जलकुंभी गर्म देशों में पाई जाने वाली एक जलीय खरपतवार है। ब्राज़ील मूल का यह पौधा युरोप को छोड़कर सारी दुनिया में पाया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम आइकॉर्निया क्रेसिपस है। खूबसूरत फूलों और पत्तियों के कारण जलकुंभी को सन 1890 में एक ब्रिटिश महिला ने ब्राज़ील से लाकर कलकत्ता के वनस्पति उद्यान में लगाया था। इसका उल्लेख उद्यान की डायरी में है। भारत की जलवायु इस पौधे के विकास में सहायक सिद्ध हुई।
जलकुंभी पानी में तैरने वाला एवं तेज़ी से बढ़ने वाला पौधा है। यह पौधा भारत में लगभग 4 लाख हैक्टर जल स्रोतों में फैला हुआ है और जलीय खरपतवारों की सूची में इसका स्थान सबसे ऊपर है। इसके उपयोग से जैविक खाद बनाई जा सकती है। जलकुंभी में नाइट्रोजन 2.5 फीसदी, फास्फोरस 0.5 फीसदी, पोटेशियम 5.5 फीसदी और कैल्शियम ऑक्साइड 3 फीसदी होते हैं। इसमें लगभग 42 फीसदी कार्बन होता है, जिसकी वजह से जलकुंभी का इस्तेमाल करने पर मिट्टी के भौतिक गुणों पर अच्छा असर पड़ता है। नाइट्रोजन और पोटेशियम की अच्छी उपस्थिति के कारण जलकुंभी का महत्व और भी ज़्यादा हो जाता है।
भारत में जलकुंभी के कारण जल स्रोतों को होने वाले संकट के कारण इसे ‘बंगाल का आतंक’ भी कहा जाता है। यह एकबीजपत्री, जलीय पौधा है, जो ठहरे हुए पानी में काफी तेज़ी से फैलता है और पानी से ऑक्सीजन को खींच लेता है। इससे जलीय जीवों के लिए संकट पैदा हो जाता है। जल की सतह पर तैरने वाले इस पौधे की पत्तियों के डंठल फूले हुए एवं स्पंजी होते हैं। इसकी गठानों से झुंड में रेशेदार जड़ें निकलती हैं। इसका तना खोखला और छिद्रमय होता है। यह दुनिया के सबसे तेज़ बढ़ने वाले पौधों में से एक है – यह अपनी संख्या को दो सप्ताह में ही दुगना करने की क्षमता रखता है।
जलकुंभी बड़े बांधों में बिजली उत्पादन को प्रभावित करती है। जलकुंभी की उपस्थिति के कारण पानी के वाष्पोत्सर्जन की गति 3 से 8 प्रतिशत तक अधिक हो जाती है, जिससे जल स्तर तेज़ी से कम होने लगता है।
जलकुंभी मुख्यत: बाढ़ के पानी, नदियों और नहरों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर फैलती है। मुख्य पौधे से कई तने निकल आते हैं जो छोटे-छोटे पौधों को जन्म देते हैं तथा बड़े होने पर मुख्य पौधे से टूटकर अलग हो जाते हैं। इसमें प्रजनन की इतनी अधिक क्षमता होती है कि एक पौधा 9-10 महीनों में एक एकड़ पानी के क्षेत्र में फैल जाता है। बीजों द्वारा भी इसका फैलाव होता है। एक-एक पौधे में 5000 तक बीज होते हैं और इसके बीजों में अंकुरण की क्षमता 30 वर्षो तक बनी रहती है।
तालाबों और नहरों की जलकुंभी को श्रमिकों द्वारा निकलवाया जाता है परंतु यह विधि बहुत महंगी है। झीलों और बड़ी नदियों की जलकुंभी को मशीनों द्वारा निकलवाना सस्ता पड़ता है पर थोड़े समय बाद यह फिर से जमने लगती है। कुछ रसायनो द्वारा जलकुंभी का नियंत्रण होता है। महंगी होने के कारण भारत जैसे देश में रासायनिक विधियां कारगर नहीं हो पा रही है। जैविक नियंत्रण विधि में कीट, सूतकृमि, फफूंद, मछली, घोंघे, मकड़ी आदि का उपयोग किया जाता है। यह बहुत सस्ती और कारगर विधि है। इस विधि में पर्यावरण एवं अन्य जीवों एवं वनस्पतियों पर कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं पड़ता।
जैविक विधि में जलकुंभी के नियंत्रण में एक बार कीटों द्वारा जलकुंभी नष्ट कर दिए जाने के बाद कीटों की संख्या भी कम हो जाती है। जलकुंभी का घनत्व फिर से बढ़ने लगता है और साथ ही कीटों की संख्या भी। सामान्य तौर पर जलकुंभी को पहली बार नष्ट करने में कीटों द्वारा 2 से 4 साल तक लग जाते हैं, जो कीटों की संख्या पर निर्भर करता है। ऐसे 7-8 चक्रों के बाद जलकुंभी पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। पिछले वर्षों में जबलपुर, मणिपुर, बैंगलुरु तथा हैदराबाद समेत कुछ शहरों में जलकुंभी के जैविक नियंत्रण में सफलता मिली है।
जलकुंभी के मूल उत्पत्ति क्षेत्र ब्राज़ील आदि देशों में 70 से भी अधिक प्रजातियों के जीव जलकुंभी का भक्षण करते देखे गए हैं, परंतु मात्र 5-6 प्रजातियों को ही जैविक नियंत्रण के लिए उपयुक्त माना गया है। ऐसी कुछ प्रजातियों ने ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, सूडान आदि देशों में जलकुंभी को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाई है। दूसरे देशों में इन कीटों की सफलता से प्रभावित होकर भारत में भी 3-4 कीटों और एक चिचड़ी की प्रजाति को सन 1982 में फ्लोरिडा और ऑस्ट्रेलिया से बैंगलुरु में आयात किया गया था। भारत सरकार ने नियोकोटीना आइकोर्नीए एवं नियोकोटीना ब्रुकी को वर्ष 1983 एवं ऑर्थोगेलुम्ना टेरेब्रांटिस को वर्ष 1985 में पर्यावरण में छोड़ने की अनुमति दे दी। आज ये कीट भारत में हर प्रदेश में फैल चुके हैं, जहां ये जलकुंभी के जैविक नियंत्रण में मदद कर रहे हैं।
औषधीय गुणों से भरपूर होने और रोग प्रतिरोधी क्षमता पर प्रभाव के चलते कई देशों में जलकुंभी का उपयोग औषधियों में किया जाता है। असाध्य रोगों से बचने के लिए लोग इसका सूप बनाकर सेवन करते हैं। दवाइयों में अपने देश में इसका उपयोग बहुत कम हो रहा है, क्योंकि इस पौधे की विशेषता से अधिकतर लोग अनभिज्ञ हैं। कहा जाता है कि श्वांस, ज्वर, रक्त विकार, मूत्र तथा उदर रोगों में यह बेहद लाभकारी है।
हमारे देश में लोग इसे बेकार समझकर उखाड़ कर फेंक देते हैं। इसमें विटामिन ए, विटामिन बी, प्रोटीन, मैग्नीशियम जैसे कई पोषक तत्व होते हैं और यह रक्तचाप, हृदय रोग और मधुमेह से लेकर कैंसर तक के उपचार में उपयोगी हो सकती है।
इसका फूल काफी सुंदर होता है, जिसे सजावट के लिए उपयोग में लिया जाता है। जलकुंभी से डस्टबिन, बॉक्स, टोकरी, पेन होल्डर और बैग जैसे कई इको फ्रेंडली सामान बनाए जाते हैं और यह स्थानीय स्तर पर लोगों के लिए आमदनी का अच्छा साधन हो सकता है।
पिछले कुछ वर्षों से जलकुंभी से खाद बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई है; जब जलकुंभी से बड़ी मात्रा में जैविक खाद तैयार होने लगेगी तो इसका लाभ नदियों, नहरों और तालाबों के आसपास रहने वाले किसानों को मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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