नए घर की तलाश करते समय जिस एक चीज़ पर ध्यान देना हम कभी नहीं भूलते, वह है “उस जगह भूजल स्तर कितनी गहराई पर है।” भूजल स्तर बताता है कि कितनी गहराई पर चट्टानों की दरारें और छिद्र पानी से भरे हैं। भूमि के अंदर संचित इस पानी को भूजल और जिन चट्टानों में यह पानी भरा होता है उन्हें एक्वीफर्स कहते हैं।
दुनिया की एक चौथाई आबादी के लिए पानी का प्रमुख स्रोत भूजल ही है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा भूजल उपयोगकर्ता है; वर्ष 2017 में लगभग 250 घन किलोमीटर पानी का ज़मीन से दोहन किया गया था। इसमें से लगभग 90 प्रतिशत पानी सिंचाई के लिए और शेष पानी शहरों और गांवों में इस्तेमाल किया गया था।
सिंधु-गंगा के मैदानी क्षेत्रों (उत्तरी मैदानी क्षेत्रों) की कृषि अर्थव्यवस्था भूजल पर टिकी है। लेकिन ऐसी आशंका है कि जल्द ही सिंधु-गंगा मैदानी क्षेत्र के एक्वीफर्स इतने व्यापक पैमाने पर सिंचाई के लिए पानी देने में सक्षम नहीं रहेंगे। जर्नल ऑफ हायड्रोलॉजी में पिछले वर्ष आईआईटी कानपुर के एस. के. जोशी व साथियों द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार यह स्थिति पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में तो दिखने भी लगी है। हरित क्रांति नलकूपों पर टिकी रही है। गिरता भूजल स्तर किसानों को उच्च शक्ति वाले सबमर्सिबल पंप उपयोग करने को मजबूर कर रहा है, जिससे स्थिति और बिगड़ गई है।
उपग्रह गुरुत्व मापन ने खतरनाक दर से गिरते भूजल स्तर के ठोस प्रमाण दिए हैं। इस डैटा को स्थानीय स्तर पर कुओं में भूजल स्तर के मापन से पुष्ट किया जाता है। इस शताब्दी में, भारत के उपरोक्त क्षेत्र में भूजल स्तर में गिरावट की औसत दर 1.4 से.मी. प्रति वर्ष रही है। अलबत्ता, उन क्षेत्रों में भूजल स्तर में कमी इतनी तेज़ी से नहीं हो रही है जहां भूजल खारा है।
भूजल स्तर में वृद्धि के उपाय
वर्षा और नदियों के पानी से एक्वीफर्स रिचार्ज हो जाते हैं। स्वतंत्रता के बाद से भारत ने पानी के वितरण के लिए नहरों के निर्माण में वृद्धि की है। इन नहरों से रिसता पानी भी भूजल स्तर को बढ़ाता है।
हमारे देश के कुछ क्षेत्रों के कुछ स्वस्थ एक्वीफर्स के पीछे एक महत्वपूर्ण कारक है भूजल रिचार्ज के लिए समुदाय आधारित अभियान। इसका सबसे अच्छा उदाहरण सौराष्ट्र के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में देखा जा सकता है। यहां मौसमी नदियों और नालों पर हज़ारों छोटे-बड़े चेक डैम बनाए गए हैं। ये पानी के प्रवाह को धीमा करते हैं और भूजल रिचार्ज में योगदान देते हैं और साथ ही मिट्टी के कटाव को रोकते हैं। गांवों में, बोरियों में रेत भरकर बारिश के बहते पानी के रास्ते में बोरी-बंधान बनाए जाते हैं।
क्या इन छोटे पैमानों पर किए गए जल संचयन के उपायों से कोई फर्क पड़ा है? सौराष्ट्र के भूजल स्तर और इसी तरह की जलवायु वाले मराठवाड़ा और विदर्भ क्षेत्रों के तुलनात्मक अध्ययनों में इन उपायों के सकारात्मक प्रभाव दिखे हैं। सुखद बात है कि पिछले एक दशक में महाराष्ट्र के इन क्षेत्रों ने भी भूजल रिचार्ज करने के अपने प्रबंधित कार्यक्रम शुरू किए हैं, जैसे जलयुक्त शिवार।
देश में तमिलनाडु-कर्नाटक के सीमांत क्षेत्र भी भूजल स्तर में उल्लेखनीय गिरावट का सामना कर रहे हैं। यहां भूजल क्रिस्टलीय चट्टानों में पाया जाता है। ये चट्टाने छिद्रयुक्त नहीं होतीं, इसलिए इनमें पानी केवल बीच की दरारों और टूटन में पाया जाता है। इन परिस्थितियों में, पोखर और तालाब भूजल रिचार्ज में ज़्यादा मददगार नहीं होते।
यहां ज़्यादातर रिचार्ज वर्षा और सिंचाई के पानी के पुनर्चक्रण से होता है। विडंबना देखिए कि बेंगलुरु जैसे शहरी क्षेत्र में भूजल रिचार्ज का प्रमुख स्रोत जल आपूर्ति के पाइपों से होने वाला रिसाव है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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