्लेमिंगो के सिर के त्रि-आयामी मॉडल पर की।

उन्होंने पाया कि फ्लेमिंगो चोंच को गोल-गोल घुमाकर पानी में भंवर पैदा करते हैं जिससे भोजन उनकी पहंुच में आ जाता है। उदाहरण के लिए, राजहंस पैर पटकते हैं और छोटे गोले में चारों ओर घूमते हैं जिससे कीचड़ ऊपर उछलता है। फिर वे अपनी चोंच को पेंदे से सटाते हैं और अपने मुंह को बार-बार खोलते-बंद करते हैं जैसे पटर-पटर बात कर रहे हों, फिर तालाब के पेंदे से जीभ सटाकर अपनी जीभ को अंदर-बाहर खींचते हुए सक्शन पैदा करते हैं। बीच-बीच में, वे अचानक अपना सिर उठाते हैं जिससे एक भंवर पैदा होता है, जो भोजन को ऊपर उनके मुंह की ओर उठाता है। और आखिर में, जैसे ही फ्लेमिंगो आगे बढ़ते हैं, वे अपनी चोंच से पानी की सतह को पीछे की ओर फेंकते हैं, जिससे पानी में भंवर बन जाता है जो भोजन को ठीक उनकी चोंच के सिरे पर ले आता है। और भोजन सीधे पेट में पहुंचने को तैयार होता है। (स्रोत फीचर्स)

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सोना निर्माण की प्रक्रिया काफी उग्र रही है

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वैज्ञानिक हीलियम से लेकर लोहे तक हल्के तत्वों (जिनके नाभिक में 2 से लेकर 26 प्रोटान होते हैं) के निर्माण के बारे में अच्छे से जानते हैं। यह पता है कि ये तत्व तारों के अंदर क्रमिक रूप से प्रोटॉन जुड़ने से बनते हैं। लेकिन सोना, प्लेटिनम, रैडॉन जैसे अधिक प्रोटान की संख्या (यानी परमाणु संख्या) वाले भारी तत्व कैसे बने इसके बारे में अब तक पूरी तरह से पता नहीं चल सका था क्योंकि ये उपरोक्त क्रमिक प्रक्रिया से नहीं बन सकते। एक हालिया रिपोर्ट ने इस दिशा में कुछ उम्मीद जगाई है।

वैज्ञानिकों का अनुमान था कि इन दुर्लभ तत्वों के बनने के पीछे ब्रह्मांड की कोई भयंकर हिंसक या विनाशकारी घटना होगी – जैसे दो न्यू़ट्रॉन तारों की टक्कर। इसलिए वे लगातार ब्रह्मांड पर नज़रें टिकाए हुए थे।

ब्लैक होल के बाद न्यूट्रॉन तारे ही ब्रह्मांड के सबसे घने पदार्थ हैं। ये तब बनते हैं जब कोई भारी तारा मर जाता है और उसका कोर सिकुड़ने लगता है। अत्यधिक गुरुत्व बल परमाणुओं को अत्यधिक पास लाने लगता है, इससे प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन टूटकर न्यूट्रॉन बन जाते हैं। अंत में एक ऐसा पिंड बनता है जो लगभग पूरी तरह से न्यूट्रॉन से बना होता है। इसे न्यूट्रॉन तारा कहते हैं।

कुछ साल पहले वैज्ञानिकों को इसी तरह की घटना से गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता चला था, और उसी समय इस घटना से उत्पन्न प्रकाश भी देखा गया। उन्हें इस प्रकाश में इन भारी तत्वों के रासायनिक संकेत मिले हैं जो इस सिद्धांत के समर्थन में पहले साक्ष्य हैं कि भारी धातुओं का निर्माण दो न्यूट्रॉन तारों की टक्कर जैसी किसी उग्र घटना का परिणाम है।

जब दो न्यूट्रॉन तारे टकराते हैं तो यह भिड़ंत अत्यधिक ऊष्मा और दाब पैदा करती है। यह टक्कर बहुत सारे मुक्त न्यूट्रॉन को भी बाहर भी फेंक देती है – अंतरिक्ष के 1-1 घन सेंटीमीटर क्षेत्र में 1-1 ग्राम तक न्यूट्रॉन बिखर जाते हैं।

ये दुर्लभ स्थितियां तीव्र न्यूट्रॉन-ग्रहण प्रक्रिया (R-प्रोसेस) को शुरू करती हैं। प्रक्रिया एक लोहे जैसे किसी मूल नाभिक से शुरू होती है। सामान्यत: लोहे के नाभिक में 26 प्रोटॉन और लगभग 30 न्यूट्रॉन होते हैं। लेकिन जब R-प्रोसेस शुरू होती है तो मिलीसेकेंड के भीतर ही इसमें बहुत अधिक न्यूट्रॉन आ जाते हैं। न्यूट्रॉन की इतनी अधिक संख्या के कारण नया नाभिक बहुत अस्थिर हो जाता है, इसलिए कुछ न्यूट्रॉन प्रोटॉन में बदल जाते हैं। इस प्रक्रिया का परिणाम एक नया तत्व – सोना (परमाणु संख्या 79, प्लेटिनम (परमाणु संख्या 78) वगैरह – हो सकता है। ज़रा सोचिए, आपकी सोने या प्लेटिनम की अंगूठी, या कानों की बालियां ब्रह्मांड की किसी उग्र घटना की सौगात हैं। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन रोमन इमारतों की मज़बूती का राज़

युरोप में आज भी प्राचीन रोमन इमारतें दिखाई देती हैं। 2000 से अधिक वर्ष पूर्व निर्मित हमाम, जल प्रणालियां और समुद्री दीवारें आज भी काफी मज़बूत हैं। इस मज़बूती और टिकाऊपन का कारण एक विशेष प्रकार की कॉन्क्रीट है जो आज के आधुनिक कॉन्क्रीट की तुलना में अधिक टिकाऊ साबित हुआ है। हाल ही में इस मज़बूती का राज़ खोजा गया है।

शोधकर्ताओं का मानना है कि कॉन्क्रीट के साथ अनबुझे चूने का उपयोग करने से मिश्रण को सेल्फ-हीलिंग (स्वयं की मरम्मत) का गुण मिला होगा। प्राचीन रोमन कॉन्क्रीट का अध्ययन करने वाली भूवैज्ञानिक मैरी जैक्सन के अनुसार इससे आधुनिक कॉन्क्रीट को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।

गौरतलब है कि कॉन्क्रीट का उपयोग रोमन साम्राज्य से भी पहले से किया जा रहा था लेकिन व्यापक स्तर पर इसका उपयोग सबसे पहले रोमन समुदाय ने किया था। 200 ईसा पूर्व तक उनकी अधिकांश निर्माण परियोजनाओं में कॉन्क्रीट का उपयोग किया जाने लगा था। रोमन कॉन्क्रीट मुख्य रूप से अनबुझे चूने, ज्वालामुखी विस्फोट से निकलने वाली गिट्टियों (टेफ्रा) और पानी से बनाया जाता था। इसके विपरीत आधुनिक कॉन्क्रीट पोर्टलैंड सीमेंट से बनता है जिसे आम तौर पर चूना पत्थर, मिट्टी, रेत, चॉक और अन्य पदार्थों के मिश्रण को पीसकर भट्टी में बनाया जाता है। इसके बावजूद यह 50 वर्षों में उखड़ने लगता है।  

पूर्व में भी वैज्ञानिकों ने रोमन कॉन्क्रीट की मज़बूती को समझने के प्रयास किए हैं। 2017 में हुए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि समुद्र के संपर्क में आने वाली संरचनाएं जब समुद्री जल से संपर्क में आती हैं तब कॉन्क्रीट के अवयवों और समुद्री पानी की प्रतिक्रिया नए और अधिक कठोर खनिज बनाती हैं।                        

इसकी और अधिक संभावनाओं को तलाशने के लिए मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के रसायनज्ञ एडमिर मैसिक और उनके सहयोगियों ने रोम के नज़दीक 2000 वर्ष पुराने प्रिवरनम नामक पुरातात्विक स्थल की एक प्राचीन दीवार से ठोस नमूने एकत्रित किए। इसके बाद उन्होंने कंक्रीट में जमा हुए छोटे-छोटे कैल्शियम के ढेगलों पर ध्यान दिया जिन्हें लाइम लम्प्स कहा जाता है।

कई वैज्ञानिकों का मानना था कि ये लम्प्स कॉन्क्रीट को ठीक से न मिलाने के कारण रह जाते होंगे। लेकिन मैसिक की टीम ने रोमन लोगों द्वारा कॉन्क्रीट में पानी मिलाने से पहले अनबूझा चूना उपयोग करने की संभावना पर विचार किया। गौरतलब है कि अनबूझा चूना चूना पत्थर को जलाकर तैयार किया जाता है। इसमें पानी मिलाने पर एक रासायनिक प्रतिक्रिया होती है जिसमें काफी मात्रा में ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस दौरान चूना पूरी तरह से नहीं घुल पाता और कॉन्क्रीट में चूने की गिठलियां बन जाती हैं। इसे और अच्छे से समझने के लिए वैज्ञानिकों ने रोमन कॉन्क्रीट बनाया जो प्रिवरनम से एकत्रित नमूनों के एकदम समान था।         

साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित अध्ययन में टीम ने बताया है कि उन्होंने इस कॉन्क्रीट में छोटी-छोटी दरारें बनाईं – ठीक उसी तरह जैसे समय के साथ कॉन्क्रीट में दरारें पड़ जाती हैं। फिर उन्होंने इन दरारों में पानी डाला जिससे चूने की गिलठियां घुल गईं और सभी दरारें भर गईं। इस तरह कॉन्क्रीट की मज़बूती भी बनी रही। ।

आधुनिक कॉन्क्रीट 0.2 या 0.3 मिलीमीटर से बड़ी दरारों को ठीक नहीं करता है जबकि रोमन कॉन्क्रीट ने 0.6 मिलीमीटर तक की दरारों को ठीक तरह से भर दिया था।    

मैसिक को उम्मीद है कि ये निष्कर्ष कॉन्क्रीट को बेहतर बनाने में काफी मदद करेंगे। इसकी सामग्री न केवल वर्तमान कॉन्क्रीट से सस्ती है बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी काफी मदद कर सकती है। वर्तमान में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सीमेंट उत्पादन का हिस्सा 8 प्रतिशत है। इस तकनीक के उपयोग से इसे काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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खीरे, खरबूज़े और लौकी-तुरैया – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

दुनिया के सभी भागों के लोग एक वनस्पति कुल, कुकरबिटेसी, से बहुत करीब से जुड़े हैं। इस विविधता पूर्ण कुल में तरबूज़, खरबूज़, खीरा और कुम्हड़ा-कद्दू शामिल हैं। जिन कुकरबिट्स की खेती कम की जाती है उनमें करेला, कुम्हड़ा, चिचड़ा, लौकी, गिलकी और तुरई शामिल हैं।

कुकरबिट्स आम तौर पर रोएंदार बेलें होती हैं। इनमें नर और मादा फूल अलग-अलग होते हैं जो एक ही बेल पर या अलग-अलग बेलों पर लगे हो सकते हैं। इनके फल स्वास्थ्यवर्धक माने जाते हैं, जो विधिध रंग, स्वाद और आकार में मिलते हैं। ये भारत की भू-जलवायु में अच्छी तरह पनपते हैं। इनकी बुवाई का मौसम आम तौर पर नवंबर से जनवरी तक होता है, और गर्मियों में इनके फल पक जाते हैं।

कुकरबिटेसी कुल में मीठे तरबूज़ से लेकर कड़वे करेले तक का स्वाद है और छोटे चिचोड़े से लेकर बड़े आकार का कद्दू तक है। यह विविधता उनके मोज़ेक-सरीखे गुणसूत्रों के अवयवों में फेरबदल का परिणाम है। इसलिए, एक ही जीनस (कुकुमिस) के सदस्य होने के बावजूद खीरे में सात गुणसूत्र होते हैं और खरबूजे में 12।

आलू के विपरीत, जो केवल 450 साल पहले पूरे विश्व में फैला, कुकुरबिट्स सहस्राब्दियों से दुनिया भर की खाद्य अर्थव्यवस्थाओं का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। ये समुद्री लहरों पर सवार होकर किनारों पर पहुंचे और स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल ढल गए। आधुनिक जीनोमिक तकनीकों की मदद से उनके मूल स्थान को पहचानने की आवश्यकता है।

खीरा भारत का स्वदेशी है। खीरा की जंगली प्रजातियां हिमालय की तलहटी में पाई जाती हैं। इन्हें रोमन लोग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व युरोप ले गए थे।

रेगिस्तानी खरबूज़े

राजस्थान के थार रेगिस्तान में स्थानीय लोग अल्प मानसून से जमा हुए पानी से तरबूज़-खरबूज़ की जंगली किस्में उगाते हैं। कम गूदे और ज़्यादा बीज वाले ये फल छोटे होते हैं, जिन्हें सब्ज़ियों के रूप में पकाया जाता है।

हालिया अध्ययनों ने यह स्थापित किया है कि भारत में आज हम तरबूज़-खरबूज़ की जो किस्में देखते हैं, वे पालतूकरण (खेती) करने की दो स्वतंत्र घटनाओं की उत्पाद हैं। इन्होंने जंगली प्रजातियों की कड़वाहट और खट्टापन खो दिया है, और इनके पत्ते, बीज और फल बड़े होते हैं। अफ्रीका में पाई जाने वाली खरबूज़ की प्रजातियों का स्वतंत्र रूप से पालतूकरण हुआ था, लेकिन अफ्रीकी खरबूज़ छोटा होता है और इसके स्वाद में थोड़ी कड़वाहट बरकरार है। तब कोई आश्चर्य नहीं कि पूरी दुनिया में उगाए जाने वाले तरबूज़-खरबूज़ भारतीय मूल के हैं।

दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों के स्वाद में विविधता का असर करेले में दिखाई देता है। हाल ही में (800 साल पहले) थाईलैंड और पड़ोसी देशों में पाई जाने वाली करेले की देशी किस्में बड़ी, कम कड़वी और चिकनी और लगभग सफेद होती हैं। इसकी तुलना में, कंगूरेदार छिलके वाली भारतीय किस्में छोटी और अधिक कड़वी होती हैं, और काफी लंबे समय से उगाई जा रही हैं।

पोषण

करेला खनिज पदार्थों और विटामिन सी का समृद्ध स्रोत है। रोज़ाना 100 ग्राम करेले का सेवन औसत व्यक्ति के लिए आवश्यक विटामिन सी की पूरी (और आधे विटामिन ए) की आपूर्ति कर सकता है, जबकि इससे केवल 150 मिलीग्राम वसा ही मिलती है। सामान्य तौर पर, पोषण के मामले में कुकुरबिट्स वसा और कार्बोहाइड्रेट से भरपूर प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों के ठीक उलट होते हैं। कुकुरबिट्स में लगभग 85-95 प्रतिशत पानी होता है, और ये कम कैलोरी देते हैं।

आहार में शामिल होने और औषधीय महत्व होने के अलावा, कुकुबिट्स के दिलचस्प उपयोग भी हैं। गिलकी जब पककर सूख जाती है तो त्वचा की देखभाल के लिए स्पंज की तरह उपयोग की जाती है। सूखी लौकी (तमिल में सुरक्कई) सरोद, सितार और तानपुरा जैसे वाद्य यंत्रों में गुंजन यंत्र की तरह उपयोग की जाती है। (स्रोत फीचर्स)

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कैरेबियन घोंघों का संरक्षण, मछुआरे की चिंतित

रानी घोंघा अपनी आकर्षक खोल (शंख) और स्वादिष्ट मांस के लिए प्रसिद्ध है। सदियों से इन्हें इनके मांस के लिए पकड़ा जा रहा है। इनके मांस की सबसे अधिक खपत संयुक्त राज्य अमेरिका में होती है। अमरीकी सरकार के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया एक अध्ययन बताता है कि इस आपूर्ति के लिए इनका अतिदोहन रानी घोंघो को विलुप्ति की ओर धकेल सकता है।

इस अध्ययन पर सार्वजनिक राय लेने के बाद अब इस बात पर विचार किया जा रहा है कि इन कैरेबियाई प्रजातियों को संकटग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत जोखिमग्रस्त जीवों की सूची में शामिल किया जाए या नहीं।

इस कदम का कई देशों के मछुआरे विरोध कर रहे हैं – उनकी चिंता है कि इस तरह सूचीबद्ध करने से यूएस को घोंघे का मांस निर्यात करना मुश्किल हो जाएगा, जो उनका सबसे बड़ा बाज़ार है।

अध्ययन पर अंतर-सरकारी संगठन, कैरेबियन रीजनल फिशरीज़ मैकेनिज़्म, की मत्स्य विज्ञानी मैरेन हेडली का कहना है कि हमें नहीं लगता है कि इस समय संकटग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत इन प्रजातियों को सूचीबद्ध करना उचित है, या इनकी रक्षा के लिए यही सर्वोत्तम विकल्प है। प्रजातियों को जोखिमग्रस्त सूची में शामिल करने से पड़ने वाले संभावित आर्थिक प्रभाव का हवाला देते हुए उनका कहना है कि हमारा उद्देश्य मत्स्य-संसाधनों का बेहतर प्रबंधन होना चाहिए।

ये घोंघे समूचे कैरबियाई सागर में समुद्री घास के झुरमुटों में रहते हैं। बहामास के तट पर पकड़े गए घोंघों की खोल का विशाल ढेर इनके अतिदोहन का गवाह है। ये तो गनीमत है कि इनमें से कुछ प्रजातियां अपनी कुछ खासियत की वजह से कभी-कभी शिकारी गोताखोरों से बच जाती हैं। कुछ घोंघे दुर्गम समुद्री इलाकों में या बहुत गहराई में रहने की वजह से सुरक्षित बच जाते हैं। वहीं वयोवृद्ध घोंघे, जो 35 सेंटीमीटर तक लंबे हो जाते है, उम्र के साथ उनकी खोल पर उगने वाले शैवाल या प्रवाल की वजह से शिकारियों से ओझल रहते हैं।

इनके अतिदोहन के कारण 1975 में फ्लोरिडा में घोंघे पकड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इनकी घटती आबादी के कारण अन्य देशों ने भी इस पर प्रतिबंध लगाने का कदम उठाया। और 1992 में वन्य जीवों और वनस्पतियों की संकटग्रस्त प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की संधि (CITES) द्वारा घोंघों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को नियंत्रित किया गया। घोंघे के निरंतर अतिदोहन से चिंतित CITES ने 2003 में होंडुरास, हैती और डोमिनिकन गणराज्य से घोंघे के आयात पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी।

यूएस के नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) द्वारा की गई समीक्षा के अनुसार, वर्तमान में हर जगह इनकी संख्या कम है, और शेष स्थानीय आबादी में जीन प्रवाह बनाए रखने के लिए लार्वा पर्याप्त रूप से नहीं फैल रहे हैं। हालांकि बहामास, जमैका और कुछ अन्य स्थानों में घोंघे अभी फल-फूल रहे हैं, लेकिन आने वाले सालों में होने वाला दोहन इन्हें विलुप्ति की ओर ले जा सकता है। इन्हें संकटग्रस्त की सूची में डालने से भविष्य में अन्य देशों में इनके आयात पर प्रतिबंध को उचित ठहराया जा सकेगा, और घोंघा पालन के बेहतर प्रबंधन की राह आसान हो जाएगी। 2018 में अमेरिका ने 3.3 करोड़ डॉलर के घोंघे का मांस का आयात किया था। इसलिए इन्हें संकटग्रस्त सूचीबद्ध करना एक स्पष्ट संदेश देगा कि यह प्रजाति खतरे में है।

लेकिन इससे सभी सहमत नहीं है। प्यूर्टो रिको विश्वविद्यालय के मत्स्य जीवविज्ञानी रिचर्ड एपलडॉर्न का कहना है कि उन्हें घोंघों की स्थिति उतनी भयानक नहीं लगती। जैसे, उनका कहना है कि उपरोक्त अध्ययन में इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है कि घोंघे प्रजनन से पहले इकट्ठे होते हैं, इसलिए आबादी का फैलाव और घनत्व भ्रामक दिख सकता है। उनके अनुसार, घोंघे पकड़ने वाले समुदायों के ज्ञान को शामिल करने से बेहतर सर्वेक्षण हो सकता है। ऐसा ज़रूरी नहीं कि कुशल वैज्ञानिक घोंघे गिनने में भी माहिर हों।

कुछ देशों का कहना है कि वे घोंघों के शिकार का प्रबंधन करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। बेलीज़ मत्स्य विभाग के मौरो गोंगोरा ने बताया कि उनके देश में 15,000 लोग घोंघों से लाभान्वित होते हैं, खासकर तटवर्ती छोटे गांवों के मछुआरे, और यहां की घोंघो की आबादी अच्छी तरह से प्रजनन कर रही है। चूंकि हम घोंघों के महत्व को पहचानते हैं इसलिए हम इनके बेहतर प्रबंधन के भरसक प्रयास कर रहे हैं।

लेकिन इस पर एनओएए का कहना है कि कई कैरेबियाई देशों में संरक्षण सम्बंधी नियम-कायदों की कमी है। इनकी आबादी में गिरावट को रोकने के लिए अधिक कदम उठाने की ज़रूरत है।

जमैका के मत्स्य पालन निदेशक स्टीफन स्मिकले का कहना है कि घोंघों के अवैध और अनियंत्रित शिकार से निपटने के लिए अमेरिकी सरकार के अधिक समर्थन की ज़रूरत है। इन्हें संकटग्रस्त सूचीबद्ध करने से वित्तीय मदद को बढ़ावा मिल सकता है। और इससे त्वरित संरक्षण और आबादी सुधार प्राथमिकता बन जाएगी।

अधिक वित्तीय सहयोग से कृत्रिम परिवेश में अंडों को सेकर घोंघों के उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिल सकती है। लेकिन ऐसा करना एक बहुत गंभीर घाव की महज़ मलहम-पट्टी करने जैसा होगा। प्राकृतिक प्रजनन के माध्यम से घोंघो की आबादी में सुधार करना ही एकमात्र स्थायी तरीका है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मंगल भूकंप संवेदी लैंडर को अलविदा

मेरिकी स्पेस एजेंसी नासा से प्राप्त जानकारी के अनुसार इनसाइट मिशन का अंत हो गया है। यह मार्स लैंडर चार वर्षों से अधिक समय तक मंगल ग्रह पर होने वाले भूकंपों (मंगल-कंपों) की जानकारी देता रहा जिससे ग्रह की आंतरिक संरचना को समझने में काफी मदद मिली। लैंडर से आखिरी बार 15 दिसंबर, 2022 को संपर्क हुआ। दो बार संपर्क का प्रयास करने के बाद एजेंसी का ऐसा मानना है कि लैंडर की बैटरी खत्म हो गई होगी और धूल से ढंके सौर-पैनल बिजली पैदा नहीं कर पा रहे होंगे।     

83 करोड़ डॉलर की लागत वाले इस मिशन का उद्देश्य मंगल के छोटे मंगलकंपों की कंपन तरंगों को रिकॉर्ड करना था। ये तरंगें ग्रह की गहराई में सीमाओं से टकराकर लैंडर पर स्थित कंपनमापी तक पहुंचती हैं। शोधकर्ताओं ने इन तरंगों के आगमन के समय में अंतर का उपयोग करते हुए ग्रह की आंतरिक तस्वीर तैयार करने की कोशिश की है।

टीम ने पाया कि मंगल ग्रह एक पतली पर्पटी, एक ठंडे मेंटल और एक बड़े कोर से निर्मित है। ग्रह के कोर में एक पिघली हुई बाहरी परत भी है।  

वैसे इस मिशन में कुछ दिक्कतें भी रहीं। लैंडर में उपस्थित हीट प्रोब ग्रह की लौंदेदार मिट्टी में घुसकर अपना बिल नहीं बना पाया। लेकिन अपने पूरे जीवनकाल में लैंडर ने क्षुद्रग्रह की टक्करों सहित 1319 मंगलकंपों का पता लगाया। पिछले वर्ष मई में इसने 4.7 तीव्रता वाले सबसे विशाल मंगलकंप का पता लगाया जिसने मंगल की ऊपरी सतह को 10 घंटों तक कंपाया। 

इस ज़ोरदार मंगलकंप के ठीक बाद इस मिशन ने अंत की तैयारी शुरू कर दी। बैटरी की शक्ति को बचाने के लिए लैंडर के विभिन्न हिस्सों को बंद करते हुए केवल कंपनमापी को चालू रखा गया ताकि वह लंबे समय तक चलता रहे। मिशन का अंत तो हो गया लेकिन इसने मंगल ग्रह का अंदरूनी नक्शा बनाने में बहुत मदद की है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मंगल ग्रह पर कभी चुंबकीय क्षेत्र था

वैज्ञानिकों के अनुसार एक समय ऐसा भी था जब मंगल ग्रह वर्तमान स्थिति से बिलकुल अलग था। घाटियों से निकलती हुई नदियां और झीलें मौजूद थीं और विशेष रूप से चुंबकीय क्षेत्र ने अंतरिक्ष विकिरण से ग्रह को सुरक्षित रखा था। कुछ प्रमुख सिद्धांतों के अनुसार ग्रह के आंतरिक भाग के ठंडे होकर ठोस बनने के कारण चुंबकीय क्षेत्र खत्म हो गया जिससे ग्रह का वातावरण असुरक्षित हो गया और नमी और गर्मी का युग समाप्त हो गया। अलबत्ता, वैज्ञानिकों के बीच इस घटना के समय को लेकर मतभेद हैं।

हाल ही में मंगल ग्रह के सुप्रसिद्ध उल्कापिंड ALH84001, जो यह उल्का पिंड 1984 में अंटार्कटिका के एलन हिल्स नामक स्थान पर मिला था, का नए प्रकार के क्वांटम सूक्ष्मदर्शी से अध्ययन करने पर इस बात के साक्ष्य मिले हैं कि ग्रह का चुंबकीय क्षेत्र 3.9 अरब वर्ष पूर्व तक मौजूद था। यह समय वर्तमान के सबसे स्वीकार्य समय से करोड़ों वर्ष पहले का है। मंगल ग्रह से पृथ्वी तक पहुंचने वाले इस छोटे से उल्कापिंड की मदद से मंगल पर जीवन के संकेतों का पता लगाया जा सकता है। इसके अलावा यह अध्ययन पृथ्वी के समान मंगल के चुंबकीय ध्रुवों के पलटने के विचार का भी समर्थन करता है। इसकी मदद से ग्रह के बाहरी कोर में तरल डायनमो की जानकारी मिल सकती है जो एक समय में चुंबकीय क्षेत्र को ऊर्जा प्रदान करता था।         

वास्तव में जब लौह-युक्त खनिज पिघली हुई चट्टानों से क्रिस्टलीकृत होते हैं तो उन क्रिस्टल के चुंबकीय क्षेत्र ग्रह के चुंबकीय क्षेत्र की लाइन में जम जाते हैं। और ये मूल चुंबकीय क्षेत्र की दिशा की छाप के रूप में संरक्षित हो जाते हैं। इसके बाद कोई चट्टान ग्रह के किसी स्थान पर टकराई तो वहां के कुछ हिस्से गर्म होकर पिघलते हैं और एक नया चुंबकीय क्षेत्र बन जाता है।  

गौरतलब है कि मंगल ग्रह की परिक्रमा करने वाले ऑर्बाइटर्स ने मंगल की सतह पर चुंबकीय अवशेषों की पहचान की है। लेकिन मंगल पर क्षुद्रग्रहों की टक्कर से बनने वाले सबसे प्राचीन गड्ढों – हेलास, अर्जायर और इसिडिस क्रेटर्स – में चुंबकीय चट्टानें नहीं मिली हैं।

अधिकांश शोधकर्ताओं का मत है कि लगभग 4.1 अरब वर्ष पूर्व इन क्रेटर्स के बनने तक चुंबकीय डायनमो कमज़ोर हो गया होगा जिसके कारण इसका प्रभाव देखने को नहीं मिला है। फिर भी ऑर्बाइटर्स को मंगल ग्रह के कुछ अन्य हिस्सों, जो उक्त क्रेटर्स से कई लाख वर्षों बाद के हैं, के लावा में चुंबकीय निशान प्राप्त हुए। इससे यह स्पष्ट होता है कि चुंबकीय क्षेत्र काफी समय बाद भी मौजूद रहा था।

इसी संदर्भ में हारवर्ड युनिवर्सिटी की सारा स्टील ने उल्कापिंड एलन हिल्स 84001 का अध्ययन करने का विचार किया। 1990 के दशक में इस उल्कापिंड के बारे में दावा किया गया था कि इसमें बैक्टीरिया के जीवाश्म मौजूद हैं। हालांकि इस दावे को खारिज कर दिया गया था और इसके चलते 2 किलोग्राम की यह चट्टान काफी बदनाम हो गई थी। बहरहाल, यह उल्कापिंड 4.1 अरब वर्ष पुराना है इसलिए मंगल के उस समय के इतिहास का अध्ययन करने के लिए यह उपयुक्त नमूना है।       

चुंबकीय क्षेत्र का अध्ययन करने के लिए स्टील और हारवर्ड प्लेनेटरी वैज्ञानिक रॉजर फू ने क्वांटम डायमंड माइक्रोस्कोप से एलन हिल्स के 0.6 ग्राम के टुकड़े के तीन पतले स्लाइस की इमेजिंग की। यह माइक्रोस्कोप हीरे में उपस्थित परमाणु स्तर की अशुद्धियों पर निर्भर करता है जो चुंबकीय क्षेत्र में मामूली परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील होती हैं। इस उच्च क्षमता वाले माइक्रोस्कोप से नमूने में तीन अलग-अलग स्थानों पर आयरन-सल्फाइड के साक्ष्य प्राप्त हुए। इनमें से दो स्थान अलग-अलग दिशाओं में शक्तिशाली रूप से चुंबकित थे जबकि एक में उल्लेखनीय चुंबकीय चिंह का अभाव था।

स्टील और फू का कहना है कि इन तीन स्थानों का चुंबकत्व तीन अलग-अलग घटनाओं से उत्पन्न हुआ जिनकी समयरेखा 4 अरब, 3.9 अरब और 1.1 अरब वर्ष पहले की पाई गई हैं। फू के अनुसार दो अत्यधिक चुंबकीय स्थान इस ओर संकेत देते हैं कि पूरे ग्रह पर चुंबकीय क्षेत्र 3.9 अरब वर्ष पहले तक उपस्थित रहा होगा। यह चुंबकीय क्षेत्र काफी शक्तिशाली रहा होगा: लगभग 17 माइक्रोटेस्ला जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का लगभग एक-तिहाई है। कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार यह चुंबकीय क्षेत्र हानिकारक कॉस्मिक किरणों से सुरक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त था। इसके अलावा यह मंगल के वायुमंडल को सौर हवाओं से भी सुरक्षा प्रदान करता था। हालांकि, कुछ वैज्ञानिक इस निष्कर्ष के विरुद्ध चेता रहे हैं। जैसे युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्लेनेटरी वैज्ञानिक रॉब लिलिस के अनुसार हो सकता है कि इस चुंबकीय क्षेत्र ने सौर हवाओं के प्रवाह को ध्रुवों की ओर बढ़ा दिया हो जिससे वायुमंडल को अधिक तेज़ी से नुकसान पहुंचा होगा।    

उल्कापिंडों से प्राप्त खनिजों में ग्रह की आंतरिक गतिविधियों के साक्ष्य भी उपस्थित रहते हैं। नमूनों में उपस्थित दो चुंबकीय क्षेत्र लगभग विपरीत दिशा में हैं। शोधकर्ताओं को लगता है कि मंगल पर चुंबकीय उत्तर-दक्षिण ध्रुवों की अदला-बदली हुई थी, जैसा पृथ्वी पर कई लाख वर्षों में होता रहता है। कंप्यूटर सिमुलेशन से पता चलता है कि किसी ग्रह के तरल डायनमो में परिवर्तन बाहरी कोर में संवहन धाराओं की कुछ विशेष परिस्थितियों में ही होता है। इसके आधार पर मंगल ग्रह की आंतरिक स्थिति को समझने और समय-सीमाएं निर्धारित करने में भी मदद मिलेगी। ध्रुवों के पलटने के आधार पर यह भी समझने में मदद मिलेगी कि कई प्राचीन क्रेटर्स में चुंबकीय चिंह अनुपस्थित क्यों है। (स्रोत फीचर्स)

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चाइनीज़ मांझा

न दिनों आसमान में परिंदों के अलावा पंतगें भी उड़ती नज़र आती हैं। कुछ जगहों पर तो मकर संक्रांति पर खास पतंगबाज़ी होती है। लेकिन पंतगबाज़ी के इस मौसम के साथ नायलोन मांझे से होने वाली दुर्घटनाओं की खबरें भी आ रही हैं। इसे बोलचाल में चायना मांझा भी कहते हैं, हालांकि इसका चीन से कोई सम्बंध नहीं है। इससे होने वाली दुर्घटनाओं के मद्देनज़र वर्ष 2017 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था।

इसके नियमानुसार “नायलोन, प्लास्टिक या किसी भी अन्य सिंथेटिक सामग्री से बने पतंग के मांझे, जिसमें चाइनीज़ या चीनी मांझा के नाम से मिलने वाला मांझा भी शामिल है, तथा कांच, धातु या किसी अन्य धारदार सामग्री का लेप करके तेज़ किए गए पतंग उड़ाने की डोर की बिक्री, उत्पादन, भंडारण, आपूर्ति, आयात और उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध होगा।” पतंगबाज़ी की अनुमति केवल सूती धागे से होगी, जो धागे को तेज़ करने वाली किसी भी धारदार, धातु की या कांच की सामग्री या चिपकने वाली सामाग्री से मुक्त हो।

लेकिन फिर भी लोगों के बीच चाइनीज़ मांझा लोकप्रिय है। इसकी लोकप्रियता का मुख्य कारण इसकी कम कीमत है। यह कपास के मांझे से एक तिहाई सस्ता और कई गुना अधिक मज़बूत होता है (जो पंतग कटने से बचा देता है)।

चाइनीज़ मांझा पॉलीमर को पिघलाकर एकल-तंतु तार के रूप में बनाया जाता है। एकल-तंतु तार घातक होते हैं और इन्हें तोड़ना काफी मुश्किल होता है। धागे में पैनापन लाने के लिए इस पर कांच का लेप चढ़ाया जाता है। यदि तनी हुई स्थिति में हो तो इस तरह तैयार धारदार मांझा मनुष्यों और जानवरों को घायल कर सकता है और किया भी है।

वैसे, चाइनीज़ मांझा नाम सुनकर लगता है कि यह चीन से मंगाया जाता होगा। लेकिन वास्तव में चाइनीज़ मांझा स्वदेशी उत्पाद है। चाइनीज़ मांझा उत्तरप्रदेश के बरेली और उसके आसपास के गांवों और मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में बनाया जाता है, जहां से इसे अधिकतर ऑनलाइन बेचा जाता है।

लेकिन इसके उपयोग से कई हादसों की खबरें आई हैं। इसलिए, कानून हो या न हो, सुरक्षित सूती मांझे का उपयोग करें, खुद सुरक्षित रहें, दूसरों को सुरक्षित रखें। इस मामले में कानून से ज़्यादा जागरूकता ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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