कोरोना काल में अनेक वैज्ञानिक शब्द समाज में प्रचलित हो गए। उनमें से एक शब्द है जीनोम अनुक्रम। जीनोम अनुक्रम के द्वारा कोरोना वायरस के प्रकारों की पहचान करने में आसानी हुई। यह हम जानते हैं कि विज्ञान में अधिकतर सिद्धांतों और विधियों का विकास अनेक वैज्ञानिकों के योगदान से संभव हो पाता है। आधुनिक विज्ञान जगत में जिन भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान अहम रहा है उनमें से प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना प्रमुख हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
प्रोफेसर खुराना ने कोशिकाओं के अन्दर आनुवंशिक सूचनाओं के प्रोटीन में अनुदित होने की प्रक्रिया को विस्तार से समझाया था। इसी प्रक्रिया के ज़रिए कोशिकाओं में विभिन्न प्रक्रियाएं सम्पन्न होती हैं। खुराना को शरीर क्रिया विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार उनके इसी कार्य के लिए प्रदान किया गया था।
हरगोविन्द खुराना चार भाइयों और एक बहन में सबसे छोटे थे। उस समय उनके गांव में सिर्फ उनका परिवार ही साक्षर था। वर्तमान पश्चिमी पंजाब के मुल्तान (पाकिस्तान) में डी.ए.वी. कॉलेज से हाईस्कूल की पढ़ाई करने के बाद, हरगोविन्द खुराना ने पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से बी.एससी. और एम.एससी. की डिग्री प्राप्त की। वे जीवन भर अपने प्रारम्भिक शिक्षकों में से रतन लाल और महान सिंह को याद करते रहे। अपने शिक्षकों के प्रति उनका सम्मान ताउम्र रहा। 1945 में उन्हें इंग्लैंड में पढ़ाई करने के लिए छात्रवृत्ति मिली। इस प्रकार अपने शोध कार्य के लिए इंग्लैंड के लिवरपूल विश्वविद्यालय चले गए। वहां उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक रॉजर एस. बीअर के निर्देशन में शोध कार्य किया। पोस्ट-डॉक्टरल अनुसंधान के लिए वे स्विट्ज़रलैंड गए। वहां 1948-1949 में उन्होंने प्रोफेसर व्लादिमीर प्रेलॉग के साथ काम किया। एक शोध छात्र के रूप में उन्होंने विज्ञान को काफी बारीकी से समझा, उन्हें विज्ञान के प्रति नया नज़रिया मिला। इसके चलते उन्होंने आजीवन बिना थके लगातार विज्ञान की सेवा की।
सन 1949 में कुछ समय के लिए वे भारत आए और 1950 में वे फिर इंग्लैंड चले गए, जहां उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रो. ए. आर. टॉड के साथ काम किया। यहीं पर उनकी रुचि न्यूक्लिक अम्लों और प्रोटीन्स में उत्पन्न हुई। 1952 में उन्हें काउंसिल ऑफ ब्रिटिश कोलम्बिया, कनाडा से नौकरी का प्रस्ताव आया और वे कनाडा चले आए। 1952 में ही उन्होंने अपने स्विटज़रलैंड के समय की दोस्त एस्थर सिब्लर से विवाह किया। 1960 में उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ आया। इस वर्ष वे शोध कार्य के लिये विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, अमेरिका आ गए। नोबेल अनुसंधान उन्होंने अमेरिका स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ एंज़ाइम्स रिसर्च में किया था। वे निरंतर शोध कार्य में आगे बढ़ते गए। 1966 में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता स्वीकार कर ली। वर्ष 1970 में उन्हें मेसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में सम्मानित अल्फ्रेड स्लोअन प्रोफेसर ऑफ केमिस्ट्री एंड बायोलॉजी का पद मिला। इस संस्थान में शोध कार्य करते हुये प्रोफेसर खुराना ने आनुवंशिकी से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्य किया। सन 2007 में वे सेवानिवृत्त हो गए। अंतिम वर्षों में वे एम.आई.टी. में एमेरिटस प्रोफेसर थे और अंतिम समय तक विद्यार्थियों से लगातार मिलते रहे।
10 नवंबर 2011 को 89 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। उस दिन मेसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी ने अपनी वेबसाइट पर घोषणा की कि रसायन शास्त्र और शरीर क्रिया विज्ञान के शिखरों में से एक प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना का सफर शून्य से शिखर तक का सफर कहा जा सकता है। उनके काम से कोशिका और उसके अंगों और उपांगों की क्रियाविधि के बारे में समझ विकसित हुई। 1953 में वॉटसन और क्रिक ने डीएनए की दोहरी कुंडली संरचना की खोज की थी जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। अलबत्ता, वॉटसन और क्रिक डीएनए से प्रोटीन निर्माण प्रक्रिया और अन्य आनुवंशिक और शारीरिक क्रियाविधियों में इसकी हिस्सेदारी के बारे में नहीं जानते थे। नीरेनबर्ग और प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना ने पहली बार स्पष्ट किया कि कैसे न्यूक्लियोटाइड्स से बनी संरचना अमीनो अम्लों को पहचानती है जो कि प्रोटीन का एक अहम हिस्सा हैं। प्रोफेसर खुराना ने आरएनए में आनुवंशिक कोड की संरचना के बारे में विस्तार से बताया।
नोबेल पुरस्कार मिलने के चार साल बाद प्रोफेसर खुराना को रासायनिक विधियों द्वारा पूर्णतः कृत्रिम जीन का निर्माण करने में सफलता प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने कई जीन्स का कृत्रिम तरीकों से निर्माण किया जिनमें से दृष्टिदोष से सम्बंधित जीन रोडोस्पिन का संश्लेषण प्रमुख था। इन खोजों ने मूलभूत विज्ञान और औद्योगिक क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। उनके कार्यों का उपयोग मूलभूत विज्ञान से लेकर औद्योगिक क्षेत्र में लगातार हो रहा है। प्रोफेसर खुराना एक सफल शिक्षक भी थे, वे हमेशा छात्रों से घिरे रहते थे। उनके एक शोध छात्र माइकल स्मिथ को 1993 में डीएनए में फेरबदल करने की तकनीक खोजने के लिए नोबेल मिला।
ऐसे महान वैज्ञानिकों और उनके कार्यों के बारे में जनमानस में जागरूकता का प्रसार करना आवश्यक है ताकि भावी पीढ़ियां इनसे प्रेरणा प्राप्त कर सके। इसी दिशा में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत विज्ञान प्रसार द्वारा प्रोफेसर खुराना सहित पांच अन्य प्रेरक वैज्ञानिकों की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में पूरे वर्ष कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इन वैज्ञानिकों में, प्रोफेसर खुराना के अलावा डॉ. जी. एन. रामचंद्रन, डॉ. येलावर्ती नायुदम्मा, प्रोफेसर बालसुब्रमण्यम राममूर्ति, डॉ. जी.एस. लड्ढा और डॉ. राजेश्वरी चटर्जी शामिल हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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