दिसंबर में केन-बेतवा लिंक परियोजना को भारत सरकार की स्वीकृति मिल गई। इस परियोजना के विषय में सरकार का दावा है कि इससे सिंचाई, पेयजल व ऊर्जा के महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त होंगे। पर संतुलित आकलन के लिए आवश्यक है कि परियोजना के सभी पक्षों पर समुचित ध्यान दिया जाए ताकि लगभग 44,000 करोड़ की इस महंगी परियोजना के लाभ-हानि पक्ष भली-भांति समझकर ही आगे बढ़ा जाए।
इस परियोजना में लगभग 21 लाख पेड़ कटने की बात सरकारी रिपोर्टों में स्वीकार की गई है तथा अच्छी गुणवत्ता के, सुरक्षित क्षेत्र के वनों के उजड़ने की बात है जिससे वन्य जीवों की बहुत क्षति होगी। हालांकि सरकार का दावा है कि वन्य जीवों की क्षति कम करने के प्रयास किए जाएंगे पर इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों के कटने की स्थिति बहुत कष्टदायक है। एक-एक वृक्ष को बहुत उपयोगी माना जाता है। वैसे तो वृक्षों की कितनी ही तरह की देन है, पर जल-संरक्षण में उनका विशेष महत्त्व है तथा जलवायु बदलाव के इस दौर में उनकी कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है।
सरकारी पक्ष का कहना है कि बुंदेलखंड के जल संकट को दूर करने में इस परियोजना की महत्वपूर्ण भूमिका होगी, पर बुंदेलखंड पर हुए अध्ययन तो बताते हैं कि यहां के जल संकट के बढ़ने का एक प्रमुख कारण वनों का उजड़ना है। इस स्थिति में जल संकट का समाधान ऐसी परियोजना से कैसे हो सकता हे जिसमें 21 लाख पेड़ कट रहे हों? विज्ञान शिक्षा केंद्र व आईआईटी दिल्ली के एक अध्ययन में भी बताया गया है कि वन-विनाश से बुंदेलखंड का जल संकट विकट हुआ है।
इसके बावजूद सरकारी पक्ष का कहना है कि केन में अतिरिक्त पानी है और बेतवा में कम पानी है, अतः केन से बेतवा में पानी पहुंचाकर जल संकट का समाधान हो सकता है। यह दावा किन आंकड़ों के आधार पर किया जा रहा है, यह अभी तक अपारदर्शिता के माहौल में स्पष्ट नहीं है। दूसरी ओर, स्थानीय लोग व कई विशेषज्ञ तक कह चुके हैं कि केन नदी में अतिरिक्त पानी नहीं है। इतना ही नहीं, हाल के वर्षों में रेत खनन के कारण केन नदी व उसकी सहायक छोटी नदियों की बहुत क्षति हुई है। उनकी जल धारण व प्रवाह क्षमता कम हुई है। यह समय केन नदी की रक्षा का है, उससे पानी कहीं और भेजने का नहीं है।
केन और बेतवा क्षेत्र एक दूसरे से लगे हुए हैं। उनमें प्रायः एक सा मौसम रहता है। सूखा पड़ता है तो दोनों में; अतिवृष्टि होती है तो दोनों में। ऐसी स्थिति में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जल भेजकर जल संकट दूर करने की बात बेमानी ही प्रतीत होती है।
केन-बेतवा लिंक परियोजना में बांध बनेगा, 230 कि.मी. की जोड़-नहर बनेगी तो लाखों पेड़ कटेंगे, लोग विस्थापित होंगे। सवाल यह है कि इस क्षति से बचते हुए ही क्यों न जल संकट का समाधान किया जाए। यह संभव भी है। बुंदेलखंड व आसपास का क्षेत्र चाहे आज जल संकट से त्रस्त है, पर यहां जल संरक्षण का समृद्ध इतिहास रहा है। बांदा, महोबा, चित्रकूट, टीकमगढ़, छतरपुर आदि स्थानों के ऐतिहासिक तालाब व जल संरक्षण-संग्रहण एक बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में हमारे सामने मौजूद हैं। इनसे पता चलता है कि स्थानीय स्थितियों के अनुसार उच्च गुणवत्ता का जल-संरक्षण कार्य कैसे होता है। इस ऐतिहासिक धरोहर का बेहतर रख-रखाव तो ज़रूरी है ही, इससे सीखते हुए बहुत से कम बजट व उच्च गुणवत्ता के जल-संरक्षण कार्य हाल के वर्षों में भी सफलता से आगे बढ़े हैं।
अतः हमें जल संकट समाधान के ऐसे उपायों की ओर ध्यान देना चाहिए जिनसे पर्यावरण, वन व जनजीवन की क्षति न हो, विस्थापन का त्रास न हो तथा साथ में जल संरक्षण का टिकाऊ कार्य भी आगे बढ़े। ऐसे विकल्प निश्चित रूप से उपलब्ध हैं। यह तथ्यात्मक स्थिति केवल केन-बेतवा लिंक परियोजना की ही नहीं है अपितु अनेक अन्य नदी-जोड़ योजनाओं की भी है। इस तरह की लगभग 30 परियोजनाएं समय-समय पर चर्चा का विषय रही हैं। हमें सभी विकल्पों पर विचार करते हुए ऐसा निर्णय लेना चाहिए जो देश के लिए सबसे हितकारी हो।
अनेक विशेषज्ञों ने समय-समय पर रिपोर्ट तैयार कर, पत्र भेज कर, बयान जारी कर यह कहा है कि केन-बेतवा लिंक परियोजना व अन्य नदी-जोड़ परियोजनाओं के बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं। सरकार को चाहिए कि वह इन सब पर उचित ध्यान देते हुए इनमें उठाए सवालों पर भी समुचित विचार करे ताकि अंत में वही निर्णय लिए जाएं जो व्यापक राष्ट्र हित में हों। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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