कोयला उपयोग का अंत कैसे होगा?

लवायु परिवर्तन को रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना अनिवार्य है। लेकिन कोयले से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं है। इसका एक कारण वैश्विक रणनीतियों का राष्ट्रीय वास्तविकताओं के अनुकूल न होना है।

कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों से प्राकृतिक गैस की तुलना में प्रति युनिट दुगना कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन होता है। वर्ष 2019 के आंकड़ों के अनुसार विश्व में बिजली उत्पादन में कोयला एक-तिहाई और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 26 प्रतिशत योगदान देता है। अधिकांश विश्लेषणों के अनुसार 2015 के पेरिस संधि के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए 2030 तक कोयले का उपयोग 30-70 प्रतिशत तक कम करना होगा।

कोयले के उपयोग में कटौती को कई औद्योगिक देशों ने अपने राजनीतिक अजेंडा में शामिल किया है, जबकि अधिकांश कम और मध्यम आय वाले देश अभी भी इसे आर्थिक विकास के लिए आवश्यक मानते हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान ऊर्जा मांग में कमी के चलते 2019 से 2020 के बीच कोयले से बिजली उत्पादन में 4 प्रतिशत की कमी आई थी जो 2021 में 9 प्रतिशत बढ़ गई। कुछ अन्य घटनाओं ने भी बिजली उत्पादन में कोयले के उपयोग को बढ़ाया है। हालिया रूस-यूक्रेन युद्ध ने प्राकृतिक-गैस की आपूर्ति को खतरे में डाल दिया है। जर्मनी सहित कई देशों ने कोयले के उपयोग को एक अंतरिम उपाय माना है। गैस की बढ़ती कीमतें एशिया में कोयले के उपयोग को बढ़ा सकती हैं।

फिलहाल दुनिया में 2429 कोयला आधारित बिजली संयंत्र (क्षमता>2000 गीगावाट) सक्रिय हैं। वर्ष 2017 से 2022 तक कोयला-आधारित बिजली उत्पादन में 110 गीगावाट की वृद्धि हुई है। यदि मौजूदा और निर्माणाधीन संयंत्रों का संचालन आगामी 40 वर्षों तक जारी रहा तो तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री की सीमा में रखने के लिए उत्सर्जन को पटरी पर रखने के बजट का 60-70 प्रतिशत खर्च हो जाएगा। इस मुद्दे पर त्वरित कार्यवाही आवश्यक है। कोयले के उपयोग को तब तक कम नहीं किया जा सकता जब तक विश्व समुदाय अपने लक्ष्य राजनैतिक वास्तविकताओं के अनुरूप निर्धारित नहीं करता।

इस संदर्भ में शोधकर्ताओं ने 2018 से 2020 तक 15 प्रमुख देशों की केस स्टडी की जहां विश्व के 84 प्रतिशत कोयला संयंत्र और 83 प्रतिशत नए कोयला संयंत्र मौजूद हैं। प्रत्येक केस स्टडी के लिए शोधकर्ताओं ने नीति निर्माताओं, विश्लेषकों, शिक्षाविदों और गैर-सरकारी संगठनों के साथ कई साक्षात्कार किए। इस आधार पर उन्होंने कोयला-आधारित संयंत्रों का संचालन करने या भविष्य में ऐसा करने वाली सभी अर्थव्यवस्थाओं का 4 श्रेणियों में वर्गीकरण किया:

1. फेज़-आउट देश जो चरणबद्ध तरीके से कोयले पर निर्भरता को कम करने का प्रयास कर रहे हैं।

2. स्थापित कोयला उपयोगकर्ता

3. फेज़-इन देश जो वर्तमान में तो कोयले पर निर्भर नहीं है लेकिन काफी तेज़ी से नए कोयला संयंत्रों का निर्माण कर रहे हैं।

4. निर्यातोन्मुख देश

प्रत्येक श्रेणि की अपनी-अपनी राजनीतिक चुनौतियां हैं।

कोयले से निपटने के लिए कभी-कभी ऐसा माना जाता है कि उच्च कार्बन मूल्य या कोयले पर सब्सिडी हटाना प्रभावी हो सकता है। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। मज़बूत कानूनी ढांचे और पूंजी की सुलभता वाली अर्थव्यवस्थाओं में तो इन परिस्थितियों में अक्षय ऊर्जा कोयले से टक्कर ले सकती है। लेकिन कई अन्य क्षेत्रों में ऊर्जा की नई प्रणालियों को अपनाने के लिए वित्तीय और बौद्धिक पूंजी की कमी है। कई अन्य ऐसे मुद्दे भी हैं जो सब्सिडी में सुधार या उत्सर्जन शुल्क लागू करने के प्रयासों को कमज़ोर करते हैं।

जैसा कि पहले बताया गया है, चारों श्रेणियों की अपनी-अपनी चुनौतियां है और सभी में प्रभावी परिवर्तन के लिए कुछ विशिष्ट नीतिगत प्राथमिकताओं की ज़रूरत है। हर जगह एक-सी नीतियां काम नहीं करेंगी।

हालांकि चीन इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वहां दुनिया की आधी मौजूदा अथवा प्रस्तावित कोयला क्षमता है लेकिन यदि कई अन्य फेज़-इन देश कोयले को अपनाते रहे तो जल्दी ही वे उत्सर्जन के मामले में चीन और भारत को पीछे छोड़ देंगे।

फेज़-आउट अर्थव्यवस्थाएं

कोयले को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में चिली, जर्मनी, यू.के. और यू.एस.ए. शामिल हैं। फेज़-आउट श्रेणि में अधिकांश देश उच्च आय वाली अर्थव्यवस्थाएं हैं। इनके पास अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में तथा ऊर्जा दक्षता बढ़ाने पर निवेश करने के लिए भरपूर वित्तीय, तकनीकी और संस्थागत क्षमताएं हैं। फिलहाल इन देशों में कोयला आधारित संयंत्रों की कुल क्षमता 360 गीगावाट है जो 2030 तक एक चौथाई हो जाना चाहिए।

लेकिन सवाल यह है कि ये देश इस स्तर पर कैसे पहुंच पाए हैं? यू.के. में युरोपियन युनियन एमिशन ट्रेडिंग स्कीम में प्रचलित कार्बन मूल्य के अलावा बिजली और उद्योग क्षेत्रों में काफी प्रभावी ढंग से कार्बन लेवी को लागू किया गया। जर्मनी में एक उच्च स्तरीय आयोग ने कोयले के उपयोग को खत्म करने के लिए कोयला और बिजली कंपनियों को 42 अरब अमेरिकी डॉलर का भुगतान किया ताकि वे 2038 तक चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को पूरी तरह खत्म कर सकें। इसके अलावा संयुक्त राज्य अमेरिका में ड्रिल टेक्नॉलॉजी के चलते प्राकृतिक गैस की कीमतों में कमी के अलावा पवन और सौर उर्जा की लागत में भी तेज़ी से गिरावट हुई। इसका नतीजा यह रहा कि कोयला उद्योग को राजनीतिक समर्थन मिलने के बाद भी कोयले का उपयोग काफी तेज़ी से कम हुआ। वर्ष 2007 में सर्वाधिक उपयोग की तुलना में वर्तमान में कोयले का उपयोग लगभग आधा है। इसी तरह 2040 तक कोयला उपयोग को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए चिली ने उच्च सौर क्षमता का फायदा उठाते हुए गैस और कोयले के अस्थिर आयात से स्वयं को सुरक्षित रखा।

यदि इन फेज़-आउट देशों में यह गिरावट जारी रही, तो भी 2030 तक 90 गीगावाट बिजली का उत्पादन कोयले से ही होगा। इससे होने वाला उत्सर्जन 7.5 करोड़ कारों के उत्सर्जन के बराबर होगा। इन परिवर्तनों में तेज़ी लाने से उत्सर्जन में कटौती होगी और नवाचार को बढ़ावा मिलेगा। इसके लिए अनुसंधान और स्वच्छ उर्जा के प्रसार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की आवश्यकता होगी। इसके अलावा कोयले पर निर्भर देशों को आय के वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध कराने होंगे। कोयले पर दी जा रही सब्सिडी को खत्म करके उसे स्वच्छ ऊर्जा उत्पादकों की ओर मोड़ना होगा।

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को खत्म किया जा सकता है। जैसे, युरोपीय संघ में कार्बन-उत्सर्जन की बढ़ती कीमतों के चलते कोयले के उपयोग को खत्म करने की संभावना बुल्गारिया जैसे अन्य देशों में भी है जहां इसे लेकर कोई विशिष्ट योजना नहीं है। देशों की दृढ़ अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं सरकारों की जवाबदेही को बढ़ा सकती हैं।

स्थापित उपयोगकर्ता

चीन, भारत और तुर्की जैसे स्थापित कोयला उपयोगकर्ता मध्यम आय वाले देश हैं जहां काफी विकास हुआ है और गरीबी में कमी आई है। इन देशों में ऊर्जा की मांग में वृद्धि को पूरा करने के लिए कोयला आधारित संयंत्र लगाए गए जिनमें कम पूंजी की आवश्यकता होती है।

गौरतलब है कि इन देशों में सरकार ऊर्जा व बिजली बाज़ार पर नियंत्रण रखती हैं। ऐसे में यहां अक्षय उर्जा की घटती लागत का ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ता। कोयले की पूरी शृंखला – खनन, परिवहन, बिजली उत्पादन और वित्त – पर अधिकांशत: राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों का वर्चस्व है। कुछ निहित स्वार्थ भी कोयले आधारित संयंत्रों को बढ़ावा देते हैं।

इनमें से कई देशों में कोयला अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है। भारत में 1.5 करोड़ नौकरियां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोयले से जुड़ी हैं। इन देशों की नीतियों में कुछ ऐसे सुधारों की आवश्यकता है जो निहित स्वार्थों और भ्रष्टाचार पर नज़र रखें, ऊर्जा क्षेत्र पर राज्य के नियंत्रण को कम करें और वैकल्पिक उर्जा प्रणालियों के उपयोग को बढ़ावा दें। इन देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर और श्रम बल को विकसित करने में निवेश करने की आवश्यकता है ताकि विनिर्माण और आईटी सेवाओं को सहारा मिले।

इसके अलावा लौह, इस्पात और सीमेंट उत्पादन सहित ऊर्जा-सघन उद्योगों के डीकार्बनीकरण के समझौतों के चलते उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को औद्योगिक देशों के बाज़ारों तक पहुंच बनाने में मदद मिलेगी जो हरित सामग्री खरीदने का दबाव बनाते हैं।     

फेज़-इन देश

पाकिस्तान और वियतनाम जैसे देश कोयला आधारित बिजली उत्पादन में काफी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। इन देशों में प्रति व्यक्ति आय अपेक्षाकृत कम है जबकि ऊर्जा की मांग में निरंतर वृद्धि हो रही है। जैसे, वियतनाम में प्रति वर्ष ऊर्जा मांग में 10 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है और भविष्य में 56 नए संयंत्र स्थापित करने की योजना है।

बिजली के किफायती दाम, सुरक्षा और विश्वसनीयता राजनीतिक अजेंडा में हमेशा से महत्वपूर्ण रहे हैं। राज्य द्वारा नियंत्रित ऊर्जा की कीमतें बिजली कंपनियों को कर्ज़ में डुबा सकती हैं जिससे उनके पास कोयले के विकल्प आज़माने का मौका ही नहीं रहेगा। हालांकि फेज़-इन देशों में आम तौर पर कोयले से जुड़े निहित स्वार्थों की कमी होती है लेकिन फिर भी उन्हें अनुचित लाभ मिल सकता है।

वैसे, फेज़-इन राष्ट्रों के लिए अक्षय ऊर्जा संयंत्रों के लिए उच्च पूंजीगत लागत और निवेश करना काफी जोखिम भरा हो सकता है। अपर्याप्त विकसित बिजली ग्रिड में घटती-बढ़ती नवीकरणीय उर्जा को समायोजित करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ सकता है। इसलिए ऊर्जा प्रबंधक अक्षय ऊर्जा को लेकर शंकित रहते हैं। जैसे वियतनाम के पास अनिरंतर सौर व पवन आधारित ऊर्जा प्रणालियों के प्रबंधन क्षमता नहीं है। फिर भी वियतनाम 2019 में दक्षिण पूर्वी एशिया में सौर उर्जा का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। इस तरह के उदाहरणों से अन्य देश भी प्रेरित होते हैं। अलबत्ता, वियतनाम में वेन थी कान जैसे पर्यावरण कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी इन कदमों के प्रतिरोध की ताकत दर्शाती हैं।

अंतर्राष्ट्रीय वित्त और आज़माइशी प्रोजेक्ट इन बाधाओं को कम कर सकते हैं। पिछले वर्ष नवंबर में एशियन डेवलपमेंट बैंक ने एशिया में कोयला संयंत्रों और खानों को खरीदने की योजना तैयार की थी। इस योजना को फिलिपींस में पायलट परियोजना की तरह शुरू किया गया था ताकि इन संयंत्रों और खानों को उनके अनुमानित अंत से पहले बंद किया जा सके। इस प्रकार की खरीदारी से ग्रिड क्षमता और भंडारण सहित अन्य विकल्पों में निवेश के लिए पूंजी हासिल होती है। यह ऊर्जा स्थानांतरण के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं।

कोयला निर्यातक

ऑस्ट्रेलिया, कोलंबिया, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका सहित निर्यातकों की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताएं काफी विविध हैं। इनमें से ऑस्ट्रेलिया की प्रति व्यक्ति आय काफी अधिक है जबकि इंडोनेशिया की काफी कम है। दक्षिण अफ्रीका अपने द्वारा खनन किए गए कोयले के एक बड़े हिस्से की स्वयं खपत करता है जबकि कोलंबिया अधिकांश उत्पादित कोयले का निर्यात करता है।

इन सब देशों में एक समानता यह है कि ये सभी बड़े पैमाने पर कोयले का उत्पादन करते हैं। इन देशों को कोयले से मिलने वाला राजस्व कुल जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा है। उदाहरण के लिए कोयला निर्यात इंडोनेशिया के सार्वजनिक बजट का लगभग 5 प्रतिशत है। ऐसा देखा गया है कि कोयला रॉयल्टी पर अत्यधिक निर्भरता के चलते कोयला खनन के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करने में काफी समय लगता है।           

कोयले को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए यहां कुछ विशिष्ट तरीके अपनाना होगा। कोयला आधारित रोज़गार से जुड़े लोगों को किसी अन्य आर्थिक गतिविधि में लगाना होगा। इस विषय में ऑस्ट्रेलिया में सौर ऊर्जा चालित हाइड्रोजन निर्यात अर्थव्यवस्था काफी भरोसेमंद लगती है। इंडोनेशिया जैसे अन्य देशों में विकल्पों की संभावना कम है लेकिन इसमें कपड़ा और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की फिटिंग जैसे श्रम-बहुल उद्योगों को शामिल किया जा सकता है।

इनमें से कई देशों के लिए कोयले पर आर्थिक निर्भरता का मतलब है कि यहां कार्बन के मूल्य निर्धारण और इसी तरह के उपायों की क्षमता सीमित है। उदाहरण के लिए इंडोनेशिया ने हाल ही में बहुत कम कार्बन मूल्य का निर्धारण किया लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण कोयले को इससे छूट दी गई। जुलाई में शुरू होने वाली उत्सर्जन-ट्रेडिंग योजना में कोयले को भी शामिल करना प्रस्तावित है लेकिन इस योजना में काफी खामियां हैं। पूर्व में जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी में सुधार के प्रयासों ने कभी-कभी हिंसक विरोध का रूप भी लिया है।

इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय प्रयास आवश्यक हैं। पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में यू.के, यू.एस.ए, युरोपीय संघ, फ्रांस और जर्मनी ने दक्षिण अफ्रीका में डीकार्बनीकरण और स्वच्छ-उर्जा के लिए 8.5 अरब डॉलर उपलब्ध कराने की पेशकश की थी। देखना यह है कि क्या यह पेशकश साकार रूप लेती है।

आगे का रास्ता

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हर श्रेणि के लिए महत्वपूर्ण है। कई देशों के लिए इसे अकेले कर पाना संभव नहीं है। जो अर्थव्यवस्थाएं पहले से ही कोयले को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का प्रयास कर रही हैं वे अंतर्राष्ट्रीय समझौतों से अपने संकल्पों को और मज़बूत कर सकती हैं और अन्य देशों को प्रौद्योगिकी, वित्त और क्षमता निर्माण के रूप में सहायता कर सकती हैं। फेज़-इन देशों को नवीकरणीय ऊर्जा, ग्रिड क्षमता और भंडारण सुविधाओं के लिए वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी। स्थापित कोयला उपयोगकर्ता स्टील और कांक्रीट जैसे ऊर्जा-सघन उद्योगों के डीकार्बनीकरण वाले समझौतों से सबसे बड़ा लाभ प्राप्त कर सकते हैं और स्वच्छ ऊर्जा उत्पादों के लिए बाज़ार तैयार कर सकते हैं। निर्यात पर निर्भर देशों को गैर-खनन गतिविधियों में स्थानांतरण के लिए सहायता प्रदान की जानी चाहिए।    

देखा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए सभी आवश्यक तत्व पहले से उपस्थित हैं। जी-7 और जी-20 जैसे महत्वपूर्ण कार्बन उत्सर्जक देश युनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के साथ वार्ता में तेज़ी लाने में सहयोग कर सकते हैं। पूर्व में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो 100 अरब डॉलर के संकल्प लिए गए थे, उन्हें फेज़-आउट रणनीतियों पर लक्षित किया जाना चाहिए। वास्तव में कोयला छोड़कर स्वच्छ विकल्पों की ओर जाना संभव है लेकिन इसके लिए वैश्विक समुदाय को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार नीतियों को परिभाषित करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-022-01828-3/d41586-022-01828-3_23214676.jpg

भ्रमों का शिकार अंधा सांप – हरेन्द्र श्रीवास्तव

बारिश के मौसम में तरह-तरह के सांप दिखाई देते हैं। करैत, कोबरा, वाइपर, वुल्फ स्नेक, चेकर्ड कीलबैक और सैंड बोआ आदि घरों के समीप, खेत-खलिहानों और बाग-बगीचों में अक्सर दिख जाते हैं। इन्हीं दिनों में नम जगहों पर एक बेहद छोटे और पतले आकार का केंचुए जैसा अत्यन्त चमकीला जीव भी बहुत तेज़ी से ज़मीन और फर्श पर रेंगता दिखता है। दरअसल, यह केंचुआ नहीं बल्कि एक सांप है। इसे अंधा सांप कहते हैं। अंधा सांप दुनिया का सबसे छोटा सांप है। इसे तेलिया सांप के नाम से भी जाना जाता है।

इसे अंधा सांप क्यों कहते हैं? दरअसल इस सांप की आंखों की बनावट ऐसी होती है कि यह केवल उजाले और अंधेरे में फर्क कर सकता है। वैसे भी सांपों की दृष्टि क्षमता बेहद कमज़ोर होती है और अंधा सांप तो इस मामले में और भी ज़्यादा कमज़ोर होता है। अंधे सांप की आंखें दो काले बिन्दुओं की तरह दिखाई देती हैं। इन्हीं सब कारणों के चलते इन सांपों को अंधा सांप कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसे ब्लाइंड स्नेक या वार्म स्नेक के नाम से भी जाना जाता है।

दुनिया भर में अंधे सांपों की लगभग 250 प्रजातियां पाई जाती हैं। भारत में 15 से भी ज़्यादा प्रजातियां रिकॉर्ड की गई हैं, जिनमें ब्राह्मणी ब्लाइंड स्नेक सबसे आम है। अंधे सांप मुख्यतः नमीयुक्त जगहों, भूमिगत स्थानों और सड़े-गले पत्तों के ढेर के नीचे पाए जाते हैं। ये सांप तापमान के उतार-चढ़ाव के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं। भौगोलिक विविधता एवं जलवायु के अनुसार अंधे सांपों का रंग कत्थई, काला और हल्का लाल होता है। मैंने अपने ग्रामीण क्षेत्रों में अंधे सांपों का अवलोकन करते हुए पाया कि ये प्रायः संध्याकाल अथवा गोधूलि बेला में ही ज़्यादा सक्रिय होते हैं।

बारिश का मौसम आते ही अंधे सांपों की सक्रियता बढ़ जाती है। वर्षा काल में गीली ज़मीन और फर्श पर बेहद तेज़ी से रेंगते इन खूबसूरत एवं विषहीन सांपों को देखकर अधिकांश लोग भ्रमवश इन्हें कोबरा और करैत जैसे विषैले सांपों का बच्चा समझ लेते हैं। अंधे सांपों के बारे में उचित जानकारी ना होने तथा इन्हें कोबरा और करैत का बच्चा समझने के चलते लोग इन्हें जान से मार देते हैं।

अंधे सांप का मुख्य आहार चींटियों तथा दीमकों जैसे कीटों के लार्वा हैं। वहीं, कई पक्षी और मेंढक आदि प्राणी अपने भोजन हेतु इन अंधे सांपों पर निर्भर हैं।

आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के युग में भी हमारे समाज में सांपों के विषय में लोगों को ज़्यादा जानकारी नहीं है। लोगों के बीच इन अंधे सांपों के प्रति फैले भ्रम के चलते पता नहीं कितने अंधे सांप मारे जाते हैं। चींटी एवं दीमकों की आबादी को नियंत्रित कर ये हमारे पर्यावरण तथा खाद्य-शृंखला के संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं। आज ज़रूरत है इन सांपों के संरक्षण की और यह तभी संभव है जब हम इनके विषय में ज़्यादा जानें, अवलोकन करें तथा इनके पर्यावरणीय महत्व को समझें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/6/6d/Davidraju_Worm_Snake.jpg/1024px-Davidraju_Worm_Snake.jpg

आकाशगंगा का सबसे सटीक नक्शा तैयार – प्रदीप

म अपनी कोरी आंखों से जितने भी ग्रहों, तारों एवं तारासमूहों को देख सकते हैं, वे सभी एक अत्यंत विराट योजना के सदस्य हैं, जो आकाश में उत्तर से दक्षिण तक फैला हुई नदी के समान प्रवहमान प्रतीत होती है। यह ‘आकाशगंगा’ है। हमारा सूर्य और उसका परिवार यानी सौरमंडल जिस निहारिका के सदस्य हैं उसका नाम आकाशगंगा है।

आकाशगंगा में 100 अरब से भी ज़्यादा तारे हैं। हमारा सूर्य आकाशगंगा के केंद्र से लगभग 27,000 प्रकाश वर्ष दूर एक किनारे पर स्थित है। इसलिए पृथ्वी से देखने पर आकाशगंगा तारों के एक सघन पट्टे के रूप में दिखाई देती है। चूंकि हम आकाशगंगा के भीतर ही स्थित हैं, इसलिए हम इसकी आकृति का सटीक अनुमान नहीं लगा पाए हैं। हम आकाशगंगा के 90 प्रतिशत हिस्से को नहीं देख सकते। इसके बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं, वह ब्रह्मांड की हज़ारों अन्य निहारिकाओं की संरचना के अध्ययन और अप्रत्यक्ष खगोलीय प्रेक्षणों पर आधारित है।

हाल ही में युरोपीय स्पेस एजेंसी ने गेइया मिशन के अंतर्गत आकाशगंगा का अब तक का सबसे बड़ा और सबसे सटीक त्रि-आयामी नक्शा जारी किया है। यह नक्शा खगोल विज्ञानियों को आकाशगंगा के अरबों तारों, ग्रहों, क्षुद्रग्रहों, उल्काओं आदि की सटीक स्थिति तो बताएगा ही, साथ ही इससे इन खगोलीय पिंडों की आगे की गति को भी ट्रैक करने में मदद मिलेगी। यह हमें हमारी निहारिका के अतीत के बारे में बता सकता है; जैसे कि कौन से तारे अन्य निहारिकाओं से आए होंगे और अतीत में हमारी अपनी निहारिका (आकाशगंगा) में विलीन हो गए होंगे। गेइया मिशन ने आकाशगंगा में कम से कम दो अरब खगोलीय पिंडों की पहचान की है और आकाशगंगा के बाहर लगभग 29 लाख नई निहारिकाओं की शिनाख्त की है। इसकी मदद से खगोल विज्ञानी लगभग 3.30 करोड़ तारों की गति निर्धारित कर पाए हैं और यह पता लगा पाए हैं कि वे हमारे सौरमंडल के नज़दीक आ रहे हैं या उससे दूर भाग रहे हैं। इसके अलावा 1,56,000 क्षुद्र ग्रहों की सटीक कक्षाएं भी निर्धारित की गई हैं।

विज्ञानियों ने आकाशगंगा को सर्पिल निहारिका (स्पाइरल गैलेक्सी) की श्रेणी में रखा है। अधिकांश पाठ्य पुस्तकों और विज्ञान की लोकप्रिय पुस्तकों में आकाशगंगा को एक सपाट तश्तरीनुमा सर्पिल संरचना के रूप में दिखाया जाता है। लेकिन गेइया मिशन के नए थ्री-डी नक्शे ने इसके समतल या सपाट होने सम्बंधी धारणा को चुनौती दी है। नए डैटा के मुताबिक आकाशगंगा ऊपर और नीचे के घुमावदार किनारों के साथ काफी विकृत है। सपाट तश्तरीनुमा आकृति बनाने की बजाय आकाशगंगा के तारे एक ऐसी तश्तरी बनाते हैं जो किनारों पर मुड़ जाती है, कुछ-कुछ अंग्रेजी के अक्षर ‘एस’ (S) की तरह।

गेइया मिशन के अंतर्गत प्राप्त डैटा को खगोल विज्ञानी बेहद सटीक मान रहे हैं क्योंकि गेइया टेलीस्कोप को अब तक की सबसे व्यापक कवरेज रेंज हासिल है। इतनी रेंज किसी भी टेलीस्कोप के पास नहीं है। यह आकाशगंगा को दिक् और वेग के छह आयामों में खंगालने में सक्षम है। तारों की स्थिति, गति और तेजस्विता को मापने के अलावा, गेइया ने अन्य पिंडों की एक विशाल शृंखला पर डैटा इकट्ठा किया है। गेइया के डैटा के बिना सभी तारे एक जैसी टिमटिमाती रोशनी भर हैं, इसके डैटा की बदौलत यह पता चलता है कि इनमें कितनी विविधता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202206/Milky_way_7.jpg?Dt926rlLILb5rPlJHF.s6oR7NKvx2TPx&size=770:433

इलेक्ट्रिक वाहन उतने भी इको-फ्रेंडली नहीं हैं – अली खान

देश-दुनिया में वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर के मद्देनज़र यह माना जाता रहा है कि इलेक्ट्रिक वाहन वायु प्रदूषण में न के बराबर योगदान देते हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि एक अध्ययन में पता चला है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को दौड़ाकर भी हम अपने देश में सिर्फ 20 फीसदी कार्बन उत्सर्जन कम कर पाएंगे, क्योंकि देश में 70 फीसदी बिजली कोयले से बनाई जा रही है। शोध बताता है कि इलेक्ट्रिक कारों को हम जितना ईको-फ्रेंडली समझते हैं, दरअसल ये उतनी हैं नहीं।

सोसायटी ऑफ रेयर अर्थ के मुताबिक एक इलेक्ट्रिक कार बैटरी बनाने में इस्तेमाल होने वाले 57 कि.ग्रा. कच्चे माल (8 कि.ग्रा. लीथियम, 35 कि.ग्रा. निकल, 14 कि.ग्रा. कोबाल्ट) को ज़मीन से निकालने में 4275 कि.ग्रा. एसिड कचरा व 57 कि.ग्रा. रेडियोसक्रिय अवशेष पैदा होता है। इसके अलावा, ऑस्ट्रेलिया में हुआ शोध कहता है कि 3300 टन लीथियम कचरे में से 2 फीसदी ही रिसायकिल हो पाता है, 98 फीसदी प्रदूषण फैलाता है। शोध में यह भी पाया गया कि लीथियम को ज़मीन से निकालने से पर्यावरण तीन गुना ज़्यादा ज़हरीला हो जाता है।

लीथियम दुनिया की सबसे हल्की धातु है। यह बहुत आसानी से इलेक्ट्रॉन छोड़ती है। इसी कारण इलेक्ट्रिक वाहन की बैटरी में इसका सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है। हरित ईंधन कहकर लीथियम का महिमामंडन हो रहा है, पर इसे ज़मीन से निकालने से पर्यावरण तीन गुना ज़्यादा ज़हरीला होता है। लीथियम की 98.3 फीसदी बैटरियां इस्तेमाल के बाद गड्‌ढों में गाड़ दी जाती हैं। पानी के संपर्क में आने से इसका रिएक्शन होता है और आग लग जाती है। बता दें कि अमेरिका के पैसिफिक नॉर्थवेस्ट के एक गड्ढे में जून 2017 से दिसंबर 2020 तक इन बैटरियों से आग लगने की 124 घटनाएं हुईं, जो वाकई चिंताजनक है। ऐसे में यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को जितना इको-फ्रेंडली समझते आ रहे हैं, उतने हैं नहीं।

इसके अलावा, विद्युत वाहन बनाने में 9 टन कार्बन निकलता है, जबकि पेट्रोल में यह 5.6 टन है। विद्युत वाहन में 13,500 लीटर पानी लगता है, जबकि पेट्रोल कार में यह करीब 4 हज़ार लीटर है। यदि विद्युत वाहन को कोयले से बनी बिजली से चार्ज करें, तो डेढ़ लाख कि.मी. चलने पर पेट्रोल कार के मुकाबले 20 फीसदी ही कम कार्बन निकलेगा।

आज दुनिया का हर देश कोयले से बिजली उत्पादन कर इलेक्ट्रिक वाहन चलाकर कार्बन उत्सर्जन कम करने का ख्वाब देख रहा है तो स्वाभाविक तौर पर यह ख्वाब अधूरा रहने वाला है। इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग उसी देश में बेहतर है जहां बिजली का उत्पादन नवीकरणीय स्रोतों से ज़्यादा किया जाता हो।

भारत में 70 फीसदी बिजली कोयले से ही बन रही है। ऐसे में भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग फायदेमंद नहीं है। उल्लेखनीय है कि पेट्रोल कार प्रति कि.मी. 125 ग्राम और कोयले से तैयार बिजली से चार्ज होने वाली इलेक्ट्रिक कार प्रति कि.मी. 91 ग्राम कार्बन पैदा करती है। इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन के मुताबिक युरोप में विद्युत वाहन 69 फीसदी कम कार्बन उत्सर्जन करते हैं क्योंकि यहां लगभग 60 फीसदी बिजली नवीकरणीय स्रोतों से बनती है।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि दुनिया भर की सभी दो सौ करोड़ कारें विद्युत में बदल दें तो बेहिसाब एसिड कचरा निकलेगा, जिसे निपटाने के साधन ही नहीं हैं। ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या सभी पेट्रोल-डीज़ल कारों को विद्युत कारों में बदलने से प्रदूषण समस्या का हल हो जाएगा?

एमआईटी एनर्जी इनिशिएटिव के शोधकर्ताओं के मुताबिक दुनिया में करीब दो सौ करोड़ वाहन हैं। इनमें से एक करोड़ ही इलेक्ट्रिक वाहन हैं। अगर सभी को विद्युत वाहनों में बदला जाए, तो उन्हें बनाने में जो एसिड कचरा निकलेगा, उसके निस्तारण के पर्याप्त साधन ही नहीं हैं। ऐसे में पब्लिक ट्रांसपोर्ट बढ़ाकर और निजी कारें घटाकर ही ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जा सकता है।

भारत में रजिस्टर्ड इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या 10 लाख 76 हज़ार 420 है। और वर्ष 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों की यह इंडस्ट्री 150 अरब डॉलर यानी साढ़े ग्यारह लाख करोड़ रुपए की हो जाएगी। यानी आज की तुलना में यह इंडस्ट्री 90 गुना बड़ी हो जाएगी। आज इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल के पीछे कई सारे फायदे प्रत्यक्ष रूप से दिख रहे हैं। इसके साथ-साथ हमें अप्रत्यक्ष नुकसान के प्रति चेतने की आवश्यकता है। प्रदूषण से आज़ादी दिलाने में इन ई-वाहनों के योगदान को नकारा तो नहीं जा सकता लेकिन इनके निर्माण के दौरान निकलने वाला ज़हरीला कचरा बड़ी चुनौती है। इसके साथ-साथ बड़ी चुनौती हमारे देश के सामने नवीकरणीय ऊर्जा को लेकर है। गौरतलब है कि भारत सरकार ने भी नवीकरणीय ऊर्जा और विद्युत वाहनों को लेकर लक्ष्य तय किए हैं। केंद्र सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक 70 फीसदी व्यावसायिक कारें, 30 फीसदी निजी कारें, 40 फीसदी दो-पहिया और 80 फीसदी तिपहिया वाहनों को इलेक्ट्रिक में तबदील करना है। वहीं, 2030 तक 44.7 फीसदी बिजली नवीकरणीय स्रोतों से बनाएंगे, जो अभी 21.26 फीसदी है। फिलहाल देश में बिजली की आपूर्ति में कोयले का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में हमारे देश में नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से पर्याप्त बिजली बनाई जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://mediacloud.theweek.com/image/upload/v1644342520/electric%20pollution.jpg

उबकाई के इलाज का नया लक्ष्य

ममें से अधिकांश लोगों ने उबकाई या जी मिचलाने का अनुभव किया होगा। लेकिन वैज्ञानिक अब तक पूरी तरह यह समझ नहीं पाए हैं कि जी मिचलाने का जैविक आधार क्या है या इसे कैसे रोका जाए।

हाल ही में चूहों पर हुए एक अध्ययन ने इसका एक संभावित कारक दर्शाया है – मस्तिष्क की कुछ विशिष्ट कोशिकाएं, जो आंत से ‘संवाद’ करके मितली के एहसास का शमन कर देती हैं।

हारवर्ड विश्वविद्यालय की न्यूरोसाइंटिस्ट चुचु झांग और उनके साथियों ने अपना अध्ययन ‘एरिया पोस्ट्रेमा’ पर केंद्रित किया। ‘एरिया पोस्ट्रेमा’ मस्तिष्क स्तंभ के निचले हिस्से में स्थित एक छोटी-सी संरचना होती है। मितली से इसका सम्बंध पहली बार 1950 के दशक में पता चला था। जानवरों में इस हिस्से में विद्युत उद्दीपन उल्टी करवा देता है।

दरअसल पिछले साल झांग की टीम ने एरिया पोस्ट्रेमा में दो प्रकार की विशिष्ट उद्दीपक तंत्रिकाओं की पहचान की थी जो चूहों में मितली जैसा व्यवहार जगाते हैं। कृंतक जीव उल्टी तो नहीं कर पाते हैं, लेकिन जब उन्हें इसका एहसास होता है तो वे बेचैन हो जाते हैं। शोधकर्ताओं ने दर्शाया था कि एरिया पोस्ट्रेमा की तंत्रिकाएं ही कोशिकाओं को उकसाकर इस व्यवहार के लिए ज़िम्मेदार होती हैं।

एरिया पोस्ट्रेमा की कोशिकाओं का जेनेटिक अनुक्रमण करने पर इस हिस्से में अवरोधक तंत्रिकाओं का भी पता चला था। वैज्ञानिकों का विचार था कि ये अवरोधक उद्दीपक तंत्रिकाओं के कार्य को दबा सकते हैं और मितली के एहसास को थाम सकते हैं।

इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने चूहों को ग्लूकोज़ इंसुलिनोट्रॉपिक पेप्टाइड (जीआईपी) का इंजेक्शन लगाया। यह आंत में बनने वाला हार्मोन है जो मनुष्य और अन्य जानवरों में शर्करा और वसा को खाने के बाद बनता है। पूर्व में गंधविलाव पर हुए अध्ययन में देखा गया था कि जीआईपी उल्टी को रोकता है। इस आधार पर झांग का अनुमान था कि यह मितली को भी शांत कर सकता है। उनका यह भी अनुमान था कि यह रसायन मितली-रोधक तंत्रिकाओं को सक्रिय करने में भी भूमिका निभा सकता है।

अपने अनुमान को परखने के लिए शोधकर्ताओं ने चूहों को मितली-उत्प्रेरक पदार्थ युक्त सुगंधित पानी दिया। एक बार पीने के बाद चूहे इस पानी से कतराने लगे। लेकिन जब इस पानी में जीआईपी मिलाया गया तो इस पानी को उन्हीं कृंतकों ने दोबारा खुशी-खुशी पिया।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने ऐसे चूहे तैयार किए जिनके एरिया पोस्ट्रेमा में अवरोधक न्यूरॉन्स का अभाव था। जब इन चूहों पर अध्ययन दोहराया गया तो पाया गया कि मितली-उत्प्रेरक युक्त पानी में जीआईपी मिला देने से भी कोई फर्क नहीं पड़ा: चूहे यह पानी पीने से कतराते रहे।

सेल पत्रिका में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि जीआईपी अवरोधक तंत्रिकाओं को सक्रिय कर देता है जो एरिया पोस्ट्रेमा में उल्टी-प्रेरक तंत्रिकाओं को अवरुद्ध कर देती हैं, नतीजतन मितली का अहसास दब जाता है।

हालांकि यह अध्ययन मितली को दबाने में आंत-स्रावित जीआईपी की भूमिका पर केंद्रित था लेकिन झांग का कहना है कि शरीर में संभवतः ऐसे अन्य कारक भी होंगे जो मितली-अवरोधक तंत्रिकाओं को सक्रिय करते होंगे।

आगे शोधकर्ता जानना चाहते हैं कि आंत और एरिया पोस्ट्रेमा के बीच संवाद कैसे होता है। यह तो मालूम है कि इस क्षेत्र की तंत्रिकाएं वेगस तंत्रिका के माध्यम से आंत से जुड़ी हुई हैं, लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि मस्तिष्क की कोशिकाएं वास्तव में आंत से कैसे ‘बतियाती’ हैं।

यह अध्ययन अवरोधक और उद्दीपक तंत्रिकाओं को लक्ष्य करके मितली-शामक दवाइयां विकसित करने का रास्ता खोल सकता है। मौजूदा मितली-रोधी दवाएं मुख्यत: मस्तिष्क कोशिकाओं के दो सामान्य रासायनिक ग्राहियों को लक्ष्य करती हैं, लेकिन यह अब तक बहुत स्पष्ट नहीं है कि ये कैसे काम करती हैं। और कीमोथेरेपी और मॉर्निंग सिकनेस जैसी कुछ स्थितियों में ये दवाइयां उतनी कारगर नहीं होती हैं। नई दवाइयां कैंसर रोगियों के लिए विशेष रूप से मददगार साबित हो सकती हैं, जो अक्सर मितली के कारण उपचार क्रम का पालन करने से कतराते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.springernature.com/full/springer-static/image/art%3A10.1007%2Fs00266-013-0067-7/MediaObjects/266_2013_67_Fig1_HTML.gif

प्राचीन भेड़ियों से कुत्तों की उत्पत्ति के सुराग

कुत्तों का पालतूकरण शोधकर्ताओं के लिए एक पहेली रहा है और कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है कि कुत्तों की उत्पत्ति कब और कहां हुई। प्राचीन कुत्तों से लेकर आधुनिक कुत्तों तक की हड्डियों के डीएनए के विश्लेषण के बावजूद कोई निर्णायक परिणाम हासिल नहीं हुआ था। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हाल ही में शोधकर्ताओं ने उन प्राचीन भेड़ियों के आवासों का अध्ययन किया, जिन्होंने कुत्तों को जन्म दिया है।

इस नए अध्ययन में, पुख्ता निष्कर्ष तो नहीं निकले हैं लेकिन कुत्तों के पालतूकरण का मोटा-मोटा क्षेत्र तय किया गया है – पूर्वी-युरेशिया। अध्ययन से यह संकेत भी मिले हैं कि कुत्तों को शायद एक से अधिक बार पालतू बनाया गया है।

गौरतलब है कि लगभग 15,000 से 23,000 वर्ष पूर्व मनुष्यों और भेड़ियों के बीच पालतूकरण की प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी। यह लगभग पिछले हिमयुग का दौर था जब उच्च अक्षांश वाले क्षेत्रों में कड़ाके की ठंड और शुष्क जलवायु हुआ करती थी। अभी तक के सबसे प्रचलित सिद्धांत के अनुसार थोड़े कम डरपोक मटमैले भेड़िए मनुष्यों की जूठन खाने के लिए उनके रिहायशी क्षेत्रों के करीब आने लगे। समय के साथ सौम्य व्यवहार और लक्षणों के जीन अगली पीढ़ियों में पहुंचने लगे। मनुष्यों को ये नए साथी शिकार और रखवाली के लिए उपयोगी लगे।

इस घटना का सही स्थान बता पाने के लिए अभी कोई ठोस जानकारी तो नहीं है लेकिन आधुनिक कुत्तों के आनुवंशिक विश्लेषण से पता चलता है कि कुत्तों की उत्पत्ति पूर्वी-एशिया में हुई थी जबकि कुछ अन्य आनुवंशिक और पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि इनकी उत्पत्ति साइबेरिया, मध्य-पूर्व, पश्चिमी युरोप या एकाधिक क्षेत्रों में हुई थी।

नए अध्ययन में फ्रांसिस क्रिक इंस्टीट्यूट के पोंटस स्कोगलुंड और 16 देशों के विभिन्न सहयोगियों ने कुछ अलग तरीका अपनाया। उन्होंने पालतूकरण के शुरुआती समय के दौरान भेड़िया वंश का एक विशाल नक्शा तैयार किया। 81 शोधकर्ताओं ने इस विषय से सम्बंधित सूचनाओं को जमा किया और 66 प्राचीन भेड़ियों के जीनोम को अनुक्रमित किया। इसके अलावा पूर्व में प्रकाशित युरोप, साइबेरिया और उत्तरी अमेरिका के स्थलों से प्राप्त डैटा को भी शामिल किया। इन जीवों का काल लगभग 1 लाख वर्षों में फैला था। फिर टीम ने 72 प्राचीन जीनोम की तुलना एक कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की मदद से करके एक भेड़िया वंश वृक्ष तैयार किया।

स्कोगलुंड के अनुसार इस अध्ययन से एक बात यह स्पष्ट हुई कि भेड़ियों की ये दूर-दूर की आबादियां आपस में किस कदर जुड़ी हुई थीं। पिछले हज़ारों वर्षों से एक-दूसरे से दूर रहने वाले भेड़ियों के बीच हालिया पूर्वज साझा हैं। इससे यह पता चलता है कि ये जीव भटकते रहते थे और समय-समय पर परस्पर संतानोत्पत्ति भी करते थे।

प्राचीन भेड़ियों के जीनोम की तुलना आधुनिक और प्राचीन कुत्तों के साथ करने पर शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि कुत्ते युरोप के प्राचीन भेड़ियों की तुलना में पूर्वी एशिया के प्राचीन भेड़ियों से अधिक निकटता से सम्बंधित हैं। इससे लगता है कि कुत्तों का मूल प्रदेश पूर्वी युरेशिया था और पश्चिमी युरेशिया का दावा रद्द हो जाता है। लेकिन कोई भी प्राचीन भेड़िया कुत्तों का निकटतम पूर्वज साबित नहीं हुआ जिसका मतलब है कि कुत्तों के पालतूकरण का वास्तविक क्षेत्र अब भी एक रहस्य बना हुआ है।

एक विचित्र बात यह है कि युरोप के प्राचीन भेड़ियों और पश्चिमी युरेशिया और अफ्रीका के आधुनिक कुत्तों के बीच कुछ जीन साझा हैं। इससे लगता है कि युरोपीय भेड़िए या तो कुत्तों की पश्चिमी आबादी के संपर्क में रहे होंगे या इन्हें अलग से पालतू बनाया गया होगा।

प्राचीन भेड़ियों के जीनोम से यह भी देखने को मिलता है कि लगभग 30,000 पीढ़ियों के दौरान इन प्रजातियों में कौन से जीन्स आगे बढ़ते रहे। चेहरे और खोपड़ी के विकास से सम्बंधित जीन्स लगभग 40,000 वर्ष पहले से भेड़ियों में फैलता रहा था। शुरुआत में यह एक बिरला जीन था लेकिन 10,000 वर्ष की अवधि के भीतर यह 100 प्रतिशत भेड़ियों में पाया जाने लगा। यह आज के आधुनिक भेड़ियों और कुत्तों में भी पाया जाता है। इसी तरह से 45,000 से 25,000 वर्ष पूर्व की अवधि में गंध सम्बंधी जीन्स के समूह का भी इसी तरह प्रसार हुआ था।

स्कोगलुंड का मानना है कि भेड़िये मज़बूत जबड़ों और अधिक संवेदनशील नाक के विकास के साथ अनुकूलित हुए जिसने उन्हें हिमयुग की कठोर परिस्थितियों में जीवित रहने में मदद की होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :

https://www.science.org/do/10.1126/science.add7199/abs/_20220629_on_wolvesdogs_istock-596091038.jpg
https://www.science.org/do/10.1126/science.add7199/full/_20220629_on_wolvesdogs_skull.png


खाद्य परिवहन और जलवायु परिवर्तन

लवायु परिवर्तन के लिए प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन की बात आते ही बड़े-बड़े उद्योगों का ख्याल आता है। लेकिन हाल ही में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि खाद्य प्रणाली में 20 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन खाद्य सामग्री और खाद्य उत्पादों के परिवहन से होता है।

कृषि एवं पशुपालन के लिए ज़मीन साफ करने और खाद्य सामग्री को दुकानों तक पहुंचाने के दौरान बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। राष्ट्र संघ के अनुसार लगभग एक तिहाई वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए खाद्य उत्पादन, प्रसंस्करण और पैकेजिंग ज़िम्मेदार है। इतने व्यापक स्तर पर उत्सर्जन ने कई शोधकर्ताओं का ध्यान खाद्य प्रणालियों से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की ओर आकर्षित किया है।

अलबत्ता, खाद्य प्रणाली की जटिलताओं के कारण इसका सम्बंध वातावरण में उपस्थित कार्बन डाईऑक्साइड से पता करना थोड़ा पेचीदा मामला है। पूर्व में किए गए अध्ययन सिर्फ किसी एक उत्पाद, जैसे चॉकलेट, के दुकान तक पहुंचने और वहां से बाहर निकलने के दौरान होने वाले उत्सर्जन के आकलन तक ही सीमित थे। इसके अलावा इन आकलनों में किसी खाद्य उत्पाद में लगने वाले कच्चे माल के परिवहन से होने वाले उत्सर्जन को शामिल नहीं किया जाता था।

इन कमियों को दूर करने के लिए ऑस्ट्रेलिया स्थित युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी की सस्टेनेबिलिटी शोधकर्ता मेंगयू ली और उनके सहयोगियों ने 74 देशों और क्षेत्रों का डैटा एकत्रित किया और यह पता लगाया कि कोई खाद्य सामग्री कहां से प्राप्त होती है और एक स्थान से दूसरे स्थान तक कैसे पहुंचती है। इस आधार पर उन्होंने नेचर फूड पत्रिका में बताया है कि वर्ष 2017 में खाद्य उत्पादों के परिवहन के दौरान वातावरण में लगभग 3 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ था। यह पूर्व अनुमानों से 7.5 गुना अधिक है। अध्ययन के अनुसार उच्च आय वाले देश लगभग 50 प्रतिशत खाद्य-परिवहन उत्सर्जन करते हैं जबकि वैश्विक आबादी में उनका हिस्सा मात्र 12 प्रतिशत है। दूसरी ओर, कम आय वाले देश (विश्व आबादी में 50 प्रतिशत के हिस्सेदार) केवल 20 प्रतिशत खाद्य-परिवहन उत्सर्जन करते हैं। इतने बड़े अंतर का कारण शायद यह है कि उच्च आय वाले देश विश्व भर से खाद्य सामग्री आयात करते हैं और ताज़े फल और सब्ज़ियों के परिवहन के लिए रेफ्रिजरेटर के उपयोग से अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन होता है। फलों और सब्ज़ियों को उगाने की तुलना में उनके परिवहन में दुगना कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन होता है।

लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वनस्पति-आधारित आहार को सीमित किया जाए। दरअसल, कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि रेड मीट की तुलना में वनस्पति-आधारित आहार पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर है। रेड मीट के लिए अधिक भूमि लगती है और ग्रीनहाउस गैसों का भी अधिक उत्सर्जन होता है। तो रेड मीट की खपत कम करने और स्थानीय रूप से उत्पादित आहार लेने से जलवायु पर प्रभावों को कम करने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/media/008147dd2702a785ddbd0aae962548295c3e7dc1/0_0_1500_900/master/1500.jpg?width=1300&quality=85&fit=max&s=359e5ad140bf7491204e13a820497499

तंत्रिका को शीतल कर दर्द से राहत

शकों से दर्द से राहत के लिए अफीमी दवाओं (ओपिओइड) का उपयोग किया जा रहा है। लेकिन ये दवाएं अक्सर जीर्ण दर्द पर अप्रभावी रहती हैं और इनकी लत लग सकती है। इसलिए वैज्ञानिक दर्द से राहत पाने के अन्य विकल्प तलाशने में लगे हैं।

अब, नॉर्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी के जॉन रॉजर्स के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने चूहों में एक ऐसा छोटा इम्प्लांट फिट किया है जो मस्तिष्क और शरीर के अन्य हिस्सों में सूचना प्रसारित करने वाली परिधीय तंत्रिकाओं को शीतल करता है।

यह मुलायम इम्प्लांट पानी में घुलनशील और जैव-संगत सामग्री से बना है जो इसे परिधीय तंत्रिका के चारों ओर लिपटने लायक बनाता है। इसकी अनूठी संरचना की बदौलत यह बहुत ही छोटे-से हिस्से (कुछ मिलीमीटर) की तंत्रिकाओं को भी सटीकता से लक्षित और शीतल कर सकता है। वैसे तो तंत्रिकाओं को शीतल करने की अन्य तकनीकें भी मौजूद हैं लेकिन वे उतनी सटीक नहीं हैं और लक्ष्य के आसपास के मांसपेशीय ऊतकों को नुकसान पहुंचा सकती हैं। तंत्रिका दर्द को रोकने के लिए दिए जाने वाले फिनॉल इंजेक्शन में फिनॉल के अवांछित जगहों पर भी फैलने की संभावना रहती है।

इस नए इम्प्लांट में छोटे-छोटे चैनल होते हैं जिसके माध्यम से परफ्लोरोपेंटेन नामक शीतलन एजेंट को शरीर में पहुंचाया जा सकता है। एक अन्य चैनल में शुष्क नाइट्रोजन होती है। जब एक चेम्बर में परफ्लोरोपेंटेन शुष्क नाइट्रोजन से मिलता है, तो यह तुरंत वाष्पित हो जाता है और तंत्रिकाओं को 10 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा कर देता है। विचार यह है कि जैसे-जैसे तंत्रिकाएं शीतल होंगी, वैसे-वैसे उनके माध्यम से प्रसारित होने वाले विद्युत संकेतों की तीव्रता और आवृत्ति भी मंद होगी। और आखिरकार, तंत्रिकाएं दर्द के संकेत तथा अन्य सूचनाएं प्रसारित करना बंद कर देंगी। प्रत्यारोपण के 20 दिन बाद यह प्रत्यारोपण घुल जाता है, और उसके 30 दिन के अंदर किडनियां इसे उत्सर्जित कर देती हैं।

इस डिवाइस का परीक्षण करने के लिए शोधकर्ताओं ने चूहों के पंजों में एक महीन तार (तंतु) चुभाया और इससे उपजे दर्द के प्रति उनमें प्रतिक्रिया प्रेरित करने के लिए ज़रूरी बल को नापा। फिर उन्होंने चूहों की साएटिक नसों (जो कमर से पैरों तक जाती है) को ठंडा करने के लिए उनमें यह डिवाइस लगाई और वापस तार चुभाकर देखा।

साइंस में प्रकाशित नतीजों के अनुसार जब दर्द-संकेतों को अवरुद्ध किया गया तो प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के लिए ज़रूरी बल काफी बढ़ गया था। यह दर्शाता है कि यह उपकरण परिधीय तंत्रिका तंत्र द्वारा संचारित संकेतों को अवरुद्ध करने में सक्षम है और दर्द के अहसास कम कर देता है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह प्रत्यारोपण मनुष्यों में भी इसी तरह से कारगर हो सकता है, और सर्जरी के बाद उपजे दर्द से राहत के लिए लगाया जा सकता है। हालांकि, डिवाइस अभी मनुष्यों में परीक्षण के लिए तैयार नहीं है।

कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि यह डिवाइस अनुपस्थित (फैंटम) अंग में होने वाले दर्द को खत्म नहीं कर सकता है, क्योंकि इस मामले में दर्द अंग कट जाने के बाद मस्तिष्क में हुए पुनर्गठन से जुड़ा होता है।

अन्य वैज्ञानिकों का मत है यह तो सही है कि दर्द संवेदना में परिधीय तंत्रिका तंत्र की भूमिका होती है, लेकिन यही अकेला कारक नहीं है और शायद सबसे प्रमुख भी न हो। रॉजर्स इस बात से सहमत हैं कि तंत्रिकाओं के अलावा दर्द को नियंत्रित करने वाले कई अन्य कारक भी हैं। जैसे मनोवैज्ञानिक प्रभाव, लेकिन वे इतने महत्वपूर्ण शायद नहीं है।

टीम की योजना अब तंत्रिका शीतलन प्रणाली की बारीकियों पर काम करने की है; मसलन तंत्रिका को शीतल रखने की वह संतुलित अवधि पता करना जितनी देर में वह दर्द संकेत अवरुद्ध कर दे लेकिन ऊतकों को नुकसान न पहुंचाए। यह भी देखना होगा कि शीतलन प्रक्रिया को पलटने में कितना समय लगेगा। उपकरण को और छोटा बनाने की कोशिश भी की जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.syfy.com/sites/syfy/files/styles/scale–1200/public/2022/07/nerve_cooling_device.jpg
https://physicsworld.com/wp-content/uploads/2022/07/nerve-cooling-schematic.jpg

कृत्रिम रोशनी से जुगनुओं पर संकट

जुगनू अपनी टिमटिमाती रोशनी के लिए जाने जाते हैं। लेकिन लगता है कि हमारी भावी पीढ़ियां जुगनू देखने से वंचित रह जाएंगी। हाल में किए गए एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि भारत में कृत्रिम रोशनी जुगनुओं के प्रजनन पर असर डाल रही है। इस वजह से ये कीट प्रजनन नहीं कर पा रहे हैं। इससे इनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है।

यह अध्ययन दुनिया भर में प्रकाश प्रदूषण के कारण बढ़ते पर्यावरणीय खतरों के प्रति सचेत करता है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले 30 वर्षों में जुगनुओं की संख्या में भारी गिरावट देखी गई है। नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च के शोधकर्ताओं ने आंध्र प्रदेश में एब्सकॉन्डिटा चाइनेंसिस प्रजाति के जुगनुओं की आबादी को रिकॉर्ड करने का प्रयास किया है। उनके शोध के मुताबिक, 2019 में बरनकुला गांव में 10 वर्ग मीटर क्षेत्र में जुगनुओं की संख्या औसतन 10 से 20 पाई गई जबकि 1996 में यह संख्या 500 से ज़्यादा थी।

ऐसे में कृत्रिम रोशनी के चलते लगातार जुगनुओं की घटती आबादी चिंता का विषय है। गौरतलब है कि देश में जुगनुओं पर अब तक बेहद कम अध्ययन किए गए हैं। ऐसे में इनकी लगातार घटती आबादी पर अंकुश लगाने को लेकर विशेष ध्यान नहीं दिया जा सका।

दरअसल, रात के समय में पड़ने वाली कृत्रिम रोशनी ने जीव-जंतुओं के जीवन को खासा प्रभावित किया है। पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को बनाए रखने में छोटे-छोटे कीटों का अहम योगदान रहता है। इनका विनाश पारिस्थितिकी असंतुलन को बढ़ाने वाला है। आधुनिक ब्रॉड-स्पेक्ट्रम प्रकाश व्यवस्था इंसानों को रात में अधिक आसानी से रंगों को देखने में सक्षम बनाती है। लेकिन ये आधुनिक प्रकाश स्रोत अन्य जीव-जंतुओं की दृष्टि पर बहुत ज़्यादा नकारात्मक प्रभाव डालते है। इसके पीछे की वजह यह है कि मानव दृष्टि के लिए डिज़ाइन की गई कृत्रिम रोशनी में नीली और पराबैंगनी श्रेणियों का अभाव होता है, जो इन कीटों की रंगों को देखने की दृष्टि क्षमता के निर्धारण में अहम है। यह स्थिति कई परिस्थितियों में किसी भी रंग को देखने की कीटों की क्षमता को अवरुद्ध कर देती है।

बता दें कि जुगनू प्रकाश संकेतों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। उनकी प्रजनन गतिविधियां एक विशेष समय के लिए सीमित होती है। कृत्रिम प्रकाश की वजह से वे भटक जाते हैं। इससे उनके अंधे होने का भी डर बना रहता है। दुनिया भर में कृत्रिम प्रकाश बढ़ा है, जिस वजह से इनकी संख्या घट रही है। 

विशेषज्ञों का कहना है कि जुगनू आबादी को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख कारक कीटनाशकों का उपयोग और बढ़ता प्रकाश प्रदूषण है। यदि इन कारकों को नियंत्रित नहीं किया गया, तो अंततः जुगनू विलुप्त हो जाएंगे।

2018 के एक अध्ययन के मुताबिक, चीन और ताइवान के कुछ हिस्सों में पाए जाने वाली एक्वाटिका फिक्टा प्रजाति के जुगनुओं में रोशनी के पैटर्न अलग-अलग देखे गए हैं। इसकी वजह कृत्रिम प्रकाश है। इस वजह से साथी को खोजने की उनकी संभावना कम हुई है। प्रजनन के मौसम में जुगनू अपने प्रकाश के विशेष पैटर्न से एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं। लेकिन कृत्रिम प्रकाश की वजह से जुगनुओं को अपने साथी को आकर्षित करने के लिए ज़्यादा ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है।

चिंताजनक बात यह भी है कि तेज़ी से शहरीकरण के कारण दलदली भूमि के सिकुड़ने से जुगनुओं का आवास समाप्त हो गया है। जुगनू का जीवनकाल कुछ ही हफ्तों का होता है। वे गर्म, आर्द्र क्षेत्रों से प्यार करते हैं और नदियों और तालाबों के पास दलदलों, जंगलों और खेतों में पनपते हैं। स्वच्छ वातावरण की तलाश में और मच्छरों द्वारा फैलने वाली बीमारियों से निपटने के लिए, लोगों ने दलदलों को नष्ट कर दिया है और फलस्वरूप जुगनू के लिए अनुकूल माहौल नष्ट हो गया है।

पिछले कुछ वर्षों में कृत्रिम रोशनी के हस्तक्षेप के चलते न केवल जुगनुओं बल्कि सभी प्रकार के जीव-जंतुओं पर प्रभाव पड़ा है। यह देखा गया है कि पूरी दुनिया में रात के समय में प्रकाश व्यवस्था का स्वरूप पिछले करीब 20 वर्षों में नाटकीय रूप से बदला है।‌ एलईडी जैसे विविध प्रकार के आधुनिक रोशनी उपकरणों का चलन बढ़ा है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि कृत्रिम प्रकाश से होने वाला प्रदूषण समस्त वातावरण को प्रदूषित करता है। प्रकाश प्रदूषण अमूमन पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करता है। कृत्रिम प्रकाश की तीव्रता बेचैनी को बढ़ा देती है और मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था को दुरुस्त करके न केवल हम कीटों पर पड़ने वाले विनाशी प्रभाव को कम कर सकते हैं, बल्कि हमारे अपने स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों से भी बच सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://scroll.in/article/1026776/artificial-lights-are-shrinking-firefly-habitats-in-india-and-beyond

समुद्री खीरा खुद के ज़हर से नहीं मरता – प्रतिका गुप्ता

मुलायम और सुस्त चाल होने के बावजूद समुद्री खीरे यानी सी-कुकम्बर (Actinopyga echinites) वास्तव में जंतु हैं जो आश्चर्यजनक रूप से सख्तजान होते हैं। ये समुद्र के दुरूह और लगातार बदलते पेंदे में भोजन तलाशते हैं और विषैले बैक्टीरिया का सामना करते हैं। ये अपने सहोदर स्टारफिश की तरह शिकारियों और रोगजनकों से खुद को बचाने के लिए सैपोनिन्स नामक रक्षात्मक विषैले पदार्थ बनाते हैं।

अब, हालिया अध्ययन बताता है कि सी-कुकम्बर इकाइनोडर्म समूह के एकमात्र और उन गिने-चुने जीवों में से हैं जो ट्राइटरपेनॉइड सैपोनिन रसायन बनाते हैं। और तो और, उनका अद्वितीय चयापचय स्वयं उनको इस विष से सुरक्षित रखता है।

नेचर केमिकल बायोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार सी-कुकम्बर ने अन्य इकाइनोडर्म तथा अन्य जंतुओं की अपेक्षा सैपोनिन्स को संश्लेषित करने का अलग ही तरीका विकसित किया है जिसके लिए वे भिन्न एंज़ाइम्स का उपयोग करते हैं। इसके फलस्वरूप उनमें ऐसी क्रियाविधि विकसित हुई है जो उन्हें स्वयं के सैपोनिन्स के विषैले प्रभाव से सुरक्षित रखती है।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि सी-कुकम्बर ऐसे ट्राइटरपेनॉइड सैपोनिन्स बनाते हैं, जो जानवरों की तुलना में पौधों में अधिक पाए जाते हैं। ये ट्राइटरपेनॉइड सैपोनिन्स कोशिका झिल्ली में मौजूद कोलेस्टरॉल अणुओं से जुड़ जाते हैं और कोशिका की मृत्यु का कारण बनते हैं। नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि सी-कुकम्बर कोलेस्टरॉल नहीं बनाते हैं और उनकी कोशिका झिल्लियों में भी इसकी बहुत कम मात्रा होती है; लिहाज़ा, वे सैपोनिन्स से अप्रभावित रहते हैं।

दरअसल पूर्व में पौधों के ट्राइटरपेनॉइड्स पर काम कर चुके नोइडा की एमिटी युनिवर्सिटी उत्तर के जीव विज्ञानी रमेश थिमप्पा और उनके साथी जानना चाहते थे कि सी-कुकम्बर में ये दुर्लभ यौगिक (ट्राइटरपेनॉइड्स) क्यों और कैसे बनते हैं।

सी-स्टार्स के सैपोनिन्स स्टेरॉयड आधारित होते हैं। ट्राइटरपेनॉइड्स और स्टेरॉल एक जैसे अणुओं से ही बनते हैं, और दोनों को बनाने के आणविक परिपथ में ऑक्सीडोस्क्वेलेन साइक्लेज़ (OSC) समूह के एंजाइमों की भूमिका होती है।

इकाइनोडर्म समूह के जंतुओं में इन विभिन्न क्रियापथों को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने मनुष्यों, समुद्री अर्चिन और सी-स्टार के जीनोम में एक विशिष्ट OSC पर ध्यान दिया – लैनोस्टेरॉल सिंथेज़ (LSS)। LSS एंज़ाइम अधिकांश जंतु प्रजातियों में कोलेस्टरॉल व अन्य स्टेरोल निर्माण के लिए और स्टारफिश में सैपोनिन उत्पादन के लिए ज़रूरी है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि सी-कुकम्बर में LSS बनाने वाला जीन तो नदारद था ही, इसके अलावा अन्य प्रजातियों में स्टेरॉल बनाने के लिए ज़िम्मेदार तीन अन्य एंज़ाइम भी नदारद थे। देखा गया कि इनकी बजाय सी-कुकम्बर के जीनोम में OSC एंज़ाइम बनाने के लिए दो अन्य जीन मौजूद थे।

आगे की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने दो सी-कुकम्बर प्रजातियों (Apostichopus japonicus और Parastichopus parvimensis) से OSC एंज़ाइम्स के जीन लेकर एक ऐसी खमीर कोशिका में प्रत्यारोपित किए जिसमें LSS जीन नहीं था। दोनों ही जीन खमीर में LSS का निर्माण करवाने में विफल रहे। इससे पता चलता है कि सी-कुकम्बर के ये जीन LSS के कोड नहीं हैं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि सी-कुकम्बर के OSC जीन्स स्टेरोल जैसे दो अणुओं का निर्माण करते हैं, और ये दोनों अणु ट्राइटरपेनॉयड के उत्पादन में शामिल थे। इन अणुओं ने यौगिकों को कोलेस्टरॉल जैसे अणुओं में भी परिवर्तित किया जो सी-कुकम्बर की कोशिका झिल्ली में पाए जाते हैं। ये अणु काम तो कोलेस्टरॉल के समान करते हैं, लेकिन कोलेस्टरॉल और इनके बीच जो अंतर है, वह सी-कुकम्बर को सैपोनिन्स की विषाक्तता से बचाता है।

एक अन्य प्रयोग में, शोधकर्ताओं ने सी-कुकम्बर के OSC जीन की उत्परिवर्तित प्रतियां खमीर कोशिकाओं में डालीं। पाया गया कि दो अलग-अलग उत्परिवर्तन LSS जीन द्वारा कोड किए गए एक एमिनो एसिड को प्रभावित करते हैं जो दोनों सी-कुकम्बर में OSC एंज़ाइमों के परिवर्तित कार्य के लिए ज़िम्मेदार हैं।

शोधकर्ता बताते हैं कि सी-कुकम्बर एकमात्र ऐसे ज्ञात जानवर हैं जिनमें दो OSC-कोडिंग जीन तो हैं लेकिन वे कोलेस्टरॉल नहीं बनाते। सी-कुकम्बर में दो ऐसे OSC-कोडिंग जीन का होना जंतुओं के लिहाज़ से एक असाधारण बात है जो दोनों LSS नहीं बनाते हैं।

सी-कुकम्बर से प्राप्त अर्क, विशेषकर सैपोनिन्स, औषधीय रूप से काफी मूल्यवान है। सैपोनिन्स का उपयोग टीकों में प्रतिरक्षा सहायक के रूप में किया जाता है, और इनमें शोथ-रोधी और कैंसर-रोधी गुण भी हो सकते हैं। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि भविष्य में वे सी-कुकम्बर, जो कि कई जगहों पर लुप्तप्राय है, को पीसे बिना पौधों और खमीर से इन यौगिकों को प्राप्त करने के तरीके विकसित कर लेंगे।

थिमप्पा कहते हैं कि इन प्राणियों को संरक्षित करना इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि ये मिट्टी में केंचुओं जैसा कार्य करते हैं। वे समुद्र तल के मलबे को साफ करते हैं और ऑक्सीजन युक्त रेत उत्सर्जित करते हैं। ये भूमिकाएं पर्यावरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/1/11/Actinopyga_echinites1.jpg/1200px-Actinopyga_echinites1.jpg