कोविड-19 के एंडेमिक होने का मतलब

र्तमान महामारी के संदर्भ में एंडेमिक (स्थानिक) शब्द का काफी दुरूपयोग हुआ है और इसने काफी मुगालता पैदा किया है। इसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि कोविड-19 का प्राकृतिक रूप से अंत हो जाएगा।

महामारी विज्ञानियों की भाषा में एंडेमिक संक्रमण उसे कहते हैं जिसमें संक्रमण की समग्र दर संतुलित रहती है। उदाहरण के तौर पर, साधारण सर्दी जुकाम, लासा बुखार, मलेरिया, पोलियो वगैरह एंडेमिक हैं। टीके की मदद से समाप्त किए जाने से पहले चेचक भी एंडेमिक था।

कोई बीमारी एंडेमिक होने के साथ-साथ व्यापक और घातक दोनों हो सकती है। 2020 में मलेरिया से 6 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी तथा टीबी से 1 करोड़ लोग बीमार हुए और 15 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। अर्थात एंडेमिक संक्रमण का मतलब यह नहीं होता कि सब कुछ नियंत्रण में है और सामान्य जीवन चल सकता है।

विशेषज्ञों के अनुसार नीति-निर्माता एंडेमिक शब्द का उपयोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के लिए करते हैं। जबकि ऐसे एंडेमिक रोगजनकों के साथ जीते रहने की बजाय स्वास्थ्य नीति सम्बंधी ठोस निर्णय लेना अधिक महत्वपूर्ण है।

वास्तव में किसी संक्रमण को एंडेमिक कहने से न तो यह पता चलता है कि वह स्थिर अवस्था में कब पहुंचेगा, मामलों की दर क्या होगी, और न ही यह पता चलता है कि बीमारी की गंभीरता या मृत्यु दर क्या होगी। इससे यह गारंटी भी नहीं मिलती कि संक्रमण में स्थिरता आ जाएगी।

वास्तव में स्वास्थ्य नीतियां और व्यक्तिगत व्यवहार ही कोविड-19 के रूप को निर्धारित कर सकते हैं। 2020 के अंत में अल्फा संस्करण के उभरने के बाद विशेषज्ञों ने यह कहा था कि जब तक संक्रमण को दबा नहीं दिया जाता तब तक वायरस का विकास काफी तेज़ और अप्रत्याशित ढंग से होगा। इसी विकास ने अधिक संक्रामक डेल्टा संस्करण को जन्म दिया और अब हम प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने वाले ओमिक्रॉन को झेल रहे हैं। बीटा और गामा संस्करण भी काफी खतरनाक थे लेकिन ये उस रफ्तार से फैले नहीं। 

वायरस का फैलाव और असर लोगों के व्यवहार, जनसांख्यिकी संरचना, संवेदनशीलता और प्रतिरक्षा और उभरते हुए वायरस संस्करणों पर निर्भर करता है। 

देखा जाए तो कोविड-19 विश्व की पहली महामारी नहीं है। हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली निरंतर संक्रमण से निपटने के लिए विकसित हुई है और हमारे जीनोम में वायरल आनुवंशिक सामग्री के अवशेष इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। कुछ वायरस अपने आप ही ‘विलुप्त’ तो हो गए लेकिन जाते-जाते उच्च मृत्यु दर का कारण भी रहे।  

एक व्यापक भ्रम यह फैला है कि वायरस समय के साथ विकसित होकर ‘भले’ या कम हानिकारक हो जाते हैं। ऐसा नहीं है और आज कुछ नहीं कहा जा सकता कि वायरस किस दिशा में विकसित होगा। सार्स-कोव-2 के अल्फा और डेल्टा संस्करण वुहान में पाए गए पहले स्ट्रेन की तुलना में अधिक खतरनाक साबित हुए। पूर्व में भी 1918 इन्फ्लुएंज़ा महामारी की दूसरी लहर पहली की तुलना में अधिक घातक थी। 

यह ज़रूर है कि इस विकास को मानवता के पक्ष में बदलने के लिए काफी कुछ किया जा सकता है। लेकिन सबसे पहले तो अकर्मण्य आशावाद को छोड़ना होगा। दूसरा, हमें मृत्यु, विकलांगता और बीमारी के संभावित स्तरों के बारे में यथार्थवादी होना पड़ेगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि वायरस के नए-नए संस्करणों के विकास की संभावना को कम करने के लिए संक्रमण को फैलने से रोकना ज़रूरी है। तीसरा, हमें टीकाकरण, एंटीवायरल दवाओं, नैदानिक परीक्षण जैसी तकनीकों का उपयोग करने के साथ-साथ मास्क के उपयोग, शारीरिक दूरी, वेंटिलेशन वगैरह के माध्यम से हवा से फैलने वाले वायरस को रोकना होगा। वायरस को जितना अधिक फैलने का मौका मिलेगा, नए-नए संस्करणों के उभरने की संभावना बढ़ती जाएगी। चौथा, हमें ऐसे टीकों में निवेश करना होगा जो एकाधिक वायरस संस्करणों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। इसके अलावा दुनिया भर में टीकों की समतामूलक उपलब्धता सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण होगा।

ऐसे में किसी वायरस को एंडेमिक समझना सिर्फ गलत नहीं, खतरनाक भी है। बेहतर होगा कि वायरस को हावी होने का अवसर न दें और वायरस के नए संस्करणों को उभरने का मौका न दें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हींग के आणविक जीव विज्ञान की खोजबीन – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हींग (जिसे अंग्रेज़ी में एसाफीटिडा, तमिल में पेरुंगायम, तेलुगु में इंगुवा और कन्नड़ में इंगु कहते हैं) एक सुगंधित मसाला है जिसका हमारे पकवानों और पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग किया जाता रहा है। महाभारत काल से हम हींग के बारे में जानते हैं, और यह अफगानिस्तान से आयात की जाती है। भागवत पुराण में उल्लेख है कि देवताओं का पूजन करने से पहले हींग नहीं खाना चाहिए। भारतीय ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि हम ईसा पूर्व 12वीं शताब्दी से हींग का आयात करते रहे हैं। हींग के लिए अंग्रेज़ी शब्द Asafoetida (एसाफीटिडा) फारसी शब्द Asa (जिसका अर्थ है गोंद), और लैटिन शब्द foetidus (जिसका अर्थ है तीक्ष्ण बदबू) से मिलकर बना है। विकीपीडिया के अनुसार प्रारंभिक यहूदी साहित्य में इसका ज़िक्र मिश्नाहा के रूप में मिलता है। रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि वे कैसे ‘काबुलीवाला’ से मेवे खरीदते थे लेकिन उनकी रचनाओं में हींग का उल्लेख नहीं मिलता, जबकि निश्चित ही यह उनके घर की रसोई में उपयोग की जाती होगी!

हींग एक गाढ़ा गोंद या राल है, जो अम्बेलीफेरी कुल के फेरुला वंश के बारहमासी पौधे की मूसला जड़ से मिलता है। इंडियन मिरर में एसाफीटिडा शीर्षक से प्रकाशित लेख में बताया गया है कि चिकित्सा के क्षेत्र में हींग का उपयोग तरह-तरह से होता है। यह भी कहा गया है कि हींग इन्फ्लूएंज़ा जैसे वायरस के विरुद्ध कारगर है। इसलिए वर्तमान समय के औषधि रसायनज्ञों और आणविक जीव विज्ञानियों द्वारा इसकी क्रियाविधि का अध्ययन सार्थक हो सकता है। (और, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन के प्रोफेसर एम. एस. वलियातन और उनके साथियों ने यह किया भी है)।

आयुर्वेद में शरीर में तीन तरह के दोष बताए गए हैं – वात, पित्त, और कफ। इन तीनों के अपने विशिष्ट कार्य हैं। वात दोष को शांत करने के लिए मसालों में हींग को सबसे अच्छा मसाला माना गया है। होम रेमेडीज़ फॉर हिक्कप नामक वेबसाइट बताती है कि हिचकी रोकने के लिए हींग उत्तम उपाय है! इसे मक्खन के साथ अच्छी तरह मिलाओ और निगल लो, और हिचकी बंद!

स्वदेशी?

हमें कब तक हींग आयात करनी पड़ेगी? ऐसा लगता है अब और नहीं! दी हिंदू के 10 नवंबर, 2020 के अंक में प्रकाशित और दी वायरसाइंस में उद्धृत एक रिपोर्ट में सीएसआईआर के इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोटेक्नोलॉजी (CSIR-IHBT) के निदेशक डॉ. संजय कुमार बताते हैं कि हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति की ठंडी रेगिस्तानी जलवायु ईरान और अफगानिस्तान की जलवायु से काफी मिलती-जुलती है। उन्होंने सोचा कि क्यों न हींग भारत में भी उगाई जाए। इस विचार ने IHBT को अफगानिस्तान से हींग के बीज आयात करके नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेस के मार्गदर्शन में IHBT अनुसंधान केंद्र में इसे उगाने को प्रेरित किया। प्रयोग सफल रहा और दो तरह की हींग राल प्राप्त हो गई – दूधिया सफेद किस्म की और लाल किस्म की। वे आगे बताते हैं कि चूंकि वर्तमान में हिमाचल प्रदेश में किसान आलू और मटर ही उगाते हैं इसलिए उन्हें हींग उगाने के लिए प्रेरित कर और तकनीकी सहायता प्रदान कर उनकी आय में वृद्धि की जा सकती है। डॉ. कुमार ने टाइम्स ऑफ इंडिया में ‘स्वदेशी हींग’ होना क्यों बड़ी बात है (Why ‘made-in-India’ heeng is a big thing) शीर्षक से एक लेख प्रकाशित भी किया है।

लंबा इतिहास

इस जड़ी बूटी के पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग का एक लंबा इतिहास रहा है। मिस्र के लोग लंबे समय से इसका उपयोग करते आ रहे हैं। आयुर्वेद के जानकार भी सदियों से इसके बारे में जानते हैं। प्रो. एम. एस. वलियातन और उनके साथियों ने फलमक्खी को एक मॉडल के रूप में उपयोग करके अध्ययन में पाया है कि शरीर में आयुर्वेदिक औषधियां प्रभावी हैं। इसी तरह जर्नल ऑफ एथ्नोफार्मेकोलॉजी में वर्ष 1999 में आइग्नर और उनके साथियों ने बताया था कि नेपाल की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों और आहार में हींग कैसे प्रभावी है। इस संदर्भ में फार्मेकोग्नॉसी रिव्यूज़ जर्नल के वर्ष 2012 के अंक में जयपुर की सुरेश ज्ञान विहार युनिवर्सिटी की डॉ. पूनम महेंद्र और डॉ. श्रद्धा बिष्ट द्वारा एक उत्कृष्ट और अद्यतन रिपोर्ट प्रकाशित की गई है, जिसका शीर्षक है फेरुला एसाफीडिटा: ट्रेडिशनल यूज़ एंड फार्मेकोलॉजिकल एक्टिविटी

हींग के रासायनिक घटकों के विश्लेषण से पता चलता है कि हींग के पौधे में लगभग 70 प्रतिशत कार्बोहायड्रेट, 5 प्रतिशत प्रोटीन, एक प्रतिशत वसा, 7 प्रतिशत खनिज होते हैं। इसके अलावा इसमें कैल्शियम, फास्फोरस, सल्फर के यौगिक और विभिन्न एलिफैटिक और एरोमेटिक अल्कोहल होते हैं। इसकी वसा में सल्फाइड होता है जिससे मलनुमा गंध आती है।

प्रयोगशाला में चूहों पर किए गए रासायनिक परीक्षणों से पता चलता है कि हींग पाचन में अहम भूमिका निभाती है। इसके अलावा शोधदल ने बताया है कि हींग का पौधा कैंसर-रोधी एजेंट के रूप में भी काम कर सकता है, और महिलाओं की कुछ बीमारियों के खिलाफ भी कारगर हो सकता है। उन्होंने हींग के लगभग 30 ऐसे अणुओं को सूचीबद्ध किया है जो एंटी-ऑक्सीडेंट, कैंसर-रोधी, जीवाणुरोधी, एंटीवायरल और यहां तक कि एड्स वायरस-रोधी की तरह काम करते हैं। इस सूची के मद्देनज़र देश भर के वैज्ञानिकों को आणविक जीव विज्ञान, प्रतिरक्षा विज्ञान और औषधि डिज़ाइन की नई तकनीकों का उपयोग करते हुए हींग से इन अणुओं को प्राप्त करके रोगों में इनकी निवारक भूमिका पर अध्ययन करना चाहिए। तो चलिए काम शुरू किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वृद्धावस्था में देखभाल का संकट और विकल्प – ज़ुबैर सिद्दिकी

विश्वभर में वृद्ध लोगों की बढ़ती आबादी के लिए वित्तीय सहायता और देखभाल का विषय राजनैतिक रूप से काफी पेचीदा है। इस संदर्भ में विभिन्न देशों ने अलग-अलग प्रयास किए हैं।

यू.के. में 2017 में और उसके बाद 2021 में सरकार द्वारा सोशल-केयर नीति लागू की गई थी। इसमें सामाजिक सुरक्षा हेतु धन जुटाने के मकसद से राष्ट्रीय बीमा की दरें बढ़ा दी गई थीं। यह एक प्रकार का सामाजिक सुरक्षा टैक्स है जो सारे कमाऊ वयस्क और उनके नियोक्ता भरते हैं।

कोविड-19 के दौरान वृद्धाश्रमों में मरने वाले लोगों की बड़ी संख्या ने इस मॉडल पर सवाल खड़े दिए। तो सवाल यह है कि बढ़ती बुज़ुर्ग आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं में किस तरह के पुनर्गठन की ज़रूरत है।

लगभग सभी उन्नत और बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएं इस चुनौती का सामना कर रही हैं। जैसे 2050 तक यूके की 25 प्रतिशत जनसंख्या 65 वर्ष से अधिक आयु की होगी जो वर्तमान में 20 प्रतिशत है। इसी तरह अमेरिका में वर्ष 2018 में 65 वर्ष से अधिक आयु के 5.2 करोड़ लोग थे जो 2060 तक 9.5 करोड़ हो जाएंगे। इस मामले में जापान का ‘अतिवृद्ध’ समाज अन्य देशों के लिए विश्लेषण का आधार प्रदान करता है। 2015 से 2065 के बीच जापान की आबादी 12.7 करोड़ से घटकर 8.8 करोड़ होने की संभावना है जिसमें 2036 तक एक तिहाई आबादी 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की होगी।      

हालांकि भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे अधिक वाली आबादी वाला देश है, की वर्तमान स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन अनुमान है कि 2050 तक 32 करोड़ भारतीयों की उम्र 60 वर्ष से अधिक होगी।

मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेज़ के प्रमुख कुरियाथ जेम्स बताते हैं कि भारत में बुज़ुर्गों की देखभाल मुख्य रूप से परिवारों के अंदर ही की जाती है। वृद्धाश्रम अभी भी बहुत कम हैं। भारत में संयुक्त परिवार आम तौर पर पास-पास ही रहते हैं जिससे घर के वृद्ध लोगों की देखभाल करना आसान हो जाता है। लेकिन इस व्यवस्था को अब जनांकिक रुझान चुनौती दे रहे हैं।

गौरतलब है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों का सबसे बड़ा स्रोत है। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर अब तक विदेशों में काम करने वाले भारतीयों की संख्या दुगनी से अधिक होकर 2015 तक 1.56 करोड़ हो गई थी। इसके अलावा कई भारतीय काम के सिलसिले में देश के ही दूसरे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार 30 प्रतिशत आबादी अपने जन्म स्थान पर नहीं रह रही थी। यह संख्या 2011 में बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई थी। जेम्स के अनुसार इस प्रवास में आम तौर पर व्यस्क युवा होते हैं जो अपने माता-पिता को छोड़कर दूसरे शहर चले जाते हैं। नतीजतन घर पर ही वृद्ध लोगों की देखभाल और कठिन हो जाती है।       

2020 में लॉन्गीट्यूडिनल एजिंग स्टडी इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार 60 वर्ष से अधिक आयु के 26 प्रतिशत लोग या तो अकेले या सिर्फ अपने जीवनसाथी (पति-पत्नी) के साथ रहते हैं। फिलहाल भारत में पारिवारिक जीवन अभी भी अपेक्षाकृत रूप से आम बात है जिसमें 60 से अधिक उम्र के 41 प्रतिशत लोग अपने जीवनसाथी और व्यस्क बच्चों दोनों के साथ रहते हैं जबकि 28 प्रतिशत लोग अपने व्यस्क बच्चों के साथ रहते हैं और उनका कोई जीवनसाथी नहीं है। 

वैसे, घर पर देखभाल की कुछ समस्याएं हैं। देखभाल का काम मुख्य रूप से महिलाओं के ज़िम्मे होता है और अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है क्योंकि वे घर से बाहर काम करने नहीं जा पाती हैं।

यदि प्रवासन में उपरोक्त वृद्धि जारी रही तो जल्दी ही देश की बुज़ुर्ग आबादी के पास कोई परिवार नहीं होगा और उनको देखभाल के लिए वृद्धाश्रम की आवश्यकता होगी। ऐसे में खर्चा बढ़ेगा और इन खर्चों को पूरा करने के लिए अधिक महिलाओं को काम की तलाश करना होगी।  

भारत के वृद्ध लोग अपने संयुक्त परिवारों के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं। ऐसे परिवारों में रहने वाले ज़्यादा बुज़ुर्ग (80 प्रतिशत) अपने रहने की व्यवस्था से संतुष्ट हैं बनिस्बत अकेले रहने वाले बुज़ुर्गों (53 प्रतिशत) के। नर्सिंग-होम जैसी संस्थाओं में संतुष्टि के संदर्भ में कोई डैटा तो नहीं है लेकिन परिवार द्वारा देखभाल को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है क्योंकि यह समाज की अपेक्षा भी है। फिर भी देश के अंदर और विदेशों की ओर प्रवास की प्रवृत्ति और कोविड-19 के दीर्घकालिक प्रभाव को देखते हुए विशेषज्ञ मानते हैं कि व्यवस्था में बदलाव की दरकार है।

महामारी के दौरान कई देशों के केयर-होम्स वायरस संक्रमण के भंडार रहे हैं। भारत के संदर्भ में पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लंदन आधारित इंटरनेशनल लॉन्ग टर्म केयर पालिसी नेटवर्क ने हाल ही में एक समीक्षा में बताया है कि परिवार के वृद्ध जन के कोविड-19 संक्रमित होने पर परिवार को अतिरिक्त तनाव झेलना पड़ा था। इस महामारी ने एक ऐसी व्यवस्था की सीमाओं को उजागर किया है जो वृद्ध लोगों की देखभाल के लिए मुख्यत: परिवारों पर निर्भर है।      

घर पर देखभाल के लिए देश के आधे कामगारों (महिलाओं) की उपेक्षा करना अर्थव्यवस्था पर एक गंभीर बोझ है।

इसी कारण जापान ने अपने वृद्ध लोगों की देखभाल करने के तरीके में बदलाव किए हैं। भारत की तुलना में जापान में आंतरिक प्रवास की दर कम है – वहां केवल 20 प्रतिशत लोग उस प्रांत में नहीं रहते हैं जहां वे पैदा हुए थे। लेकिन वहां भी औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की कम उपस्थिति एक बड़ा मुद्दा है। वर्ष 2000 में, 25 से 54 वर्ष की आयु के बीच की 67 प्रतिशत महिलाएं अधिकारिक तौर पर नौकरियों में थी जो अमेरिका से 10 प्रतिशत कम था। वैसे भी जापान सामान्य रूप से घटते कार्यबल का सामना कर रहा है।   

इस सहस्राब्दी की शुरुआत में जापान ने लॉन्ग-टर्म केयर इंश्योरेंस (एलटीसीआई) योजना की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य देखभाल को परिवार-आधारित व्यवस्था से दूर करके बीमा पर आधारित करना है। एलटीसीआई के तहत, 65 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोग जिन्हें किसी भी कारण देखभाल की आवश्यकता है, उन्हें सहायता प्रदान की जाती है। इसके लिए कोई विशेष विकलांगता की शर्त नहीं है। इसकी पात्रता एक सर्वेक्षण द्वारा निर्धारित की जाती है। इसके बाद चिकित्सक के इनपुट के आधार पर लॉन्ग-टर्म केयर अप्रूवल बोर्ड द्वारा निर्णय लिया जाता है। इसके बाद दावेदार को उसकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुसार देखभाल प्रदान की जाती है जो नर्सिंग-होम में निवास से लेकर उनके दैनिक कार्यों में मदद के लिए सेवाएं प्रदान करने तक हो सकती हैं।

एलटीसीआई के वित्तपोषण का 50 प्रतिशत हिस्सा कर से प्राप्त राजस्व से और बाकी का हिस्सा 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों पर अनिवार्य बीमा प्रीमियम आरोपित करके किया जाता है। यह आयु सीमा इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि 40 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर व्यक्ति के बुज़ुर्ग रिश्तेदारों को देखभाल की आवश्यकता होगी, ऐसे में वह व्यक्ति इस व्यवस्था का लाभ देख पाएगा। हितग्राही को कुल खर्च के 10 प्रतिशत का भुगतान भी करना होता है।

यदि अप्रूवल बोर्ड दीर्घकालिक देखभाल की आवश्यकता नहीं देखता तो उन्हें ‘रोकथाम देखभाल’ की पेशकश की जा सकती है। इन सेवाओं में पुनर्वास और फिज़ियोथेरेपी शामिल हैं। रोकथाम सेवा इसलिए भी आवश्यक हो गई क्योंकि एलटीसीआई योजना की सफलता के चलते नामांकन की संख्या में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई। वर्ष 2000 में जापान सरकार ने एलटीसीआई भुगतानों पर लगभग 2.36 लाख करोड़ रुपए खर्च किए थे जो 2017 में बढ़कर 7.02 लाख करोड़ हो गए। अनुमान है कि 2025 यह आंकड़ा 9.84 लाख करोड़ रुपए हो सकता है। खर्च कम करने के लिए सरकार ने 2005 में कुछ लाभों को कम कर दिया। 2015 में सक्षम लोगों के लिए 20 प्रतिशत भुगतान भी शामिल किया गया। सरकार ने प्रीमियम योगदान की उम्र घटाने की भी कोशिश की जिसका काफी विरोध हुआ।

कुल मिलाकर सबक यह है कि इतनी व्यापक योजना का आकार समय के साथ बढ़ती ही जाएगा। एलटीसीआई के लिए उच्च स्तर का उत्साह पैदा करना आसान नहीं था। लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना पड़ा क्योंकि घर पर वृद्ध रिश्तेदारों की देखभाल न करना एक शर्म की बात माना जाता था। हालांकि, जापान ने जो समस्याएं एलटीसीआई की मदद से दूर करने की कोशिश की थी उनमें से कई समस्याएं अभी भी मौजूद हैं।

एक रोचक तथ्य यह है कि जहां 2000 से 2018 के बीच जापान की कामकाजी उम्र की आबादी में 1.1 करोड़ से अधिक लोगों की कमी आई है वहीं कार्यबल में 6 लाख की वृद्धि हुई है। इस वृद्धि का श्रेय महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को दिया जाता है क्योंकि एलटीसीआई ने पारिवारिक देखभाल की चिंताओं को कम किया जिससे महिलाओं को काम करने के अवसर मिले।  

हालांकि, अभी भी जापान में बढ़ती उम्र की समस्या बनी हुई है और इसी कारण उसका श्रम-बाज़ार का संकट खत्म भी नहीं हुआ है। अधिक महिलाओं को रोज़गार देने के बाद भी देश के स्वास्थ्य, श्रम और कल्याण मंत्रालय का अनुमान है कि 2040 तक कार्यबल घटकर 5.3 करोड़ रह जाएगा जो 2017 से 20 प्रतिशत कम होगा। साथ ही वृद्ध लोगों की संख्या बढ़ने के साथ एलटीसीआई के लिए पात्र लोगों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है। ऐसे में भविष्य में योजना को वित्तपोषित करना एक बड़ी चुनौती होगी। (स्रोत फीचर्स)

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इस वर्ष चीन की जनसंख्या घटना शुरू हो सकती है

चीन के राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार चीन की जनसंख्या दशकों तक बढ़ने के बाद इस वर्ष घटना शुरू हो सकती है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2021 में, चीन की जन्म दर में लगातार पांचवें वर्ष गिरावट आई है, जो घटकर 7.52 प्रति 1000 व्यक्ति हो गई है। इन आंकड़ों के आधार पर जनसांख्यिकीविदों का अनुमान है कि देश की कुल प्रजनन दर प्रति व्यक्ति लगभग 1.15 है, जो प्रतिस्थापन दर (2.1) से काफी कम है। इस दर के साथ चीन विश्व का सबसे कम जनसंख्या वृद्धि दर वाला देश बन गया है।

युनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना के जनसांख्यिकीविद योंग काय का कहना है कि अधिक बच्चे पैदा करने के लिए की जा रही सारी पहल और प्रचार के बावजूद युवा जोड़े अधिक बच्चे न पैदा करने का निर्णय ले रहे हैं। अनुमान है कि चीन की जनसंख्या में तेज़ी से गिरावट आएगी।

बढ़ती से घटती जनसंख्या की दिशा में यह बदलाव बहुत तेज़ गति से हुआ है। कुछ साल पहले अनुमान था कि चीन की आबादी लगभग 2027 तक बढ़ेगी। 2020 की जनगणना में भी कुल प्रजनन दर 1.3 आंकी गई थी।

चीन की सरकार ने लंबे समय तक सख्त जनसंख्या नियंत्रण अपनाया। लेकिन यह देखते हुए कि घटती युवा आबादी और बढ़ती वृद्ध आबादी पेंशन प्रणाली और सामाजिक सेवाओं पर बोझ बढ़ाएंगी, और आर्थिक और भू-राजनैतिक गिरावट का कारण बनेंगी, चीन ने 2016 में अपनी एक-संतान नीति को समाप्त कर दिया था। मई 2021 में यह सीमा बढ़ाकर तीन बच्चे तक कर दी गई। कुछ स्थानीय सरकारों ने दूसरा और तीसरा बच्चा करने पर जोड़ों को मासिक नकद सब्सिडी देना भी शुरू किया।

लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद युवा अधिक बच्चे नहीं चाहते। विशेषज्ञों के अनुसार सब्सिडी बहुत कम है। युवाओं पर पहले ही बहुत अधिक काम का बोझ है और वेतन बहुत कम, ऊपर से बच्चों की देखभाल के लिए सामाजिक मदद बहुत कम है। इन कारणों के चलते बहुत कम जोड़े ही परिवार शुरू करना या दूसरा बच्चा चाहते हैं।

सांख्यिकी ब्यूरो ने यह भी बताया है कि चीन अब और अधिक शहरीकृत हो रहा है। वर्ष 2020 से अब शहरी आबादी में 0.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, इस तरह चीन की लगभग 65 प्रतिशत आबादी शहरी क्षेत्रों में रह रही है। शहरों में आकर बसने वाले लोग आम तौर पर प्रजनन उम्र में भी होते हैं। और शहरों की तंग और भीड़-भाड़ वाली जगहों में आवास, महंगा जीवन यापन और महंगी शिक्षा होने के कारण लोग दूसरा बच्चा ही नहीं चाहते, तो तीसरा बच्चा तो दूर की बात है।

कुछ जनसांख्यिकीविद कहते हैं कि जनसंख्या कमी के संकट को अधिक तूल दिया जा रहा है। निश्चित ही चीन बूढ़ा हो रहा है। लेकिन चीन की आबादी स्वस्थ, बेहतर शिक्षित और हुनर से लैस होती जा रही है, और नई तकनीकों के अनुकूल हो रही है। अधिक बच्चे पैदा करने को बढ़ावा देने की बजाय जीविका प्रशिक्षण को प्रोत्साहित करने से, उत्पादकता में सुधार लाने से और वृद्धों के स्वास्थ्य को बेहतर करने से भी स्थिति संभल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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हरी रोशनी की मदद से जंतु-संरक्षण

त्स्याखेट के दौरान जाल में अनचाहे जीवों का फंस जाना एक बड़ी समस्या है। इनमें कछुए, स्टिंग रे, स्क्विड और यहां तक कि शार्क जैसे जीव फंसकर बेमौत मारे जाते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए हाल ही में किया गया शोध काफी आशाजनक प्रतीत होता है। इस नई तकनीक में मछली पकड़ने के जाल में हरी एलईडी लगाने से शार्क और स्क्विड जैसे गैर-लक्षित जीवों के जाल में फंसने की संभावना कम हो जाती है और इससे ग्रूपर और हैलिबट जैसी वांछित मछलियों की गुणवत्ता और मात्रा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

आम तौर पर मछुआरों द्वारा गिलनेट का उपयोग किया जाता है जो पानी में एक कनात के रूप में लटकी रहती है। इसमें कई अनचाही प्रजातियां भी फंस जाती हैं जिन्हें ‘बायकैच’ कहा जाता है। यह बायकैच डॉल्फिन और समुद्री कछुओं सहित कई प्रजातियों के विनाश में योगदान देने के अलावा मछुआरों का काम बढ़ा देता है क्योंकि जाल की सफाई मुश्किल हो जाती है।

पूर्व में एक टीम द्वारा किए गए एक प्रयोग में जाल में हरे प्रकाश का उपयोग करने से कछुए के बायकैच में 64 प्रतिशत की कमी आई थी। इसके बाद इसे अन्य जीवों पर भी आज़माने का प्रयास किया गया। उसी टीम ने मेक्सिको स्थित बाजा कैलिफोर्निया के तट पर ग्रूपर और हैलिबट मछली पकड़ने वालों के साथ मिलकर काम किया। इस क्षेत्र को चुना गया क्योंकि मछलियों के साथ यहां बड़ी मात्रा में कछुए और अन्य बड़े समुद्री जीव पाए जाते हैं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 28 जोड़ी जाल डाले। प्रत्येक जोड़ी में एक-एक जाल पर 10-10 मीटर की दूरी पर एलईडी लाइट लगाई गई थी। अगले दिन सुबह जालों में फंसे जीवों को तौला गया और पहचान की गई।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रकाशित जालों में 63 प्रतिशत कम बायकैच पाया गया (51 प्रतिशत कम कछुए और 81 प्रतिशत कम स्क्विड)। शार्क और स्टिंग रे समूह के साथ किए गए एक अन्य अध्ययन में अधिक बेहतर परिणाम देखने को मिले। इस तकनीक का उपयोग करने से शार्क बायकैच में 95 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि कैसे कुछ जीव खुद को हरे प्रकाश से बचा पाते हैं। इस सम्बंध में कई परिकल्पनाएं हैं।

बहरहाल, कारण जो भी हो लेकिन अब मछुआरों को जाल ढोने और सुलझाने में कम समय लगता है। हालांकि इन जालों की ऊंची लागत एक बड़ी बाधा है। एक जाल को रोशनी से लैस करने के लिए लगभग 140 डॉलर (लगभग 10000 रुपए) तक लागत आती है। कुछ मछुआरों के लिए यह बहुत महंगा है। फिलहाल शोधकर्ता सौर उर्जा से चलने वाली एलईडी का परीक्षण कर रहे हैं जो बैटरी चालित एलईडी की तुलना में अधिक समय तक चलती है। इसके साथ ही प्रति जाल कम संख्या में एलईडी के साथ भी प्रयोग किए जा रहे हैं ताकि लागत को कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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जेनेटिक अध्ययनों में ‘नस्ल’ शब्द के उपयोग में कमी

हाल के एक समीक्षा अध्ययन से पता चला है कि मानव जेनेटिक्स से सम्बंधित शोध पत्रों में ‘नस्ल’ (रेस) शब्द का उपयोग बहुत कम होने लगा है। खास तौर से मानव आबादियों या समूहों का विवरण देते समय उन्हें नस्ल कहने का चलन कम हुआ है। और इसका कारण यह लगता है कि जीव वैज्ञानिकों में आम तौर पर यह समझ विकसित हुई है कि नस्ल वास्तव में जीव वैज्ञानिक नहीं, बल्कि एक सामाजिक रूप से निर्मित श्रेणी है।

उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में कई आनुवंशिकीविदों की यह धारणा थी कि मानव नस्लें वास्तव में होती हैं – जैसे नीग्रो या कॉकेशियन – और ये जीव वैज्ञानिक समूह की द्योतक हैं। इस आधार पर विभिन्न जनसमूहों के बारे में धारणाएं बना ली जाती थीं। अलबत्ता, अब वैज्ञानिकों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि नस्ल जैसी धारणा का कोई जीव वैज्ञानिक आधार नहीं है।

इस संदर्भ में समाज वैज्ञानिक वेंस बॉनहैम देखना चाहते थे कि क्या इस बदलती समझ का असर शोध पत्रों में नज़र आता है। इसे समझने के लिए उन्होंने अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्युमैन जेनेटिक्स (AJHG) में प्रकाशित शोध पत्रों को खंगाला। यह जर्नल जेनेटिक्स विषय का सबसे पुराना जर्नल है और 1949 से लगातार प्रकाशित हो रहा है। बॉनहैम और उनके साथियों ने 1949 से 2018 के बीच AJHG में प्रकाशित 11,635 शोध पत्रों को देखा। उन्होंने पाया कि जहां इस अवधि के पहले दशक में 22 प्रतिशत शोध पत्रों में नस्ल शब्द का उपयोग किया गया था वहीं पिछले दशक में मात्र 5 प्रतिशत शोध पत्रों में ही यह शब्द प्रकट हुआ।

इसके अलावा, अध्ययन में यह भी देखा गया कि प्रथम दशक में नस्लीय समूहों से सम्बंधित शब्दों – नीग्रो और कॉकेशियन – का इस्तेमाल क्रमश: 21 और 12 प्रतिशत शोध पत्रों में हुआ था। 1970 के दशक के बाद से इसमें गिरावट आई और आखिरी दशक में तो ऐसे शब्दों का उपयोग एक प्रतिशत से भी कम शोध पत्रों में किया गया।

आजकल जब शोध पत्रों में नस्ल शब्द का उपयोग किया जाता है तो उसके साथ ‘एथ्निसिटी’ या ‘एंसेस्ट्री’ शब्दों को जोड़ा जाता है। अन्य विशेषज्ञों का मत है कि इसकी एक वजह यह हो सकती है कि जेनेटिक्स विज्ञानी अभी भी किसी परिभाषा पर एकमत नहीं हो पाए हैं। इस संदर्भ में यूएस की नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्स, इंजीनियरिंग एंड मेडिसिन विचार-विमर्श कर रही है। अलबत्ता, एक बात साफ है कि शोधकर्ता अब मानते हैं कि नस्ल कोई जीव वैज्ञानिक धारणा नहीं बल्कि एक सामाजिक धारणा है जिसके जैविक असर होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भू-जल में रसायनों का घुलना चिंताजनक – अली खान

हाल में जारी केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 18 राज्यों के 249 ज़िलों का भूजल खारा है, जबकि 23 राज्यों के 370 ज़िलों में मानक से अधिक फ्लोराइड पाया गया है। 21 राज्यों के 154 ज़िलों में आर्सेनिक की शिकायत है। इसी तरह 24 ज़िलों के भूजल में कैडमियम, 94 ज़िलों में लेड, 341 ज़िलों में आयरन और 23 राज्यों के 423 ज़िलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा स्वीकार्य से अधिक मिली है। कृषि प्रधान राज्य उत्तर प्रदेश के 59, पंजाब के 19, हरियाणा के 21 और मध्य प्रदेश के 51 ज़िलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा अधिक पाई गई है।

बता दें कि इन ज़िलों में उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग और सिंचाई की अवैज्ञानिक तकनीक के चलते यह समस्या पैदा हो रही है। जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा पाचन क्रिया और सांस लेने की तकलीफ को बढ़ा रही है। संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में जल संसाधन मंत्रालय ने केंद्रीय भूजल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर भूजल प्रदूषण का ब्यौरा दिया। इसके मुताबिक देश के चार सौ से अधिक ज़िलों के भूजल में घातक रसायन घुलने से पीने के स्वच्छ व शुद्ध जल का गंभीर संकट पैदा हो गया है। कई ज़िलों के भूजल में पहले से ही फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन और भारी धातुएं निर्धारित मानक से अधिक थीं, वहीं ज़्यादातर ज़िलों में नाइट्रेट और आयरन की मात्रा बढ़ रही है।

भूजल में नाइट्रेट बढ़ने के पीछे मानवजनित अतिक्रमण को ज़िम्मेदार बताया गया है। उल्लेखनीय है कि उन राज्यों के भूजल में नाइट्रेट ज़्यादा बढ़ रहा है जहां सघन खेती में उर्वरकों का बेतहाशा उपयोग हो रहा है। भारी धातुओं और अन्य घातक रसायनों के जल में घुलने से पेयजल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। यदि समय रहते प्रदूषण की रोकथाम न की गई तो पेयजल संकट खड़ा हो जाएगा।

मालूम हो, प्राकृतिक संसाधन सीमित होते हैं और इनके असीमित उपयोग से संकट खड़ा होना स्वाभाविक है। मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के साम्राज्य का भयानक विनाश किया है। इसका परिणाम है कि पृथ्वी के लगभग तीन-चौथाई भाग पर जल होने के बावजूद राष्ट्र संघ की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि विश्व की आधी आबादी को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। भारत में स्थिति और भी अधिक भयावह है। ऐसी विकट परिस्थितियों में भूजल में नाइट्रेट की मात्रा का बढ़ना चिंताजनक है।

लोक सभा में लिखित उत्तर में मंत्रालय ने बताया कि 24 सितंबर 2020 की एक अधिसूचना के मुताबिक भूजल ‌की गुणवत्ता के लिए कई सख्त प्रावधान किए गए हैं। जिनमें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित करना और जलाशयों व नदियों में गंदा पानी डालने के सारे स्रोतों को बंद करना शामिल है। इसी अधिसूचना के तहत केंद्र व राज्य सरकारें संयुक्त रूप से जल जीवन मिशन का संचालन कर रहीं हैं ताकि लोगों को उनके घर तक नल से सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति की जा सके। गौरतलब है कि इस मिशन की शुरुआत अगस्त 2019 में की गई थी। इसके तहत वर्ष 2024 तक देश के सभी ग्रामीण घरों को जलापूर्ति सुनिश्चित की जानी है।

स्वास्थ्य संगठन के प्रतिवेदन के मुताबिक लगभग 80 फीसदी रोगों का कारण जल है। इसी प्रकार, आयुर्वेद के अनुसार जल कई रोगों का शामक है।

जानकारी के लिए बता दें कि नाइट्रेट नाइट्रोजन तथा ऑक्सीजन के संयोग से बने हुए ऐसे यौगिक होते हैं जो कई खाद्य पदार्थों, विशेषतः सब्ज़ियों, मांस एवं मछलियों में पाए जाते हैं। वस्तुतः नाइट्रेट जैविक नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के अंतिम उत्पाद होते हैं। पानी में नाइट्रेट की अत्यधिक घुलनशीलता तथा मृदा कणों की कम धारण क्षमता के कारण अति सिंचाई या अति वर्षा से खेतों में से बहता पानी अपने साथ नाइट्रेट को भी बहाकर कुंओं, नालों एवं नहरों में ले जाता है। इस प्रकार मनुष्य और पशुओं के पीने का पानी नाइट्रेट प्रदूषित हो जाता है।

देश की जनसंख्या के लिए अनाज उत्पादन हेतु रासायनिक उर्वरकों का अधिकतम उपयोग हो रहा है। विगत वर्षों में देश में नाइट्रोजन उर्वरकों की खपत बहुत बढ़ी है। वैज्ञानिकों ने भूजल में बढ़ती हुई नाइट्रेट सांद्रता का प्रमुख कारण नाइट्रोजन उर्वरक को ही माना है। यह भी देखा गया है कि उर्वरकों के संतुलित उपयोग की अपेक्षा मात्र नाइट्रोजन उर्वरक के उपयोग की वजह से ऐसी स्थिति पैदा होती है।

पेयजल में नाइट्रेट की अधिक सांद्रता मानव, मवेशी, जलीय जीव तथा औद्योगिक क्षेत्र को भी प्रभावित करती है। वस्तुतः नाइट्रेट स्वयं स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता है, परंतु इसके अपचयन से बने नाइट्राइट की वजह से इसकी अत्यल्प मात्रा भी घातक हो जाती है। नाइट्रेट जब जल या भोजन के माध्यम से शरीर मे प्रवेश करता है तो शरीर के जीवाणुओं द्वारा नाइट्राइट में परिवर्तित कर दिया जाता है जो एक सशक्त ऑक्सीकारक होता है। यह रक्त में हीमोग्लोबिन को मेट-हीमोग्लोबिन में बदल देता है, जिसके कारण हीमोग्लोबिन अपनी ऑक्सीजन परिवहन की क्षमता गंवा देता है। अत्यधिक रूपांतरण की स्थिति में आंतरिक श्वास-अवरोध हो सकता है जिसके लक्षण चमड़ी तथा म्यूकस झिल्ली के हरे-नीले रंग से पहचाने जा सकते हैं। इसे ब्ल्यू बेबी सिंड्रोम या साइनोसिस भी कहते हैं। छोटे बच्चों में यह रूपांतरण दुगनी गति से होता है। दूध पीते बच्चों की माताओं द्वारा उच्च नाइट्रेट युक्त जल पीने से दूध भी विषाक्त हो जाता है।

रूस के वैज्ञानिकों ने नाइट्रेट विषाक्तता के दुष्प्रभाव केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर भी देखे हैं। ये प्रभाव मात्र 105 से 182 मिलीग्राम प्रति लीटर नाइट्रेट सांद्रण पर ही दिखने लगते हैं। इसी प्रकार हृदय संवहनी तंत्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव देखे गए हैं।

नाइट्रेट के परिवर्तन से बना नाइट्राइट एन-नाइट्रोसो यौगिक बनाता है जो कैंसरकारी होते हैं। अनुसंधान से पता चला है कि उच्च नाइट्रेट युक्त जल तथा पाचन तंत्र के कैंसर में गहरा सम्बंध है। कुल मिलाकर, जल में नाइट्रेट की बढ़ती मात्रा विभिन्न रोगों को न्यौता देती है।

जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा मवेशियों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। एक अध्ययन में गाय, भैंस, बकरी जैसे दुधारू मवेशियों में नाइट्रेट विषाक्तता देखी गई है। जई, बाजरा, मक्का, गेहूं, जौ, सूडान ग्रास तथा राई ग्रास ऐसे पौधे हैं जिनमें नाइट्रेट की मात्रा अधिक होती है। यदि चारे को ऐसी भूमि में उगाया जाए जिसमें कार्बनिक तथा नाइट्रोजन तत्व अधिक हों और नाइट्रोजन उर्वरक अधिक मात्रा में प्रयोग किए गए हों तो ऐसी स्थिति में चारे में नाइट्रेट विषाक्तता अधिक हो जाती है। नाइट्रेट विषाक्तता पशुओं में जठर आंत्र शोथ उत्पन्न करती है। चारागाह में चरते पशुओं की अचानक मृत्यु भी देखी गई है। तेज़ दर्द, लार-गिरना, कभी-कभी पेट फूलना तथा बहुमूत्रता जैसे लक्षणों के साथ रोग का एकाएक प्रकोप होता है। श्वास का तेज़ी से चलना तथा श्वास में कष्ट होेना, तेज़ नाड़ी, लड़खड़ाना एवं तापमान का कम हो जाना भी इस रोग के अन्य लक्षण हैं। भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान इज़्ज़तनगर (बरेली) के वैज्ञानिकों ने पाया है कि पैरा घास या अंगोला (ब्रैकिएरिया म्यूटिका) खाने से बछड़ों में अति तीव्र नाइट्रेट विषाक्तता और बकरियों में चिरकालिक नाइट्रेट विषाक्तता हो जाती है। देश के शुष्क क्षेत्रों में गर्मियों के दिनों में प्यासे पशु जब एक साथ अत्यधिक नाइट्रेट युक्त पानी पी लेते हैं तो उनमें नाइट्रेट विषाक्तता उत्पन्न हो जाती है जो कभी-कभी उनकी मृत्यु का कारण भी बन जाती है। कई दुधारू पशुओं में नाइट्रेट युक्त पानी पीने से दुग्धस्राव में कमी एवं गर्भपात भी देखे गए हैं।

सवाल यह है कि जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा को कैसे कम किया जाए? जल में नाइट्रेट की उपस्थिति पर सरकारें गंभीर क्यों नहीं हैं? गौरतलब है कि जल राज्य सूची का विषय है। राज्य सरकारें जल में बढ़ते प्रदूषक तत्वों के प्रति ढिलाई बरत रही हैं। केंद्र सरकार का रवैया उदासीन रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि पानी को समवर्ती सूची में शामिल किया जाए। ऐसा होने पर व्यापक कार्य योजना विकसित करने में मदद मिलेगी। केंद्र और राज्यों के बीच सहमति से भूजल सहित जल का बेहतर संरक्षण, विकास और प्रबंधन संभव होगा।

जल में नाइट्रेट के कहर को देखते हुए इसके अधिक सांद्रण को कम किया जाना चाहिए। जल में नाइट्रेट की अत्यधिक घुलनशीलता के कारण इसका जल से अपनयन दुष्कर कार्य होता है। कृषि प्रधान देशों में नाइट्रेट प्रदूषण एक बड़ी समस्या बन चुका है। वर्तमान में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर हमारे देश के 16 राज्यों के भूजल में नाइट्रेट का सांद्रण 45 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक है। इनमें कई राज्यों के भूजल में कुल घुलनशील ठोस का मान भी अधिक है। पेयजल आपूर्ति में नाइट्रेट मुक्त जल प्राप्त करने हेतु वैकल्पिक विधियां अपनाए जाने की दरकार है। ऐसे क्षेत्रों में जहां जल में नाइट्रेट स्तर अधिक हो वहां नलकूप खोदकर जलापूर्ति करना, सपाट कुओं को चौड़ा करना अथवा अधिक गहराई से जल प्राप्त करने की कोशिशें होनी चाहिए। साथ ही जल संसाधन मंत्रालय को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के सहयोग से डार्क ब्लॉक्स में स्थित गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों को चिंहित करने के लिए कारगर तंत्र विकसित करना चाहिए। सतही जल और भूमिगत जल स्रोतों में औद्योगिक कचरे की डंपिंग को कम करने और नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। साथ ही केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने जिन उद्योगों को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किए हैं, उनकी नियमित निगरानी के लिए एक व्यवस्था कायम की जानी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि प्रमाण पत्र में दर्ज शर्तों का पालन किया जा रहा है। सभी राज्य प्रदूषण नियंत्रण मंडलों को उपयुक्त और प्रभावी निगरानी तंत्र गठित करना चाहिए। आज जल संरक्षण हमारा विशेष सरोकार होना चाहिए, जिससे इस समस्या को विकराल रूप धारण करने से रोका जा सके।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बालासुब्रमण्यम राममूर्ति: भारत में न्यूरोसर्जरी के जनक – नवनीत कुमार गुप्ता

हान वैज्ञानिकों के योगदान ने सदियों से भारत को पूरे विश्व में गौरवान्वित किया है। ऐसे महान लोग सदियों तक जनमानस को प्रेरित करते हैं। प्रोफेसर बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ऐसे ही बिरले वैज्ञानिकों में से थे।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति को भारत में न्यूरोसर्जरी का जनक भी कहा जाता है। न्यूरोसर्जन के अलावा वे प्रसिद्ध लेखक और संपादक भी थे। उनका शोधकार्य तंत्रिका तंत्र की चोटों, ब्रेन ट्यूमर की सर्जरी, मस्तिष्क के तपेदिक संक्रमण, तंत्रिका-कार्यिकी, स्टीरियोटैक्टिक (त्रिविम स्थान निर्धारण) सर्जरी, चेतना और बायोफीडबैक विषयों पर केंद्रित था। उन्होंने स्टीरियोटैक्टिक सर्जरी के दौरान मस्तिष्क की गहरी संरचनाओं की तंत्रिका-कार्यिकी का अध्ययन किया। इससे मिर्गी सहित मस्तिष्क सम्बंधी विभिन्न बीमारियों को अच्छे से समझा जा सका।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति संगीत और मस्तिष्क पर इसके प्रभाव में गहरी रुचि रखते थे। उन्होंने न्यूरोसर्जरी इंडिया की स्थापना की। उनकी आत्मकथा अपहिल ऑल द वे प्रेरणा का एक सतत स्रोत है।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति का जन्म 30 जनवरी 1922 सिरकाज़ी में हुआ था। उनके पिता कैप्टन टी. एस. बालासुब्रमण्यम सरकारी अस्पताल में सहायक सर्जन थे। उनके दादा के भाई जी. सुब्रमण्यम अय्यर थे, जो अंग्रेजी दैनिक दी हिंदू के संस्थापकों में से एक थे। बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने त्रिची के ईआर हाई स्कूल में अध्ययन के उपरांत मद्रास मेडिकल कॉलेज से जनरल सर्जरी में एमएस और 1947 में एडिनबरा से एफआरसीएस की उपाधि प्राप्त की।

युवा राममूर्ति को मद्रास सरकार द्वारा न्यूरोसर्जरी में प्रशिक्षण के लिए चुना गया था और वे 2 जनवरी 1949 को न्यूकैसल पहुंचे। न्यूकैसल में उन्होंने जी. एफ. रोबोथम के अधीन प्रशिक्षण प्राप्त किया, और फिर मैनचेस्टर में प्रोफेसर जेफ्री जेफरसन के साथ समय बिताया। उन्होंने युरोप में विभिन्न केंद्रों का दौरा किया। 1950 में डॉ. राममूर्ति मॉन्ट्रियल न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट में चले गए और प्रो. वाइल्डर पेनफील्ड के साथ चार महीने बिताए। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद वे अपने साथ न्यूरोसर्जरी की ब्रिटिश, अमेरिकी, कनाडाई और युरोपीय घरानों की परंपराओं को लेकर मद्रास लौट आए।

24 अक्टूबर 1950 को बालासुब्रमण्यम राममूर्ति मद्रास जनरल अस्पताल और मद्रास मेडिकल कॉलेज में न्यूरोसर्जरी में सहायक सर्जन के रूप में शामिल हुए और मद्रास में न्यूरोसर्जरी का आयोजन शुरू किया। 1970 के दशक की शुरुआत में, प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने कनाडा में मॉन्ट्रियल न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट की तर्ज पर इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोलॉजी, मद्रास की स्थापना की, जिसमें न्यूरोसाइंस की सभी शाखाएं एक छत के नीचे थीं। बड़ी बाधाओं और कठिनाइयों के खिलाफ, प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने न्यूरोसर्जिकल विभाग का निर्माण और विकास किया, जो बाद में सरकारी जनरल अस्पताल में न्यूरोलॉजी संस्थान के रूप में विकसित हुआ, जहां वे 1978 में अपनी सेवानिवृत्ति तक प्रोफेसर और प्रमुख थे। प्रो. राममूर्ति और उनकी टीम स्टीरियोटैक्टिक सर्जरी करने वाली भारत की सबसे पहली टीम बनी।

उन्होंने 1977-1978 में अडयार में स्वैच्छिक स्वास्थ्य सेवा (वीएचएस) अस्पताल में डॉ. ए. लक्ष्मीपति न्यूरोसर्जिकल सेंटर की शुरुआत की। प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने अस्पताल के डीन और मद्रास मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल और मद्रास विश्वविद्यालय के मानद कुलपति के रूप में अपने लंबे और व्यापक वर्षों के दौरान एक शिक्षक, संरक्षक और मार्गदर्शक के रूप में कार्य किया। उन्हें 1987 में वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ न्यूरोसर्जिकल सोसाइटीज़ के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। वे भारत के राष्ट्रीय चिकित्सा परीक्षा बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे।

उन्होंने डॉ. राजा सहित कई प्रतिष्ठित न्यूरोसर्जनों को प्रशिक्षित किया, जिन्हें अब कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज, मणिपाल में न्यूरोसर्जरी विभाग के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। प्रो. राममूर्ति स्वयं कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज, मणिपाल में न्यूरोसर्जरी विभाग से जुड़े रहे हैं और उन्होंने अपने छात्र डॉ. राजा को वहां न्यूरोसर्जरी विभाग में शामिल होने के लिए राजी किया, और उन्नत चिकित्सा उपकरणों के उपयोग का उद्घाटन भी किया।

सीखने और लगातार अग्रिम शोध से संपर्क में रहने की उनकी उत्सुकता इस बात में झलकती है कि 1980 के दशक में, माइक्रोसर्जिकल तकनीकों के लाभों को देखते हुए, उन्होंने पहले खुद सीखा, अभ्यास किया और फिर न्यूरोसर्जरी में माइक्रोसर्जरी की पुरज़ोर वकालत की। वे सीटी और एमआरआई स्कैन पढ़ने में उतने ही माहिर थे, जितने एक्स-रे, ईईजी, न्यूमोएन्सेफेलोग्राम, वेंट्रिकुलोग्राम और एंजियोग्राम पढ़ने में थे।

देश में मस्तिष्क अनुसंधान के समन्वय के लिए एक शीर्ष निकाय के रूप में राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र, मानेसर की स्थापना में उनकी अहम भूमिका रही। इस दिशा में उनके दो दशकों से अधिक समय के प्रयासों का फल तब मिला जब भारत के राष्ट्रपति ने औपचारिक रूप से 16 दिसंबर 2003 को नई दिल्ली के पास मानेसर में राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र का उद्घाटन किया।

वे नेशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज़, एकेडमी ऑफ साइंसेज़, इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी सहित रॉयल सोसाइटी ऑफ मेडिसिन, लंदन के फेलो थे। वे उन बिरले लोगों में से थे जिन्हें भारत की तीनों विज्ञान अकादमियों का फेलो चुना गया था। भारत के सशस्त्र बलों ने उन्हें सेना में ब्रिगेडियर के मानद पद से सम्मानित किया।

उन्हें श्री राजा-लक्ष्मी फाउंडेशन चेन्नई द्वारा 1987 में राजा-लक्ष्मी पुरस्कार के अलावा भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण और प्रतिष्ठित धनवंतरी पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। चेन्नई में राममूर्ति तंत्रिका विज्ञान संग्रहालय का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है। उन्होंने न्यूरोसर्जन्स की युवा पीढ़ी को अपने पेशेवर और व्यक्तिगत जीवन में उत्कृष्टता हासिल करने के लिए मार्गदर्शन दिया।(स्रोत फीचर्स)

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मनुष्य निर्मित पहला संकर पशु कुंगा

सीरिया के उम्म-अल-मारा खुदाई स्थल पर पुरातत्वविदों को 2006 में लगभग 3000 ईसा पूर्व के शाही कब्रगाहों के साथ गधे जैसे एक जानवर के अवशेष भी मिले थे। दफन की शैली को देखकर पुरातत्वविदों का अनुमान था कि यह जानवर दुर्लभ ‘कुंगा’ होगा, जो कांस्य युगीन मेसोपोटामिया के अभिजात्य वर्ग के लिए अत्यधिक महत्व रखता था। लेकिन अब तक इस चौपाए की वास्तविक जैविक पहचान स्पष्ट नहीं हो सकी थी। अब, प्राप्त हड्डियों के जेनेटिक विश्लेषण से पता चला है कि यह चौपाया दो प्रजातियों – एक नर जंगली गधे और पालतू मादा गधी – की संकर संतान थी। पुरातात्विक रिकॉर्ड में यह पहला मानव निर्मित संकर प्राणि है।

उस समय की कीलाक्षरी लिपि तख्तियों पर एक शक्तिशाली और नाटे कद के कुंगा का वर्णन यहां के अमीर और शक्तिशाली लोगों के पसंदीदा जानवर के तौर पर मिला है। यह ज्ञात प्रजातियों से अलग तरह का गधा था। इन तख्तियों पर पशुपालन के जटिल तरीकों के बारे में भी वर्णन मिलता है; इनमें अश्वों की दो अलग-अलग प्रजातियों का प्रजनन कराकर संकर जानवर तैयार करने का ज़िक्र है। ये तख्तियां बहुत विस्तार से जानकारी नहीं देती कि ये प्रजातियां कौन-सी थीं, और संकर संतान प्रजनन योग्य थी या नहीं। लेकिन इन पर अंकित संदेश से इतना पता चलता है कि संकर प्रजाति औसत गधों की तुलना में फुर्तीली थी।

पुरातत्वविदों को जब ये हड्डियां मिली तो वे किसी ज्ञात प्रजाति की नहीं लगीं। वैसे भी सिर्फ अवशेष देखकर यह पहचानना मुश्किल होता कि वे किस अश्व वंश की हैं, घोड़े की हैं या गधे की।

इन हड्डियों के दफन होने के स्थान और स्थिति के आधार पर पुरातत्वविदों का अनुमान था कि यह चौपाया यहां के लोगों के लिए पौराणिक महत्व रखता होगा और अवश्य ही कुंगा होगा। लेकिन वास्तव में यह कौन-सा जानवर है इसकी पुष्टि के लिए पुरातत्वविदों ने आनुवंशिकीविद ईवा-मारिया गीगल की सहायता ली। हड्डियां बहुत भुरभुरी स्थिति में थी। इसलिए गीगल और उनके दल ने इनके नाभिकीय डीएनए के विश्लेषण के लिए अत्यधिक संवेदनशील अनुक्रमण विधियों का उपयोग किया, और साथ ही उनके मातृ और पितृ वंश को भी देखा। कुंगा के डीएनए की तुलना आधुनिक घोड़ों, पालतू गधों और विलुप्त सीरियाई जंगली गधे सहित अन्य अश्व वंश के जानवरों के जीनोम से भी की गई।

साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने बताया है कि हड्डियां किसी एक अश्व प्रजाति की नहीं थी, बल्कि ये दो भिन्न प्रजातियों के संकरण की पहली पीढ़ी की संतान थी; जिसमें मादा पालतू गधा प्रजाति की और नर सीरियाई जंगली गधा प्रजाति का था।

मानव निर्मित संकर प्राणि का यह पहला दर्ज उदाहरण है। खच्चर (घोड़े और गधे का संकर) संभवतः अगला सबसे पुराना उदाहरण है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन कांस्य युगीन मेसोपोटामिया समाज की तकनीकी क्षमताओं को दर्शाता है और इन जानवरों को जीवित रखने के लिए आवश्यक संगठन और प्रबंधन तकनीकों के स्तर को भी दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)(स्रोत फीचर्स)

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बर्फ में दबा विशाल मछली प्रजनन क्षेत्र

रवरी 2021 में, एक बड़ा जर्मन शोध जहाज़ आरवी पोलरस्टर्न समुद्री जीवन का अध्ययन करने के लिए वेडेल सागर की ओर रवाना हुआ था। अध्ययन में वैज्ञानिकों को वेडेल सागर के नीचे मछलियों की सबसे बड़ी और घनी आबादी वाली प्रजनन कॉलोनी मिली है। अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पूर्व में स्थित आइसफिश की यह कॉलोनी लगभग 240 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली है जिसमें इनके अनगिनत घोंसले नियमित अंतराल पर बने हैं।

अल्फ्रेड वेगनर इंस्टीट्यूट के ऑटन पर्सर और उनके दल ने जब समुद्र सतह से आधा किलोमीटर नीचे, समुद्र के पेंदे के नज़दीक, वीडियो कैमरा और अन्य उपकरण डाले तो उन्हें वहां लगभग 75-75 सेंटीमीटर चौड़े हज़ारों आइसफिश के घोंसले दिखे। इन गोलाकार घोंसलों को वयस्क आइसफिश अपने पेल्विक फिन से बजरी और रेत को हटाकर बनाती हैं। हर घोंसले में एक वयस्क आइसफिश थी और प्रत्येक में 2100 तक अंडे थे।

सोनार तकनीक की मदद से पता लगा कि मछलियों के ये घोंसले सैकड़ों मीटर तक फैले हैं। उच्च विभेदन वाले वीडियो और कैमरों ने 12,000 से अधिक वयस्क आइसफिश (नियोपैगेटोप्सिस आयोना) को कैद किया।

लगभग 60 सेंटीमीटर लंबी यह आइसफिश अत्यधिक ठंडे वातावरण में रहने के लिए अनुकूलित है। ये एंटीफ्रीज़ किस्म के रसायनों (जो बर्फ बनने से रोकते हैं) का उत्पादन करती हैं। और इस इलाके में पानी में भरपूर ऑक्सीजन पाई जाती है जिसके चलते ये एकमात्र कशेरुकी जीव हैं जिनका रक्त हीमोग्लोबिन रहित रंगहीन होता है।

अपनी तीन यात्राओं के दौरान शोधकर्ताओं को आइसफिश के पास-पास स्थित 16,160 घोंसले दिखे। इनमें से 76 प्रतिशत घोंसलों की रक्षा एक-एक इकलौता नर कर रहा था। करंट बायोलॉजी जर्नल में शोधकर्ताओं ने अनुमान व्यक्त किया है कि यदि पूरे क्षेत्र में घोंसले इतनी ही सघनता से फैले होंगे तो लगभग 240 वर्ग किलोमीटर के दायरे में 6 करोड़ घोंसले होंगे। इनकी इतनी अधिक संख्या देखते हुए लगता है कि आइसफिश और उनके अंडे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र में प्रमुख भूमिका निभाते होंगे।

शोधकर्ताओं का कहना है कि वयस्क आइसफिश पानी की धाराओं की मदद से अंडे देने के लिए उचित जगह तलाशती होंगी, जहां का पानी जंतु-प्लवकों से समृद्ध होगा और जहां उनकी संतानों के लिए पर्याप्त भोजन मिलेगा। इसके अलावा, घोंसलों की सघनता शिकारियों से बचने में मदद करती होगी।

मछलियों की नई विशाल कॉलोनी मिलना वेडेल सागर को संरक्षित क्षेत्र बनाने का एक नया कारण है। हालांकि वेडेल सागर अब तक मछलियों के शिकार जैसी गतिविधि से सुरक्षित है, लेकिन इस सुरक्षित और पारिस्थितिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र को सुरक्षित बनाए रखने के लिए और प्रयास करने होंगे।

बहरहाल शोधकर्ता आइसफिश के प्रजनन और घोंसले बनाने सम्बंधी व्यवहार के बारे में अधिक जानने को उत्सुक व तैयार हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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