उम्मीद है कि इस वर्ष कोलोरेडो स्थित नेशनल ब्लैक-फुटेड फेरेट कंज़र्वेशन सेंटर द्वारा विकसित काले पैरों वाले गंधबिलाव का एकमात्र क्लोन प्रजनन करके अपनी प्रजाति को विलुप्त होने से बचा लेगा।
काले पैरों वाला गंधबिलाव (मुस्टेला निग्रिप्स) आधा मीटर लंबे और छरहरे शरीर वाला शिकारी जानवर है, जिसके शिकार प्रैरी (घास के मैदान) के कुत्ते हुआ करते थे। लेकिन 1970 के दशक तक पशुपालकों, किसानों और अन्य लोगों द्वारा प्रैरी कुत्तों की कॉलोनियों को बड़े पैमाने पर तहस-नहस करने के कारण गंधबिलाव की आबादी खतरे में पड़ गई। तब ज्ञात गंधबिलाव की अंतिम कॉलोनी के भी लुप्त हो जाने पर कुछ जीव विज्ञानियों ने मान लिया था कि यह प्रजाति विलुप्त हो गई है। लेकिन 1981 के अंत में तकरीबन 100 गंधबिलाव मिले। लेकिन कुछ ही वर्षों में वे भी संकट में पड़ गए और मात्र कुछ दर्जन गंधबिलाव ही बचे रह गए। फिर 1985 में, संरक्षित माहौल में प्रजनन कराने की पहल की गई। इसके लिए 18 गंधबिलावों को संरक्षित स्थलों पर रखा गया लेकिन प्रजनन के लिए केवल सात ही गंघबिलाव बच सके। इससे उनमें अंतःप्रजनन का खतरा पैदा गया।
कुछ समय पहले संरक्षण के लिहाज़ से ही गंधबिलाव का क्लोन तैयार किया गया था। 14 महीने का यह क्लोन गंधबिलाव एक मादा है जिसे एलिज़ाबेथ एन नाम दिया गया है। वैज्ञानिकों की योजना इस वसंत में एलिज़ाबेथ एन के प्रजनन की है।
हालांकि एलिज़ाबेथ एन भी शत-प्रतिशत काले पैरों वाली गंघबिलाव नहीं है। दरअसल जिस तरीके (कायिक कोशिका नाभिक स्थानांतरण) से एलिज़ाबेथ एन को विकसित किया गया है उसमें एक पालतू गंघबिलाव का उपयोग सरोगेट मां के रूप में किया गया था। इस प्रक्रिया में क्लोन संतानों में मां (पालतू गंघबिलाव) का माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए आ जाता है। पालतू गंधबिलाव से आए इस जीन को हटाने के लिए वैज्ञानिकों की योजना (यदि क्लोन से सफल प्रजनन हो सका तो) एलिज़ाबेथ एन की नर संतान और काले पैरों वाली मादा गंघबिलाव के प्रजनन की है।
बहरहाल, यदि एलिज़ाबेथ एन क्लोन का प्रजनन सफल रहता है तो यह अन्य जोखिमग्रस्त जानवरों के संरक्षण का मार्ग प्रशस्त कर देगा। लेकिन कई वैज्ञानिकों को लगता है कि यह प्रक्रिया बहुत मंहगी है, इसमें नैतिक समस्याएं हैं और इसका उपयोग सीमित है। इसके अलावा यह जानवरों के प्राकृतवासों के विनाश सम्बंधी मुद्दे से भी ध्यान हटा सकता है, जो वास्तव में जंतु विलुप्ति का एक प्रमुख कारण है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.ada0073/full/_20220114_nf_elizabethann.jpg
बायोमेडिकल शोधकर्ता के रूप में मशहूर डॉ. कमल जयसिंह रणदिवे को कैंसर पर शोध के लिए जाना जाता है। उन्होंने कैंसर और वायरसों के सम्बंधों का अध्ययन किया था। 8 नवंबर 1917 को पुणे में जन्मीं कमल रणदिवे आज भी भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
उनके पिता दिनेश दत्तात्रेय समर्थ पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में जीव विज्ञान के प्रोफेसर थे और चाहते थे कि घर के सभी बच्चों, खासकर बेटियों को अच्छी से अच्छी शिक्षा मिले। कमल ने हर परीक्षा अच्छे अंकों से पास की। कमल के पिता चाहते थे कि वे चिकित्सा के क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त करे और उनकी शादी किसी डॉक्टर से हो। लेकिन कमल की जीव विज्ञान के प्रति अधिक रुचि थी। माता शांताबाई भी हमेशा उनको प्रोत्साहित करती थीं।
कमल ने फर्ग्यूसन कॉलेज से जीव विज्ञान में बीएससी डिस्टिंक्शन के साथ पूरी की। पुणे के कृषि कॉलेज से स्नातकोत्तर शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने 1939 में गणितज्ञ जे. टी. रणदिवे से विवाह किया। जे. टी. रणदिवे ने उनकी पोस्ट ग्रोजुएशन की पढ़ाई में बहुत मदद की थी। उच्च अध्ययन के लिए वे विदेश भी गईं। उन्हें बाल्टीमोर, मैरीलैंड, यूएसए में जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में फेलोशिप मिली थी।
फेलोशिप के बाद, वे मुंबई और भारतीय कैंसर अनुसंधान केंद्र (आईसीआरसी) लौट आईं, जहां उन्होंने देश की पहली टिशू कल्चर लैब की स्थापना की। 1949 में, आईसीआरसी में एक शोधकर्ता के रूप में काम करते हुए, उन्होंने कोशिका विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। बाद में आईसीआरसी की निदेशक और कैंसर के लिए एनिमल मॉडलिंग की अग्रणी के तौर पर डॉ. रणदिवे ने कई शोध किए। उन्होंने कार्सिनोजेनेसिस, सेल बायोलॉजी और इम्यूनोलॉजी में नई शोध इकाइयों की स्थापना में अहम भूमिका निभाई।
डॉ. रणदिवे की शोध उपलब्धियों में जानवरों के माध्यम से कैंसर की पैथोफिज़ियोलॉजी पर शोध शामिल है, जिससे ल्यूकेमिया, स्तन कैंसर और ग्रसनी कैंसर जैसी बीमारियों के कारणों को जानने का प्रयास किया। उनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय उपलब्धि कैंसर, हार्मोन और ट्यूमर वायरस के बीच सम्बंध स्थापित करना था। स्तन कैंसर और जेनेटिक्स के बीच सम्बंध का प्रस्ताव रखने वाली वे पहली वैज्ञानिक थीं। कुष्ठ जैसी असाध्य मानी जाने वाली बीमारी का टीका भी डॉ. रणदिवे के शोध की बदौलत ही संभव हुआ।
उनका मानना था कि जो वैज्ञानिक पोस्ट-डॉक्टरल कार्य के लिए विदेश जाते हैं, उन्हें भारत लौटकर अपने क्षेत्र से सम्बंधित प्रयोगशालाओं में अनुसंधान के नए आयामों का विकास करना चाहिए। उनके प्रयासों से उनके कई साथी भारत लौटे, जिससे आईसीआरसी कैंसर अनुसंधान का एक प्रसिद्ध केंद्र बन गया।
डॉ. रणदिवे भारतीय महिला वैज्ञानिक संघ (IWSA) की प्रमुख संस्थापक सदस्य भी थीं। भारतीय महिला वैज्ञानिक संघ विज्ञान में महिलाओं के लिए छात्रवृत्ति और चाइल्डकेयर सम्बंधी सुविधाओं के लिए प्रयासरत संस्थान है। वर्ष 2011 में गूगल ने उनके 104वें जन्मदिन के अवसर पर उन पर डूडल बनाया था। 1982 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। अपने उल्लेखनीय कैंसर अनुसंधान के अलावा, रणदिवे को विज्ञान और शिक्षा के माध्यम से अधिक समतामूलक समाज बनाने के लिए समर्पण के लिए जाना जाता है। 11 अप्रैल 2001 को उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके पति जे. टी. रणदिवे ने मृत्यु तक उनके कार्यों में उनका सहयोग किया। उन दोनों का जीवन शोध कार्यों में एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने वाला रहा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.indianexpress.com/2021/11/Capture-2.jpg
विश्व के अधिकांश भागों में पीने का पानी और घरेलू उपयोग के लिए पानी नदियों से मिलता है। एशिया में गंगा, ब्रह्मपुत्र, यमुना, कावेरी, नर्मदा, सिंघु, यांगत्सी नदियां, अफ्रीका में नील, नाइजर, कांगो, जम्बेजी नदियां, उत्तरी अमेरिका में हडसन, मिसिसिपी, डेलावेयर, मैकेंज़ी नदियां, दक्षिणी अमेरिका में अमेज़न नदी, युरोप में वोल्गा, टेम्स एवं ऑस्ट्रेलिया में मरे व डार्लिंग विश्व की प्रमुख नदियां हैं।
नदियां न केवल लोगों की प्यास बुझाती हैं, बल्कि आजीविका का उत्तम साधन भी होती हैं। उद्योगों और सिंचाई हेतु जल प्रमुख रूप से नदियों से लिया जाता है। नदियां न सिर्फ जल की पूर्ति करती हैं बल्कि घरेलू एवं औद्योगिक गंदे व अवशिष्ट पानी को भी अपने साथ बहाकर ले जाती हैं। नदियों पर बांध बनाकर बिजली प्राप्त की जाती है। नदियों से मत्स्य पालन जैसे कई लाभ हो रहे हैं। नदियों से पर्यटन उद्योग को भी बढ़ावा मिलता है। नदियां धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक के अलावा स्वास्थ्य, कृषि, व्यापार, पर्यटन, शिक्षा, चिकित्सा, पर्यावरण जैसे कई क्षेत्रों से सम्बंध रखती है। पारिस्थितिक तंत्र और भूजल स्तर को बनाए रखने में भी नदियां अहम योगदान देती हैं।
हमारे देश में आज शायद ही ऐसी कोई नदी हो जो प्रदूषण से मुक्त हो। नदियों में प्रदूषण के कारण जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव हो रहा है। नदियों पर न केवल प्रदूषण का बल्कि इसके मार्ग में बदलाव, बालू खनन, खत्म होती जैव विविधता और जलग्रहण क्षेत्र के खत्म होने का भी असर हो रहा है। नदियों के अलावा अन्य खुले जलाशय जैसे झील, तालाब आदि में अतिक्रमण हुआ है। कई नदियां और सतही जल स्रोत सीवेज और कूड़े का डंपिंग ग्राउंड बन गए हैं।
हाल ही में नदियों में विभिन्न प्रकार की दवाइयों का प्रदूषण पाया गया है। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार दवा उद्योग विश्व की लगभग हर नदी के पानी को प्रदूषित कर रहा है। भारत में यमुना व कृष्णा सहित देश की विभिन्न नदियों में इस तरह का प्रदूषण पाया गया है। विभिन्न सरकारी परियोजनाओं के बाद भी गंगा व अन्य नदियों में प्रदूषण को लेकर कोई सकारात्मक परिणाम नहीं मिला है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और राज्यों की प्रदूषण निगरानी एजेंसियों के एक विश्लेषण से पता चला है कि हमारे प्रमुख सतही जल स्रोतों का 90 प्रतिशत हिस्सा अब उपयोग के लायक नहीं बचा है। सीपीसीबी की एक रिपोर्ट के अनुसार “देश की 323 नदियों के 351 हिस्से प्रदूषित हैं।” 17 प्रतिशत जल राशियां गंभीर रूप से प्रदूषित हैं। उत्तराखंड से गंगा सागर तक करीब 2500 किलोमीटर की यात्रा तय करने वाली गंगा 50 स्थानों पर प्रदूषित है।
सीपीसीबी की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार 36 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में से 31 में नदियों का प्रवाह प्रदूषित है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 53 प्रदूषित प्रवाह हैं। इसके बाद असम, मध्यप्रदेश, केरल, गुजरात, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, गोवा, उत्तराखंड, मिज़ोरम, मणिपुर, जम्मू-कश्मीर, तेलंगाना, मेघालय, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, त्रिपुरा, तमिलनाडु, नगालैंड, बिहार, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, सिक्किम, पंजाब, राजस्थान, पुडुचेरी, हरियाणा और दिल्ली हैं।
सीपीसीबी की एक रिपोर्ट में प्रदूषण के लिए घरेलू सीवरेज, साफ-सफाई की अपर्याप्त सुविधाएं, खराब सेप्टेज प्रबंधन और गंदा पानी तथा साफ-सफाई के लिए नीतियों की गैर-मौजूदगी को ज़िम्मेदार माना गया है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://im.indiatimes.in/media/content/2019/Jul/water_pollution_1563272220_725x725.jpg
हाल ही में, प्रसिद्ध भौतिकीविद् एवं भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर), पुणे के विज़िटिंग प्रोफेसर दीपक धर को वर्ष 2022 के प्रतिष्ठित बोल्ट्ज़मैन पदक के लिए चुना गया है। प्रोफेसर दीपक धर के अलावा प्रिंसटन युनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन होपफील्ड को भी सम्मानित किया गया है।
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड फिज़िक्स (आईयूपीएपी) के सांख्यिकीय भौतिकी पर सी3 (C3) आयोग द्वारा स्थापित बोल्ट्ज़मैन पदक सांख्यिकीय भौतिकी में उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिए 3 साल में एक बार दिया जाता है।
प्रोफेसर धर का जन्म 30 अक्टूबर 1951 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और आईआईटी कानपुर के पूर्व छात्र प्रोफेसर धर ने सांख्यिकीय भौतिकी और स्टोकेस्टिक प्रक्रियाओं पर अनुसंधान में एक लंबा सफर तय किया है। उनके शोध कार्य का आरंभ 1978 में कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में पीएचडी के साथ हुआ था। पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के बाद प्रोफेसर धर ने भारत लौटकर टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान (टीआईएफआर) में एक रिसर्च फेलो के रूप में अपना करियर शुरू किया। दो साल के शोध के बाद 1980 में वे पूर्णकालिक फेलो बन गए और 1986 में उन्हें रीडर के रूप में पदोन्नत किया गया था। प्रोफेसर धर ने संस्थान में विभिन्न पदों पर सेवाएं दीं।
उन्होंने 1984-85 के दौरान पेरिस विश्वविद्यालय में विज़िटिंग वैज्ञानिक के रूप में एक साल तक कार्य किया। मई 2006 में आइज़ैक न्यूटन इंस्टीट्यूट में रोथ्सचाइल्ड प्रोफेसर के रूप में भी एक महीने उन्होंने कार्य किया। वर्ष 2016 से वे आईआईएसईआर, पुणे में कार्यरत हैं।
प्रोफेसर धर भारत की तीनों प्रमुख भारतीय विज्ञान अकादमियों – इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़, इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी और नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ – के अलावा दी वर्ल्ड एकेडमी ऑफ साइंस के निर्वाचित फेलो हैं। 1991 में वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) द्वारा प्रोफेसर धर को भौतिक विज्ञान में उनके योगदान के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjnvmwFqwzsO2BD9_ZXNxBJkgxdTYSoHVctBB1Y5r34tzMCEBkno-ebfMXWiNbrpKaKPTvmMujCZNUiZzb4YuQB0L3OaRIxthPKdmgdU-iBpgd_L1dSa_wUtf46uAUKB-UnJMb7V1RO38tQC5Dknu7DTgf16A-h-3W_VyNgsXzUXXzcyKU3z5wh5Lpb=s16000
गुजरात के वलसाड़ ज़िले में वरली नदी के किनारे संजान नामक एक छोटे-से गांव में आम का एक पेड़ है जो चलता है। लगभग 1200 वर्ष पुराना यह पेड़ समय-समय पर अपना स्थान बदलता रहता है। इसीलिए इसे चलता या टहलता आम (वाकिंग मेंगो) कहते हैं। गुजराती लोग इसे चलतो-आम्बो कहते हैं। इसे गुजरात का सबसे प्राचीन पेड़ बताया गया है।
वर्ष 1980 के आसपास पुणे के डेकन कॉलेज के डॉ. अशोक मराठे ने इस पेड़ के सम्बंध में बताया था। कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार लगभग 1200-1300 वर्ष पूर्व इसे पारसी लोगों ने लगाया था। ईरान से निकलकर आए पारसी इसी गांव में पहुंचे थे। अपने आने की निशानी के रूप में उन्होंने इसे यहां लगाया था।
वर्ष 1916 के आसपास पारसी संस्कृति पर रुस्तम बरजोरजी पेमास्टर द्वारा लिखित पुस्तक में बताया गया है कि यह पेड़ उस समय 35 फीट ऊंचा था एवं दस शाखाएं चारों ओर फैली थी। वर्तमान में यह किसान अहमद भाई के खेत में 25 फीट के दायरे में फैला है। इसके चलने या फैलने की क्रिया वटवृक्ष से भिन्न है। पहले यह पेड़ चारों ओर काफी फैल जाता है एवं शाखाएं झुककर धनुषाकार हो जाती है। एक या दो शाखाएं ज़मीन को स्पर्श कर लेती हैं। स्पर्श के स्थान पर जड़ें बनने लगती है एवं जमीन में प्रवेश कर जाती हैं। इस प्रकार यह शाखा एक तने का रूप लेकर नया पेड़ खड़ा कर देती है। नया पेड़ बनते ही इसको बनाने वाली शाखा धीरे-धीरे सूखकर समाप्त हो जाती है।
पेड़ की यह हरकत पिछले कई वर्षों से जारी है। गांव के कई बुज़ुर्ग लोग पेड़ की इस गति के प्रत्यक्षदर्शी हैं एवं कुछ ने अपने जीवनकाल में इसे दो बार जगह बदलते देखा है। एक पेड़ से दूसरा नया पेड़ बनने में लगभग 20-25 वर्ष का समय लगता है। यह पेड़ अभी तक करीब 4 किलोमीटर की दूरी तय कर चुका है। इस पेड़ का वैसे कोई धार्मिक महत्व नहीं है परन्तु पारसी लोग इसके फल को काफी पवित्र मानते हैं। फल छोटे आकार के होते हैं एवं पकने पर सिंदूरी लाल हो जाते हैं एवं दो दिन में ही सड़ने लगते हैं। क्रिसमस के दिनों में पारसी लोग इसके पास बैठना पसंद करते हैं। राज्य के वन विभाग ने इस पेड़ की कलम लगाने के कई प्रयास किए परन्तु सफलता नहीं मिल पाई। राज्य के 50 धरोहर वृक्षों में इसे शामिल किया गया है। संभवतः देश में अपने आकार का यह एक मात्र चलता पेड़ है जिसे लोग जादुई-पेड़ भी कहते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.indiran.org/wp-content/uploads/2016/08/f830864f659037eb9019d61499477d98.png
चंद्रमा के ध्रुवों पर उपस्थित बर्फ वैज्ञानिकों के लिए कौतूहल का विषय होने के साथ आगामी मानव अभियानों के लिए एक संभावित संसाधन भी है। हाल ही में चंद्रमा जैसे शुष्क स्थान पर लंबे समय से बर्फ के उपस्थित होने का कारण का पता लगाया गया है। शोधकर्ताओं के अनुसार कुछ ध्रुवीय क्रेटर प्राचीन चुम्बकीय क्षेत्र के कारण संरक्षित हैं।
गौरतलब है कि चंद्रमा का अपने अक्ष पर झुकाव पृथ्वी के 23.4 डिग्री की तुलना में मात्र 1.5 डिग्री है। कम झुकाव के कारण सूर्य आसमान में बहुत ऊपर नहीं उठता और सूर्य की किरणें इन क्रेटर्स के अंदर पहुंच नहीं पातीं। यहां तापमान शून्य से 250 डिग्री सेल्सियस से भी कम रहता है। यहां कुछ गड्ढों में पानी और बर्फ के साक्ष्य मिले हैं। 2018 में भारत के चंद्रयान-1 ने भी ध्रुवीय बर्फ के साक्ष्य प्रदान किए थे।
चंद्रमा पर बर्फ के अस्तित्व की व्याख्या एक चुनौती रही है। हालांकि वहां सूर्य की रोशनी तो नहीं पहुंच सकती लेकिन सौर हवाएं तो पहुंच सकती हैं जो बर्फ को अणु-अणु-दर नष्ट कर सकती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार इन सौर हवाओं के चलते बर्फ को कुछ लाख वर्षों में पूरी तरह नष्ट हो जाना चाहिए था।
लिहाज़ा, युनिवर्सिटी ऑफ एरिज़ोना के ग्रह वैज्ञानिक लोन हुड और उनके सहयोगियों ने बर्फ के बचे रहने का कारण समझने का प्रयास किया। ल्यूनर एंड प्लेनेटरी साइंस कांफ्रेंस में हुड ने बताया कि चंद्रमा के सुदूर अतीत की चुम्बकीय विसंगतियां कई ध्रुवीय क्रेटर की रक्षा कर रही हैं। ये विसंगतियां सौर हवा को विक्षेपित करने की क्षमता रखती हैं और सूर्य की किरणों से ओझल क्रेटर्स में बर्फ को सुरक्षित रखने में भूमिका निभाती हैं।
गौरतलब है 1971 और 1972 के अपोलो 15 और 16 मिशनों के बाद से ही असामान्य चुम्बकीय शक्ति वाले क्षेत्रों को मापा गया था। हालांकि, स्पष्ट रूप से तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन संभावना है कि इनकी उत्पत्ति 4 अरब वर्ष पूर्व हुई होगी जब चंद्रमा पर चुम्बकीय क्षेत्र उपस्थित था और लौह से भरपूर क्षुद्रग्रह इसकी सतह से टकराए होंगे। इन टक्करों के नतीजे में पिघला हुआ पदार्थ स्थायी रूप से चुम्बकित हो गया होगा।
हुड ने 2007 से 2009 के बीच चंद्रमा की परिक्रमा करने वाले एक जापानी अंतरिक्ष यान कागुया के डैटा का उपयोग करके दक्षिण ध्रुव का विस्तार से अध्ययन किया। उन्हें स्थायी रूप से ओझल कम से कम दो क्रेटर मिले जो इन विसंगतियों से प्रभावित थे। हालांकि चुम्बकीय क्षेत्र अत्यंत कमज़ोर है लेकिन सौर हवाओं को विक्षेपित करने के लिए पर्याप्त हो सकता है।
निकट भविष्य में चंद्रमा पर कई अभियान पहुंचने की अपेक्षा है। नासा मनुष्यों को भी भेजने की योजना बना रहा है। चंद्रमा की बर्फ के अध्ययन से पता चलेगा कि चांद पर पानी कैसे पहुंचा था और पृथ्वी पर पानी की उपस्थिति की गुत्थी भी सुलझ सकती है।
चुम्बकीय क्षेत्र के सुरक्षात्मक प्रभाव की पुष्टि करने के लिए और डैटा ज़रूरी है। इसके लिए हुड चंद्रमा की सतह पर सौर पवन उपकरण लगाना चाहते हैं ताकि क्रेटर के किनारों से गुज़रने वाले आवेशित कणों का मापन किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adb2089/full/_20220317_on_moon-shadowed-craters.jpg
शरीर पर टैटू बनवाने का चलन काफी पुराना है। प्रागैतिहासिक काल में शरीर पर विभिन्न आकृतियां गुदवाना एक आम बात थी। शुरुआत में गोदना यानी टैटू बनाने के लिए धातु के औज़ारों और वनस्पति रंजकों का उपयोग किया जाता था जो काफी कष्टदायी होता था। आधुनिक तकनीक से गोदना बनाना भी आसान हो गया और गुदवाने वाले को उतना कष्ट भी नहीं होता।
टैटू बनाने में एक कुशल कलाकार टैटू की सुई को त्वचा में प्रति सेकंड 200 बार चुभोता है। लेकिन रोचक बात यह है कि इस तकनीक में इंजेक्शन के समान स्याही को दबाव डालकर मांस में नहीं भेजा जाता बल्कि जब सुई बाहर निकाली जाती है तब वहां बने खाली स्थान में स्याही खींची जाती है। टेक्सास टेक युनिवर्सिटी के रसायन इंजीनियर इडेरा लावल की रुचि इस तकनीक को टीकाकरण में आज़माने में है।
आम तौर पर टीकाकरण के लिए उपयोग की जाने वाली खोखली सुई ऊपर से पिस्टन को दबाकर डाले गए दबाव पर निर्भर करती है। इसमें सुई मांसपेशियों तक पहुंचती है और फिर सिरिंज के पिस्टन पर दबाव बनाया जाता है जिससे तरल दवा शरीर में प्रवेश कर जाती है।
लावल का ख्याल है कि यह तकनीक हर प्रकार के टीके के लिए उपयुक्त नहीं है। जैसे, आजकल विकसित हो रहे डीएनए आधारित टीके आम तौर पर काफी गाढ़े होते हैं जिनको इंजेक्शन की सुई से दे पाना संभव नहीं होता। यह काम टैटू तकनीक से किया जा सकता है क्योंकि टैटू की सुई का विज्ञान काफी अलग है।
टैटू की स्याही-लेपित सुई त्वचा में प्रवेश करने पर वहां 2 मिलीमीटर गहरा छेद बना देती है। जब सुई त्वचा से बाहर निकलती है, तब इस छोटे छेद में निर्मित निर्वात स्याही को अंदर खींच लेता है। लावल ने इसे एक मांस-नुमा जेल में प्रयोग करके भी दर्शाया है।
कई अन्य विशेषज्ञ लावल के इस प्रयोग को काफी प्रभावी मानते हैं। डैटा पर गौर करें तो आधी स्याही 50 में से 10 टोंचनों से ही पहुंच गई थी। इष्टतम संख्या पर अध्ययन जारी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.youtube.com/watch?v=VeeGmFS749Y
ग्रीनहाउस ऐसी इमारत को कहते हैं जिसका उपयोग पौधे उगाने के लिए किया जाता है। आम तौर पर ग्रीनहाउस कांच का बना होता है जिससे सूरज की किरणों की गर्मी अंदर ही कैद हो जाती है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि सर्द मौसम में भी इस इमारत में पौधों को वृद्धि के लिए ठीक-ठाक तापमान मिल जाता है।
देखा जाए तो ग्रीनहाउस प्रभाव पृथ्वी पर भी इसी तरह काम करता है। कांच के बजाय कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, ओज़ोन, नाइट्रस ऑक्साइड, जल वाष्प और क्लोरोफ्लोरोकार्बन जैसी गैसें वायुमंडल में उपस्थित हैं। ये गैसें ग्रीनहाउस की पारंपरिक कांच की दीवारों की तरह काम करती हैं। ये सूरज के प्रकाश को पृथ्वी तक पहुंचने देती हैं लेकिन जब धरती से ऊष्मा निकलती है तो उसे अंतरिक्ष में वापस जाने से रोक लेती हैं। इसलिए इन्हें ग्रीनहाउस गैसें कहा जाता है और ये जीवन के लिए इष्टतम तापमान बनाए रखती हैं।
आप ज़रूर पूछेंगे कि जब ग्रीनहाउस गैसें जीवन के लिए इतनी आवश्यक हैं तो इन गैसों के उत्सर्जन से इतनी परेशानी क्यों? क्या अधिक मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उपस्थित होना हमारे लिए बेहतर नहीं होगा? वास्तव में औद्योगीकरण की शुरुआत से ही मानव जाति ऐसी गतिविधियों में लिप्त रही है जिससे वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का निरंतर उत्सर्जन होता रहा है। चूंकि ग्रीनहाउस गैसों की प्रचुरता के कारण वातावरण में पहले की तुलना में और अधिक ऊष्मा रुकने लगी इसलिए पृथ्वी के तापमान में और अधिक वृद्धि होने लगी।
वनों की कटाई, जीवाश्म ईंधन के दहन जैसी गतिविधियों और जनसंख्या वृद्धि से ग्रीनहाउस के प्रभाव में काफी तेज़ी होने लगी। उदाहरण के लिए, पेड़ भोजन तैयार करने में कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग करते हैं। वनों की कटाई से पेड़ों की संख्या कम होती है जो अन्यथा वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित कर धरती के तापमान को नियंत्रण में रख सकते थे। इसी तरह, कोयला, पेट्रोल-डीज़ल जैसे जीवाश्म ईंधनों के जलने से वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।
ग्रीनहाउस गैसों से ग्रह के तापमान में हो रही वृद्धि को ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है, यह धरती के नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्रों को प्रभावित करना शुरू कर देती है जो अब तक संतुलन की स्थिति में रहे हैं। जैसे, महासागर वायुममंडल से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करते हैं जो पानी के नीचे उगने वाले पौधों को प्रकाश संश्लेषण में काम आ जाती है। जब वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बहुत अधिक होती है तब समुद्र भी बहुत अधिक मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करने लगते हैं। इस अवशोषण की प्रक्रिया से समुद्र के पानी की अम्लीयता में परिवर्तन होता है जिसे महासागरीय अम्लीकरण कहा जाता है। महासागरों का अम्लीकरण नाज़ुक लेकिन जटिल पारिस्थितिकी तंत्र और उनमें रहने वाले जीवों को प्रभावित करता है।
ग्लासगो सम्मेलन
31 अक्टूबर से 13 नवंबर 2021 तक ग्लासगो में 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP-26) का आयोजन किया गया।
साल दर साल विश्व भर के राजनेता अपने देशों की ज़मीनी हकीकत से दूर इन सम्मेलनों में शामिल होते हैं। इन सम्मेलनों में बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं और शोरगुल थम जाता है – अगले वर्ष इन्हीं वादों को दोहराने के लिए।
कई बार जलवायु सम्मेलन असफल भी हो जाते हैं। 2009 के कोपनहेगन शिखर सम्मेलन की विफलता का सबसे बड़ा कारण रहा देशों की खुदगर्ज़ी। युरोपीय राष्ट्र कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन की सीमा को कम नहीं करना चाहते थे। अमेरिका ऐसे समझौते नहीं करना चाहता था जिसे वह निभा न सके। अफ्रीका जैसे गरीब देश यह स्पष्ट किए बगैर अधिक धनराशि की मांग कर रहे थे कि उसे खर्च कहां किया जाएगा। चीन की इच्छा केवल द्विपक्षीय समझौते करने की रही। सबसे अधिक आबादी और सबसे बड़ा निर्माता होने के बाद भी वह अपनी लालची, विस्तारवादी और अलगाववादी प्रवृत्ति से बाज़ नहीं आया। कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन की विफलता में शक्तिशाली कॉर्पोरेट जगत का भी बड़ा योगदान रहा जो अपने मुनाफे के सामने पर्यावरण और जलवायु की परवाह नहीं करता। आखिर में इसमें कुछ ऐसे देश भी थे जो ग्लोबल वार्मिंग को एक प्राकृतिक घटना बताते रहे, जिसमें इंसानी क्रियाकलापों की कोई भूमिका नहीं है। सौभाग्य से, ग्लासगो जलवायु वार्ता को किसी भी पक्ष ने अपने स्वयं के एजेंडे के लिए अगवा नहीं किया। ग्लासगो सम्मेलन के बाद हमारी सबसे बड़ी चुनौती ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और उसमें कटौती है।
1990 में जब पहली बार जलवायु वार्ता की शुरुआत हुई थी, तब वायुमंडल में प्रति वर्ष लगभग 35 अरब टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया जा रहा था। अब आप यह सोच रहे होंगे कि पिछले तीन दशकों से चली आ रही इन वार्ताओं के नतीजे में उत्सर्जन कम न सही, स्थिर तो ज़रूर हुआ होगा। लेकिन आपका यह विचार बिलकुल गलत है। आज वैश्विक स्तर पर वायुमंडल में 50 अरब टन प्रति वर्ष से अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया जा रहा है।
यदि सारी योजनाओं और वादों का पालन किया गया तो उत्सर्जन को कम करके 46 अरब टन तक सीमित जा सकता है। वैसे, विज्ञान का मत साफ है – ग्रह को बचाने के लिए उत्सर्जन को 25 अरब टन यानी आधे से भी कम करना ज़रूरी है। और तो और, पिछले तीन दशकों का रुझान देखते हुए उत्सर्जन को 46 अरब टन तक सीमित करना भी अवास्तविक प्रतीत होता है।
सम्मेलन का सार
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट (एआर6) ने वैश्विक तापमान में वृद्धि और इससे जुड़े जोखिमों के बारे में सभी देशों के कान खड़े कर दिए। इस रिपोर्ट के अनुसार सूखा, बाढ़, अत्यधिक वर्षा, समुद्र का बढ़ता स्तर और ग्रीष्म लहरों का बारंबार आना मानवीय गतिविधियों के परिणाम हैं। इससे यह तो स्पष्ट है पिछली जलवायु वार्ताओं में पारित संकल्प जलवायु संकट को कम करने में अपर्याप्त साबित हुए हैं।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने हाल ही में उत्सर्जन गैप रिपोर्ट, 2021 जारी की है। इस रिपोर्ट में देशों द्वारा 2030 तक उत्सर्जन में कमी के वादों और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री से 2 डिग्री सेल्सियस के बीच रखने के लिए आवश्यक प्रयासों में एक बड़े अंतर को उजागर किया गया है। इस रिपोर्ट के अंत में चेतावनी के तौर बताया गया है कि हमारे पास कार्रवाई करने के रास्ते काफी तेज़ी से कम होते जा रहे हैं।
सम्मेलन शुरू होने से पहले चार लक्ष्य निर्धारित किए गए थे:
1. इस सदी के मध्य तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना और वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना।
2. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील क्षेत्रों के समुदायों के साथ-साथ प्राकृतवासों की भी रक्षा करना।
3. तय किए गए लक्ष्यों के लिए धन जुटाना।
4. सभी देशों को एक साथ काम करने को तैयार करना ताकि नियमों को विस्तार से सूचीबद्ध करके पेरिस समझौते को पूरा करने में मदद मिल सके।
महत्वपूर्ण घोषणाएं
1. निर्वनीकरण पर रोक लगाना
इस सम्मेलन की सबसे बड़ी घोषणा 2030 तक वनों की कटाई पर पूरी तरह से रोक लगाना है। ग्लोबल फारेस्ट वॉच के अनुसार वर्ष 2020 में हमने 2,58,000 वर्ग किलोमीटर का वन क्षेत्र नष्ट किया है।
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से निपटने के लिए 100 से अधिक देशों ने इस दशक के अंत तक निर्वनीकरण और भूमि क्षरण को रोकने का संकल्प लिया है। इन देशों में ब्राज़ील भी शामिल है जहां अमेज़न वर्षा वनों के विशाल भाग को पहले ही नष्ट किया जा चुका है।
100 से अधिक देशों द्वारा लिए गए इस संकल्प में लगभग 19.2 अरब डॉलर की निधि भी शामिल है। वन क्षेत्रों के संरक्षण और नवीकरण के लिए, सार्वजनिक और निजी, दोनों स्रोतों से निधि जुटाई जाएगी। इस निधि का कुछ हिस्सा विकासशील देशों में क्षतिग्रस्त भूमि की बहाली, दावानलों से निपटने और आवश्यक होने पर देशज जनजातियों की सहायता के लिए दिया जाएगा। वैसे, इस कार्य के लिए 19.2 अरब डॉलर बहुत छोटी राशि है। ग्लासगो सम्मेलन में 28 ऐसे देश भी शामिल थे जिन्होंने वैश्विक खाद्य व्यापार से निर्वनीकरण को हटाने का संकल्प लिया है। इनमें पशुपालन और ताड़ का तेल, सोया तथा कोको जैसे अन्य कृषि उत्पाद शामिल हैं। ये उद्योग पशुओं को चराने या फसल उगाने के लिए पेड़ों को काटने और निर्वनीकरण को बढ़ावा देते हैं। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि इन संकल्पों पर कितना अमल किया जाता है। 2014 की संधि में निर्वनीकरण की गति को कम करने का संकल्प तो पूरी तरह विफल रहा है।
2. मीथेन उत्सर्जन में कमी
ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के प्रयासों का मुख्य केंद्र कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन को कम करना रहा है, लेकिन विशेषज्ञों ने अल्पकालिक ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए मीथेन उत्सर्जन में कटौती को अधिक प्रभावी बताया है। हालांकि, कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा वातावरण में अधिक है और यह काफी समय के लिए मौजूद भी रहती है, लेकिन इसकी तुलना में मीथेन अणुओं का वातावरण पर वार्मिंग प्रभाव अधिक शक्तिशाली होता है।
हाल ही में अमेरिका और युरोपीय संघ ने 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में कटौती के लिए वैश्विक साझेदारी की घोषणा की है। इसके तहत 2020 के स्तर की तुलना में 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 30% कटौती का संकल्प लिया गया है। वर्तमान में लगभग 90 देशों ने अमेरिका और युरोपीय संघ के इन प्रयासों को समर्थन देने का संकल्प लिया है। इस प्रयास को वैश्विक मीथेन संकल्प कहा गया है जिसकी घोषणा पिछले वर्ष सितम्बर में की गई। मीथेन गैस के सबसे बड़े उत्सर्जक ब्राज़ील ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं लेकिन चीन, भारत और रूस जैसे तीन बड़े उत्सर्जक इस समझौते में शामिल नहीं हैं।
विफलताएं
हालांकि, COP-26 सम्मेलन में वैश्विक जलवायु में सुधार और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी की दिशा में कई प्रस्ताव, समझौते और संकल्प लिए गए हैं लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि कितने देश इन वादों पर खरे उतरते हैं। पिछले संकल्पों, समझौतों और घोषणाओं का रिकॉर्ड देखते हुए अभी भी संशय की स्थिति बनी हुई है।
यह तो स्पष्ट है कि ग्लासगो सम्मेलन में नेट-ज़ीरो उत्सर्जन प्राप्त करने का जो लक्ष्य रखा गया है वह काफी दूर का है – 2050। यह 2030 के लिए निर्धारित कई महत्वपूर्ण लक्ष्यों से ध्यान हटा सकता है जिन पर सम्मेलन में ध्यान केंद्रित किया गया था।
नेट-ज़ीरो लक्ष्य युनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) के मूलभूत सिद्धांतों का विरोधाभासी भी प्रतीत होता है जो ‘समान परन्तु विभेदित उत्तरदायित्वों’ (सीबीडीआर) पर आधारित है। यूएनएफसीसी का तर्क है कि सभी देशों के पास नेट-ज़ीरो के लिए एक सामान्य लक्ष्य वर्ष के बजाय अलग-अलग लक्ष्य होना चाहिए। क्योंकि विकसित देश तो अपना लक्ष्य जल्दी हासिल कर सकते हैं लेकिन विकासशील देशों को इसमें थोड़ा अधिक समय लगेगा। यूएनएफसीसी ने विकसित देशों द्वारा अतीत में किए गए अत्यधिक उत्सर्जनों को देखते हुए जलवायु सम्बंधी कार्रवाई की अधिक ज़िम्मेदारी उठाने का आह्वान किया है। विकासशील देशों को भी विकसित देशों से प्राप्त तकनीकी और वित्तीय सहायता प्राप्त करते हुए दिशा में भरसक प्रयास करना चाहिए । यह तर्क ग्लासगो सम्मेलन में सभी देशों के लिए प्रस्तावित 2030 और 2050 के एक-समान लक्ष्यों के विपरीत प्रतीत होता है।
भारत की भूमिका
भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक है। यदि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भारत की भागीदारी की गणना की जाए तो यह 7% से कुछ ही कम होगा। वैसे भारत विश्व के सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जकों में से एक तो है लेकिन इसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से बहुत कम है। यह देश में आर्थिक असमानता की स्थिति का संकेत देता है।
भारत ने मीथेन संकल्प पर हस्ताक्षर नहीं किए क्योंकि हम विश्व के सबसे बड़े बीफ और अन्य प्रकार के मांस के निर्यातक हैं और इस समझौते पर हस्ताक्षर करने का मतलब मीथेन उत्सर्जन में कटौती है जिसका प्रतिकूल असर मांस व्यापार पर होगा।
विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 1.8 टन है जो 2015 के पेरिस समझौते के दायित्वों के अनुसार 2030 में 2.4 टन होने की संभावना है। भारत के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के क्षेत्रवार विश्लेषण से पता चलता है कि इसमें सबसे अधिक हिस्सा बिजली और ऊष्मा का है और इसके बाद क्रमशः कृषि, विनिर्माण एवं परिवहन, उद्योग तथा भूमि उपयोग में परिवर्तन और वानिकी क्षेत्र हैं।
आने वाले वर्षों में भारत के प्रति व्यक्ति जीडीपी में वृद्धि होने की संभावना है जिसके नतीजे में कार्बन उत्सर्जन में भी वृद्धि होगी। चूंकि भारत ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधनों पर अधिक निर्भर है इसलिए उत्सर्जन में मुख्य भागीदारी ऊर्जा क्षेत्र की रहेगी।
भारत के जीडीपी में सेवाओं का बड़ा हिस्सा संकेत देता है कि आने वाले समय में विकास कम कार्बन उत्सर्जन आधारित रहेगा।
हालांकि, भारत की जनसंख्या वृद्धि भले ही धीमी हो रही है लेकिन जनसंख्या के बदलते चाल-ढाल के परिणामस्वरूप आने वाले वर्षों में कार्बन उत्सर्जन पर दबाव पड़ सकता है।
भारत का प्रदर्शन
भारत ने 2005 की तुलना में 2030 तक अपनी उत्सर्जन तीव्रता में 33% से 35% तक कमी करने का संकल्प लिया है। (उत्सर्जन तीव्रता का अर्थ होता है प्रति इकाई जीडीपी के लिए ऊर्जा की खपत) और कहा है कि वह अब तक 24% कमी हासिल कर चुका है। भारत ने सम्मेलन में घोषणा की है कि वह 2030 के अंत तक अपने नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन को 450 गीगावाट तक बढ़ा देगा। यह लक्ष्य पेरिस जलवायु समझौते के तहत भारत द्वारा व्यक्त 40% ऊर्जा नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से के लक्ष्य से अलग है। भारत ने 2.5 से 3 अरब टन कार्बन सिंक (अवशोषक) बनाने के लिए वन क्षेत्र बढ़ाने की घोषणा भी की है।
भारत ने हाल ही में हरित विधियों के माध्यम से हाइड्रोजन उत्पादन के लिए राष्ट्रीय हाइड्रोजन नीति की भी घोषणा की है। हाइड्रोजन को औद्योगिक और परिवहन के क्षेत्र में इस्तेमाल करना है। इससे भारत को अपने ऊर्जा क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने में मदद मिलेगी। फरवरी 2022 में इंदौर ऐसा पहला भारतीय शहर बन गया है जहां गोबर गैस प्लांट शहर के सभी सरकारी सार्वजनिक वाहनों को ऊर्जा प्रदान करेंगे।
भावी चुनौतियां
2070 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन हासिल करने का मतलब होगा कि 2040 तक उत्सर्जन सर्वोच्च स्तर तक पहुंचकर कम होने लगे। अब तक के अध्ययन से पता चलता है कि 2070 तक नेट-ज़ीरो हासिल करने के लिए भारत को उत्सर्जन की तीव्रता (यानी उत्सर्जन प्रति इकाई जीडीपी) में 85% की कमी करना होगी। तुलना के लिए देखें कि भारत 2005 से लेकर अब तक उत्सर्जन में केवल 24% की कमी कर पाया है।
इस प्रकार की भारी कमी को संभव बनाने के लिए पनबिजली से इतर नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी को वर्तमान 11% से बढ़ाकर 65% करना होगा और इलेक्ट्रिक कारों की हिस्सेदारी को 2040 तक 0.1% से 75% तक ले जाना होगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सरकार द्वारा नागरिकों को सौर पैनल जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। सब्सिडी प्रदान कर सौर पैनल सस्ते भी किए जा सकते हैं। विकल्प के रूप में सरकारों को घरों में उत्पादित अधिशेष सौर ऊर्जा को खरीदना चाहिए जिससे नागरिकों को सौर पैनल में निवेश करने का प्रोत्साहन भी मिलेगा।
देश में इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या को बढ़ाने के लिए राज्य को सरकार द्वारा संचालित सार्वजनिक परिवहन को पूरी तरह इलेक्ट्रिक वाहनों में परिवर्तित करना चाहिए। इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने के लिए दिए जाने वाले ऋण पर कर में राहत प्रदान करना चाहिए, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इलेक्ट्रिक वाहनों में बैटरी बदलने की प्रक्रिया आसान रहे। ऐसी व्यवस्था भी ज़रूरी है कि पेट्रोल पंप चार्जिंग स्टेशन भी स्थापित कर सकें।
इस अवधि में जीवाश्म ऊर्जा का हिस्सा 73% से घटाकर 40% करना होगा। भारत के वर्तमान वित्तीय और तकनीकी संसाधनों को देखते हुए इस लक्ष्य को पूरा कर पाना काफी कठिन लगता है।
विकास पर प्रभाव
काउंसिल फॉर एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) का अध्ययन बताता है कि भारत को 2070 तक नेट-ज़ीरो लक्ष्य हासिल करने के लिए कोयले का उपयोग 2040 तक चरम पर पहुंचने के बाद 2040 से 2060 के बीच 99% तक कम करना होगा। ऐसा होने की संभावना कम ही है क्योंकि इससे भारत की विकास संभावनाओं को नुकसान पहुंचेगा और संभव है कि भारत विकास की कीमत पर पर्यावरण को तरजीह नहीं देगा।
धन की कमी
भारतीय अर्थव्यवस्था को कार्बन-मुक्त करने और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ने के लिए पूंजी की आवश्यकता होगी। अभी तक भारत के पास इतनी पूंजी तो नहीं है इसलिए इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसे बाहरी फंडिंग पर निर्भर रहना पड़ेगा। विकसित देशों ने जलवायु कोश में 2020 से प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर की व्यवस्था करने का वादा किया था जिसे अभी तक पूरा नहीं किया गया है।
आगे का रास्ता
COP-26 के मद्देनज़र भारत भविष्य में निम्नलिखित कार्य कर सकता है;
1. नेतृत्व की भूमिका निभाना और पहल करना
यह तो स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है। इससे निपटने के लिए भारत को वैश्विक प्रयासों में भाग लेना चाहिए और 1.5 डिग्री के लक्ष्य के प्रति गंभीरता प्रदर्शित करने के लिए तकनीकी, सामाजिक-आर्थिक और वित्तीय नीतियों एवं शर्तों का प्रस्ताव देने में पहल करना चाहिए भले वे जोखिम भरे क्यों न हों।
2. सशर्त लक्ष्य
कुछ विशेषज्ञों ने भारत द्वारा 2070 तक नेट-ज़ीरो के लक्ष्य को लेकर चिंता व्यक्त की है। उनके मुताबिक यह सही है कि भारत के लिए नेट-ज़ीरो वर्ष की घोषणा करने के दबाव की अवहेलना करना संभव नहीं था लेकिन भारत को यह स्पष्ट कर देना चाहिए था कि वह 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने की घोषणा तभी करेगा जब विकसित देश 2050 से पहले नेट-ज़ीरो तक पहुंचने और भारत जैसे विकासशील देशों को वित्तीय एवं तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध होंगे। भारत ने सशर्त लक्ष्य निर्धारित न करके गलती की है।
जलवायु सम्मेलन में अनुकूलन के उपायों पर भी ज़ोर देना चाहिए था। इसके साथ ही भारत को वैश्विक कार्बन बजट के पर्याप्त हिस्से पर अपना दावा पेश करना था और विश्व के बड़े उत्सर्जकों के विशिष्ट वैश्विक कार्बन बजट के आधार पर संचयी उत्सर्जन पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान करना चाहिए था। भारत विकसित देशों द्वारा अतीत में किए गए उत्सर्जन की भरपाई की मांग भी कर सकता है।
3. हरित विकास पथ पर चलना
इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्सर्जन का पूरे विश्व पर प्रभाव होगा, लेकिन यह प्रभाव सभी देशों पर समान नहीं होगा। भारत एक जलवायु-संवेदनशील राष्ट्र है और सरकार को हरित विकास के रास्तों को अपनाना चाहिए। अर्थव्यवस्था को ऐसे तरीकों से विकसित करना चाहिए जो न केवल विकास को सुनिश्चित करें बल्कि लम्बे समय तक संधारणीय भी रहे।
हरित विकास पथ का एक उदाहरण नवीकरणीय ऊर्जा को व्यापक रूप से अपनाने के साथ जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करना हो सकता है। इसके लिए भारत एक बहु-क्षेत्रीय योजना पर काम कर सकता है। आज देश में पेट्रोल और डीज़ल आधारित वाहन बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक हैं; सरकार वाहन निर्माताओं और ईंधन पर अप्रत्यक्ष टैक्स लगा सकती है और इससे मिलने वाले फंड का उपयोग नवीकरणीय ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहन को सब्सिडी देने में कर सकती है।
एक मिथक यह फैलाया गया है कि विश्व में अधिकांश प्रदूषण के लिए आम नागरिक ज़िम्मेदार हैं। इसके विपरीत, सच तो यह कि यदि विश्व भर के परिवार अपने जीवनयापन के लिए पर्यावरण अनुकूल तरीकों को अपना लें तो भी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में मात्र 22% की ही कमी होगी। इसका मतलब यह है कि अधिकांश उत्सर्जन उद्योगों के कारण होता है; सरकार पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाली कंपनियों पर कर लगा सकती है और उत्पादन के लिए पर्यावरण अनुकूल तथा संधारणीय तरीकों को अपनाने वाली कंपनियों को कर मुक्त कर सकती हैं। इससे निजी क्षेत्र की कंपनियों को ऊर्जा सम्बंधी परिवर्तन के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।
4. नेट–ज़ीरो की दिशा में
यदि भारत को 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करना है तो स्वच्छ ऊर्जा नवाचार और प्रौद्योगिकियों के लिए व्यापक समर्थन तथा निवेश के साथ वर्तमान में उपलब्ध हरित प्रौद्योगिकियों को अपनाने की आवश्यकता होगी। निम्नलिखित हस्तक्षेप भारत को नेट-ज़ीरो लक्ष्य प्राप्त करने में मदद कर सकते हैं:
क. एक कानूनी ढांचा बनाया जाना चाहिए जिसके तहत सभी गतिविधियों के जलवायु प्रभाव का मूल्यांकन सुनिश्चित किया जा सके। हाल ही में पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रोटोकॉल के कमज़ोर होने के साथ ही हम विपरीत दिशा में जा रहे हैं।
ख. ऐसी ऊर्जा कुशल वस्तुओं के लिए कानूनी आदेश जारी किया जाना चाहिए जिनका जीवन लम्बा है। बाज़ार में कई तरह की विकृतियां नज़र आती हैं – उत्पादों को ऐसे बनाना जो जल्दी कंडम हो जाएं, मालिकाना मानकों का अनावश्यक उपयोग, स्पेयर पार्ट्स का उत्पादन न करना, स्पेयर पार्ट्स बाज़ार पर एकाधिकार रखना और जानबूझकर मरम्मत के लिए कठिन उत्पाद बनाना। ऐसे कदाचरण को कानून के माध्यम से हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
ग. एक समर्पित हरित कोश बनाना और विभिन्न पर्यावरण संरक्षण योजनाओं के वित्तपोषण के लिए इसका उपयोग करना।
घ. ऐसे जंगल लगाना जो कार्बन सिंक का काम करें।
च. केंद्रीकृत और विकेंद्रीकृत बिजली उत्पादन दोनों पर समान रूप से ज़ोर देते हुए नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि करना।
छ. कार्बन आधारित ईंधन के एक उत्कृष्ट विकल्प, ग्रीन हाइड्रोजन, को मुख्यधारा में लाकर बिजली, औद्योगिक और परिवहन क्षेत्रों के उत्सर्जन में कटौती की जा सकती है।
ज. मीथेन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कचरे का बेहतर प्रबंधन।
झ. पैदल चलने और साइकिल चलाने को बढ़ावा देने के साथ-साथ शहर भर में साइक्लिंग मार्ग का निर्माण कर साइकिल चालन के बुनियादी ढांचे में निवेश करना और इन मार्गों में गाड़ियों की पार्किंग या कोई अन्य दुरूपयोग करने वालों पर जुर्माना।
निष्कर्ष
पर्यावरण और विकास हमेशा से ही एक सिक्के के दो पहलू रहे हैं। एक अच्छा नीति निर्माता हमेशा ऐसी नीतियां तैयार करता है जिससे विकास और निर्वहनीयता के बीच एक अच्छा संतुलन बना रहे। आज की परिस्थितियों में लगता है कि नीतिकारों की दिलचस्पी विकास में अधिक है। यदि संतुलन बिगड़ा तो सबसे कमज़ोर और पिछड़े वर्ग को इन गलतियों और असफलताओं का सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202109/Glasgow.jpeg?.s2tWO5.a.vscZi1Ep5iQXpvPoYrGQau&size=770:433
भारत में करीब 12 करोड़ लोग धूम्रपान करते हैं। जन स्वास्थ्य के लिहाज़ से इसे कम किया जाना चाहिए।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) तथा यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन के अनुमान के मुताबिक दुनिया की 7.9 अरब की आबादी में से 1.3 अरब लोग धूम्रपान करते हैं और इनमें से 80 प्रतिशत निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों के निवासी हैं। अर्थात धूम्रपान एक महामारी है जो जन स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा है। साल भर में यह 80 लाख लोगों से ज़्यादा की जान लेता है। इनमें से 70 लाख लोग तो खुद तंबाकू के इस्तेमाल से मरते हैं जबकि 12 लाख अन्य लोग सेकंड-हैंड धुएं के संपर्क के कारण जान गंवाते हैं। अमेरिकन जर्नल ऑफ प्रिवेंटिव मेडिसिन के मुताबिक लंबे समय से धूम्रपान करने वालों में टाइप-2 डायबिटीज़ की संभावना गैर-धूम्रपानियों की तुलना में 30 से 40 प्रतिशत तक ज़्यादा होती है। डॉ. स्मीलिएनिक स्टेशा के एक हालिया लेख में बताया गया है कि
1. धूम्रपान प्रति वर्ष 70 लाख से अधिक अधिक लोगों की मृत्यु का कारण बनता है;
2. 56 लाख युवा अमरीकी धूम्रपान के कारण जान गंवा सकते हैं;
3. सेकंड-हैंड धुआं दुनिया में 12 लाख लोगों की जान लेता है;
4. धूम्रपान दुनिया में निर्धनीकरण का प्रमुख कारण है; और
5. 2015 में 10 में से 7 धूम्रपानियों (68 प्रतिशत) ने कहा था कि वे छोड़ना चाहते हैं।
नेचर मेडिसिन के हालिया अंक में बताया गया है कि 2003 में डब्लूएचओ द्वारा तंबाकू नियंत्रण संधि पारित किए जाने के बाद इसे 2030 के टिकाऊ विकास अजेंडा में वैश्विक विकास लक्ष्य माना गया है। यदि संधि पर हस्ताक्षर करने वाले समस्त 155 देश धूम्रपान पर प्रतिबंध, स्वास्थ्य सम्बंधी चेतावनी, विज्ञापनों पर प्रतिबंध के साथ-साथ सिगरेटों की कीमतें बढ़ाने जैसे उपाय लागू करें तो यह लक्ष्य वाकई संभव है।
भारत की स्थिति
भारत निम्न-आमदनी वाले देश की श्रेणी से उबरकर विकसित देश बन चुका है, और अनुमानत: यहां 12 करोड़ धूम्रपानी हैं (कुल 138 करोड़ में से 9 प्रतिशत)। एक समय पर भारत व पड़ोसी देशों में गांजा-भांग काफी प्रचलित थे। इनका सेवन करने के बाद व्यक्ति को नशा चढ़ता है। इसे कैनेबिस के नाम से भी जानते हैं। कैनेबिस में सक्रिय पदार्थ टेट्राहायड्रोकेनेबिऑल होता है जो मनोवैज्ञानिक असर व नशे का कारण है। आज भी होली वगैरह पर लोग भांग चढ़ाते हैं।
तंबाकू
तंबाकू की बात करें, तो इसकी उत्पत्ति, औषधि के रूप में उपयोग, त्योहारों तथा नशे के लिए इसके उपयोग का विस्तृत विवरण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केंद्रीय तंबाकू अनुसंधान संस्थान (राजामुंदरी, आंध्र प्रदेश) द्वारा दिया गया है। ऐसा लगता है कि तंबाकू का पौधा दक्षिण अमेरिका में पेरुवियन/इक्वेडोरियन एंडीज़ में उगाया जाता था। इस नशीले पौधों का स्पैनिश नाम ‘टोबेको’ था।
तंबाकू का लुत्फ उठाने के लिए युरोपीय लोग जिस ‘पाइप’ का उपयोग करते थे वह शायद रेड इंडियन्स के फोर्क्ड केन से उभरा था। युरोप में तंबाकू लाने का श्रेय कोलंबस को जाता है। वहां से यह उनके उपनिवेशों (भारत व दक्षिण एशिया) में पहुंची। पुर्तगाली लोगों ने तंबाकू की खेती गुजरात के उत्तर-पश्चिमी ज़िलों में तथा ब्रिटिश हुक्मरानों ने उ.प्र., बिहार व बंगाल में शुरू करवाई थी।
इम्पीरियल एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना 1903 में हुई और उसने तंबाकू का वानस्पतिक व आनुवंशिक अध्ययन शुरू कर दिया। संक्षेप में कहें, तो तंबाकू का पौधा और उसके नशीले असर के बारे में भारतीयों को तब तक पता नहीं था, जब तक कि पश्चिमी लोग इसे यहां लेकर नहीं आए थे।
तंबाकू में सक्रिय अणु निकोटीन होता है। इसका नाम ज़्यां निकोट के नाम पर पड़ा है, जो पुर्तगाल में फ्रांसीसी राजदूत थे। उन्होंने 1560 में तंबाकू के बीज ब्राज़ील से पेरिस भेजे थे। तंबाकू के पौधे में से निकोटीन को अलग करने का काम 1858 में जर्मनी के डब्लू. एच. पोसेल्ट तथा के. एल. रीमान ने किया था। उनका मानना था कि यह एक विष है और यदि इसे स्लो-रिलीज़ ढंग से इस्तेमाल न किया जाए तो इसकी लत लग सकती है। (यही कारण है कि फिल्टर सिगरेटों का उपयोग स्लो-रिलीज़ के लिए किया जाता है)
लुइस मेल्सेन्स ने 1843 निकोटीन का अणु सूत्र ज्ञात किया और इसकी आणविक संरचना का खुलासा 1893 में एडोल्फ पिनर और रिटर्ड वोल्फेंस्टाइन ने किया था। इसका संश्लेषण सबसे पहले 1904 में ऑगस्ट पिक्टेट और क्रेपो द्वारा किया गया था। ताज़ा अनुसंधान से पता चला है कि नियमित धूम्रपानियों को टाइप-2 डायबिटीज़ का खतरा भी ज़्यादा रहता है।
प्रतिबंध
भारत में करीब 12 करोड़ लोग धूम्रपान करते हैं। जन स्वास्थ्य की दृष्टि से यह संख्या बहुत कम करना ज़रूरी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय सिगरेट की बिक्री पर रोक लगाने की तैयारी कर रहा है। भारत डब्लूएचओ की तंबाकू नियंत्रण संधि पर 27 फरवरी 2005 को हस्ताक्षर कर चुका है।
इस संधि तथा टिकाऊ विकास लक्ष्यों के अनुरूप भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय ने कई सार्वजनिक स्थानों व कार्यस्थलों पर धूम्रपान की मनाही कर दी है – जैसे स्वास्थ्य सेवा से जुड़े स्थान, शैक्षणिक व शासकीय स्थान तथा सार्वजनिक परिवहन। ये सारे कदम स्वागत-योग्य हैं और लोगों को सहयोग करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img2.thejournal.ie/article/3597257/river?version=3597445&width=1340
जुरासिक पार्क फिल्म में दर्शाया गया था कि करोड़ों वर्ष पूर्व विलुप्त हो चुके डायनासौर के जीवाश्म से प्राप्त डीएनए की मदद से पूरे जीव को पुनर्जीवित कर लिया गया था। संभावना रोमांचक है किंतु सवाल है कि क्या ऐसा वाकई संभव है।
हाल के वर्षों में कई वैज्ञानिकों ने विलुप्त प्रजातियों को फिर से अस्तित्व में लाने (प्रति-विलुप्तिकरण) पर हाथ आज़माए हैं और लगता है कि ऐसा करना शायद संभव न हो। कम से कम आज तो यह संभव नहीं हुआ है। लेकिन वैज्ञानिक आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं।
उदाहरण के लिए, एक कंपनी कोलोसल लेबोरेटरीज़ एंड बायोसाइन्सेज़ का लक्ष्य है कि आजकल के हाथियों को मैमथ में तबदील कर दिया जाए या कम से कम मैमथनुमा प्राणि तो बना ही लिया जाए।
किसी विलुप्त प्रजाति को वापिस अस्तित्व में लाने के कदम क्या होंगे? सबसे पहले तो उस विलुप्त प्रजाति के जीवाश्म का जीनोम प्राप्त करके उसमें क्षारों के क्रम का अनुक्रमण करना होगा। फिर किसी मिलती-जुलती वर्तमान प्रजाति के डीएनए में इस तरह संसोधन करने होंगे कि वह विलुप्त प्रजाति के डीएनए से मेल खाने लगे। अगला कदम यह होगा संशोधित डीएनए से भ्रूण तैयार किए जाएं और उन्हें वर्तमान प्रजाति की किसी मादा के गर्भाशय में विकसित करके जंतु पैदा किए जाएं।
पहले कदम को देखें तो आज तक वैज्ञानिकों ने मात्र 20 विलुप्त प्रजातियों के जीनोम्स का अनुक्रमण किया है। इनमें एक भालू, एक कबूतर और कुछ किस्म के मैमथ तथा मोआ शामिल हैं। लेकिन अब तक किसी जीवित सम्बंधी में विलुप्त जीनोम का पुनर्निर्माण नहीं किया है।
हाल ही में कोपनहेगन विश्वविद्यालय के टॉम गिलबर्ट, शांताऊ विश्वविद्यालय के जियांग-किंग लिन और उनके साथियों ने मैमथ जैसे विशाल प्राणि का मोह छोड़कर एक छोटे प्राणि पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया – ऑस्ट्रेलिया से करीब 1200 कि.मी. दूर स्थित क्रिसमस द्वीप पर 1908 में विलुप्त हुआ एक चूहा रैटस मैकलीरी (Rattus macleari)। यह चूहा एक अन्य चूहे नॉर्वे चूहे (वर्तमान में जीवित) का निकट सम्बंधी है।
गिलबर्ट और लिन की टीम ने क्रिसमस द्वीप के चूहे के संरक्षित नमूनों की त्वचा में से जीनोम का यथासंभव अधिक से अधिक हिस्सा प्राप्त करके इसकी प्रतिलिपियां बनाईं। इसमें एक दिक्कत यह आती है कि प्राचीन डीएनए टुकड़ों में संरक्षित रहता है। इससे निपटने के लिए टीम ने नॉर्वे चूहे के जीनोम से तुलना के आधार पर विलुप्त चूहे का अधिक से अधिक जीनोम तैयार कर लिया। करंट बायोलॉजी में बताया गया है कि इन दो जीनोम की तुलना करने पर पता चला कि क्रिसमस द्वीप के विलुप्त चूहे के जीनोम का लगभग 5 प्रतिशत गुम है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि गुमशुदा हिस्से में चूहे के अनुमानित 34,000 में 2500 जीन शामिल हैं। जैसे, प्रतिरक्षा तंत्र और गंध संवेदना से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण जीन्स नदारद पाए गए।
कुल मिलाकर इस प्रयास ने प्रति-विलुप्तिकरण के काम की मुश्किलों को रेखांकित कर दिया। 5 प्रतिशत का फर्क बहुत कम लग सकता है लेकिन लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम की विक्टोरिया हेरिज का कहना है कि कई सारे गुमशुदा जीन्स वे होंगे जो किसी प्रजाति को अनूठा बनाते हैं। उदाहरण के लिए मनुष्यों और चिम्पैंज़ी या बोनोबो के बीच अंतर तो मात्र 1 प्रतिशत का है।
यह भी देखा गया है कि वर्तमान जीवित प्रजाति और विलुप्त प्रजाति के बीच जेनेटिक अंतर समय पर भी निर्भर करता है। अतीत में जितने पहले ये दो जीव विकास की अलग-अलग राह पर चल पड़े थे, उतना ही अधिक अंतर मिलने की उम्मीद की जा सकती है। मसलन, क्रिसमस चूहा और नॉर्वे चूहा एक-दूसरे से करीब 26 लाख साल पहले अलग-अलग हुए थे। और तो और, एशियाई हाथी और मैमथ को जुदा हुए तो पूरे 60 लाख साल बीत चुके हैं।
तो सवाल उठता है कि इन प्रयासों का तुक क्या है। क्रिसमस चूहा तो लौटेगा नहीं। गिलबर्ट अब मानने लगे हैं कि पैसेंजर कबूतर या मैमथ को पुनर्जीवित करना तो शायद असंभव ही हो लेकिन इसका मकसद ऐसी संकर प्रजाति का निर्माण करना हो सकता है जो पारिस्थितिक तंत्र में वही भूमिका निभा सके जो विलुप्त प्रजाति निभाती थी। इसी क्रम में मेलबोर्न विश्वविद्यालय के एंड्र्यू पास्क थायलेसीन नामक एक विलुप्त मार्सुपियल चूहे को इस तकनीक से बहाल करने का प्रयास कर रहे हैं।
इसके अलावा, जीनोम अनुक्रमण का काम निरंतर बेहतर होता जा रहा है। हो सकता है, कुछ वर्षों बाद हमें 100 प्रतिशत जीनोम मिल जाएं।
अलबत्ता, कई वैज्ञानिकों का मत है विलुप्त प्रजातियों को पुनर्जीवित करने के प्रयासों के चलते काफी सारे संसाधन जीवित प्राणियों के संरक्षण से दूर जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक एक विलुप्त प्रजाति को पुनर्जीवित करने में जितना धन लगता है, उतने में 6 जीवित प्रजातियों को बचाया जा सकता है। इस गणित के बावजूद, यह जानने का रोमांच कम नहीं हो जाएगा कि विलुप्त पक्षी डोडो कैसा दिखता होगा, क्या करता होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adb1930/full/_20220309_on_christmasrat.jpg