केरल के कन्नूर शहर के एक अनोखे समारोह में माजू पुतेंकंडम और मुस्तफा पल्लिकुत – जो वैसे तो भारत के साधारण किसान ही हैं – को दो वर्तमान ज्वलंत पर्यावरणीय चुनौतियों – जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की क्षति – को सामने लाने में उनके अग्रणी कार्यों के लिए सम्मानित किया गया और नकद पुरस्कार प्रदान किया गया। ऐसा करने के लिए माजू पुतेंकंडम और मुस्तफा पल्लिकुत दोनों ने पर्यावरण के इन महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाने के काम में भारत की सबसे बड़ी ताकत – लोकतंत्र और सूचना संचार तकनीक क्रांति – का सहारा लिया था, जिसने ज्ञान तक आसान पहुंच के ज़रिए लोगों को सशक्त बनाया है।
वर्ष 2008 में काडनाड पंचायत के अध्यक्ष के रूप में श्री माजू ने डॉ. जोस पुतेट द्वारा समन्वित जैव विविधता प्रबंधन समिति (बीएमसी) की स्थापना की थी। बीएमसी ने पंचायत के सभी 13 वार्डों में अन्य विशेषज्ञों और स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं को जोड़ा, और सभी किसानों और समुदाय के अन्य सदस्यों से जानकारी एकत्र करके एक लोक जैव विविधता रजिस्टर (पीबीआर) तैयार किया। इस दस्तावेज़ में बताया गया था कि जैव विविधता से भरपूर पेरुमकुन्नु के पहाड़ों में चट्टानों का उत्खनन वहां की जैव विविधता के लिए हानिकारक है और इसे तत्काल रोक दिया जाना चाहिए।
बीएमसी ने केरल के राज्य जैव विविधता बोर्ड (केएसबीडीबी) से उत्खनन और क्रशर के पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन करने के लिए विशेषज्ञों की नियुक्ति करने का अनुरोध किया था; केएसबीडीबी ने 24 दिसंबर 2011 को ऐसा ही किया। केरल उच्च न्यायालय ने 2012 में इस मामले की जांच की और ठोस सबूतों के आधार पर काडनाड ग्राम पंचायत के फैसले को सही ठहराते हुए उत्खनन की अनुमति नहीं दी। तब निहित स्वार्थ हरकत में आए और उन्होंने पंचायत को समझाया कि पंचायत के उक्त निर्णय से पूरा इलाका अत्याचारी वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आ जाएगा और उन्हें खनन की अपेक्षा ज़्यादा कष्ट भोगने पड़ेंगे। चिंतित होकर पंचायत ने अपने निर्णय को रद्द कर दिया।
लेकिन क्षेत्र को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। 16 अक्टूबर 2021 के आसपास केरल के इडुक्की और कोट्टायम जिलों में भारी बारिश के साथ कई बड़े भूस्खलन हुए। इडुक्की क्षेत्र में कम से कम 11 और कोट्टायम में करीब 14 लोगों की मौत हो गई; कोट्टायम का कूटिक्कल सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ था; कूटिक्कल काडनाड के बहुत नज़दीक है और यहां भी लोग पहाड़ या चट्टान तोड़ने को रोकने के लिए एक दशक से अधिक समय से आंदोलन कर रहे हैं। आपदा के दिन, मूसलाधार बारिश के दौरान भी खदानों में चट्टान काटने का काम नहीं रोका गया था और आपदा के समय भी खदानों से विस्फोट की आवाज़ें आती रही थीं। आधिकारिक आंकड़ों में केवल 3 खदानों का उल्लेख है लेकिन वर्तमान ज्ञान के युग में इस तरह की धोखाधड़ी का खुलासा हो ही जाता है – उपग्रह से ली गई तस्वीरों में 17 से अधिक सक्रिय खदानें देखी गई हैं। ऐसी आपदाओं के बावजूद केरल में कम से कम 5924 खदानों में काम चल रहा है। यहां तक कि 2018 में केरल में आई बाढ़ के बाद भी केरल सरकार ने 223 नई खदानों को मंज़ूरी दी थी। और यह सब जारी है जबकि यह भली-भांति पता है कि सख्त चट्टानों को काटने और भूस्खलन के बीच गहरा सम्बंध है।
मलप्पुरम ज़िले में श्री मुस्तफा ने इसी तरह की बीएमसी गठित की है, और PBR तैयार करने के लिए स्थानीय कॉलेज के छात्र-छात्राओं को साथ लिया है ताकि जैव विविधता पर खनन के प्रतिकूल प्रभावों को सामने लाया जा सके और खनन कार्य को रुकवाया जा सके। जैव विविधता अधिनियम के स्पष्ट प्रावधानों को हकीकत का रूप देने की दिशा में ये महत्वपूर्ण प्रयास हैं। जैव विविधता अधिनियम में कहा गया है कि “प्रत्येक स्थानीय निकाय जैव विविधता के संरक्षण, टिकाऊ विकास और प्राकृतवासों के परिरक्षण, थलीय किस्मों के संरक्षण, लोक किस्मों, पालतू प्राणियों और नस्लों, सूक्ष्मजीवों के दस्तावेज़ीकरण तथा जैव विविधता सम्बंधी ज्ञान के विवरण के प्रयोजन से अपने क्षेत्र में बीएमसी का गठन करेगा।।” PBR का उद्देश्य पर्यावासों को बचाने सहित जैव विविधता के संरक्षण और उसके टिकाऊ उपयोग को बढ़ावा देने के आधार के रूप में कार्य करने का है, न कि मात्र दस्तावेज़ीकरण के लिए। लेकिन अफसोस कि जनविरोधी सरकारी तंत्र ने कहीं भी ऐसा नहीं होने दिया; इसलिए, केरल के ये प्रयास इस दिशा में बड़े कदम हैं।
गौरतलब है कि खदानें और खंतियां न केवल जैव विविधता के विनाश का प्रमुख कारण हैं बल्कि अमूल्य जल स्रोतों और जन जीवन की गुणवत्ता के विनाश की भी ज़िम्मेदार हैं। गोवा में अवैध खनन पर शाह आयोग की टिप्पणियों में पाया गया था कि खान और खनिज अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन किया गया है जिससे पारिस्थितिकी, पर्यावरण, कृषि, भूजल, प्राकृतिक जलधाराओं, तालाबों, नदियों, जैव विविधता आदि को गंभीर क्षति हुई है। आयोग का अनुमान था कि 2006 से 2011 के बीच सिर्फ गोवा में अवैध खनन से खदान मालिकों ने 35,000 करोड़ का मुनाफा कमाया है।
खनन और उत्खनन, खासकर मानव निर्मित रेत बनाने के लिए पत्थरों को पीसना, जलवायु परिवर्तन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, और साथ ही भारत के पहले से ही उच्च एयरोसोल बोझ को बढ़ाता है। उच्च एयरोसोल बोझ का नतीजा यह है कि पहले जो छह घंटे तक चलने वाली हल्की बूंदा-बांदी होती थी, वह अब आधे घंटे की भारी बारिश में बदल गई है। नतीजतन अधिक तीव्र बाढ़ के साथ-साथ भूस्खलन, बांधों के टूटने और इमारतें ढहने की संभावना बढ़ जाती है। लिहाज़ा, अब यह तो स्पष्ट है कि भले ही खनन और उत्खनन को पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता है लेकिन इसे नियंत्रित अवश्य किया जाना चाहिए, अत्यधिक खनन पर अंकुश लगाया जाना चाहिए और ज़मीनी स्तर पर कार्य कर रहे लोगों के हितों की रक्षा की जानी चाहिए। पूरी दुनिया में यही वे लोग हैं जो यह सुनिश्चित करते हैं कि शासक पर्यावरण सम्बंधी चिंताओं पर उचित ध्यान दें; हमारे लोकतंत्र में ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले आम लोगों द्वारा आधुनिक ज्ञान युग का लाभ उठाते हुए ऐसा होने लगा है, जो एक स्वागत योग्य विकास है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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