जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाले नुकसान का अधिकांश आकलन इंसानों, पशु-पक्षियों और पेड़ पौधों पर होने वाले प्रभावों को केंद्र में रखकर होता रहा है। लेकिन जलवायु परिवर्तन और कीट-पतंगों के बीच के सम्बंधों पर बहुत कम ही अध्ययन हुए हैं।
इस विषय पर हुए एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से अधिकांश कीट पतंगों की आबादियां विलुप्त होने वाली है। इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से जानवरों और अन्य जीवों में विलुप्त होने का जोखिम पूर्व अनुमानों की तुलना में ज़्यादा हो गया है। दरअसल, अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अपने अध्ययन में पाया है कि मौसमी बदलावों की वजह से धरती के 65 फीसदी कीट अगली सदी तक विलुप्त हो जाएंगे। तापमान में हो रहा बदलाव कीटों की आबादी को अस्थिर करते हुए विलुप्ति के जोखिम को बढ़ाएगा। शोधकर्ताओं ने पाया कि अध्ययन में शामिल 38 कीट प्रजातियों में से 25 को विलुप्ति का सामना करना पड़ेगा। मौसमी बदलावों की स्थिति में कीटों का अस्तित्व सबसे ज़्यादा खतरे में है, क्योंकि ये अपने शरीर के तापमान को नियंत्रित करने में समर्थ नहीं होते।
कीटों की विलुप्ति पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करेगी, क्योंकि ये परागण के माध्यम से फलों, सब्ज़ियों और फूलों के उत्पादन में सहायता करते हैं। यानी कीटों पर विलुप्ति का संकट किसी बड़ी चुनौती से कम आंकना खतरनाक साबित हो सकता है। लिहाज़ा, समय रहते जलवायु परिवर्तन के कारणों पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है।
अमेरिका के मैरीलैंड विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट में भी कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन से कुछ कीट जीवित रहने के लिए ठंडे वातावरण की ओर पलायन को मजबूर होंगे, जबकि अन्य की प्रजनन क्षमता, जीवन चक्र और अन्य प्रजातियों के साथ समन्वय प्रभावित होगा। जलवायु परिवर्तन के अलावा कीटनाशक, प्रकाश प्रदूषण, आक्रामक प्रजातियां और कृषि व भूमि उपयोग में बदलाव भी इनके लिए बड़े खतरे हैं। बता दें कि दुनिया भर के सभी ज्ञात जीवों में से 75 प्रतिशत कीट हैं। वर्ष 2019 में हुए एक शोध में भी वैज्ञानिकों ने चेताया था कि एक दशक बाद 25 फीसदी, 50 साल में आधे और 100 साल में सभी कीट धरती से पूरी तरह से गायब हो जाएंगे। हालांकि तब इनकी विलुप्ति का बड़ा कारण कीटनाशकों को माना गया था। नए अध्ययन में पाया गया है कि 20वीं सदी की शुरुआत से ही कीटों की तादाद घटने लगी थी। इसके लिए कीटनाशकों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है। लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है कि बीते दशकों में दुनिया भर में कीटों की कई प्रजातियां 70 फीसदी तक कम हुई हैं। वैश्विक स्तर पर इनकी तादाद 2.5 फीसदी प्रति वर्ष की दर से कम हो रही है। अध्ययन में चेताया गया है कि इन्हें जानवरों, सरीसृपों और पक्षियों की तुलना में विलुप्ति का खतरा 8 गुना ज़्यादा है। यह बेहद चिंताजनक स्थिति को दर्शाता है।
कीटों के बिना प्रकृति का संतुलन बिगड़ना तय है। आम आदमी के मस्तिष्क में इस सवाल का कौंधना स्वाभाविक है कि आखिर ये कीट हमारे पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में कैसे मददगार हैं? कीट पोषक पदार्थों के चक्रण, पौधों के परागण और बीजों के प्रसार में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त, ये मृदा संरचना को बनाए रखने, उर्वरता में सुधार करने तथा अन्य जीवों की जनसंख्या को नियंत्रित करने के साथ-साथ खाद्य शृंखला में एक प्रमुख खाद्य स्रोत के रूप में भी कार्य करते हैं। पृथ्वी पर लगभग 80 फीसदी पादपों का परागण कीटों द्वारा किया जाता है। इसके अतिरिक्त, लेडीबर्ड बीटल्स, लेसविंग, परजीवी ततैया जैसे कीट अन्य हानिकारक कीटों, आर्थ्रोपोड्स और कशेरुकियों को नियंत्रित करते हैं। गुबरैला एक रात में अपने वज़न के लगभग 250 गुना गोबर को निस्तारित कर सकता है। ये गोबर को खोदकर और उपभोग करके मृदा पोषक-चक्र व उसकी संरचना में सुधार करते हैं। गुबरैले की अनुपस्थिति गोबर पर मक्खियों को एक प्रकार से निवास प्रदान कर सकती है। पर्यावरण की सफाई में भी इनकी महती भूमिका है। ये मृत और जैविक अपशिष्टों के विघटन में सहायक होते हैं। विघटन की प्रक्रिया के बिना बीमारियों का प्रसार तेज़ होने के साथ-साथ कई जैविक-चक्र भी प्रभावित होंगे। कीट पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य संकेतक के रूप में कार्य करते हैं। साथ ही, वैज्ञानिक अनुसंधान में मॉडल के रूप में इन कीटों का उपयोग होता आया है।
कई प्रयासों के बावजूद हम जलवायु परिवर्तन को रोकने में नाकामयाब रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट की मानें तो विश्व में प्रतिदिन औसतन 50 प्रकार के जीवों का विनाश हो रहा है जो वास्तव में आनुवंशिक विनाश है। ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर प्रवाल जीवों के असामयिक विनाश का मुख्य कारण भी ओज़ोन परत में ह्रास को माना जा रहा है जिसके लिए ग्रीन हाउस गैसें ज़िम्मेदार है। ग्रीन हाउस गैसों में तीव्र वृद्धि के परिणामस्वरूप भूमंडलीय ताप में वृद्धि हुई है। एक अनुमान के मुताबिक, वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में लगातार इजाफा होता रहा तो 1900 की तुलना में 2030 में वैश्विक तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है।
इसलिए हमें जलवायु परिवर्तन को रोकने के भरसक प्रयास करने होंगे। अगर समय रहते जलवायु परिवर्तन को नहीं रोका गया तो संभव है कि निकट भविष्य में खाद्य असुरक्षा, संक्रामक बीमारियों के प्रसार जैसे गंभीर हालातों से गुज़रना पड़े। कहना न होगा कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सतत प्रयासों की सख्त दरकार है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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