हाल ही में यूएन जलवायु परिवर्तन द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) उन 26 देशों में से हैं जिन्होंने पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 सम्मेलन में लिए गए संकल्पों के अनुरूप अपने जलवायु लक्ष्यों को अपडेट किया है। मिस्र ने बिजली उत्पादन, परिवहन और तेल एवं गैस से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में और अधिक कटौती करने का वादा किया है। अलबत्ता, इस पर अमल अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता पर निर्भर है। इसी तरह यूएई ने भी 2030 तक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 31 प्रतिशतत तक की कमी करने का संकल्प लिया है जो पूर्व में किए गए 23.5 प्रतिशत के वादे से काफी अधिक है। गौरतलब है कि इस वर्ष कॉप-27 तथा अगले वर्ष कॉप-28 इन्हीं दो देशों में आयोजित किए जाएंगे।
पिछले एक वर्ष में विभिन्न देशों के संकल्पों पर ध्यान दिया जाए तो वर्ष 2030 तक उत्सर्जन का स्तर वर्ष 2010 की तुलना में 10.6 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है। पिछले वर्ष की रिपोर्ट में यह अनुमान 13.7 प्रतिशत वृद्धि का था। लेकिन इतनी कमी भी सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की दृष्टि से पर्याप्त नहीं हैं।
गौरतलब है कि पूर्व में सऊदी अरब ने जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों का निरंतर विरोध किया है जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अन्य तेल-समृद्ध देश भी इन प्रयासों को टालते रहे हैं। 1995 में सऊदी अरब के प्रतिनिधियों ने उस रिपोर्ट पर भी शंका ज़ाहिर की थी जिसमें ग्लोबल वार्मिंग के लिए इंसानी गतिविधियों को ज़िम्मेदार ठहराया गया था।
लेकिन पिछले एक दशक में मध्य-पूर्व के देशों ने अक्षय प्रौद्योगिकियों को अपनाते हुए पर्यावरण पर ध्यान केंद्रित किया है। सऊदी अरब और अन्य प्रमुख तेल उत्पादक देश जलवायु परिवर्तन की वस्तविकता को स्वीकार कर चुके हैं। विशेषज्ञों के अनुसार तेल से होने वाली आमदनी पर निर्भर राष्ट्रों का यह कदम दर्शाता है कि भविष्य में जीवाश्म ईंधन की मांग में अनुमानित कमी के मद्देनज़र वे अपनी अर्थव्यवस्था में विविधता लाने तथा घरेलू ज़रूरतों के लिए नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके जीवाश्म ईंधन को निर्यात हेतु बचाने की ओर बढ़ रहे हैं। मसलन, यूएई ने 2050 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन करने का संकल्प लिया है।
खाड़ी के अन्य देशों में भी प्रयास चल रहे हैं। सऊदी अरब और उसके पड़ोसी बहरीन ने 2060 के लिए नेट-ज़ीरो लक्ष्य निर्धारित किए हैं। इसी तरह गैस-समृद्ध कतर ने भी 2030 तक अपने उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कटौती करने का संकल्प लिया है। इस्राइल और तुर्की ने भी 2050 के दशक के मध्य तक नेट-ज़ीरो हासिल करने की घोषणा की है। पिछले साल सऊदी अरब के नेतृत्व में मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव ने मध्य पूर्वी क्षेत्र में तेल और गैस उद्योग से कार्बन उत्सर्जन को 60 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य घोषित किया है। यह उद्योग दुनिया में मीथेन के सबसे बड़े स्रोतों में से एक है।
अक्षय ऊर्जा का उदय
वर्तमान में इस मामले में जानकारी काफी कम है कि ये देश जलवायु सम्बंधी लक्ष्यों को कैसे हासिल करेंगे। एक तथ्य यह है कि यूएई और सऊदी अरब दोनों ने कार्बन-न्यूट्रल शहरों के निर्माण या उनके विस्तार में भारी निवेश किया है।
न्यूयॉर्क स्थित ऊर्जा परामर्श कंपनी ब्लूमबर्ग के अनुसार, पिछले एक दशक में मध्य पूर्व में नवीकरणीय ऊर्जा में सात गुना की वृद्धि हुई है। जो एक बड़ा परिवर्तन है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में बिजली उत्पादन में अक्षय उर्जा का हिस्सा 28 प्रतिशत है जबकि इस क्षेत्र में मात्र 4 प्रतिशत है।
विशेषज्ञों के अनुसार निकट भविष्य में इस क्षेत्र के राष्ट्र जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मुख्य रूप से सौर, पवन और पनबिजली में निवेश करेंगे। आबू धाबी ऊर्जा विभाग के अनुसार वर्ष 2021 में कुल ऊर्जा में अक्षय और परमाणु ऊर्जा का हिस्सा 13 प्रतिशत था जो 2025 में 54 प्रतिशत से अधिक तक पहुंचने की संभावना है। दुनिया के सबसे बड़े सौर संयंत्रों में से एक (1650 मेगावॉट) मिस्र में है, वहीं इस वर्ष के अंत तक कतर 800-मेगावॉट सौर साइट खोलने की योजना बना रहा है। खाड़ी देशों में सौर विकिरण की भरपूर उपलब्धता के चलते यहां नवीकरणीय स्रोतों से बिजली उत्पादन की लागत काफी कम है।
इसके साथ ही सऊदी अरब और यूएई हरित हाइड्रोजन उद्योग में निवेश करने की भी योजना बना रहे हैं।
भविष्य में मध्य पूर्व के राष्ट्रों की नज़र कार्बन-कैप्चर पर भी है। इसके अलावा, मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव में 50 अरब पेड़ लगाने का लक्ष्य शामिल है। इस परियोजना से 20 करोड़ हैक्टर क्षेत्र को बहाल किया जाएगा। विशेषज्ञों के अनुसार 38 प्रतिशत तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन प्राकृतवासों की क्षति के कारण हुआ है।
जीवाश्म ईंधन में निवेश जारी
ये सारे प्रयास एक तरफ, लेकिन मध्य पूर्व के देश तेल और गैस की खोज में निवेश जारी रखे हुए हैं। गौरतलब है कि निर्यात किए गए उत्सर्जन को किसी देश के नेट-ज़ीरो लक्ष्य के हिस्से के रूप में नहीं गिना जाता है। वैसे खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्थाएं आज तेल पर कम निर्भर हैं। विश्व बैंक के अनुसार, 2010 में मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में जीडीपी का 22.1 प्रतिशत हिस्सा तेल से आता था जो 2020 तक 11.7 प्रतिशत रह गया। फिर भी यह आंकड़ा वैश्विक औसत (1 प्रतिशत) से काफी अधिक है।
गौरतलब है कि ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 के दौरान सऊदी अरब उन देशों में से था, जिन्होंने जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने के सुझाव को कमज़ोर करने का प्रयास किया था। विशेषज्ञों की मानें तो भविष्य में जीवाश्म-ईंधन की खोज को रोकना एक महत्वपूर्ण प्रयास हो सकता है लेकिन अभी तक ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के रास्ते पर बढ़ते हुए यदि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है तो तेल और गैस उत्पादन में कोई नया निवेश नहीं होना चाहिए।
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि अभी जीवाश्म ईंधन उन देशों के लिए आवश्यक है जिनके पास ऊर्जा के नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचे की कमी है और इसके लिए तेल-निर्यातक राष्ट्रों को दंडित करना उचित नहीं है। फिर भी सऊदी अरब और अन्य मध्य पूर्वी राष्ट्रों की पर्यावरण रणनीति में सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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