यह तो सर्वविदित है कि कोयला या पेट्रोल के दहन से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है जो धरती का तापमान बढ़ाती हैं। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि प्रदूषण के कण सूर्य के प्रकाश को परावर्तित कर कुछ हद तक पृथ्वी को ठंडा रखने में योगदान देते हैं। प्रदूषण-नियंत्रण प्रौद्योगिकियों में प्रगति से इस प्रदूषण से निर्मित विषैले बादल और उनसे संयोगवश मिलने वाला यह लाभ कम होने लगा है।
उपग्रहों से प्राप्त जानकारी के अनुसार वैश्विक वायु प्रदूषण का पर्यावरणीय असर वर्ष 2000 की तुलना में 30 प्रतिशत तक कम हो गया है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह एक अच्छी खबर है क्योंकि वायुवाहित सूक्ष्मकण या एयरोसोल से प्रति वर्ष कई लाख लोग मारे जाते हैं। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के लिहाज़ से देखा जाए तो यह एक बुरी खबर है। लीपज़िग युनिवर्सिटी के जलवायु वैज्ञानिक जोहानेस क्वास के अनुसार स्वच्छ हवा ने उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड से होने वाली कुल वार्मिंग को 15 से 50 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है। यानी वायु प्रदूषण कम होने से तापमान में और अधिक वृद्धि हो रही है।
ब्लैक कार्बन या कालिख जैसे एयरोसोल गर्मी को अवशोषित करते हैं। दूसरी ओर, परावर्तक सल्फेट और नाइट्रेट कण ठंडक पैदा करते हैं। ये गाड़ियों के एक्ज़ॉस्ट, जहाज़ों के धुएं और ऊर्जा संयंत्रों की चिमनियों से निकलने वाली प्रदूषक गैसों में पाए जाते हैं। इन प्रदूषकों को कम या खत्म करने के लिए उत्तरी अमेरिका और युरोप से लेकर विकासशील देशों में प्रौद्योगिकियां विकसित हुई हैं। इसके नतीजे में पहली बार वर्ष 2010 में चीन में वायु प्रदूषण में गिरावट शुरू हुई। इसके अलावा, हाल के वर्षों में सल्फर उत्सर्जित करने वाले जहाज़ों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध भी लगा है।
एटमॉस्फेरिक केमिस्ट्री एंड फिज़िक्स प्रीप्रिंट में प्रकाशित पर्चे में उत्तरी अमेरिका और युरोप में एयरोसोल में गिरावट के संकेत दिए गए हैं लेकिन वैश्विक स्थिति नहीं उभरी है। क्वास और सहयोगियों का विचार था कि इस काम में नासा के उपग्रह टेरा और एक्वा सहायक सिद्ध हो सकते हैं। ये दोनों उपग्रह पृथ्वी पर आने वाले और बाहर जाने वाले विकिरण का हिसाब रखते हैं। इसकी सहायता से कई शोध समूहों को ग्रीनहाउस गैसों द्वारा अवरक्त ऊष्मा को कैद करने में वृद्धि की जानकारी प्राप्त हुई है। लेकिन एक्वा और टेरा पर लगे एक उपकरण ने परावर्तित प्रकाश में गिरावट दर्शाई। कुछ विशेषज्ञ परावर्तन में इस कमी के लिए कुछ हद तक एयरोसोल में कमी को ज़िम्मेदार मानते हैं।
क्वास और उनके सहयोगियों ने इस अध्ययन में टेरा और एक्वा पर लगे उपकरणों का उपयोग करते हुए एक और अध्ययन किया। उन्होंने आकाश में कुहरीलेपन को रिकॉर्ड किया जो एयरोसोल की मात्रा को दर्शाता है। क्वास के अनुसार वर्ष 2000 से लेकर 2019 तक उत्तरी अमेरिका, युरोप और पूर्वी एशिया पर कुहरीलेपन में काफी कमी आई जबकि कोयले पर निर्भर भारत में यह बढ़ता रहा। गौरतलब है कि एयरोसोल न केवल स्वयं प्रकाश को परावर्तित करते हैं बल्कि बादलों में भी परिवर्तन कर सकते हैं। ये कण नाभिक के रूप में कार्य करते हैं जिस पर जलवाष्प संघनित होती है। प्रदूषण के कण बादल की बूंदों के आकार को छोटा करते हैं और उनकी संख्या में वृद्धि करते हैं जिससे बादल अधिक परावर्तक बन जाते हैं। ऐसे में यदि प्रदूषण को कम किया जाता है तो यह प्रभाव उलट जाता है। टीम ने पाया कि बादल की बूंदों की सांद्रता में कमी उन्हीं क्षेत्रों में आई है जहां एयरोसोल की मात्रा में गिरावट हुई है।
कुछ अन्य अध्ययनकर्ताओं के अनुसार अभी सटीकता से नहीं बताया जा सकता कि एयरोसोल में कमी से ग्लोबल वार्मिंग में कितनी वृद्धि हुई है क्योंकि दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में विविधता इतनी अधिक है।
ज़ाहिर है कि समस्या का हल यह नहीं है कि वायु प्रदूषण को बढ़ावा दिया जाए। वायु प्रदूषण से हर वर्ष कई लोगों की जान जाती है। बल्कि आवश्यकता इस बात है कि वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के प्रयासों को गति दी जाए।
पूर्व-औद्योगिक समय की तुलना में पृथ्वी वर्तमान में 1.2 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो चुकी है और 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करने के लिए उत्सर्जन में तेज़ी से कटौती की उम्मीद काफी कम है। इसलिए समाधान के रूप में कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि सोलर जियोइंजीनियरिंग के माध्यम से सल्फेट कणों को समताप मंडल में फैलाया जाए ताकि एक वैश्विक परावर्तक कुहरीलापन निर्मित हो जाए। इस विचार को लेकर काफी विवाद है लेकिन कुछ लोगों को लगता है कि इसे एक अंतरिम उपाय के रूप में देखा जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.ade0379/abs/_20220720_nid_global_warming.jpg