जब कैलोरी बर्न करने की बात आती है तो लोगों का ध्यान सरपट सैर, साइकिल चलाना या ऐसे ही व्यायामों की ओर जाता है, चबाने का तो विचार तक नहीं आता। अब, एक नवीन अध्ययन बताता है कि दिन भर में हमारे द्वारा खर्च की जाने वाली कुल ऊर्जा में से लगभग 3 प्रतिशत ऊर्जा तो चबाने की क्रिया में खर्च होती है। कुछ सख्त या रेशेदार चीज़ चबाएं तो थोड़ी और अधिक ऊर्जा खर्च होगी। हालांकि यह ऊर्जा चलने या पाचन में खर्च होने वाली ऊर्जा से बहुत कम है, लेकिन अनुमान है कि इसकी भूमिका हमारे पूर्वजों के चेहरे को नया आकार देने में रही।
ऐसा माना जाता रहा है कि हमारे जबड़ों की साइज़ और दांतों का आकार चबाने को अधिक कुशल बनाने के लिए विकसित हुआ था। जैसे-जैसे हमारे होमिनिड पूर्वज आसानी से चबाने वाले भोजन का सेवन करने लगे और भोजन को काटने-पीसने और पकाने लगे तो जबड़ों और दांतों का आकार भी छोटा होता गया। लेकिन यह जाने बिना कि हम दिनभर में चबाने में कितनी ऊर्जा खर्च करते हैं, यह बता पाना मुश्किल है कि क्या वाकई ऊर्जा की बचत ने इन परिवर्तनों में भूमिका निभाई थी।
यह जानने के लिए मैनचेस्टर विश्वविद्यालय की जैविक मानव विज्ञानी एडम वैन केस्टरेन और उनके दल ने 21 प्रतिभागियों द्वारा खर्च की गई ऑक्सीजन और उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा का मापन किया। इसके लिए प्रतिभागियों को एक हेलमेट जैसा यंत्र पहनाया गया था। फिर उन्हें 15 मिनट तक चबाने के लिए चुइंगम दी। यह चुइंगम स्वादहीन, गंधहीन और कैलोरी-रहित थी। ऐसा करना ज़रूरी था अन्यथा पाचन तंत्र सक्रिय होकर ऊर्जा की खपत करने लगता।
चबाते समय प्रतिभागियों द्वारा प्रश्वासित वायु में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर बढ़ा हुआ पाया गया। यह दर्शाता है कि चबाने पर शरीर ने अधिक कार्य किया। जब चुइंगम नर्म थी तब प्रतिभागियों का चयापचय औसतन 10 प्रतिशत बढ़ा। सख्त चुइंगम के साथ चयापचय में 15 प्रतिशत तक वृद्धि देखी गई। यह प्रतिभागियों द्वारा दिन भर में खर्च की गई कुल ऊर्जा का 1 प्रतिशत से भी कम है लेकिन मापन-योग्य है। ये नतीजे साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक इससे पता चलता है कि खाना पकाना और औज़ारों का इस्तेमाल शुरू होने से पहले आदिम मनुष्य चबाने में बहुत अधिक समय बिताते होंगे। यदि प्राचीन मनुष्य दिन भर में वर्तमान गोरिल्ला और ओरांगुटान जितना भी चबाते होंगे तो शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वे दिन भर में खर्च हुई कुल ऊर्जा का कम से कम 2.5 प्रतिशत चबाने में खर्च करते होंगे।
ये नतीजे इस विचार का समर्थन करते हैं कि चबाने में सुगमता आने से वैकासिक लाभ मिला। चबाने में लगने वाली ऊर्जा की बचत का उपयोग आराम, मरम्मत और वृद्धि जैसी अन्य चीज़ों पर हुआ होगा।
चबाने में मनुष्यों द्वारा खर्च होने वाली ऊर्जा गणना से अन्य होमिनिड्स के विकास के बारे में भी एक झलक मिल सकती है। मसलन 20 लाख से 40 लाख साल पूर्व रहने वाले ऑस्ट्रेलोपिथेकस के दांत आधुनिक मनुष्यों की तुलना में चार गुना बड़े थे और उनके जबड़े विशाल थे। वे चबाने में अधिक ऊर्जा लगाते होंगे।
अन्य शोधकर्ता इस बात से सहमत नहीं है कि सिर्फ ऊर्जा की बचत ने जबड़ों और दांत के विकास का रुख बदला। इसमें अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अन्य कारकों की हो सकती है, जैसे ऐसे आकार के जबड़े विकसित होना जो दांतों के टूटने या घिसने की संभावना कम करते हों। प्राकृतिक चयन में संभवत: ऊर्जा दक्षता की तुलना में दांतों की सलामती को अधिक तरजीह मिली होगी, क्योंकि दांतों के बिना भोजन खाना मुश्किल है, और ऊर्जा मिलना भी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.ade4630/abs/_20220817_on_chewing_australopithecus_afarensis.jpg