वैश्विक स्तर पर 1970 से 2018 के बीच 48 वर्षों में वन्य जीवों की आबादी में 69 फीसदी की कमी हुई है। यह जानकारी विश्व प्रकृति निधि (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) द्वारा जारी लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट 2022 से पता चली है। इस रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण अमेरिका और कैरिबियाई क्षेत्रों में वन्य जीव आबादी में सबसे बड़ी गिरावट हुई है; यहां पिछले पांच दशकों में करीब 94 फीसदी की गिरावट हुई। दक्षिण अफ्रीका में करीब 66 फीसदी व एशिया-प्रशांत में 55 फीसदी की कमी दर्ज की गई। चिंताजनक और चौंकाने वाली बात यह है कि दुनिया भर में नदियों में पाए जाने वाले जीवों की आबादी में करीब 83 फीसदी की कमी आई है।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ यह रिपोर्ट हर दो वर्ष में प्रकाशित करता है। इसकी स्थापना वर्ष 1961 में हुई थी। इसका मुख्यालय स्विट्ज़रलैंड के ग्लैंड में है। निधि का मुख्य उद्देश्य प्रकृति का संरक्षण करना और पृथ्वी पर विविधता को होने वाले खतरों को कम करना है। लिविंग प्लेनेट इंडेक्स (एलपीआई) पिछले 50 वर्षों से स्तनधारी जीवों, पक्षियों, सरीसृपों, मछलियों और उभयचरों की आबादी की निगरानी कर रहा है। दुनिया भर में 5230 प्रजातियों की 31,821 आबादियों के निरीक्षण के आधार पर निष्कर्ष मिला है कि खास तौर से ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कशेरुकी प्राणियों की आबादी में तेज़ी से गिरावट दर्ज हुई है। धरती की 70 फीसदी और ताज़े पानी की 50 फीसदी जैव विविधता खतरे में है।
भारत में करीब 12 फीसदी स्तनधारी वन्य जीव समाप्ति की कगार पर है। वहीं पिछले 25 वर्षों में मधुमक्खियों की करीब 40 फीसदी आबादी खत्म हो चुकी है।
वैश्विक स्तर पर वन्य जीवों की तेज़ी से घटती आबादी के लिए उनके आवासों की कमी, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और विभिन्न बीमारियां प्रमुख कारण हैं।
जैव विविधता एवं पारिस्थितिकी सेवाओं सम्बंधी अंतरसरकारी मंच (आईपीबीईएस) की एक रिपोर्ट के अनुसार विकसित और विकासशील देशों में रहने वाले अधिकांश लोग भोजन, दवा, ऊर्जा, मनोरंजन और मानव कल्याण से सम्बंधित कार्यों में लगभग 50 हज़ार वन्य जीव प्रजातियों का हर दिन उपयोग करते हैं।
दुनिया भर में जंगल वातावरण से 7.6 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं जो मनुष्य द्वारा पैदा हुई कार्बन डाईऑक्साइड का 18 फीसदी है। इस तरह जंगल धरती को 0.5 डिग्री सेल्सियस ठंडा रखते हैं। यह विडंबना ही है कि इसके बावजूद प्रति वर्ष हम 1 करोड़ हैक्टर जंगल नष्ट कर रहे हैं।
यदि वन व वन्य जीव नहीं होंगे तो जल, वायु व मृदा से मिलने वाले संसाधन नष्ट हो जाएंगे और इनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हाल के दशकों में मानव ने अपनी आवश्यकताओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बहुत अधिक दोहन किया है, जिसके परिणामस्वरूप बड़े-बड़े जंगल खत्म होने की कगार पर है। कुछ वन्य प्राणियों की प्रजातियां विलुप्त हो गई और कुछ विलुप्ति की कगार पर हैं। वनों को काटकर हम न सिर्फ वन्य जीवों के आवास खत्म कर रहे हैं बल्कि वनों से मिलने वाली विविध संपदा भी खो रहे हैं।
मानव गतिविधियों के कारण भूमि पर पाए जाने वाले वन्य जीवों के अलावा जलीय जीवों के प्राकृतवास पर भी खतरा उत्पन्न हुआ है। जहाज़, स्टीमर आदि से ईंधन के रिसाव, विनाशकारी मत्स्याखेट, गहरे ट्रालरों का उपयोग एवं मूंगा चट्टानों के दोहन से समुद्र का पारिस्थितिकी तंत्र तबाह हो गया है।
स्पष्ट है मानवीय गतिविधियों के कारण पूरी दुनिया में वन्य जीवों की संख्या कम हो रही है। प्रकृति में जितने भी विनाशकारी परिवर्तन हो रहे हैं, वे सभी मनुष्य की ही देन हैं। तापमान का चरम पर जाना, चक्रवाती तूफान एवं कहीं सूखा तो कहीं मूसलाधार बारिशें, जिसके कारण बाढ़ जैसी विपदाओं का आना इत्यादि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हो रहा है जो वनों व वन्य जीवों की घटती आबादी का कारण है।
लुप्तप्राय पौधों और जानवरों की प्रजातियों की उनके प्राकृतिक निवास स्थान के साथ रक्षा करना ज़रूरी है। सबसे प्रमुख चिंता का विषय यह है कि वन्य जीवों के निवास स्थान की सुरक्षा किस प्रकार की जाए जिससे वन्य जीव और मनुष्य के बीच एक संतुलित तालमेल बना रहे, जीवन फलता-फूलता रहे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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