नववर्ष के मौके पर कई लोग अपना यह (नाकाम) प्रण दोहराएंगे कि वे सुबह उठ कर व्यायाम करना शुरू कर देंगे। लेकिन सुबह जल्दी बिस्तर न छोड़ पाने के चलते उनका प्रण धरा का धरा रह जाएगा। लेकिन अब लग रहा है कि आंतों के पलने वाले बैक्टीरिया यह प्रण पूरा करने में उनकी मदद कर सकते हैं।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित चूहों पर हुआ अध्ययन बताता है कि व्यायाम करने की इच्छा-अनिच्छा में फर्क के पीछे आंत के सूक्ष्मजीव ज़िम्मेदार हो सकते हैं। शोधकर्ताओं ने अपना अध्ययन कुछ विशेष सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पादित अणुओं पर केंद्रित किया जो चूहों जैसे कृंतक जीवों में दौड़ने की इच्छा जगाते हैं और उन्हें दौड़ाते रहते हैं। शोधकर्ताओं ने यह पता लगाया है कि ये अणु मस्तिष्क से ठीक किस तरह संवाद करते हैं। उम्मीद की जा रही है कि ये नतीजे मनुष्यों पर भी लागू होंगे।
प्रोबायोटिक बनाने वाली कंपनी FitBiomics के सह-संस्थापक और सूक्ष्मजीव विज्ञानी एलेक्ज़ेंडर कोस्टिक के अनुसार यह अध्ययन बताता है कि व्यायाम के लिए सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) कितना महत्वपूर्ण है और आंत और मस्तिष्क के बीच घनिष्ठ सम्बंध भी उजागर करता है। शायद किसी दिन व्यायाम के लिए उकसाने वाले सूक्ष्मजीव (या सम्बंधित अणु) दवा के रूप में इस्तेमाल किए जा सकेंगे।
यह जानने के लिए कि क्यों कुछ लोग व्यायाम करना पसंद करते हैं और कुछ नहीं, पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव विज्ञानी क्रिस्टोफ थैइस ने फुर्तीले चूहों से लेकर आलसी चूहों तक का अध्ययन किया। आनुवंशिक और व्यवहारगत भिन्नता वाले चूहे विशेष रूप से तैयार किए गए थे। इन चूहों की पिंजरों में लगे पहियों पर चलने की इच्छा में पांच गुना से अधिक अंतर था – कुछ चूहे 48 घंटों में 30 किलोमीटर से अधिक दौड़ लेते थे, जबकि बाकी चूहे बमुश्किल कदम उठाते थे।
अध्ययन में फुर्तीले और आलसी चूहों की आनुवंशिक बनावट या जैव-रासायनिक संरचना में कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं दिखाई दिया। लेकिन शोधकर्ताओं को एक सुराग मिला: सामान्य रूप से फुर्तीले चूहों को एंटीबायोटिक दवाएं देने पर वे कम व्यायाम करने लगे थे। आगे के अध्ययनों से पता चला कि एंटीबायोटिक उपचार ने इन फुर्तीले चूहों के मस्तिष्क को प्रभावित किया था। उनके डोपामाइन स्तर में कमी आई थी और मस्तिष्क के कुछ जीन्स की गतिविधि कम हो गई थी। डोपामाइन एक तंत्रिका-संप्रेषक है जो ‘धावकों के नशे’ यानी लगातार व्यायाम करने से मिलने वाले आनंद के लिए जाना जाता है।
शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि जिन चूहों में आंत के कतिपय बैक्टीरिया की कमी थी उन्हें फुर्तीले चूहों की आंत के सूक्ष्मजीव दिए गए तो वे भी अधिक सक्रिय हो गए। ऐसा लगता है कि ये बैक्टीरिया एक संकेत भेजते हैं जो मस्तिष्क में डोपामाइन को तोड़ने के लिए ज़िम्मेदार एंजाइम की क्रिया में बाधा डालता है। परिणाम यह होता है कि मस्तिष्क के रिवार्ड सेंटर (आनंद महसूस करवाने वाले भाग) में डोपामाइन जमा होने लगता है।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों में आंत से मस्तिष्क तक संदेश पहुंचाने वाली तंत्रिकाओं को अवरुद्ध करके देखा कि डोपामाइन बढ़ाने वाले संकेत मेरूदंड की तंत्रिकाओं के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुंचते हैं। इन तंत्रिकाओं को उकसा कर शोधकर्ता आंत में बैक्टीरिया की कमी वाले चूहों में भी व्यायाम की इच्छा जगाने वाले संकेत भेजने में सफल रहे।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में इन तंत्रिकाओं का विच्छेदन करके उन्हें आंत के बैक्टीरिया और उन बैक्टीरिया द्वारा बनाए जाने वाले अणुओं के संपर्क में रखा। सूक्ष्मजीव-रहित चूहों को जब फैटी एसिड एमाइड्स दिए गए तो चूहों के मस्तिष्क में डोपामाइन का स्तर बढ़ गया और वे व्यायाम करने लगे। फैटी एसिड एमाइड्स बनाने वाले जीन से लैस बैक्टीरिया देने पर इन चूहों में डोपामाइन का स्तर बढ़ा मिला।
अब सवाल है कि क्या ये नतीजे मनुष्यों पर भी लागू होंगे? शोधकर्ताओं के अनुसार इस मामले में सावधानी रखनी चाहिए क्योंकि कृंतक जीवों और मनुष्यों में कई अंतर होते हैं।
पूर्व अध्ययनों में देखा गया है कि मैराथन धावकों की आंत में एक विशेष सूक्ष्मजीव का उच्च स्तर होता है, जिससे लगता है कि इसका व्यायाम से कोई सम्बंध है। यह भी देखा गया है कि व्यवहार को प्रेरित करने में डोपामाइन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तो उम्मीद है कि किसी दिन एक गोली ही हमसे व्यायाम करवा लेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg3011/abs/_20221214_on_mouse_exercise.jpg
वर्ष 2022 विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उपलब्धियों भरा साल रहा। यहां साल 2022 के ऐसे ही समाचारों का संकलन किया गया है।
सूरज के वायुमंडल में पहुंचा अंतरिक्ष यान
अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि जब कोई यान सूरज के वायुमंडल में प्रवेश कर पाया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का पार्कर सोलर प्रोब सूरज के ऊपरी वायुमंडल में पहुंचा। यह यान सूरज की सतह से 79 लाख किलोमीटर की दूरी पर रहा। इसने सूरज से उत्सर्जित कणों और चुबंकीय क्षेत्र सम्बंधी महत्वपूर्ण आंकड़े जुटाए।
डायनासौर के पदचिंह
वैज्ञानिकों ने डायनासौर के पदचिंह पोलैंड में खोजे। इन निशानों से 20 करोड़ साल पहले के पारिस्थितिक तंत्र के बारे में नई जानकारी प्राप्त होगी। यह खोज पोलैंड की राजधानी वार्सा से 130 किलोमीटर दक्षिण में स्थित बोर्कोबाइस इलाके के खुले मैदान में की गई है।
शार्क का रसायन लैब में बनाया
शार्क में पाए जाने वाले स्कवेलिन नामक रसायन के लिए हर साल करीब 12 लाख शार्क का शिकार किया जाता है (एक शार्क के लीवर में मात्र 150 मिलीलीटर स्क्वेलिन मिलता है)। इसी स्क्वेलिन को प्रयोगशाला में बनाने में सफलता पाई आईआईटी जोधपुर के वैज्ञानिक राकेश शर्मा ने। उन्होंने जंगली वनस्पतियों और राजस्थानी मिट्टी की प्रोसेसिंग से स्क्वेलिन तैयार किया है।
कृत्रिम बुद्धि राइफल तैयार
आधुनिक हथियारों के निर्माण की दिशा में इस्राइल द्वारा कृत्रिम बुद्धि (एआई) आधारित स्व-चालित राइफल बना ली गई है। इसे अरकास नाम दिया गया है। इसे इस्राइल की रक्षा उत्पाद बनाने वाली कंपनी इल्विट ने बनाया है।
अंतरिक्ष में सैलून
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने हाल ही में अंतरिक्ष यात्रियों के लिए अंतरिक्ष में हेयर कटिंग सैलून खोला है।
चीनी यान ने चांद पर खोजा पानी
चीनी यान चांग-ई-5 द्वारा अंतरिक्ष मिशन के अंतर्गत चंद्रमा पर पानी की खोज की गई। यह भी पता चला कि चंद्रमा पर यान के उतरने के स्थान पर मिट्टी में पानी की मात्रा 120 ग्राम प्रति टन से कम थी।
30 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टान
जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका बुलेटिन में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि भू-गर्भीय दृष्टि से महत्वपूर्ण लद्दाख में सिंधु नदी के उत्तर में श्योक व न्यूब्रा घाटी में 29.9 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टान खोजी गई है। इस चट्टान में गोंडवाना के समय के बीजों के जीवाश्म मिले हैं। गौरतलब है कि गोंडवाना पृथ्वी के अतीत में कभी एक महाद्वीप हुआ करता था।
दुनिया का सबसे बड़ा रोबोट
चीन ने चार पैरों पर चलने वाला दुनिया का सबसे बड़ा रोबोट याक बनाया है। यह 160 किलोग्राम तक वज़न उठा सकता है और 1 घंटे में 10 किलोमीटर तक चल सकता है।
प्लास्टिक से हल्का और स्टील से मज़बूत पदार्थ
मैसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी ने एक ऐसा पदार्थ विकसित किया है, जो प्लास्टिक से हल्का और स्टील से ज़्यादा मज़बूत है। यह बुलेटप्रुफ कांच की तुलना में 6 गुना शक्तिशाली है। इसका प्रयोग सुरक्षा तकनीकों में किया जाना है।
डार्क मैटर और न्यूट्रिनो के बीच समानता
आईआईटी गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने अंतरिक्ष के डार्क मैटर (अदृश्य पदार्थ) और ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले कण न्यूट्रिनो के बीच समानता का पता लगाया है। इस खोज को फिज़िकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित किया गया है।
मछली की नई प्रजाति
कोच्चि के सेंट्रल मरीन फिशरीज़ रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा आनुवंशिक विश्लेषण की मदद से मछली की एक नई प्रजाति की खोज की गई है। यह मछली क्वीन फिश समूह में है और इसे स्कोम्बेरॉइडस पेलेजिकस (scomberoides pelagicus) नाम दिया गया है। इसे स्थानीय भाषा में पोला वट्टा कहते हैं।
विश्व की सबसे पुरानी चट्टान
अमेरिका की राष्ट्रीय स्पेस एजेंसी ने विश्व की लगभग सबसे पुरानी चट्टान को खोजने का दावा किया है। एजेंसी के अनुसार इस चट्टान पर करीब 3.45 अरब साल पुराने जीवाश्म स्ट्रोमेटोलाइट्स और सायनोबैक्टीरिया की कालोनियां हुआ करती थीं।
टेरासौर का पुराना जीवाश्म
उड़ने वाले रीढ़धारी पुरातन सरिसृप जीव टेरासौर का 17 करोड़ साल पुराना जीवाश्म स्कॉटलैंड के एक द्वीप पर प्राप्त हुआ है। यह टेरासौर की नई प्रजाति है, जिसके बारे में पहले जानकारी नहीं हुआ करती थी।
सूर्य की सबसे करीबी तस्वीर
नासा और युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के साझा सोलर ऑर्बाइटर ने सूर्य की अब तक की सबसे करीबी तस्वीर प्राप्त करने में सफलता पाई है। यह तस्वीर सूर्य से 7.40 करोड़ किलोमीटर की दूरी से ली गई है। इस तस्वीर के अध्ययन से अंतरिक्ष मौसम की भविष्यवाणी करने में मदद मिलने की संभावना है।
रेबीज़ का नया टीका
भारत की दवा कंपनी कैडिला फार्मास्युटिकल ने रेबीज़ के लिए तीन खुराक वाला टीका विकसित किया है। यह नैनोपार्टिकल आधारित प्रोटीन टीका है।
अंतरिक्ष में पहला निजी दल
अंतरिक्ष में शोध करने के लिए पहला निजी दल अप्रैल माह में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में पहुंचा। ह्यूस्टन की स्टार्टअप कंपनी एग्जि़ओम स्पेस इंक द्वारा 4 यात्रियों के इस दल को 21 घंटे में सफलतापूर्वक भेजा गया।
पहली 3डी फिंगर टिप
ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने एक 3डी फिंगर टिप बनाने में सफलता पाई है जो इंसान की त्वचा जैसी संवेदनशील है। इससे त्वचा की जटिल आंतरिक संरचना और स्पर्श के एहसास को समझने में सहायता मिलेगी।
सबसे दूर के तारे की खोज
युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बताया है कि शक्तिशाली अंतरिक्ष दूरबीन हबल ने पृथ्वी से अब तक के सबसे दूर स्थित तारे को खोज लिया है। इस तारे के प्रकाश को पृथ्वी तक पहुंचने में 12.9 अरब वर्ष का समय लगता है। इसे एरेन्डेल नाम दिया गया है।
ध्वनि की दो चालें
नासा के वैज्ञानिकों ने बताया है कि पृथ्वी पर ध्वनि 340 मीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से चलती है लेकिन मंगल ग्रह पर ध्वनि की गति 240 मीटर प्रति सेकंड ही होती है। इसका कारण है मंगल का अल्प तापमान (औसतन ऋण 60 डिग्री सेल्सियस)
संचार की नई तकनीक
नासा ने अंतरिक्ष संचार के क्षेत्र में बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल की है। नासा के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष संचार के लिए होलोपोर्टेशन नामक एक नई तकनीक ईजाद की है। इस तकनीक द्वारा नासा के एक वैज्ञानिक ने धरती पर रहते हुए ही अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन के लोगों से स्टेशन पर अपनी एक प्रतिकृति के माध्यम से बातचीत की।
पहला स्वदेशी पॉलीसेंट्रिक घुटना
आईआईटी, मद्रास के शोधकर्ताओं ने भारत का पहला स्वदेशी पॉलीसेंट्रिक घुटना ‘कदम’ नाम से लॉन्च किया है। यह घुटने के ऊपर विकलांग हुए लोगों के लिए बेहद उपयोगी है।
विमान उतारने की नई स्वदेशी तकनीक
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन और एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने मिलकर विमान को लैंड कराने की नई उन्नत स्वदेशी तकनीक विकसित की है है। ऐसा करने वाला भारत विश्व का चौथा देश बन गया है।
रूबिक्स क्यूब हल करने वाला रोबोट
हैदराबाद के 11 साल के कक्षा 6 में अध्ययन करने वाले छात्र एस.पी.शंकर ने एक ऐसा रोबोट बनाया है, जो रूबिक्स क्यूब को स्वयं हल कर देता है। यह सफलता बिना पेशेवर मार्गदर्शन के मिली है।
विटामिन डी का स्रोत बना टमाटर
नेचर प्लांट्स जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक इंग्लैंण्ड के जॉन एनेस सेंटर के वैज्ञानिकों ने जीन संपादन टेक्नॉलॉजी की मदद से टमाटर के जीनोम में बदलाव कर उसे विटामिन डी के बढ़िया स्रोत में बदल दिया है।
चंद्रमा पर खोजे 13 नए स्थान
अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अगस्त में बताया कि उसने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के समीप 13 नए स्थानों की खोज कर ली है जहां अंतरिक्ष यानों को उतारा जा सकता है।
3-डी प्रिंटेड कॉर्निया बनाया
हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (हैदराबाद), व सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलिक्यूलर बॉयोलॉजी के शोधकर्ताओं ने 3-डी प्रिंटेड कॉर्निया बनाने में सफलता पाई है। पूरी तरह स्वदेशी तकनीक से विकसित इस कॉर्निया में कोई भी सिंथेटिक घटक नहीं है।
लैब में सूर्य के समान ऊर्जा
दक्षिण कोरिया के भौतिक वैज्ञानिकों ने एक फ्यूज़न रिएक्टर में चुंबकीय क्षेत्र का प्रयोग कर सूर्य के समान ऊर्जा उत्सर्जित करने में सफलता पाई है। इस प्रयोग में 30 सेकंड तक करीब 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस का तापमान विकसित करने में सफलता मिली।
पहला हिमस्खलन रडार केंद्र
भारतीय सेना और रक्षा भू-सूचना विज्ञान और अनुसंधान प्रतिष्ठान ने संयुक्त रूप से सितंबर माह में सिक्किम राज्य में देश का पहला हिमस्खलन रडार केंद्र स्थापित किया है। यह रडार 3 सेकंड के भीतर हिमस्खलन का पता लगा सकता है।
अमेज़न का सबसे ऊंचा पेड़
वैज्ञानिकों ने अमेज़न के जंगलों में सबसे ऊंचा पेड़ खोजा है। इसकी लंबाई 88.5 मीटर है। वैज्ञानिकों ने इसकी उम्र करीब 600 वर्ष आंकी है।
प्राकृतिक आपदा और रोबोट चूहा
चीन के वैज्ञानिकों ने ऐसा रोबोटिक चूहा बनाया है जो असली चूहे की तरह खड़ा हो सकता है, मुड़ सकता है, बैठ सकता है। यह रोबोटिक चूहा अपने वज़न का 91 फीसदी भार लेकर चल भी सकता है। इसे प्राकृतिक आपदा या युद्ध क्षेत्र में मदद के लिए बनाया गया है।
3-डी प्रिंटेड कान बना
दुनिया में पहली बार 3-डी प्रिंटेड कान बनाकर एक महिला को लगाया गया है। माइक्रोटिया रोग से ग्रसित लोगों के लिए यह बेहद फायदेमंद है।
सबसे पुराना पेड़ मिला
दक्षिण चिली के एक पार्क में दुनिया का सबसे पुराना पेड़ मिला है। पेरिस स्थित क्लाइमेट एंड एनवायरमेंटल साइंसेज़ लेबोरेट्री के पारिस्थितिकीविद जोनाथन बैरीचिविच के अनुसार पेड़ की उम्र 5484 साल है।
शून्य कार्बन उत्सर्जन कार
नीदरलैंड के आइंडहोवन प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शून्य कार्बन उत्सर्जन करने वाली कार का प्रोटोटाइप बनाने में सफलता प्राप्त की है। इसके अधिकांश हिस्सों को 3-डी प्रिंटिंग टेक्नॉलॉजी की मदद से तैयार किया गया है।
माउंट एवरेस्ट से बड़ी चट्टान
वैज्ञानिकों ने भूपर्पटी और पृथ्वी के कोर के बीच (पश्चिमी अफ्रीका और प्रशांत महासागर के मध्य) चट्टान की एक गर्म मोटी परत खोजी है, जो माउंट एवरेस्ट से 100 गुना बड़ी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://solarsystem.nasa.gov/news/522/10-things-to-know-about-parker-solar-probe/
केरल के कन्नूर शहर के एक अनोखे समारोह में माजू पुतेंकंडम और मुस्तफा पल्लिकुत – जो वैसे तो भारत के साधारण किसान ही हैं – को दो वर्तमान ज्वलंत पर्यावरणीय चुनौतियों – जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की क्षति – को सामने लाने में उनके अग्रणी कार्यों के लिए सम्मानित किया गया और नकद पुरस्कार प्रदान किया गया। ऐसा करने के लिए माजू पुतेंकंडम और मुस्तफा पल्लिकुत दोनों ने पर्यावरण के इन महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाने के काम में भारत की सबसे बड़ी ताकत – लोकतंत्र और सूचना संचार तकनीक क्रांति – का सहारा लिया था, जिसने ज्ञान तक आसान पहुंच के ज़रिए लोगों को सशक्त बनाया है।
वर्ष 2008 में काडनाड पंचायत के अध्यक्ष के रूप में श्री माजू ने डॉ. जोस पुतेट द्वारा समन्वित जैव विविधता प्रबंधन समिति (बीएमसी) की स्थापना की थी। बीएमसी ने पंचायत के सभी 13 वार्डों में अन्य विशेषज्ञों और स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं को जोड़ा, और सभी किसानों और समुदाय के अन्य सदस्यों से जानकारी एकत्र करके एक लोक जैव विविधता रजिस्टर (पीबीआर) तैयार किया। इस दस्तावेज़ में बताया गया था कि जैव विविधता से भरपूर पेरुमकुन्नु के पहाड़ों में चट्टानों का उत्खनन वहां की जैव विविधता के लिए हानिकारक है और इसे तत्काल रोक दिया जाना चाहिए।
बीएमसी ने केरल के राज्य जैव विविधता बोर्ड (केएसबीडीबी) से उत्खनन और क्रशर के पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन करने के लिए विशेषज्ञों की नियुक्ति करने का अनुरोध किया था; केएसबीडीबी ने 24 दिसंबर 2011 को ऐसा ही किया। केरल उच्च न्यायालय ने 2012 में इस मामले की जांच की और ठोस सबूतों के आधार पर काडनाड ग्राम पंचायत के फैसले को सही ठहराते हुए उत्खनन की अनुमति नहीं दी। तब निहित स्वार्थ हरकत में आए और उन्होंने पंचायत को समझाया कि पंचायत के उक्त निर्णय से पूरा इलाका अत्याचारी वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आ जाएगा और उन्हें खनन की अपेक्षा ज़्यादा कष्ट भोगने पड़ेंगे। चिंतित होकर पंचायत ने अपने निर्णय को रद्द कर दिया।
लेकिन क्षेत्र को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। 16 अक्टूबर 2021 के आसपास केरल के इडुक्की और कोट्टायम जिलों में भारी बारिश के साथ कई बड़े भूस्खलन हुए। इडुक्की क्षेत्र में कम से कम 11 और कोट्टायम में करीब 14 लोगों की मौत हो गई; कोट्टायम का कूटिक्कल सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ था; कूटिक्कल काडनाड के बहुत नज़दीक है और यहां भी लोग पहाड़ या चट्टान तोड़ने को रोकने के लिए एक दशक से अधिक समय से आंदोलन कर रहे हैं। आपदा के दिन, मूसलाधार बारिश के दौरान भी खदानों में चट्टान काटने का काम नहीं रोका गया था और आपदा के समय भी खदानों से विस्फोट की आवाज़ें आती रही थीं। आधिकारिक आंकड़ों में केवल 3 खदानों का उल्लेख है लेकिन वर्तमान ज्ञान के युग में इस तरह की धोखाधड़ी का खुलासा हो ही जाता है – उपग्रह से ली गई तस्वीरों में 17 से अधिक सक्रिय खदानें देखी गई हैं। ऐसी आपदाओं के बावजूद केरल में कम से कम 5924 खदानों में काम चल रहा है। यहां तक कि 2018 में केरल में आई बाढ़ के बाद भी केरल सरकार ने 223 नई खदानों को मंज़ूरी दी थी। और यह सब जारी है जबकि यह भली-भांति पता है कि सख्त चट्टानों को काटने और भूस्खलन के बीच गहरा सम्बंध है।
मलप्पुरम ज़िले में श्री मुस्तफा ने इसी तरह की बीएमसी गठित की है, और PBR तैयार करने के लिए स्थानीय कॉलेज के छात्र-छात्राओं को साथ लिया है ताकि जैव विविधता पर खनन के प्रतिकूल प्रभावों को सामने लाया जा सके और खनन कार्य को रुकवाया जा सके। जैव विविधता अधिनियम के स्पष्ट प्रावधानों को हकीकत का रूप देने की दिशा में ये महत्वपूर्ण प्रयास हैं। जैव विविधता अधिनियम में कहा गया है कि “प्रत्येक स्थानीय निकाय जैव विविधता के संरक्षण, टिकाऊ विकास और प्राकृतवासों के परिरक्षण, थलीय किस्मों के संरक्षण, लोक किस्मों, पालतू प्राणियों और नस्लों, सूक्ष्मजीवों के दस्तावेज़ीकरण तथा जैव विविधता सम्बंधी ज्ञान के विवरण के प्रयोजन से अपने क्षेत्र में बीएमसी का गठन करेगा।।” PBR का उद्देश्य पर्यावासों को बचाने सहित जैव विविधता के संरक्षण और उसके टिकाऊ उपयोग को बढ़ावा देने के आधार के रूप में कार्य करने का है, न कि मात्र दस्तावेज़ीकरण के लिए। लेकिन अफसोस कि जनविरोधी सरकारी तंत्र ने कहीं भी ऐसा नहीं होने दिया; इसलिए, केरल के ये प्रयास इस दिशा में बड़े कदम हैं।
गौरतलब है कि खदानें और खंतियां न केवल जैव विविधता के विनाश का प्रमुख कारण हैं बल्कि अमूल्य जल स्रोतों और जन जीवन की गुणवत्ता के विनाश की भी ज़िम्मेदार हैं। गोवा में अवैध खनन पर शाह आयोग की टिप्पणियों में पाया गया था कि खान और खनिज अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन किया गया है जिससे पारिस्थितिकी, पर्यावरण, कृषि, भूजल, प्राकृतिक जलधाराओं, तालाबों, नदियों, जैव विविधता आदि को गंभीर क्षति हुई है। आयोग का अनुमान था कि 2006 से 2011 के बीच सिर्फ गोवा में अवैध खनन से खदान मालिकों ने 35,000 करोड़ का मुनाफा कमाया है।
खनन और उत्खनन, खासकर मानव निर्मित रेत बनाने के लिए पत्थरों को पीसना, जलवायु परिवर्तन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, और साथ ही भारत के पहले से ही उच्च एयरोसोल बोझ को बढ़ाता है। उच्च एयरोसोल बोझ का नतीजा यह है कि पहले जो छह घंटे तक चलने वाली हल्की बूंदा-बांदी होती थी, वह अब आधे घंटे की भारी बारिश में बदल गई है। नतीजतन अधिक तीव्र बाढ़ के साथ-साथ भूस्खलन, बांधों के टूटने और इमारतें ढहने की संभावना बढ़ जाती है। लिहाज़ा, अब यह तो स्पष्ट है कि भले ही खनन और उत्खनन को पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता है लेकिन इसे नियंत्रित अवश्य किया जाना चाहिए, अत्यधिक खनन पर अंकुश लगाया जाना चाहिए और ज़मीनी स्तर पर कार्य कर रहे लोगों के हितों की रक्षा की जानी चाहिए। पूरी दुनिया में यही वे लोग हैं जो यह सुनिश्चित करते हैं कि शासक पर्यावरण सम्बंधी चिंताओं पर उचित ध्यान दें; हमारे लोकतंत्र में ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले आम लोगों द्वारा आधुनिक ज्ञान युग का लाभ उठाते हुए ऐसा होने लगा है, जो एक स्वागत योग्य विकास है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://practiceconnect.azimpremjiuniversity.edu.in/wp-content/uploads/2020/09/Kerala.jpg
जब आधुनिक मनुष्य पहली बार अफ्रीका से निकलकर दक्षिण-पश्चिमी प्रशांत के उष्णकटिबंधीय द्वीपों में गए तो उनका सामना नए लोगों और नए रोगजनकों से हुआ। लेकिन जब उन्होंने स्थानीय लोगों, डेनिसोवन्स, के साथ संतानोत्पत्ति की तो उनकी संतानों में कुछ प्रतिरक्षा जीन स्थानांतरित हुए जिन्होंने उन्हें स्थानीय बीमारियों से बचने में मदद की। अब एक नया अध्ययन बताता है कि इनमें से कुछ जीन्स आज भी पपुआ न्यू गिनी के निवासियों के जीनोम में मौजूद हैं।
वैज्ञानिक यह तो भली-भांति जानते थे कि पपुआ न्यू गिनी और मेलानेशिया में रहने वाले लोगों को 5 प्रतिशत तक डीएनए डेनिसोवन लोगों से विरासत में मिले हैं। डेनीसोवन लोग लगभग दो लाख साल पहले एशिया में आए थे और ये निएंडरथल मनुष्य के सम्बंधी थे। वैज्ञानिकों को लगता है कि इन जीन्स ने अतीत में आधुनिक मनुष्यों को स्थानीय बीमारियों से लड़ने में मदद करके फायदा पहुंचाया होगा। लेकिन सवाल था कि ये डीएनए अब भी कैसे मनुष्यों के डील-डौल, कार्यिकी वगैरह में बदलाव लाते हैं। और चूंकि पपुआ न्यू गिनी और मेलानेशिया के वर्तमान लोगों के डीएनए का विश्लेषण बहुत कम हुआ है इसलिए इस सवाल का जवाब मुश्किल था।
इस अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न की आइरीन गेलेगो रोमेरो और उनके साथियों ने एक अन्य अध्ययन का डैटा उपयोग करके इस मुश्किल को दूर किया है। उस अध्ययन में पपुआ न्यू गिनी के 56 लोगों के आनुवंशिक डैटा का विश्लेषण किया गया था। इन लोगों के जीनोम की तुलना डेनिसोवन और निएंडरथल डीएनए के साथ करने पर देखा गया कि डेनिसोवन लोगों से पपुआ लोगों को 82,000 ऐसे जीन संस्करण मिले थे जो जेनेटिक कोड में सिर्फ एक क्षार में बदलाव से पैदा होते हैं।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने आगे का अध्ययन प्रतिरक्षा से सम्बंधित जीन संस्करणों पर केंद्रित किया जो अपने निकट उपस्थित जीन के प्रोटीन का उत्पादन बढ़ा सकते थे, या इसका कार्य ठप या धीमा कर सकते थे। यह नियंत्रण विशिष्ट रोगजनकों के प्रति प्रतिरक्षा प्रणाली को अनुकूलित होने या ढलने में मदद कर सकता है।
शोधकर्ताओं को पपुआ न्यू गिनी के लोगों में कई ऐसे डेनिसोवन जीन संस्करण मिले जो उन जीन्स के पास स्थित थे जो फ्लू और चिकनगुनिया जैसे रोगजनकों के प्रति मानव प्रतिरक्षा को प्रभावित करते हैं। इसके बाद उन्होंने विशेष रूप से दो जीन्स, OAS2 और OAS3, द्वारा उत्पादित प्रोटीन की अभिव्यक्ति से जुड़े आठ डेनिसोवन जीन संस्करण के कार्य का परीक्षण किया।
देखा गया कि इनमें से दो डेनिसोवन जीन संस्करण ने प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा साइटोकाइन्स का उत्पादन कम कर दिया था जिससे शोथ (सूजन) कम हो गई थी। इस तरह शोथ प्रतिक्रिया को शांत करने से पपुआ लोगों को इस क्षेत्र के नए संक्रमणों से निपटने में मदद मिली होगी।
प्लॉस जेनेटिक्स पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि इन प्रयोगों से पता चलता है कि डेनिसोवन जीन संस्करण प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया में छोटे-मोटे बदलाव कर इसे पर्यावरण के प्रति अनुकूलित बना सकते हैं। शोधकर्ता बताते हैं कि उष्णकटिबंधीय इलाकों में, जहां संक्रमण का अधिक खतरा होता है, वहां प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को पूरी तरह हटाना तो उचित नहीं होगा लेकिन उसकी उग्रता को कम करना कारगर हो सकता है।
ये नतीजे वर्तमान युरोपीय लोगों में निएंडरथल जीन संस्करण की भूमिका पर हुए एक अन्य अध्ययन के नतीजों से मेल खाते हैं। दोनों ही अध्ययन दर्शाते हैं कि कैसे किसी क्षेत्र में नए आने वाले मनुष्यों का प्राचीन मनुष्यों के साथ मेल-मिलाप उनमें लाभकारी जीन प्राप्त होने का एक त्वरित तरीका प्रदान करता है। अध्ययन बताता है कि इस तरह जीन का लेन-देन मनुष्यों को प्रतिरक्षा चुनौतियों के प्रति अनुकूलित होने का एक महत्वपूर्ण ज़रिया था।
उम्मीद है कि आगे के अध्ययनों में यह पता चल सकेगा कि क्या डेनिसोवन जीन संस्करण पपुआ लोगों को किसी विशिष्ट रोग से बचने या उबरने में बेहतर मदद करते हैं?
सार रूप में, हज़ारों सालों पहले दो अलग तरह के मनुष्यों का मेल-मिलाप अब भी वर्तमान मनुष्यों के जीवन को प्रभावित कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg2133/abs/_20221208_on_papuans.jpg
हाल ही में चीनी सरकार ने कोविड-19 नीतियों में ढील देने के दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशानिर्देशों के तहत जांच की आवश्यकता और यात्रा सम्बंधी प्रतिबंधों में ढील दी गई है तथा सार्स-कोव-2 से संक्रमित हल्के या अलक्षणी रोगियों को पहले की तरह सरकारी सुविधाओं की बजाय घर पर ही आइसोलेट होने की अनुमति दी गई है।
इन रियायतों से संक्रमण में वृद्धि का अंदेशा जताया गया है। विशेषज्ञों के अनुसार यह निर्णय स्पष्ट रूप से इस बात का संकेत है कि चीन अब ज़ीरो कोविड के लक्ष्य से दूर जा रहा है। सख्त तालाबंदी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के चलते कई शहरों में कोविड जांच और आवाजाही पर लगाए गए प्रतिबंधों में कुछ ढील दी गई थी। नए दिशानिर्देश इससे भी अधिक ढील प्रदान करते हैं।
एथेंस के जॉर्जिया विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य शोधकर्ता एडम चेन सरकार के इन निर्णयों को उचित मानते हैं। उनके अनुसार यह कमज़ोर स्वास्थ्य वाले लोगों को संक्रमण से बचाते हुए लॉकडाउन के आर्थिक और सामाजिक नुकसान को कम करने के लिए सबसे उचित है। दूसरी ओर, कुछ विशेषज्ञों के अनुसार वर्तमान निर्णय जल्दबाज़ी में लिए गए हैं जिसमें विचार-विमर्श करने का पर्याप्त समय भी नहीं मिला है।
नए दिशानिर्देशों के तहत समूचे शहरों में जांच की आवश्यकता नहीं रहेगी। लॉकडाउन को लेकर भी एक नपा-तुला दृष्टिकोण अपनाया गया है। पूरे शहरों को बंद करने के बजाय उच्च जोखिम वाली बस्तियों, इमारतों और परिवारों पर प्रतिबंध होंगे। नर्सिंग होम जैसे उच्च जोखिम वाले स्थानों को छोड़कर अब लोगों को आने-जाने के लिए नेगेटिव परीक्षण का प्रमाण दिखाने की आवश्यकता नहीं है। उन क्षेत्रों में टीकाकरण को बढ़ावा देने का निर्देश दिया गया है जहां वृद्धजनों में टीकाकरण की दर कम है।
कई शोधकर्ताओं का मानना है कि नए नियमों के कुछ पहलू अस्पष्ट हैं और स्थानीय सरकारें इनकी व्याख्या अपने अनुसार करेंगी। जैसे आउटब्रेक के दौरान परीक्षण कहां व कब कराए जाएं, उच्च जोखिम वाले क्षेत्र किन्हें कहा जाए और उनका प्रबंधन कैसे किया जाए वगैरह। अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों की जांच और क्वारेन्टाइन में कोई रियायत नहीं दी गई है।
चीन में काफी लोग मल्टी में रहते हैं जहां घनी आबादी के चलते संक्रमण को रोकना मुश्किल होगा। घर पर ही क्वारेन्टाइन करने से संक्रमण फैलेगा। शोधकर्ता लॉकडाउन खोलने के समय को भी सही समय नहीं मानते। सर्दी के मौसम में इन्फ्लुएंज़ा का प्रकोप सबसे अधिक होता है यानी अस्पतालों में रोगियों की संख्या अधिक होगी। इसी समय त्योहारों के लिए लोग यात्राएं करेंगे जिससे वायरस के प्रसार की संभावना अधिक होगी।
चीन के पास मज़बूत प्राथमिक चिकित्सा सेवा प्रणाली नहीं है। ऐसे में हल्के-फुल्के लक्षण वाले लोग भी अस्पताल पहुंचते हैं।
और तो और, विशेषज्ञों को लगता है कि अचानक प्रतिबंधों को हटा देने से काम-धंधे ठीक तरह से पटरी पर नहीं आ पाएंगे।
शोधकर्ताओं को चिंता है कि जल्दबाज़ी में किए गए इन बदलावों से वृद्ध लोगों के बीच टीकाकरण को बढ़ाने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाएगा। फिलहाल 60 वर्ष या उससे अधिक आयु के लगभग 70 प्रतिशत और 80 वर्ष या उससे अधिक आयु के 40 प्रतिशत लोगों को ही टीके की तीसरी खुराक मिली है।
इन दिशानिर्देशों में टीकाकरण को बढ़ावा देने और लोगों की सुरक्षा चिंताओं को दूर करने के लिए मोबाइल क्लीनिक स्थापित करने और चिकित्सा कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने का भी प्रावधान है। लेकिन इन दिशानिर्देशों में स्थानीय सरकारों को टीकाकरण को बढ़ाने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं है। सवाल यही है कि क्या आने वाले समय में संक्रमण में वृद्धि से मौतों में वृद्धि होगी या सरकार इसे नियंत्रित कर पाएगी। (स्रोत फीचर्स)
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आज से पचास साल पहले 7 दिसंबर 1972 को, अपोलो-17 में सवार अंतरिक्ष यात्रियों ने चंद्रमा की ओर जाते हुए करीब 30,000 किलोमीटर की दूरी से पृथ्वी की एक सुप्रसिद्ध तस्वीर ली थी। गौरतलब है कि अपोलो-17 मिशन यात्रियों समेत चंद्रमा पर नासा का आखिरी मिशन था। इस तस्वीर को ‘ब्लू मार्बल’ के नाम से जाना जाता है – यह तस्वीर किसी व्यक्ति द्वारा ली गई पृथ्वी की पहली पूरी तरह से स्पष्ट रंगीन तस्वीर थी।
अब, वैज्ञानिकों ने इस तस्वीर को अत्याधुनिक डिजिटल जलवायु मॉडल के परीक्षण के दौरान फिर से बनाया है। यह जलवायु मॉडल सामान्य अनुकृति मॉडल की तुलना में 100 गुना अधिक आवर्धन क्षमता, एक किलोमीटर तक की विभेदन क्षमता के साथ तूफान और समुद्री तूफान जैसी जलवायु सम्बंधी घटनाओं को दर्शा सकता है।
ब्लू मार्बल की चक्रवाती हवाओं – जिसमें हिंद महासागर पर बना एक चक्रवात भी शामिल है – को फिर से बनाने के लिए शोधकर्ताओं ने वर्ष 1972 के मौसम सम्बंधी आंकड़े सुपर कंप्यूटर-संचालित सॉफ्टवेयर में डाले। परिणामी तस्वीर में क्षेत्र की अलग-अलग विशेषताएं दिखाई दे रही थीं। जैसे कि नामीबिया के तट से उमड़ते पानी (जल उत्सरण) और लंबे, बेंतनुमा बादलों का आच्छादन।
विशेषज्ञों का कहना है कि ये कलाबाज़ियां दर्शाती हैं कि उच्च-आवर्धन क्षमता वाले जलवायु मॉडल परिष्कृत होते जा रहे हैं। उम्मीद है कि ये मॉडल युरोपीय संघ के डेस्टिनेशन अर्थ प्रोजेक्ट का केंद्र बनेंगे। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य पृथ्वी की डिजिटल ‘जुड़वां पृथ्वी’ बनाना है ताकि चरम मौसम परिघटनाओं का बेहतर पूर्वानुमान किया जा सके और बेहतर तैयारी में मदद मिले। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में नागालैंड में हुए धनेश (हॉर्नबिल) उत्सव में भारत की आगामी जी-20 अध्यक्षता के प्रतीक चिन्ह (लोगो) का आधिकारिक तौर पर अनावरण किया गया। नागालैंड का यह लोकप्रिय उत्सव वहां की कला, संस्कृति और व्यंजनों को प्रदर्शित करता है। यह हमारे देश के कुछ सबसे बड़े, सबसे विशाल पक्षियों के कुल की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है।
विशाल धनेश (Buceros bicornis) हिमालय की तलहटी, पूर्वोत्तर भारत और पश्चिमी घाट में पाया जाता है। यह अरुणाचल प्रदेश और केरल का राज्य पक्षी है। पांच फीट पंख फैलाव वाले विशाल धनेश का किसी टहनी पर उतरना एक अद्भुत (और शोरभरा) नज़ारा होता है।
धारीदार चोंच वाला धनेश (Rhyticeros undulatus), भूरा धनेश (Anorrhinus austeni) और भूरी-गर्दन वाला धनेश (Aceros nipalensis) साइज़ में थोड़े छोटे होते हैं, और ये केवल पूर्वोत्तर भारत में पाए जाते हैं। उत्तराखंड का राजाजी राष्ट्रीय उद्यान पूर्वी चितकबरे धनेश (Anthracoceros albirostris) को देखने के लिए एक शानदार जगह है। मालाबार भूरा धनेश (Ocyceros griseus) का ज़ोरदार ‘ठहाका’ पश्चिमी घाट में गूंजता है। सबसे छोटा धनेश, भारतीय भूरा धनेश (Ocyceros birostris), भारत में थार रेगिस्तान को छोड़कर हर जगह पाया जाता है और अक्सर शहरों में भी देखा जा सकता है – जैसे चेन्नई में थियोसोफिकल सोसाइटी उद्यान।
धनेश की बड़ी और भारी चोंच कुछ बाधाएं भी डालती हैं – संतुलन के लिए, पहले दो कशेरुक (रीढ़ की हड्डियां) आपस में जुड़े होते हैं। नतीजा यह होता है कि धनेश अपना सिर ऊपर-नीचे हिलाकर हामी तो भर सकता है, लेकिन ‘ना’ करने (बाएं-दाएं सिर हिलाने) में इसे कठिनाई होती है। मध्य और दक्षिण अमेरिका के टूकेन की भी चोंच बड़ी होती हैं। यह अभिसारी विकास का एक उदाहरण – दोनों ही पक्षियों का भोजन एक-सा है।
लंबे वृक्षों को प्राथमिकता
धनेश अपने घोंसले बनाने के लिए ऊंचे पेड़ पसंद करते हैं। इन पक्षियों और जिन पेड़ों पर ये घोंसला बनाते हैं उनके बीच परस्पर सहोपकारिता होती है। बड़े फल खाने वाले धनेश लगभग 80 वर्षावन पेड़ों के बीजों को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। धनेश की आबादी घटने से कुछ पेड़ (जैसे कप-कैलिक्स सफेद देवदार – Dysoxylum gotadhora) के बीजों की मूल वृक्ष से दूर फैलने में 90 प्रतिशत की गिरावट आई है, जो वनों की जैव विविधता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।
दक्षिण पूर्व एशिया के विशाल तौलांग वृक्ष का ज़िक्र लोककथाओं में इतना है कि इस वृक्ष को काटना वर्जित माना जाता है। यह हेलमेट धनेश (Rhinoplax vigil) का पसंदीदा आवास है। इसके फलने का मौसम और धनेश के प्रजनन का मौसम एक साथ ही पड़ते हैं। पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान बीजों को फैलाने में धनेश के महत्व पर ज़ोर देता है, जिसके अनुसार इसके बीज धनेश द्वारा खखारकर फैलाए जाते हैं। एक कहावत है, “जब बीज अंकुरित होते हैं, तब धनेश के चूज़े अंडों से निकलते हैं।”
शिकार के मारे
दुर्भाग्य से, अवैध कटाई के लिए नज़रें लंबे पेड़ों पर ही टिकी होती हैं। इसलिए धनेश की संख्या में धीमी रफ्तार से कमी आई है, जैसा कि पक्षी-गणना से पता चला है। रफ्तार धीमी इसलिए है कि ये पक्षी लंबे समय तक (40 साल तक) जीवित रहते हैं। इनका बड़ा आकार इनके शिकार का कारण बनता है। सुमात्रा और बोर्नियो के हेलमेट धनेश गंभीर संकट में हैं क्योंकि इनकी खोपड़ी पर हेलमेट जैसा शिरस्त्राण, जिसे लाल हाथी दांत कहा जाता है, बेशकीमती होता है। सौभाग्य से, विशाल धनेश का शिरस्त्राण नक्काशी के लिए उपयुक्त नहीं है।
दक्षिण भारत में धनेश की आबादी बेहतर होती दिख रही है। मैसूर के दी नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन ने डैटा की मदद से दिखाया है कि प्लांटेशन वाले जंगल धनेश की आबादी के लिए उतने अनूकूल नहीं हैं जितने प्राकृतिक रूप से विकसित वर्षावन हैं, हालांकि कभी-कभी सिल्वर ओक के गैर-स्थानीय पेड़ पर इनके घोंसले बने मिल जाते हैं। धनेश का परिस्थिति के हिसाब से ढलने का यह स्वभाव भोजन में भी दिख रहा है; वे अफ्रीकन अम्ब्रेला पेड़ के फलों को खाने लगे हैं। ये पेड़ हमारे कॉफी बागानों में छाया के लिए लगाए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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चींटियों और उनकी कॉलोनी का अवलोकन शोधकर्ताओं के लिए हमेशा ही रोमांचक रहा है। देखा गया है कि वे अपनी बांबी की सफाई, खाद्य-भंडारण, पशुपालन और खेती जैसे कार्य तक करती हैं। और अब, शोधकर्ताओं ने पहली बार देखा है कि चींटियों के प्यूपा दूध जैसा तरल पदार्थ स्रावित करते हैं, जिससे कॉलोनी की चींटियां पोषण लेती हैं। यह खोज प्यूपा के कॉलोनी में योगदान के बारे में बनी धारणा को तोड़ती है और चींटियों द्वारा शिशु-पालन का एक तरीका प्रस्तुत करती है।
गौरतलब है कि चींटियों, तितलियों, मच्छरों वगैरह कई कीटों के जीवन चक्र में तीन अवस्थाएं होती हैं। अंडे में से इल्ली या लार्वा निकलता है। एक समय बाद यह लार्वा प्यूपा में बदल जाता है। प्यूपा निष्क्रिय होता है – न कुछ खाता-पीता है और न ही चलता-फिरता है। इसके आसपास एक खोल चढ़ी होती है। कॉलोनी की बाकी चींटियां ही प्यूपा को इधर-उधर सरकाती हैं। कुछ दिनों बाद यह खोल फटती है और अंदर से वयस्क कीट निकलता है।
इसी निष्क्रियता की वजह से, प्यूपा को अब तक कॉलोनी के लिए फालतू माना जाता था लेकिन ताज़ा शोध बताता है कि ऐसा नहीं है।
रॉकफेलर युनिवर्सिटी की जीवविज्ञानी ओर्ली स्निर इस बात का अध्ययन कर रहीं थी कि क्या चीज़ है जो चींटियों की कॉलोनी को एकीकृत रखती है। इसके अध्ययन के लिए उन्होंने क्लोनल रैडर (ऊसेरिया बिरोई) चींटियों के जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं को अलग-अलग रखकर उनका अध्ययन किया। शोधकर्ता यह देखकर हैरान थे कि प्यूपा के उदर से दूध जैसे सफेद तरल की बूंदें रिस रही थीं, और प्यूपा के आसपास जमा हो रहीं थी। प्यूपा इस तरल में डूबकर मर गए। लेकिन जब तरल उनके आसपास से हटा दिया गया तो वे बच गए थे।
सवाल यह था कि यह तरल जाता कहां हैं। यह पता करने के लिए शोधकर्ताओं ने प्यूपा में खाने वाला नीला रंग प्रविष्ट कराया और देखा कि वह रंग कहां-कहां जाता है। पाया गया कि तरल पदार्थ के स्रावित होते ही वयस्क चींटियां इसे पी जाती हैं। और तो और, वे लार्वा को प्यूपा के पास ले जाकर इसे पीने में मदद करती हैं। नेचर पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि एक मायने में वयस्क चींटियां पालकीय देखभाल दर्शा रही हैं – प्यूपा के आसपास तरल जमा होने से रोककर और लार्वा को पोषण युक्त तरल पिलाकर। यदि व्यस्क चींटियां और लार्वा इस तरल का सेवन न करें तो इसमें फफूंद लग जाती है और प्यूपा मर जाते हैं। और लार्वा की वृद्धि और जीवन इस तरल पर उसी तरह निर्भर होता है, जिस तरह स्तनधारी नवजात शिशु मां के दूध पर।
शोधकर्ताओं के अनुसार यह एक ऐसा तंत्र है जो कॉलोनी को एकजुट रखता है, चींटियों के विकास की अवस्थाओं – लार्वा, प्यूपा और वयस्क – को एक इकाई के रूप में बांधता है।
शोधकर्ताओं ने तरल की आणविक संरचना का भी परीक्षण किया। उन्हें उसमें 185 ऐसे प्रोटीन मिले जो सिर्फ इसी तरल में मौजूद थे, साथ ही 100 से अधिक मेटाबोलाइट्स (जैसे अमीनो एसिड, शर्करा और विटामिन) भी इसमें पाए गए। पहचाने गए यौगिकों से पता चलता है कि यह दूध निर्मोचन द्रव से बनता है जब प्यूपा में परिवर्तित होने के दौरान लार्वा अपना बाहरी आवरण त्यागते हैं।
शोधकर्ताओं ने चींटियों के पांच सबसे बड़े उप-कुलों की प्रजातियों में भी पाया कि उनके प्यूपा तरल स्रावित करते हैं। इससे लगता है कि इस तरल की चींटियों के सामाजिक ढांचे के विकास में कोई भूमिका होगी।
शोधकर्ता अब देखना चाहते हैं कि इस तरल के सेवन का वयस्क चींटियों और लार्वा के व्यवहार और शरीर विज्ञान पर क्या असर पड़ता है। हो सकता है कि लार्वा बड़े होकर रानी चींटी बनेंगे या श्रमिक चींटी यह इस बात पर निर्भर करता हो कि उन्हें कितना दूध सेवन के लिए मिला।
अन्य शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि इस तरल का चींटियों के आंतों के सूक्ष्मजीव संसार और भोजन को पचाने में क्या योगदान है। (स्रोत फीचर्स)
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लगभग 11,000 साल पहले वर्तमान के दक्षिणी तुर्की में शिकारी-संग्रहकर्ताओं ने अपनी घूमंतू जीवन शैली त्यागकर एक जगह बसना शुरू किया था। खेती शुरू होने के सदियों पहले वहां उन्होंने पत्थर के टिकाऊ घर और स्मारक बनाए थे। अब, हाल ही में खोजी गई नक्काशी इन नवपाषाण युगीन अनातोलियन लोगों की मान्यताओं, डरों और कहानियों की एक झलक पेश करती है।
सायबुर्क गांव के नीचे दफन 3.7 मीटर लंबे पत्थर के पटल पर एक जंगली सांड, गुर्राते तेंदुए और अपने शिश्न की नुमाइश करते दो मनुष्य उकेरे गए हैं। पूर्व में इसके आसपास के अन्य खुदाई स्थलों पर पुरातत्वविदों को उग्र शिकारियों और लिंग की आकृतियां मिली थीं, लेकिन ऐसा लगता नहीं था कि इनमें उकेरे गए पात्र एक-दूसरे को देख रहे हों। अधिकांश पात्र मूर्तियों की तरह सीधे अकेले खड़े थे, नज़रें अलग-अलग कहीं देख रही थीं, इनमें आपसी संवाद जैसी कोई भंगिमा नहीं थी, न ही संवाद या संपर्क के अन्य कोई संकेत थे। लेकिन एंटीक्विटी नामक शोध पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि सायबुर्क में मिली ताज़ा नक्काशी के दो दृश्यों में पात्रों के बीच कुछ संवाद दिखता है। यह संभवत: इस क्षेत्र की सबसे प्राचीन कला अभिव्यक्ति है।
दक्षिण-पूर्वी अनातोलिया में लगभग 12,000 से 9000 साल पहले जीवन शैली तेज़ी से बदली थी – खानाबदोश शिकारी-संग्रहकर्ता धीरे-धीरे एक स्थान पर टिकने लगे थे, और कालांतर में खेती करने लगे थे। इस परिवर्तन के समय, शुरुआती ग्रामीणों ने 10 मीटर से अधिक व्यास वाली चट्टान की शानदार गोल इमारतों का निर्माण किया था। इन इमारतों के एकल प्रस्तर खंभों पर शेर, सांप और अन्य हिंसक जानवरों की तस्वीरें हैं जो अपने सबसे घातक अंगों का प्रदर्शन कर रहे हैं – जैसे नुकीले दांत, नाखून, सींग वगैरह। इन पर सिर्फ शिश्न या शिश्न दिखाती पुरुष आकृतियां भी हैं।
इन नवपाषाण भवनों की खोज पुरातत्वविदों ने फरात नदी से लगभग 90 किलोमीटर पूर्व गोबेकली टेपे में 1990 के दशक में की थी। ये स्थल अब युनेस्को विश्व धरोहर स्थल में शामिल हैं। शुरुआत में शोधकर्ताओं को लगा था कि नवपाषाण काल के लोगों ने बड़े अनुष्ठान स्थल के रूप मे इन भवनों को बनाया होगा। लेकिन उसके बाद से तुर्की के सान्लीउर्फा में इसी तरह की नक्काशी और वास्तुशिल्प वाले एक दर्जन से अधिक भवन मिले हैं। इससे यह स्पष्ट होता लगता है कि तत्कालीन तुर्की में भवन निर्माण का यह मानक या आम तरीका था।
साल 2021 में, इस्तांबुल विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद आइलम ओज़ोगेन और उनके साथियों ने सायबुर्क में खुदाई शुरू की थी। खुदाई में उन्हें लगभग 9000 ईसा पूर्व (आज से लगभग 11 हज़ार साल पहले) के कुछ अवशेष और गोबेकली टेपे जैसी गोलाकार इमारत भी मिलीं। वे केवल आधी इमारत को खोदकर उजागर कर सके क्योंकि बाकी आधे हिस्से के ऊपर आधुनिक बस्ती बस चुकी है। उजागर पुरातन इमारत में उन्हें एक पत्थर की बेंच के पास के पटल पर शिकारियों और शिश्न की नक्काशियां मिलीं।
एक दृश्य में एक छह-उंगली वाला, पालथी मारकर बैठा मनुष्य सांप या झुनझुने जैसी कोई चीज़ एक पैने सींग वाले सांड की ओर लहराता दिख रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार यह दो जीवों के बीच लड़ाई जैसा दृश्य लगता है। दूसरे दृश्य में एक व्यक्ति शिश्न पकड़े सामने की ओर मुंह करके खड़ा है और इसके दोनों ओर दो तेंदुए इस व्यक्ति की ओर मुंह करके खड़े हैं। इसे शोधकर्ता खतरे के सामने ‘एक लापरवाह रवैया’ बताते हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि दीवार पर बनी आकृतियां एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं या किसी क्रम में है, लेकिन शोधकर्ताओं को लगता है कि ये नक्काशियां खानाबदोश समुदाय के एक जगह बसने के साथ उनके प्रकृति के प्रति बदलते दृष्टिकोण को व्यक्त करती हैं। सांड के साथ संघर्ष और तेंदुओं के प्रति उदासीनता संभवत: जंगली जीवों को वश में करना सीखने वाले लोगों की कहानी बताती होगी।
वैसे, अन्य वैज्ञानिक इन नक्काशियों को देखकर इनकी अलग व्याख्या प्रस्तुत कर सकते हैं। जर्मन आर्कियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के पुरातत्वविद मुलर-न्यूहोफ को लगता है कि सांड और उसके साथ एक-दूसरे की ओर मुंह किए तेंदुए मिलकर कोई कहानी कहते हैं। और शिश्न पकड़े खड़ा व्यक्ति आगंतुकों का अभिवादन कर रहा है या अनचाहे मेहमानों को डरा रहा है। युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के एडवर्ड बैनिंग को सांड वाले दृश्य के लिए ऐसा लगता है कि यह आदमी किसी झुनझुने से डराने के बजाय जानवर को काबू करने के लिए फंदा डालने की तैयारी में है।
इन नक्काशियों के अर्थ समझने के लिए शोधकर्ताओं को इस बारे में और समझना पड़ेगा जिससे मिलकर पूरा समुदाय बनता है। अन्य शोधकर्ता चेताते हैं कि नक्काशियों का अर्थ स्वतंत्र रूप से सिर्फ नक्काशी देखकर निकालने के बजाए उनके साथ मिले भोजन अवशेष, मानव कंकाल और अन्य कलाकृतियों के साथ जोड़ते हुए निकालना अधिक सार्थक होगा।
बहरहाल, ये पुरातात्विक साक्ष्य जल्द उजागर होने की उम्मीद है। तुर्की सरकार इन प्राचीन इमारत के ऊपर रह रहे लोगों को अन्यत्र नए घर बनाकर दे रही है ताकि पूरी इमारत खोद कर बाहर निकाली जा सके। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले कुछ वर्षों से प्लास्टिक उत्पादन में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। वर्ष 2050 तक इसका उत्पादन प्रति वर्ष एक अरब टन होने की संभावना है। इसके चलते प्लास्टिक प्रदूषण में वृद्धि निश्चित है। इस समस्या से निपटने के लिए उरुग्वे में 150 से अधिक देशों के बीच एक बैठक का आयोजन किया जा रहा है।
गौरतलब है कि इस वर्ष मार्च में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा ने निर्णय किया था कि प्लास्टिक कचरे को नियंत्रित करने के लिए एक बाध्यकारी संधि लाई जाए। इस संधि में प्लास्टिक उत्पादन से लेकर उसके निपटारे तक के संपूर्ण जीवनचक्र को शामिल किया जाएगा। इस संधि को 2024 तक अंतिम रूप दिए जाने की उम्मीद है। इस अवधि में राष्ट्रों को मिलकर प्लास्टिक प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए नियम और रणनीतियां तैयार करने का चुनौतीपूर्ण कार्य करना होगा। नेचर पत्रिका के एक संपादकीय के मुताबिक इस संदर्भ में तीन प्रमुख मुद्दों को संबोधित करना होगा और इनसे निपटने की दृष्टि से कुछ सुझाव भी दिए गए हैं।
प्रदूषण
तमाम समुद्री कचरे में से लगभग 85 प्रतिशत तो प्लास्टिक कचरा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) का अनुमान है कि समुद्रों में प्रति वर्ष लगभग 2.3-3.7 करोड़ टन कचरा पहुंचेगा और वर्ष 2040 तक समुद्र में प्लास्टिक कचरे की मात्रा तिगुनी हो जाएगी। दरअसल, अधिकांश प्लास्टिक कचरा उत्पन्न तो भूमि पर होता है लेकिन नदियों से होते हुए अंतत: समुद्रों में पहुंच जाता है।
ऑस्ट्रेलिया स्थित मिंडेरू फाउंडेशन के अनुसार समाज के लिए प्लास्टिक प्रदूषण की लागत प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर से अधिक होती है जिसमें पर्यावरण की सफाई और पारिस्थितिक क्षति शामिल हैं। यह लागत प्लास्टिक प्रदूषण को संबोधित न करने की वजह से पैदा होती है।
इस सम्बंध में दक्षिण अफ्रीका स्थित काउंसिल फॉर साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च की प्रमुख वैज्ञानिक लिंडा गॉडफ्रे के अनुसार संधि वार्ताकारों को प्लास्टिक प्रदूषण समस्या हल करने सम्बंधी विभिन्न प्रतिस्पर्धी विचारों से निपटना होगा। जैसे गैर-सरकारी संगठन और कार्यकर्ता एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने और सुरक्षित विकल्प खोजने पर ज़ोर देते हैं। दूसरी ओर, प्लास्टिक उद्योग का मत है कि कचरे के बेहतर संग्रहण के माध्यम से प्रदूषण से निपटा जा सकता है। इन दोनों से अलग, अपशिष्ट प्रबंधन और पुनर्चक्रण उद्योग अधिक से अधिक पुनर्चक्रण की वकालत करते हैं।
गॉडफ्रे को उम्मीद है कि संधि में इन सारे उपायों का समावेश होगा। वैसे प्रत्येक उपाय का अनुपात हरेक देश के लिए भिन्न हो सकता है। उनका मत है कि उच्च आय वाले देशों से निम्न आय वाले देशों में प्लास्टिक कचरे के स्थानांतरण पर प्रतिबंध लगाने से भी प्रदूषण काफी कम किया जा सकता है।
गॉडफ्रे यह भी चाहती हैं कि इस संधि के माध्यम से प्लास्टिक निर्माता उनके द्वारा बनाए गए उत्पादों के संग्रहण, छंटाई और पुनर्चक्रण की भी ज़िम्मेदारी व खर्च उठाएं। इससे लैंडफिल में प्लास्टिक प्रदूषण में कमी आएगी और स्थानीय निकायों पर अपशिष्ट प्रबंधन का वित्तीय बोझ भी कम होगा। इसके साथ ही समुद्रों में प्लास्टिक की मात्रा को कम करने के लिए संधि में यह भी शामिल होना चाहिए कि विभिन्न देश अपने द्वारा उपयोग किए जाने वाले प्लास्टिक की मात्रा को कम करने का लक्ष्य एक समय सीमा में निर्धारित करें।
पुनर्चक्रण
वर्तमान में केवल 9 प्रतिशत प्लास्टिक कचरे का पुनर्चक्रण किया जा रहा है क्योंकि इस कचरे का मूल्य बहुत कम है। यदि इसका मूल्य अधिक होता तो अधिक से अधिक प्लास्टिक का पुन:उपयोग किया जाता, पर्यावरण में यह कम मात्रा में पहुंचता और नए प्लास्टिक उत्पादन की ज़रूरत भी कम होती। इसे वर्तुल अर्थव्यवस्था कहा जाता है।
प्लास्टिक क्षेत्र में वर्तुल अर्थव्यवस्था के लिए ऑस्ट्रेलिया के अरबपति व मिंडेरू फाउंडेशन के अध्यक्ष एंड्रयू फॉरेस्ट ने इस संधि के माध्यम से पॉलीमर (प्लास्टिक निर्माण के बुनियादी घटक) के निर्माण पर अधिभार लगाने का प्रस्ताव दिया है। इससे प्राप्त राशि का उपयोग पुनर्चक्रण के लिए किया जा सकता है।
इसके अलावा वे प्लास्टिक उत्पाद बेचने वाले खुदरा विक्रेताओं से प्लास्टिक कचरा वापस खरीदने और इसका पुन: उपयोग करने के तरीके खोजने का भी सुझाव देते हैं। हालांकि खुदरा विक्रेताओं पर पड़ने वाली अतिरिक्त लागत का प्रभाव सीधे तौर पर उपभोक्ताओं पर पड़ेगा लेकिन फॉरेस्ट को उम्मीद है कि उपभोक्ता उन उत्पादों के लिए अधिक भुगतान करने को तैयार होंगे जिससे पर्यावरण में पहुंचने वाले प्लास्टिक की मात्रा कम होती है। इस विचार को अपनाने से ऐसे प्लास्टिक का उत्पादन बंद हो जाएगा जिसका पुन: उपयोग या पुनर्चक्रण नहीं किया जा सकता क्योंकि उन्हें पुन: खरीदने वाला कोई नहीं होगा।
फॉरेस्ट चाहते हैं कि इस संधि के माध्यम से अगले पांच वर्षों में एक ऐसी प्रणाली विकसित हो जिसके तहत प्लास्टिक प्रदूषण करने वाली कंपनियों को दंडित किया जा सके। ऐसा होने पर कंपनियां अपने वर्तमान तौर-तरीकों को बदलेंगी।
हालांकि गॉडफ्रे प्लास्टिक में वर्तुल अर्थव्यवस्था को लेकर शंका में हैं क्योंकि अभी तक पुनर्चक्रित प्लास्टिक से होने वाले स्वास्थ्य जोखिमों के बारे में बहुत कम जानकारी है। कहीं ऐसा न हो कि हम पर्यावरण बचाने के चक्कर में स्वास्थ्य जोखिम बढ़ा दें।
सामाजिक और स्वास्थ्य प्रभाव
पूरे विश्व और विशेष रूप से एशिया में प्लास्टिक कचरे को जला दिया जाता है। इससे काफी कम समय में कचरा कम हो जाता है और यह बैक्टीरिया, वायरस और मच्छरों का प्रजनन स्थल नहीं बन पाता। लेकिन प्लास्टिक के जलने से भारी वायु प्रदूषण होता है। बाहरी वायु प्रदूषण मृत्यु का एक प्रमुख कारण है। कई क्षेत्रों में तो प्लास्टिक भूदृश्य का एक हिस्सा बन चुका है और स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बना हुआ है। यह मिट्टी में रच-बस गया है और इसे हटाना एक बड़ी चुनौती होगी।
कई अध्ययनों से पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक सांस, भोजन और पानी के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर सकता है। नैनोप्लास्टिक से मानव त्वचा और फेफड़े की कोशिकाओं में क्षति और सूजन पैदा करने के भी साक्ष्य मिले हैं। प्लास्टिक में बिसफेनॉल-ए, थेलेट्स और पीसीबी जैसे पदार्थ मिलाए जाते हैं जो अंतःस्रावी गड़बड़ी और प्रजनन सम्बंधी विकारों का कारण बन सकते हैं। इस सम्बंध में कई विशेषज्ञ इस संधि के माध्यम से प्लास्टिक में उपयोग किए जाने वाले रसायनों पर प्रतिबंध लगाने या उसको चरणबद्ध तरीके से खत्म करने का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.nature.com/original/magazine-assets/d41586-022-03835-w/d41586-022-03835-w_23749666.jpg